अ. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
अ. स्वतन्त्र आधार
1. कपिल मुनि - संाख्य दर्शन
सांख्य दर्शन भारत का अत्यंत प्राचीन और प्रमुख दार्शनिक संप्रदाय है इसके प्रवतर्क महर्षि कपिल थे, जिन्होने सम्भवतः सातवीं शताब्दी ई पू0 मे इस दर्शन के सूत्रो की रचना की। सांख्य शब्द का तात्पर्य सम्यक ज्ञान से है। सम्यक ज्ञान का तात्पर्य पुरूष और प्रकृति के मध्य की भिन्नता के ज्ञान से है। सांख्य दर्शन का आधार कार्य-कारण सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त को सत्कार्यवाद के नाम से जाना जाता है। कार्य-कारण सिद्धान्त के सम्मुख उठने वाले मूल प्रश्न क्या कार्य की सत्ता उत्पत्ति के पूर्व उपादान कारण मे वर्तमान रहती है? का सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद भावात्मक उत्तर है। इसके अनुसार कार्य प्रकार सत्कार्यवाद उत्पत्ति कारण मे अव्यक्त रूप मे मौजूद करता है। इस प्रकार सत्कार्यवाद उत्पत्ति के पूर्व कारण मे कार्य की सत्ता स्वीकार करता है। कार्य और कारण मे सिर्फ आकार का भेद है कारण अव्यक्त कार्य और कार्य का जो अभिव्यक्त कारण है। वस्तु के निर्माण का अर्थ अव्यक्त कार्य जो कारण मे निहित है कार्य मे पूर्णतः अभिव्यक्त होना। उत्पत्ति का अर्थ अव्यक्त का व्यक्त होना हैै और विनाश का अर्थ अव्यक्त हो जाना है। अर्थात् उत्पत्ति आविर्भाव और विनाश तिरोभाव है। सांख्य दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व कार्य का प्रवाह है। जहाँ तक विश्व के कारण का प्रश्न है तो सांख्य दर्शन न तो परमाणु को मानता है और न ही चेतना को बल्कि इसका आधार या मूल कारण प्रकृति को मानता है प्रकृति जड़ और सूक्ष्म दोनांे है परन्तु वह स्वयं कारणहीन है। सांख्य दर्शन मे प्रकृति को प्रधान जड़ माया शक्ति आदि कहा गया है। वह एक अदृश्य अव्यक्त अचेतन व्यक्त्विहीन और शाश्वत है। यद्यपि प्रकृति एक है लेकिन उसमे तीन प्रकार के गुण है सत्व, रजस् और तमस् गुण प्रकृति के तत्व या द्रव्य है। गुण अत्यंत सूक्ष्म है जिनका ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है। विश्व की प्रत्येक वस्तु मे सुख-दुःख और उदासीनता का भाव उत्पन्न करने की शक्ति मौजूद है। इन तीनों भावो का कारण तीन गुण सत्व रजस् और तमस ही है। सत्व ज्ञान का प्रतीक और श्वेत रंग का है जिससे सभी प्रकार की सुखात्मक अनुभूति होती है रजस क्रिया प्रेरक है जो वस्तुओ का भी उत्तेजित करता है। इसका रंग लाल है। तमस अज्ञान या अंधकार का प्रतीक है जो निष्क्रियता और जड़ता का द्योतक है। इसका रंग काला है ये तीनांे गुण प्रकृति के अलावा विश्व की प्रत्येक वस्तु मे अनतर्भूत है। इसलिए प्रकृति तथा विश्व की सभी वस्तुओ को त्रिगुणात्मक कहा जाता है। लेकिन किसी वस्तु में कोई एक गुण तो किसी अन्य वस्तु मे अन्य गुण प्रबल होता है। ये गुण निरंतर परिवर्तनशील है। सांख्य दर्शन पुरूष की व्यापक व्याख्या करता है। वास्तव मे अन्य दर्शनो ने जिसे आत्मा कहा है। उसे ही सांख्य ने पुरूष कहा है। पुरूष चेतन है वह सत्व रजस और तमस से शून्य है, इसीलिए उसे त्रिगुणतीत कहा गया है। वह त्राता है। सक्रिय है, अनेक कार्य कारण से मुक्त है। उसकी सत्ता स्वयं सिद्ध है। आत्मा अर्थात पुरूष शरीर से भिन्न है जहाँ शरीर भौतिक है, वही पुरूष अभौतिक अर्थात आध्यात्मिक है। वह पाप पुण्य से मुक्त अर्थात निर्गुण है। सांख्य दर्शन विश्व की उत्पत्ति के लिए ईश्वर को उत्तरदायी नहीं मानता उसके अनुसार यह संसार विकास का फल है। प्रकृति ही वह मूल तत्व है। जिससे संसार की समस्त वस्तुएँ विकसित होती है। इस प्रकार सांख्य दर्शन विकासवाद का समर्थन करता है। विकास की प्रक्रिया तभी प्रारंभ हो सकती है। जब पुरूष और पुरूष और प्रकृति का संयोग हो। अकेली प्रकृति या पुरूष विकास नहीं कर सकते क्योंकि वे क्रमशः अचेतन और निष्क्रिय है प्रकृति देखे जाने के लिए पुरूष पर और पुरूष कैवल्य अर्थात मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रकृति पर आश्रित है दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता है परन्तु विरोधी गुणो से युक्त होने के कारण दोनो का संसंर्ग अत्यंत कठिन है इस कठिनाई के समाधान के लिए सांख्य दर्शन उपमाओं का प्रयोग करता है। सांख्य का मत है कि पुरूष और प्रकृति के बीच यथार्थ संयोग नही होता अपितु सिर्फ निकटता का सम्बध होता है ज्यो ही पुरूष प्रकृति के समीप आता है। प्रकृति की साम्यवास्था भंग हो जाती है। और उसके गुणों में विरूप परिवर्तन आरम्भ हो जाता है। और उसके तीनों गुणों में परिवर्तन होने लगता है। तत्पश्चात् नये पदार्थाे का आविर्भाव होता है। सांख्य दर्शन संसार को दुःखमय मानता है। उसके अनुसार तीन प्रकार के दुुख है- आध्यात्मिक आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों दुःखों से छुटकारा ही मोक्ष तथा उसका साधन ज्ञान है। ज्ञान के द्वारा ही आत्मा और अनात्मा का भेद स्पष्ट होता है। अज्ञान ही बंधन का कारण है। इस बंधन को कर्म से नहीं तोड़ा जा सकता है। बल्कि इसके लिए ज्ञान मार्ग ही अपनाना होगा मोक्ष की अवस्था त्रिगुणातीत है। ईश्वर के सम्बंध में सांख्य दर्शन स्पष्टता नहीं दर्शाता कुछ विद्वान उसे अनीश्वरवादी और कुछ ईश्वरवादी मानते है। परन्तु उसका अनीश्वरवादी पक्ष ही अधिक मजबूत है।
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आचार्य और दर्शन
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अ. स्वतन्त्र आधार
2. पतंजलि- योग दर्शन
पतंजलि, काशी में ईशा पूर्व दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। इनका जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था, पर ये काशी में नागकूप पर बस गये थें। ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। काशीवासी आज भी श्रावण कृष्ण पंचमी (नाग पंचमी) को छोटे गुरू का, बड़े गुरू का नाग लो भाई, नाग लो कहकर नाम का चित्र बाँटते हैं क्यांेकि पतंजलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है। पतंजलि योगसूत्र के रचनाकार है जो हिन्दूओं के छः दर्शन (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) में से एक हैं। भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए 3 मुख्य ग्रन्थ मिलते हैं- योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने लिखे, अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। पतंजलि ने पाणिनी के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य (समीक्षा, टिप्पणी, विवेचना, आलोचना) का नाम दिया। पतंजलि महान चिकित्सक थे और इन्हें ही ”चरक संहिता“ का प्रणेता माना जाता है। ”योगसूत्र“ पतंजलि का महान अवदान है। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे। अभ्रक विंदास, अनेक धातु योग और लौह शास्त्र इनकी देन है। पतंजलि सम्भवतः पुष्यमित्र शुंग (195-142 ई0पू0) के शासनकाल में थे। राजा भोज इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है। पतंजलि ने पाणिनी व्याकरण के महाभाष्य की रचना कर उसे स्थिरता प्रदान की। वे अलौकिक प्रतिभा के धनी थे। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों पर भी इनका समान रूप से अधिकार था। व्याकरण शास्त्र में उनकी बात को अन्तिम प्रमाण समझा जाता है। महाभाष्य व्याकरण का ग्रन्थ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोष भी है।
पतंजलि द्वारा प्रतिपादित योग दर्शन मोक्ष प्राप्ति को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है इसकी प्राप्ति के लिए विवेक ज्ञान के साथ-साथ योगाभ्यास पर भी बल देता है। योग दर्शन सांख्य की तरह द्वैतवादी है परन्तु योग दर्शन मे ईश्वर को भी शामिल किया गया है। वास्तव मे सांख्य और योग दर्शन काफी निकटता है। योग दर्शन मे योेग के उद्देश्य स्परूप और पद्धति का विवरण मिलता है। बंधन का कारण अविवेक है प्रकृति और पुरूष की सम्भव है विवेक ज्ञान का तात्पर्य है पुरूष और प्रकृति के भेद का ज्ञान आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाना ही उसकी मुक्ति है। योग दर्शन आत्म ज्ञान अर्थात आत्मा की मुक्ति के लिए योगाभ्यास पर बल देता है। योग का अर्थ है चित्तवृत्ति का निरोध मन अहंकार और बुद्धि को चित्त कहा जाता है। जो अत्यंत चंचल है अतः इसका निरोध आवश्यक है योग दर्शन चित्तभूमि अर्थात मानसिक अवस्था के भिन्न-भिन्न रूपांे में विश्वास करता है। क्षिप्त मूढ मानसिक अवस्था निरूद्ध चित्त की पाँच अवस्थाएँ है। इनमंे से एकाग्र और निरूद्ध अवस्थाओं को ही योगाभ्यास के योग्य माना गया है चित्तवृत्ति के निरोध के लिए योग दर्शन आठ सीढियो या अष्टांग साधनों की चर्चा करता है। अष्टांग साधन है। (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान और (8) समाधि बाह्य और आभ्यांतर इंद्रियों के संयम की क्रिया को यम कहा गया है जिसके पांच प्रकार है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहाचर्य और अपरिग्रह। योग दर्शन ईश्वरवादी है। वह ईश्वर प्राणिधान अर्थात ईश्वर की भक्ति को चित्तवृत्तियों के निरोध का साधन मानता है इसीलिए योग दर्शन में ईश्वर को ध्यान का सर्वश्रेष्ठ विषय माना गया है। अर्थात योग मे ईश्वर का व्यावहारिक महत्व है। पतंजलि के अनुसार ईश्वर एक विशेष प्रकार का पुरूष है, जो दुख कर्म विकार से अछूता रहता है। वह स्वभावतः पूर्ण और अनंत है। वह अनादि असीमित शक्तिमान सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है। वह त्रिगुणातीत है। वह नित्य मुक्त है योग दर्शन एकेश्वरवाद का समर्थक अर्थात एक ईश्वर में विश्वास करता है। परन्तु उसे सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता नहीं माना गया है। बल्कि सृष्टि की रचना तो प्रकृति के विकास के फलस्वरूप हुई है। परन्तु वह सृष्टि की रचना में सहायक अश्वय रहा है। योग दर्शन ईश्वर को दयालु अन्तर्यामी वेदों का प्रणेता और धर्म ज्ञान व ऐश्वर्य का स्वामी मानता है। वह योग मार्ग में आयी बाधाओ को दूर करता है। ओउम ईश्वर का प्रतीक है।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
अ. स्वतन्त्र आधार
3. महर्षि गौतम- न्याय दर्शन
न्याय दर्शन, अत्रि ऋषि के सन्तान महर्षि गौतम जो नेवाल, दार्जिलिंग तथा सिक्किम के नेवाली ब्राह्मणों का एक वंश जो गोतामें नाम से भी जाना जाता है जिनका गोत्र अत्रि है, द्वारा प्रतिपादित न्याय दर्शन को तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, वाद्यविद्या आदि नाम प्रदान किये गये है। इस दर्शन का ज्ञान गौतम मुनि द्वारा रचित न्यायसूत्र नामक ग्रंथ द्वारा होता है। कालांतर मे वात्स्यायन, वाचस्पति मिश्र, उदयनाचार्य आदि ने भी इस दर्शन को समृद्ध बनाया न्याय का चरम उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है, जिसकी अनुभूति तत्वज्ञान अर्थात वस्तुआंे के वास्तविक स्वरूप को जानने से ही हो सकती है। इसी उद्देश्य से न्याय दर्शन में 16 पदार्थ की व्याख्या की गई है। सिद्धांत (1) प्रमाण (2) प्रमेय (3) संशय (4) प्रयोजन (5) दृष्टांत (6) सिद्धांत (7)अवयय (8) तर्क (9) निर्णय (10) वाद (11) जल्प (12) वितण्डा (13)हेत्वाभास (14) छल (15)जाति तथा (16) निग्रह स्थान। न्याय दर्शन में ज्ञान को बुद्धि या उपलब्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। व्यापक अर्थ मे ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ के ज्ञान का सूचक है। जबकि संकुचित अर्थ मे ज्ञान यथार्थ ज्ञान का ही एकमात्र बोधक होता है। ज्ञान का कार्य ज्ञेय वस्तुओं को प्रकाशित करना है। ज्ञान ही हमारे कार्य का आधार है मनुष्य सही या गलत ज्ञान के आधार पर ही कार्य करता है। साथ ही ज्ञान आत्मा का गुण है बिना आत्मा के ज्ञान संभव नहीं है। यथार्थ ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। वस्तु को उसी रूप में ग्रहण करना जिस रूप में वस्तु है। प्रमाण है इसके विपरीत अयथार्थ अनुभव को अप्रमाण कहा गया है। संशय भ्रम या तर्क अप्रमाण है। नहीं वस्तु में ऐसे गुणों की कल्पना करना जिनका वस्तु में अस्तित्व नहीं है। अप्रमाण ज्ञान है। प्रमाण की प्राप्ति का साधन प्रमाण कहलाता है। प्रमाण चार प्रकार के होते है। प्रत्यक्ष अनुमान शब्द और उपमान प्रत्यक्ष के दो भेद है। लोैकिक और अलौकिक वस्तु का इंद्रिय के साथ साधारण सम्पर्क लौकिक और अलौकिक प्रत्यक्ष कहलाता है। तथा इसके विपरीत इंद्रियों के साथ साधारण साथ ही असाधारण ढंग से सम्पर्क अलौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। न्याय दर्शन ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है। यह ईश्वर को चैतन्य से युक्त आत्मा कहता है। आत्मा के दो प्रकार हैै- जीवात्मा और परमात्मा। परमात्मा को ही ईश्वर कहा जाता है। परन्तु ईश्वर जीवात्मा से पूर्णत भिन्न है जहाँ ईश्वर का ज्ञान नित्य है, वही जीवात्मा का ज्ञान जबकि आंशिक और सीमित है। ईश्वर सभी प्रकार की पूर्णता से युक्त है जबकि जीवात्मा अपूर्ण है। ईश्वर न बद्ध है, न मुक्त इसके विपरीत जीवात्मा पहले बंधन में रहता है। और बाद में मुक्त होता है। ईश्वर विश्व का स्त्रष्टा पालक और संहारक है, वह अनन्त है और अनन्त गंुणों से युक्त है। उसके अनन्त गुणों में से छः गुण अधिक प्रधान है। (1) आधिपत्य (2) वार्य (3) यश (4) श्री (5) ज्ञान और (6) वैराग्य। ये छः गुण षडैश्वर्य कहलाते है। ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए न्याय दर्शन कारणाश्रित नैतिक वेदों पर आधारित तथा श्रुतियों की आप्तता पर आधारित तर्क प्रस्तुत करता है। न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा एक द्रव्य है। सुख-दुःख, राग-द्वेष, इच्छा-प्रयत्न, ज्ञान, धर्म-अर्धम आदि आत्मा के गुण है। वह स्वरूपतः अचेतन है तथा उसमें चेतना का संचार उस विशेष परिस्थिति मंे ही होता है, जब आत्मा का मन के साथ मन का इंद्रियो का वाह्य जगत के साथ सम्पर्क होता है। इस प्रकार चैतन्य आत्मा का आगंतुक गुंण है आत्मा एक ज्ञाता है, एक भोक्ता है, कर्ता है, जो सुख दुःख का अनुभव करता है। वह नित्य अविनाशी है वह कर्म नियम के अधीन है यह विभु है आत्माओं की संख्या अनन्त है। प्रत्येक शरीर में एक भिन्न आत्मा रहता है। आत्मा शरीर इन्द्रिय और मन से भिन्न है परन्तु अज्ञान के कारण वह इनसे अपने को अभिन्न समझती है। यही बन्धन है जिसके कारण वह दुःखांे के अधीन रहता है। बन्धन का अन्त ही मोक्ष है। गौतम दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद को ही मोक्ष कहते है। उल्लेखनीय है कि मोक्ष की अवस्था में आत्मा के दुःखांे के साथ-साथ उसके सुखों का भी अंत हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए न्याय दर्शन श्रवण मनन और निदिध्यासन पर बल देता है।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
अ. स्वतन्त्र आधार
4. कणाद- वैशेषिक दर्शन
वैशेषिक दर्शन वेद की प्रामाणिकता मे विश्वास करने के कारण आस्तिक दर्शन कहा जाता है। इसके प्रणेता कणाद या उलूक थे। इस दर्शन मे विशेष नामक पदार्थ की व्याख्या होने के कारण ही इसे वैशेषिक दर्शन नाम प्रदान किया गया है। इस दर्शन का ज्ञान वैशेषिक सूत्र द्वारा होता है। न्याय तथा वैशेषिक दर्शन एक दूसरे पर निर्भर है इसलिए इन्हे समान तंत्र भी कहते है। दोनों ने मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य कहा है। परन्तु न्याय दर्शन के प्रमाणशास्त्र और तर्कशास्त्र के विपरीत वैशेषिक दर्शन तत्वशास्त्र न्याय का प्रतिपादन करता है। वैशेषिक दर्शन मे पदार्थाे की मीमांसा हुई है पदार्थ का अर्थ है जिसका नामकरण हो सके। यह दर्शन पदार्थ को दो भागो मे बांटता है। भाव पदार्थ और अभाव पदार्थ भाव। पदार्थ छः है। द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष और समवाय अभाव पदार्थ मे अभाव को रखा गया है। जिसकी व्याख्या वैशेषिक सूत्र नहीं करता। द्रव्य नौ प्रकार के होते है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश, दिक्, काल, आत्मा और मन इनमें से प्रथम पांच को पंचभूत कहा जाता है। जिनकी अनुभूति इंद्रियो से होती है। वैशेषिक दर्शन मंे आत्मा उस द्रव्य को कहा गया है जो चैतन्य या ज्ञान का आधार होता है। आत्मा दो प्रकार की है। जीवात्मा और परमात्मा जीवात्मा की चेतना सीमित है जबकि परमात्मा की असीमित। जीवात्मा अनेक हैं परन्तु परमात्मा एक है। परमात्मा ईश्वर का ही दूसरा नाम है। ज्ञान सुख-दुःख इच्छा, धर्म-अधर्म आदि आत्मा के विशेष गुण है। आत्मा अमर अनादि और अनन्त है। असीमित चेतना वाले ईश्वर ने विश्व की सृष्टि की वेदों की रचना की। वह जीवात्मा को उसके कार्याे के अनुसार सुख-दुःख देता है अर्थात वह कर्म फलदाता है। आत्मा की सत्ता और ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए वैशेषिक दर्शन मे अनेक युक्तियों का उपयोग किया गया है। विश्व को कार्य मानकर इसके कारण के रूप मे ईश्वर की स्थापना हुई है। ईश्वर को अदृश्य नियम का संचालक माना गया है। वैशेषिक दर्शन का दूसरा पदार्थ गुण है। जो द्रव्य में निवास करता है। अतः गुण अकेला नहीं पाया जा सकता। साथ ही गुण-गुण से शून्य होता है। उसमे कर्म या गति का अभाव है। वैशेषिक दर्शन में 24 प्रकार के गुण माने जाते है। वैशेषिक दर्शन का तीसरा पदार्थ कर्म है। कर्म मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। पाँच मूर्त द्रव्यांे पृथ्वी, जल, वायु अग्नि और मन में ही कर्म का निवास होता है। सर्वव्यापी द्रव्यों के कर्म का निवास नहीं होता क्यांेकि वे स्थान परिवर्तन नहीं करते। इस प्रकार कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप होता है। जबकि गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है। गुरूत्व तरलता भावना तथा संयोग चार उपाधियों के कारण कर्म का होना प्रमाणित होता है। वैशेषिक दर्शन पाँच प्रकार के कर्म मानता है। उत्क्षेपन, अवक्षेपन, आकंुचन, प्रसारण तथा गमन। सामान्य वैशेषिक दर्शन का चैथा पदार्थ है। यह वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों को एक जाति के अंदर रखा जाता है। वैशेषिक दर्शन का पाँचवा पदार्थ है जो सामान्य के ठीक विपरीत है। यह नित्य द्रव्य की वह विशिष्टता है। इस दर्शन का छठा पदार्थ समवाय है समवाय वह सम्बन्ध है, जिसके कारण दो पदार्थ एक दूसरे मे समवेत रहते है। इन दोनों पदार्थो का एक दूसरे से पृथक होकर अस्तित्व ही नहीं रह सकता जैसे गुण और द्रव्य कर्म और द्रव्य आदि वैशेषिक दर्शन का सातवाँ पदार्थ अभाव है। अभाव का अर्थ किसी वस्तु विेशेष की किसी विशेष काल में किसी विशेष स्थान में अनुपस्थिति है। अभाव का तात्पर्य शून्य नहीं है। वैशेषिक दर्शन विश्व का निर्माण परमाणुओ से हुआ मानता है। ये परमाणु चार प्रकार के है। पृथ्वी के परमाणु, जल के परमाणु, वायु के परमाणु और अग्नि के परमाणु। इसलिए वैशेषिक का सृष्टि संबंधीमत परमाणुवाद का सिद्धान्त कहलाता है परमाणु शाश्वत होते है। ये निष्क्रिय तथा गतिहीन है। जीवात्माआंे का अदृश्ट अथवा ईश्वर ही परमाणुआंे को गति प्रदान करता है। इसी गति से सृष्टि और प्रलय होता है।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
अ. कर्मकाण्ड पर आधारित
जैमिनि-मीमांसा दर्शन
जैमिनि, वेदव्यास के शिष्य थे। महाभारत में लिखा है कि वेद को चार भागों में विस्तार करने के कारण वेदव्यास (वेद विस्तार) नाम पड़ा। इन्होंने जैमिनि कों सामवेद की शिक्षा दी तथा महाभारत भी पढ़ाया। इन्हीं वेदव्यास ने उपनिषदों के आधार पर ब्रह्मसूत्रों की रचना की। इसी को ”भिक्षुसूत्र“ भी कहते हैं। जिसका उल्लेख पाणिनी ने अष्टाध्यायी में किया है। इन प्रसंगों से यह स्पष्ट है कि जैमिनि वेदव्यास के समकालिन ऋषि थे। वेदव्यास ने कौरवों और पाण्डवों को साक्षात् देखा था। अतएव ये महाभारत के युद्ध-काल में रहे होगें। पाणिनी ने अपनी अष्टध्यायी में जिस भिक्षुसूत्र का उल्लेख किया है उसके रचयिता भी यही वेदव्यास हैं जिन्हंे बादरायण व्यास भी हम कहते हैं और इसलिए यह बादरायण सूत्र भी कहलाता है। सत्यव्रत सामाश्रमी का कहना है कि जैमिनी निश्रक्तकार यास्क के पूर्ववर्ती हैं। यास्क, पाणिनी के पूर्ववर्ती हैं। सामाश्रमी ने यास्क को ईसा से पूर्व 19वीं सदी में माना है। महाभारत का ”अश्वमेध पर्व“ तो जैमिनि के ही नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जैमिनी ने अपने पूर्वमीमांसा सूत्र में पाँच बार बादरायण के मत का, उनका नाम लेकर उल्लेख किया है। इस प्रकार वेदव्यास के साथ जैमिनि का घनिष्ठ सम्बन्ध रखना प्रमाणित होता है। अतएंव दोनों एक ही काल में रहे होंगे, ऐसा सिद्धान्त मानने में दोष नहीं मालूम होता। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार ईसा से 3 हजार वर्ष पूर्व जैमिनि का समय कहने में कोई विशेष आपत्ति नहीं मालूम होती।
मीमांसा एक आस्तिक दर्शन है। जो वेदांे पर पूर्णतः आधारित है यह वेदांे के कर्म कांड की मीमांसा करता है। वास्तव मंे इस दर्शन का विकास कर्म की यथार्थता अर्थात हवन यज्ञ बलि आदि की महत्ता को प्रमाणित करने के लिए ही हुआ है। इसके प्रवर्तक जैमिनि थे। जिन्हांेने मीमांसा सूत्र में इस दर्शन की रूप रेखा स्पष्ट की है। कालांतर में मीमांसा के दो सम्प्रदाय हो गये जिनमे से एक के प्रणेता कुमारिल भट्ट और दूसरे के प्रभाकर मिश्र थे। मीमांसा दर्शन में छः प्रमाण माने गये है। प्रत्यक्ष अनुमान उपमान शब्द अर्थापत्ति किसी विषय की कल्पना और अनुपलब्धि प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य पाँचो परोक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष ज्ञान वह है जिसमें विषय की साक्षात् प्रतीति होती है। और यह तभी होता है जब इंद्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। मीमांसा दर्शन में ज्ञान को स्वतः प्रमाण माना गया है। प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणांे के द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान का प्रामाण्य उस ज्ञान की उत्पादक सामग्री में ही विद्यमान रहता है। साधारणतः दूसरे ज्ञान के द्वारा यह मालूम होता है कि ज्ञान भ्रमपूर्ण है अर्थात उस ज्ञान के आधार में दोष से ही ज्ञान के मिथ्या होने का अनुमान किया जाता है। प्रभाकर के अुनसार जिसे भ्रम कहा जाता है वह दो ज्ञानों का संयोजन हैं, वे दो ज्ञान है। लम्बी टेढ़ी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान और पूर्वकाल में प्रत्यक्ष की हुई सांप की स्मृति, स्मृति दोष के कारण व्यक्ति यह भूल जाता है। वह साँप का विषय है। अर्थात प्रत्यक्ष और स्मृति के भेद के ज्ञान के अभाव के कारण मात्र है। इस मत को अख्यातिवाद कहते है। मीमांसा दर्शन जगत और उसके समस्त विषयांे को सत्य मानता है। यह जगत के अलावा आत्मा स्वर्ग नरक वैदिक देवों के अस्तित्व को भी स्वीकार करता है। यह परमाणु की सत्ता को मानता है। परमाणु आत्मा की तरह नित्य है परन्तु वह ईश्वर द्वारा संचालित नहीं है। मीमांसा के अनुसार परमाणु कर्म के नियम द्वारा गतिशील होते है। इसके परिणामस्वरूप यह संसार जीवात्माआंे को कर्म फल का भोग कराने योग्य बन जाता है। प्रभाकर ने सात पदार्थाे का उल्लेख किया है। द्रव्य गुण कर्म सामान्य परतंत्रता शक्ति और सादृश्य मीमांसा दर्शन आत्मा को एक द्रव्य मानता है जो चैतन्य गुण का आधार है। इस प्रकार चेतना आत्मा का स्वभाव नहीं बल्कि गुण है अर्थात चैतन्य आत्मा का आगंतुक गुण है। आत्मा का सम्पर्क मन इंद्रियों से होने पर ही उसमे चैतन्य का उदय होता है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा चेतन शून्य या सभी विश्ेाष गुणांे से रहित हो जाती है। आत्मा अमर है। वह नित्य है, ज्ञाता है और स्मृति का कर्ता है। आत्मा अनेक है। उसके नौ विशेष गुण है। सुख, दुःख इच्छा, प्रयत्न, द्वेश, धर्म, अधर्म, संस्कार और बुद्धि। आत्मा का ज्ञान अहं वित्ति से होता है। मीमांसा दर्शन ईश्वर को गौण स्थान देता है। वह देवताओं को सिर्फ बलि ग्रहण करने वाला माना है। उसकी उपयोगिता सिर्फ इतनी है कि उसके नाम पर होम किया जाता है। अनेक देवताओं का अस्तित्व स्वीकार करने के कारण मीमांसा को अनेकेश्वरवादी कहा जाता है। बाद के मीमांसाको ने ईश्वर को कुछ महत्व दिया है और उसे कर्म फल दाता माना है। जैमिनि स्वर्ग को जीवन का चरम लक्ष्य मानते है। स्वर्ग की प्राप्ति कर्म के द्वारा ही सम्भव है। धर्म सम्मत कर्म करने चाहिए अन्य शब्दांे में मीमांसा वैदिक कर्मकांडो को ही धर्म मानती है। कालांतर मंे बाद के मीमांसाको ने स्वर्ग के बजाय मोक्ष को चरम लक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वे आत्मा को स्वभावतः अचेतन मानते है। और उसके शरीर इंद्रिय मन आदि से संयोग के उपरांत ही उसमे चेतना के संचार की बात करते है। मोक्ष प्राप्ति के पश्चात आत्मा का सम्पर्क शरीर मन इंद्रिय आदि से टूट जाता है। मोक्ष की अवस्था मंे आत्मा चैतन्य से शून्य हो जाती है। यह दुःख के अभाव की अवस्था है। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान और कर्म से सम्भव है।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
ब. ज्ञानकाण्ड अर्थात उपनिषद् पर आधारित
वेदान्त (वेदांत), जिसका शाब्दिक अर्थ है- वेदों का अन्त (अथवा सार)। हिन्दू दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण शाखा है। यह ज्ञानयोग की एक शाखा है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद् है जो वेद ग्रन्थों और अरण्यक ग्रन्थों का सार समझे जाते हैं। वेदान्त की तीन शाखाएँ जो सबसे ज्यादा जानी जाती हैं वे हैं- अद्वैत वेदान्त, विशिष्टाद्वैत वेदान्त और द्वैत वेदान्त। आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य, जिनको क्रमशः इन तीनों शाखाओं का प्रवर्तक माना जाता है। इनके अलावा भी ज्ञानयोग की अन्य शाखाएँ हैं। ये शाखाएँ अपने प्रवर्तकों के नाम से जानी जाती हैं जिनमें भास्कर, वल्लभ, चैतन्य, निम्बारक, वाचस्पति मिश्र, सुरेश्वर और विज्ञान भिक्षु मुख्य हैं। आधुनिक काल में जो प्रमुख वेदान्ती हुये हैं उनमें रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, अरविन्द घोष, स्वामी शिवानन्द और रमण महर्षि उल्लेखनीय हैं। ये आधुनिक विचारक अद्वैत वेदान्त शाखा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरे वेदान्तों के प्रवर्तकों ने भी अपने विचारों को भारत में भलिभाँति प्रचारित किया है परन्तु भारत के बाहर उन्हें बहुत कम जाना जाता है। ऐतिहासिक रूप से किसी गुरू के लिए आचार्य बनने या समझे जाने के लिए वेदान्त की पुस्तकों पर टीकाएँ या भाष्य लिखने पड़ते हैं। इन पुस्तकों में तीन महत्वपूर्ण पुस्तक शामिल है- उपनिषद्, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र। तद्नुसार आदि शंकराचार्य, रामानुज और मध्वाचार्य तीनों ने इन तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों पर विशिष्ट रचनायें दी हैं।
1. द्वैताद्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद् निम्बार्काचार्य
2. अद्वैत वेदंात दर्शन - आदि शंकराचार्र्य
3. विशिष्टाद्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद् रामानुजाचार्य
4. द्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद् माध्वाचार्य
5. शुद्धाद्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद् वल्लभाचार्य
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
ब. ज्ञानकाण्ड अर्थात उपनिषद् पर आधारित
1. द्वैताद्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद् निम्बार्काचार्य
परिचय -
सनातन संस्कृति की आत्मा श्रीकृष्ण को उपास्य के रूप में स्थापित करने वाले निम्बार्काचार्य वैष्णवाचार्यो में प्रचीनतम माने जाते हैं। राधा-कृष्ण की युगलोपासना को प्रतिष्ठापित करने वाले निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। भक्तों की मान्यतानुसार निम्बार्काचार्य का आविर्भाव काल द्वापरान्त में कृष्ण के प्रपौत्र ब्रजनाभ और परीक्षित पुत्र जनमेजय के समकालीन बताया जाता है। इनके पिता अरूण ऋषि की, श्रीमद्भागवत में परीक्षित की भागवतकथा श्रवण के प्रसंग सहित अनेक स्थानों पर उपस्थिति को विशेष रूप से बतलाया गया है। हालांकि आधुनिक शोधकर्ता निम्बार्काचार्य के काल को विक्रम की 5वीं सदी से 12वीं सदी के बीच सिद्ध करते हैं। सम्प्रदाय की मान्यतानुसार इन्हें भगवान के प्रमुख आयुध ”सुदर्शन“ का अवतार माना जाता है। इनका जन्म वैदुर्यपत्तन (दक्षिण काशी) के अरूणाश्रण में हुआ था। इनके पिता अरूण मुनि और इनकी माता का नाम जयंती था। जन्म के समय इनका नाम नियमानन्द रखा गया और बाल्यकाल में ही ये ब्रज में आकर बस गये। मान्यतानुसार अपने गुरू नारद की आज्ञा से नियमानन्द ने गोवर्धन की तलहटी को अपनी साधना स्थली बनाया। बचपन से ही यह बालक बड़ा चमत्कारी था। एक बार गोवर्धन स्थित इनके आश्रम में एक दिवाभोजी यति (केवल दिन में भोजन करने वाला सन्यासी) आया। स्वाभाविक रूप से शास्त्र चर्चा हुई पर इसमें काफी समय व्यतीत हो गया और सूर्यास्त हो गया। यति बिना भोजन किये जाने लगा। तब बालक नियमानन्द ने नीम के वृक्ष की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है, आप भोजन करके ही जाएँ। लेकिन यति जैसे ही भोजन करके उठा तो देखा कि रात्रि के दो पहर बीत चुके हेैं। तभी से इस बालक का नाम ”निम्बार्क“, यानि निम्ब (नीम का पेड़) पर अर्क (सूर्य) के दर्शन कराने वाला हो गया। निम्बार्काचार्य ने ब्रह्मसूत्र, उपनिषद् और गीता पर अपनी टीका लिखकर अपना समग्र दर्शन प्रस्तुत किया। इनकी यह टीका वेदान्त परिजात सौरभ (दसश्लोकी) के नाम से प्रसिद्ध है। इनका मत ”द्वैताद्वैत“ या ”भेदाभेद“ के नाम से जाना जाता हे। निम्बार्काचार्य के अनुसार जीव, जगत और ब्रह्म में वास्तविक रूप से भेदाभेद सम्बन्ध है। निम्बार्काचार्य इन तीनों के अस्तित्व को उनके स्वभाव, गुण और अभिव्यक्ति के कारण भिन्न (पृथक) मानते हैं तो तात्विक रूप से एक होने के कारण तीनों को अभिन्न मानते हैं। निम्बार्काचार्य के अनुसार उपास्य राधाकृष्ण ही पूर्ण ब्रह्म हैं। डाॅ0 सर्वपल्ली राधाकृश्णन ने अपनी सुविख्यात पुस्तक ”भारतीय दर्शन“ में निम्बार्काचार्य और उनके दर्शन की चर्चा करते हुए लिखा है कि- ”निम्बार्काचार्य की दृष्टि में भक्ति का तात्पर्य उपासना न होकर प्रेम अनुराग है। प्रभु सदा अपने अनुरक्त भक्त के हित साधन के लिए प्रस्तुत रहते हैं। भक्तियुक्त कर्म ही ब्रह्मज्ञान प्राप्ति का साधन है।“ सलेमाबाद (जिला अजमेर) के राधामाधव मन्दिर, वृन्दावन के निम्बार्क-कोट, नीमगाँव (गोवर्धन) सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में निम्बार्काचार्य जयंती विशेष समारोहपूर्वक मनायी जाती है।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
ब. ज्ञानकाण्ड अर्थात उपनिषद् पर आधारित
2. अद्वैत वेदंात दर्शन - आदि शंकराचार्य
परिचय -
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भगवद्गीता मंे कथित वचन- ”जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अवतार धारणा करता हूँ“ को चरितार्थ करने हमारी पावन मातृभूमि भारतवर्ष में विभिन्नकाल में तेजस्वी सन्त और महापुरूष अवतरित होते रहे है। एक बार पुनः इसी वचन को हम दक्षिण भारत में केरल राज्य के कालडी नामक ग्राम में आठवीं शताब्दी ई0 मंे पूर्ण होता हुआ पाते है। जब श्रीशंकर ने सनातनी नम्बूदरी ब्राह्मण दम्पति विशिष्टा और शिवगुरू के घर मंे जन्म लिया। आठ वर्ष की आयु मंे शंकर का उपनयन -संस्कार हो गया था, पर इसके पूर्व ही उन्होंने पण्डितों को आश्चर्यचकित करते हुए अनेक धर्मग्रन्थांे में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। सोलह वर्ष की अल्पायु मंे ही शिक्षा पूरी करके उन्हांेने षट्दर्शन का सांगोपांग अध्ययन कर लिया। फलतः उनका मन बाह्य जगत से पूर्णतया विरक्त हो गया। अब उन्हांेने संन्यास ग्रहण करने का निश्चय कर लिया। उनके इस संकल्प में उनकी प्रिय एवं वात्सल्यपूर्ण माँ ही एक बड़ा अवरोध थी। क्यांेकि अपनी माँ का वे अत्यधिक आदर करते थे। वैराग्य और प्रेम में द्वन्द्व खड़ा हो गया किन्तु शंकर को तो सर्वाेच्च कोटि का अखिल विश्व का धर्मगुरू होना था। अतः कुछ विचित्र परिस्थितियांे के उत्पन्न हो जाने से उन्हें माँ की सन्यासी होने की आज्ञा मिल गयी। शंकर ने अपनी माँ को वचन दिया था- ”यद्यपि मंै एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करने जा रहा हूँ किन्तु तुम्हारे जीवन के अन्तिम दिनांे मंे तुम्हारे पास ही होउगाँ।“ तीव्र वैराग्य भाव से उत्तप्त आसक्ति के अन्तिम बन्धन को छिन्न करके शंकर नर्मदातट पर पहँुचे और वहाँ उन्हांेने विख्यात गौड़पाद के आत्मज्ञानी शिष्य गोविन्दपाद की शिष्यता ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात गुरूश्रेष्ठ गोविन्दपाद ने शंकर को भगवान वेदव्यास के वेदान्तसूत्रांे पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। इन महत्कार्य को सम्पादित करके आचार्य शंकर दिग्विजय यात्रा पर निकल पड़े। हिमालय से कन्याकुमारी और कश्मीर से आसाम में कामरूप तक उन्हांेने पैदल भ्रमण किया। इस महान यात्रा में उन्हांेने लगभग सभी समकालीन प्रकाण्ड विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। पराजित विद्वानांे मंे से अधिकांश उनके शिष्य या अनुयायी हो गये। आचार्य शंकर की सब से बड़ी विजय थी, प्रकाण्ड विद्वान एवं महान कर्मकाण्डी मण्डन मिश्र तथा उनकी तत्सम् विद्वान धर्म पत्नी उभय भारती को पराजित करना। यह दम्पत्ति वैदिक कर्मकाण्ड के कट्टर अनुयायी थे। कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। शास्त्रार्थ की पूर्व शर्त के अनुसार मण्डन मिश्र, आचार्य शंकर के प्रमुख चार शिष्य मंे गौरवशाली स्थान प्राप्त हुआ। सन्यास ग्रहण करने के बाद उनका नामकरण सुरेश्वराचार्य हो गया। आचार्य शंकर के अन्य तीन शिष्य थें- पद्मपाद, तोटकाचार्य और हस्तामलक। आचार्य शंकर के उस समय के सबसे प्रबल विरोधी सम्भवतः बौद्ध ही जो वैदिक धर्म के समस्त रूपों का विरोध ही करते थे। किन्तु अन्ततोगत्वा आचार्य शंकर ने अपनी दिव्य वाग्मिता से उन सभी को पराभूत किया और उनमें से अधिकांश तो उनके अनुयायी बन गये। अद्वैत वेदान्त की महिमा और श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित कर देने के बाद आचार्य शंकर ने भारत की चार दिशाओं मंे चार मठ स्थापित किये। पूर्व मंे जगन्नाथपुरी मंे गोवर्धन मठ, उत्तर में हिमालय बद्रीकाश्रम में जोशी या ज्योतिर्मठ, पश्चिम मंे द्वारका में शारदा मठ और दक्षिण में कर्नाटक राज्य के अन्तर्गत श्रृंगेरी मठ। इन मठों मंे उन्हांेने अपने उपरोक्त चार प्रमुख शिष्यांे को उनका पीठाधिपति नियुक्त किया। आज भी ये मठ अध्यात्मविद्या के केन्द्र हंै जहाँ पर सहस्त्रों ज्ञानपिपासु जाते रहते हैं। आचार्य शंकर ने संन्यासियों की दस सुविख्यात श्रेणियाँ भी स्थापित की जो गिरी, पुरी, भारती, सरस्वती, तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, पर्वत और सागर नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्मसूत्र, ग्यारह प्रमुख उपनिषदों और भगवद्गीता पर भाष्य लिखकर आचार्य शंकर अमर हो गये हंै। आचार्य शंकर निर्विवाद रूप से वेदान्त दर्शन के सब से महान आचार्य हैं। उन्हांेने अपनी तीक्ष्ण मीमांसा द्वारा वेदान्त का सार लेकर उस अद्भुत अद्वैत तत्वज्ञान को प्रतिपादित किया जो उपनिषदों मंे निहित है। उन्हांेने ब्रह्मविषयक परस्परविरोधी व्याख्याआंे मंे ऐक्य स्थापित करके यह दर्शाया कि चिरन्तन सत्य केवल एक है। उनकी मान्यता थी चँूकि चढ़ाई के मार्ग पर व्यक्ति धीरे धीरे ही गमन कर सकता है। तदनुरूप विभिन्न व्यक्तियांे की क्षमता के अनुसार विभिन्न साधनमार्ग हंै। उनके प्रख्यात प्रकरणग्रन्थांे से उदाहरणार्थ विवेकचूड़ामणि तथा अपरोक्षानुभूति आदि से उनके अगाध ज्ञान और अपरिमित कल्पनाशक्ति का पता चलता है। आचार्य शंकर के ये ग्रन्थ आध्यात्मिक साधको के लिए आवश्यक पथप्रदर्शक हैं। शंकराचार्य यद्यपि पूर्णतया अद्वैतवादी थे, किन्तु उनका अन्तःकरण प्रगाढ़ भक्ति से ओतप्रोत था। उनके द्वारा विरचित अद्वितीय स्तोत्र भक्ति एवं वैराग्य की भावना से ऐसे परिपूर्ण है कि इनसे पाषाणहृदय भी द्रवित हो उठे। अपने अद्वैत दर्शन द्वारा सारे देश को प्लावित करके एवं धर्म मंे युगान्तरकारी सुधार ले आने के उपरान्त आचार्य शंकर सन 830 में बत्तीस वर्ष की आयु मंे हिमालय पर्वत पर केदारनाथ महासमाधि मंे लीन हो गये। आज सैकड़ो वर्षो के बाद भी भारत के धार्मिक जीवन पर उनके व्यापक एवं प्रभावशाली कार्याे का सफल प्रभाव पूर्णतः विद्यमान है। वे हमंे निरन्तर प्र्रेरित करते रहे तथा उनके द्वारा हमारा मार्गदर्शन होता रहे यही हमारी ऐकान्तिक कामना है।
आचार्य शंकर पर स्वामी विवेकानन्द के कुछ शब्द - ‘‘.......और इस बार प्राकट्य दक्षिण में हुआ। एक ब्राह्मण बालक उत्थित हुआ, जिसके विषय मंे कहा जाता है कि उसने सोलह वर्ष की आयु मंे अपना समस्त लेखनकार्य भाष्यरचना आदि सम्पूर्ण कर लिया था। यह असाधारण बालक शंकराचार्य थे। इस सोलह वर्षीय बालक द्वारा लिखे ग्रन्थ आधुनिक जगत् के लिए एक महान आश्चर्य है, और ऐसा ही वह बालक था। उनकी अभिलाषा यही थी कि भारतवर्ष मंे पुरातन पावन परम्पराआंे का पुनः स्थापना हो। विचार करने की बात है कि उस बालक के सम्मुख कितना महान कार्य था। आचार्य शंकर एक महान तत्वज्ञानी थे। उन्हांेने यह स्पष्ट किया कि बौद्ध धर्म का सार तत्वतः वेदान्त दर्शन से भिन्न नहीं है। शंकर की सर्वाेपरि गरिमा उनका गीता का प्रचार है। उस महापुरूष ने अपने उदात्त जीवन मंे अनेक महान कार्य किये किन्तु गीता का प्रचार और गीता पर उनका उत्कृष्ट भाष्य उनके सर्वाेत्तम कार्याे मंे से है। आचार्य शंकर ने वेदांे के सनातन धर्म की पूर्ण रक्षा की। अनेक अनुयायी उन्हंे शिव का अवतार मानते है.....तुम्हंे शंकर का अनुसरण करना चाहिए।
श्री शंकराचार्य की वाणी
जिस प्रकार अँधेरे मंे पड़ी रस्सी से सर्प की कल्पना कर ली जाती है तथा शुक्ति या सीपी को चाँदी का टुकड़ा समझ लिया जाता है। उसी प्रकार अज्ञानी पुरूष देह को ही आत्मा मान लेता है। आत्मा वस्तुतः एक और निरवयव है। उसके विपरीत देह अनेक अंगो की बनी है, फिर भी आश्चर्य! लोग दोनांे को एक ही मानते है, भला इससे बढ़कर अज्ञान और क्या हो सकता है। अज्ञानी पुरूष फल की अभिलाषा से कर्म मंे प्रवृत्त होता है। सतत चिन्तन से इस भाव की उत्पत्ति होती है कि मै ब्रह्म हूँ और वह अज्ञान एवं उसके कार्याे का नाश कर देता है। यह वैसे ही होता है जैसे रसायन औषधि रोग का नाश कर देता है। मन से बाहर अज्ञान का अस्तित्व नहीं है। केवल मन ही अविद्या है, वही समस्त बन्धनों एवं पुनर्जन्म का कारण है। जब मन नष्ट हो जाता है तो सारे प्रपंच नष्ट हो जाते है। जिस प्रकार पीलिया या पाण्डुरोग के रोगी को श्वेत वस्तुएँ भी पीली दिखाई देती हंै उसी प्रकार अज्ञान के कारण मनुष्य आत्मा को देहरूप देखता है। ब्रह्म के साथ आत्मा के ऐक्य की अनुभूति से ही मुक्ति सम्भव है। योग, सांख्य, कर्म, विद्या अथवा अन्य किसी उपाय से वह सम्भव नहीं। मैं देवाधिदेव हँू, मैं द्वेश और ईष्र्या के स्पर्श मात्र से अलिप्त हूँ, मंै वह जो मुमुक्षु साधको की कामना पूर्ण करता हूँ, मंै अजर, मैं अमर हूँ, ईश्वर हूँ, मैंे प्रत्यगात्मचैतन्य हूँ, परमानन्द पूर्ण हूँ, मंै परमशिव हूँ, मैं अनन्त हूँ, आत्मसाक्षात्कार करने वालो पुरूषो मंे मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ, मैं आत्मानन्द का भोक्ता हूँ, अशिक्षित बालक अथवा अन्य प्राणी जिस अपने मंै की गरिमा का अनुभव करते है, वह मैं हूँ, मैं आनन्दमयी हूँ, ज्ञानमय हूँू आत्मानुभूतिमय हूँ, मैं बाह्य वस्तु के विचार तक से कोसो दूर हूँ, मेरा हृदय उस आनन्द में मग्न है जो इन्द्रियांे का विषय नहीं है। केवल मैं ही जगत का मूल हूँ, उपनिषदांे के उद्यान में बिहार करनेवाला मंै ही हूँ, मंै वह बड़वाग्नि हूँ, जो दुःखो के उफनाते हुए सागर को सुखा देगी। मैं ऋषि हूँ, ऋषियों का समूह मंै ही हूँ, सृष्टि-सृजन की क्रिया मंै हूँ, और मंै स्वयं ही सृष्टि हूँ, मैं प्रगति हूँ, मैं तृप्ति हूँ, तृप्तिरूपी दीप का प्रकाश मंै ही हूँ, मैं देह से भिन्न हूँ, अतः मंै जन्म, जरा, क्षीणता, क्षय तथा आदि के आवर्तन से मुक्त हूँ, शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गन्ध आदि इन्द्रिय विषयांे से मंै निर्लिप्त हूँ, क्यांेकि मंै इन्द्रियरहित हूँ,। मंै मन नहीं हूँ, अतः मोह, द्वेष और भय से मुक्त हूँ, उपनिषद्ांे मंे उल्लेख है वह प्राणरहित, मनरहित, शुद्ध, उच्च से भी उच्च और अविनाशी है वह परब्रह्म मैं ही हूँ, जो शाश्वत शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है जो अखण्ड, असीम एकमेवाद्वितीयम् है, जो सत्य ज्ञानमनन्तम रूप है। आकाश के समान मंै अन्तः वाह्य मंे व्याप्त हूँ,ॅ अविकारी और सर्वत्र सम हूँ, मैं शुद्ध, बुद्ध, निर्लिप्त, निर्मल, अविनाशी हूँ,। मैं निर्गुण और निष्क्रिय हूँ, मैं शाश्वत, निर्विकल्प, शुद्ध, निर्मल, निर्विकार, निराकार, अपरिवर्तनशील, नित्यमुक्त हूँ। मैं इन्द्रिय सुखो से विरक्त हूँ, परमानन्द, ज्ञान, आत्मानुभूति से पूर्ण हूँ, मंै इन्द्रिय जगत की कामनओं से सर्वत्र पृथक हूँ, जो अतीन्द्रिय है उसी में आनन्दित हूँ, समस्त शक्तिशाली तत्वों का मंगल मैं हूँ, क्यांेकि मैं उन सब में महान हूँ, मंै कामजन्य संवेगो से मुक्त हूँ, मंै एक हूँ,। अभेद हूँ, यह इस प्रकार अथवा ऐसे के भेद से पृथक हूँ, मंै निःसंदेह पुरूषांे का वन्दनीय हूँ, मंै गुणदोष की आन्तरिक भावनाओ से रहित हूँ,। मंै एकत्व का उद्घाटक हूँ, वेदान्त सिद्धान्त के सम्यक ज्ञान से जिनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी है उनके लिए एकमात्र मैं ही परमासत्ता हूँ। रात्रि के अन्धकार की तरह अज्ञान को नष्ट करने वाला सूर्य मंै ही हूँ। मंै समस्त अशुभांे का निदान हूँ,। मंै समस्त आरोपित उपाधियांे से रहित औदार्य की पराकाष्ठा हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान कर सभी इच्छओं को पूर्ण करने वाला मंै ही हूँ,। मंै समस्त औषधियांे मंे ओज हूँ। सारे जगत का ताना बाना मैं हूँ, मंै पवित्र मन्त्ररूपी पंकज से निःसृत आत्माभिव्यक्ति की आनन्दमय सुरभि से उनमत्त भ्रमर हूँ। मंै ज्ञान हूँ,, मंै ज्ञेय हूँ,, मैं ज्ञाता हूँ,। मंै सभी प्रकार के ज्ञान का साधन हूँ, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय से परे शुद्ध अस्तित्व मात्र मैं ही हूँ, मंै, न बुद्धि, न अहंकार चिन्ता, कान, जीभ, और आँख भी नहीं, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी मैं नहीं हूँ,। मंै चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ, मंै प्राण नहीं हूँ,। पंच वायु, सप्ततत्व, पंचकोश, हाथ, पाँव, जिह्वा या अन्य कर्मेन्द्रिय भी नहीं हूँ, मंै चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मंै शिव हूँ। मुझे न लोभ, न मोह, न द्वेष है, न राग, न मद, न मत्सर, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की भी मुझे कामना नहीं है। मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मै शिव हूँ। मैं सुख, दुःख, पाप, पुण्य कुछ भी नहीं जानता । मन्त्र, तीर्थ, वेद, यज्ञ भी मंै नहीं जानता। मंै न भोक्ता हूँ, न भोग्य और न भोग। मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ। मुझे मृत्यु नहीं, किसी प्रकार का भय नहीं, मुझमंे जातिभेद नहीं है, न मेरे पिता है, न माता, मैं अजन्मा हूँ, न मेरे मित्र हैं, न सुहृद, न शिष्य, न गुरू मैं चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मैं शिव हूँ। मंै निराकार हूँ, निर्विकल्प हूँ, मैं सर्वव्यापी हूँ, सर्वत्र हूँ, फिर भी इन्द्रियातीत हूँ, मैं न मोक्ष हूँ, न ज्ञेय, मंै चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ, मंै शिव हूँ। बहुत से व्यक्ति जटाजूट बढ़ा लेते है, बहुत से सिर मुड़ा लेते है। बहुत से अपने केश निकाल डालते है, बहुत से गेरूआ वस्त्र धारण कर लेते है अथवा अन्य रंगो के वस्त्र पहन लेते है, किन्तु ये सब बातें उदर पोषण के लिए ही होता है। मोहग्रस्त व्यक्ति सम्मुख स्पष्ट सत्य देखकर भी नहीं देखते। मित्र और शत्रु, पुत्र, सगे-सम्बंधी, युद्ध या सन्धि किसी के प्रति भी आसक्त मत हो। यदि तुम विष्णुपद की प्राप्ति की इच्छा करते हो तो सभी विषयांे को समदृष्टि से देखो। ज्ञान की प्राप्ति केवल विचार से ही हो सकती है। अन्य किसी साधन से नहीं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे बिना प्रकाश की सहायता के कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। प्रत्येक वस्तु का जन्म अज्ञान से होता है। ज्ञान के जागृत होते ही उसका नाश हो जाता है। मन जब दर्पण की भाँति निर्मल हो जाता है तब उसमें ज्ञान प्रकट होता है। अतः मन को शुद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए। आत्मा का स्वतः अथवा किसी दूसरे के द्वारा न तो ग्रहण किया जा सकता है, न त्याग और न आत्मा स्वयं किसी वस्तु का ग्रहण या त्याग ही करती है। यही सम्यक ज्ञान है। सम्यक ज्ञान परम शोधक अग्नि है। यह समस्त वेद और देवताओं का परम रहस्य है। मैं सर्वव्यापी, सम, शान्त, निरपेक्ष, सच्चिदानन्द ब्रह्म हूँ, मैं यह शरीर नहीं हूँ, जो स्वयं असत् है। इसी को ज्ञानी सत्य ज्ञान कहते हैं। पूर्ण ज्ञान प्राप्त योगी अपने ज्ञान चक्षुओं से स्व आत्मा मंे ही सम्पूर्ण जगत को देखता है। उसे सर्वत्र स्व आत्मा ही दिखाई देता है। अन्य कुछ नहीं। आत्मा पर आरोपित उपाधियांे का विनाश केवल पूर्ण ज्ञान से होता है। अन्य किसी उपाय से नहीं। वेदांे के अनुसार ब्रह्म और जीव मंे एकत्व की अनुभूति ही पूर्ण ज्ञान है। सत्य ज्ञान, अहंकार को समूल नष्ट करके समस्त कर्माे को भस्म कर देता है। तत्पश्चात्, न कर्ता रह जाता है न कर्म। न फलो का भोक्ता। मुक्ति के लिए कोई चाहे तीर्थ यात्रा करते हुए, गंगासागर जाए या व्रत या दान पुण्य करे, किन्तु ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती। आत्मा से तत्क्षण, तत्काल और यही आत्मानुभूति होती है। सब उपनिषदों का सार तत्व यही है कि पूर्ण मुक्ति ज्ञान से ही होती है। ज्ञान का फल तुरंत यहीं इसी जन्म मंे प्राप्त हो जाता है। अतः उसके लिए किसी प्रकार के संशय कि फल मिलेगा या नहीं अथवा भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं। सत्यज्ञान, जो वेदान्त का विषय है इस संकल्प को जन्म देता है कि आत्मा ही ब्रह्म है। इसकी उपलब्धि से व्यक्ति पुनर्जन्म के बन्धन से तुरन्त पूर्णतः मुक्त हो जाता है। ज्ञानी पुरूष को विवेक द्वारा सम्पूर्ण दृश्य जगत को आत्मा मंे ही विलीन कर लेना चाहिए और निरन्तर यह चिन्तन करते रहना चाहिए कि आत्मा, आकाश के सदृश्य निर्मल है। मंै देवताआंे को प्रणाम नहीं करता। जो सभी देवताओ से परे है वह किसी देवता को प्रणाम नहीं करता। उस स्थिति की उपलब्धि के उपरान्त फिर साधक शास्त्रविहित कर्म नहीं करता। मैं बारम्बार स्वयं अपनी आत्मा को, जो समस्त साधनाआंे का मूल है, प्रणाम करता हूँ। जिसकी प्राप्ति के बाद फिर अन्य कोई वस्तु प्राप्त करने को नहीं रह जाती। जिसके आनन्द के बाद फिर किसी अन्य आनन्द की कामना नहीं रहती और जिसके ज्ञान के बाद फिर कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता, उसी को तू ब्रह्म जान। जो आत्मतत्व है उसी को तू ब्रह्म जान वह असीम अनन्त परम सत्य है। वह महान है इसीलिए उसे ब्रह्म कहा जाता है। जो कुछ हम देखते हंै, जो कुछ सुनते हंै, वह ब्रह्म ही हंै। अन्य कुछ नहीं। परम तत्व का ज्ञान हो जाने पर समस्त विश्व सच्चिदानन्द अद्वैय ब्रह्म ही दिखाई देता है। सर्वाेच्च और दिव्य ब्रह्म ज्ञान से जो व्यक्ति विमुख है उनका जीवन व्यर्थ है। वे मनुष्य होते हुए भी पशुवत् हंै। ब्रह्म अनन्त का भण्डार है, अतः एकमात्र ब्रह्म ही परम सत्ता है। फलतः जो सत् के ज्ञान है वे उसी में शरण लेते है। ज्ञान और कर्म के बीच पर्वत सदृश अडिग विरोध है। भगवान व्यास ने इस पर बहुत विचार करने के पश्चात् अपने पुत्र को इस प्रकार बोध कराया- इन दोनों मार्र्गाे की वेदांे मे शिक्षा दी गयी है। एक है कर्म का मार्ग या प्रवृत्ति और दूसरा त्याग का मार्ग या निवृत्ति। परम अद्वैत की महानता की तुलना मंे देवादि भी दैत्य जैसे प्रतीत होने लगते है। और देवलोक, दानवलोक जैसा प्रतीत होने लगता है। जिसका भ्रम नष्ट हो गया है। वह आत्मज्ञान को किसी कर्म अथवा किसी अन्य ज्ञान के साथ संयुक्त करने की इच्छा नहीं करता। सत्य, परमधाम है। वह परमधाम है क्यांेकि उपनिषदांे का भी वही गन्तव्य स्थल है। सत्य का अर्थ है- मन, वाणी और कर्म से कपटाचरण का अभाव। असंख्य ग्रन्थों मंे जिस बात का उल्लेख हुआ है उसकी व्याख्या अर्धश्लोक मंे ही किये दे रहा हँू। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या, जीव ब्रह्म ही है, वह ब्रह्म से पृथक नहीं।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
ब. ज्ञानकाण्ड अर्थात उपनिषद् पर आधारित
3.विशिष्टाद्वैत वेदंात दर्शन-श्रीमद्रामानुजाचार्य
परिचय -
रामानुजाचार्य (1017-1137 ई0) विशिष्टाद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक थे। वह वैष्णव थे। उनका भक्ति परम्परा पर बहुत प्रभाव रहा है। वैष्णव आचार्यो में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही रामानन्द हुए थे जिनके शिष्य कबीर और सूरदास थे। रामानुज ने वेदान्त दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन ”विशिष्टाद्वैत दर्शन“ लिखा था। रामानुजाचार्य ने वेदान्त के अलावा 7वीं से 10वीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलवार सन्तों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार का आधार बनाया।
1017 ई0 में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तिरूकुदूर क्षेत्र में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरू से वेदो की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलबन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरू की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था- ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धनम की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज सन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुजाचार्य ने उस क्षेत्र में 12 वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। 1137 ई0 में वे ब्रह्मलीन हो गये। रामानुजाचार्य के मूल ग्रन्थ हैं- ब्रह्मसूत्र पर भाष्य-श्रीभाष्य एवं वेदार्थ संग्रह।
रामानुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित्त अर्थात आत्म तथा अचित अर्थात प्रकृति। वस्तुतः ये चित्त अर्थात आत्मतत्व तथा अचित् अर्थात प्रकृति तत्व, ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित है। यही रामानुजाचार्य का विषिश्टाद्वैत का सिद्धान्त है। जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्मा के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है, उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित्त एवं अचित्त तत्व को कोई अस्तित्व नहीं हैं, वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर है तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य है। रामानुजाचार्य के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या किर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिए सम्भव माना है।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
ब. ज्ञानकाण्ड अर्थात उपनिषद् पर आधारित
4. द्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद्माध्वाचार्य
परिचय -
माध्वाचार्य का जन्म दक्षिण कन्नड़ जिले के उड़पि नामक स्थान के पास एक गाँव में सन् 1199 ई0 में हुआ था। अल्पावस्था में ही ये वेद और वेदांगों के अच्छे ज्ञाता हो गये और इन्होंने सन्यास ले लिया। पूजा, ध्यान, अध्ययन और शास्त्रचर्चा में शांकरमत के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक एक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की और गुरू के साथ शास्त्रार्थ करके इन्होंने अपना एक अलग मत बना लिये जिसको ”द्वैत दर्शन“ कहते हैं। इनके अनुसार विष्णु ही परमरत्मा हैं। रामानुज की तरह इन्होंने श्री विष्णु के आयुधों- शंख, चक्र, गदा और पद्म से अपने अंगों को अलंकृत करने की प्रथा का समर्थन किया। देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाये। उड़ुपि में कृष्ण मन्दिर का स्थापना किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिए तीर्थस्थान बन गया। यज्ञों में पशुबलि बंद कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है। 79 वर्ष की अवस्था में इनका देहावसान हो गया। नारायणाचार्य कृत मध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रन्थों में मध्वाचार्य की जीवनी और कार्यों का पारम्परिक वर्णन मिलता है। परन्तु ये ग्रन्थ आचार्य के प्रति लेखक के श्रद्धालु होने के कारण अतिरंजना, चमत्कार और अविश्वसनीय घटनाओं से पूर्ण है। अतः इनके आधार पर कोई यथातथ्य विवरण माध्वाचार्य के जीवन के सम्बन्ध में नहीं उपस्थित किया जा सकता। माध्वाचार्य को ”पूर्णप्रज्ञ“ और ”आनन्दतीर्थ“ भी कहते हैं। उन्होंने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इन्होंने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदान्त के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिए स्वतन्त्र ग्रन्थ अनुव्याख्यान भी लिखा। भगवद्गीता और उपनिषद् पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करने वाला ग्रन्थ भारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद के पहले 40 सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतन्त्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया। ऐसा लगता है कि ये अपने मत के समर्थन के लिए प्रस्थानत्रयी की अपेक्षा पुराणों पर अधिक निर्भर हैं।
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आचार्य और दर्शन
ब. आस्तिक ईश्वर कारण है अर्थात ईश्वर को मानना
ब. वैदिक ग्रन्थों पर आधारित
ब. ज्ञानकाण्ड अर्थात उपनिषद् पर आधारित
5. शुद्धाद्वैत वेदंात दर्शन - श्रीमद्वल्लभाचार्य
परिचय -
शंकराचार्य के अद्वैत मत के पश्चात् द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धद्वैत आदि का प्रवर्तन हुआ। इसके बाद वल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग की अवधारणा की। पुष्टि में भगवान के अनुग्रह को विशेष महत्व दिया गया तथा कहा गया कि भगवान के पोषण (पुष्टि) के अभाव में जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती। भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधारस्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता श्री बल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव सम्वत् 1535 वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैंलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मण भट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआं उन्हें वैश्वानरावतार (अग्नि का अवतार) कहा गया है। वे वेद शास्त्र में परंगत थे। श्री रूद्रसम्प्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें अष्टादशाक्षरगोपालमन्त्र की दीक्षा दी गई। त्रिदण्ड सन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्रतीर्थ से प्राप्त हुई। वल्लभाचार्य की ससुराल वाराणसी स्थित तैलंग ब्राह्मण मधुमंगल जी के यहाँ महालक्ष्मी जी से हुयी थी और यथासमय दों पुत्र हुए-श्री गोपीनाथ व श्री विट्ठलनाथ। भगवत्प्रेरणावश व्रज में गोकुल पहुँचे और तदन्तर व्रज क्षेत्र स्थित गोवर्धन पर्वत पर अपनी गद्दी स्थापित कर शिष्य पूरनमल खत्री के सहयोग से सम्वत् 1576 में श्री नाथजी के भव्य मन्दिर का निर्माण कराया। यहाँ विशिष्ट सेवा पद्धति के साथ लीला गान के अन्तर्गत श्री राधाकृष्ण की मधुरातिमधुर लीलाओं से सम्बन्धित रसमय पदों की स्वर लहरी का अवगाहन कर भक्तजन निहाल हो जाते हैं।
वल्लभ सम्प्रदाय के जनक तथा पुष्टि मार्ग का प्रसार करने वाले वल्लभाचार्य जी ने पृथ्वी की तीन बार प्रदक्षिणा की थी। अपने अन्तिम प्रदक्षिणा में जब वे चुनार से गुजर रहे थे तब यहीं विट्ठलनाथ जी का जन्म विक्रम सम्वत् 1572 में पौष कृष्ण नवमी को हुआ। अपने पृथ्वी परिक्रमा के अवसर पर वल्लभाचार्य ने 84 स्थानों पर भगवान का परायण किया था। इन स्थानों को महाप्रभु की बैठक कहा जाता है। इस दृष्टि से चुनार की पावनभूमि को दोहरा महत्व प्राप्त है क्योंकि यहाँ महाप्रभु की बैठक भी है और यहीं महाप्रभु विट्ठलनाथ का अवतरण भी हुआ था। इस स्थान को ”चरणाट्धाम“ कहते हैं।
श्री बल्लभाचार्यजी के मतानुसार तीन स्वीकार्य तत्व हैं- ब्रह्म, जगत और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णित हैं- आधिदैविक, आध्यात्मिक एवं अंतर्यामी रूप। अनन्त दिव्य गुणों से युक्त पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण को ही परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके मधुर रूप एवं लीलाओं को ही जीव में आनन्द के आविर्भाव का स्रोत माना गया है। जगत् ब्रह्म के लीला का विन्यास है। सम्पूर्ण सृष्टि लीला के निमित्त ब्रह्म की आत्म कृति है। जीवों के तीन प्रकार हैं- पुष्टि जीव, जो भगवान के अनुग्रह पर निर्भर रहते हुए नित्यलीला में प्रवेश के अधिकारी बनते हैं। मर्यादा जीव, जो वेदोक्त विधियों का अनुसरण करते हुए भिन्न-भिन्न लोक प्राप्त करते हैं। और प्रवाह जीव, जो जगत्-प्रपंच में ही निमग्न रहते हुए सांसारिक सुखों की प्राप्ति हेतू सतत् चेष्टारत रहते हैं। प्रेमलक्षणा भक्ति उक्त मनोरथ की पूर्ति का मार्ग है, जिस ओर जीव की प्रवृत्ति मात्र भगवद् अनुग्रह द्वारा ही सम्भव है। श्री बल्लभाचार्यजी के पुष्टिमार्ग (अनुग्रह मार्ग) का यही आधारभूत सिद्धान्त है। पुष्टि-भक्ति की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएँ हैं- प्रेम, आसक्ति और व्यसन। मर्यादा भक्ति में भगवद् प्राप्ति शमदमादि साधनों से होती है, किन्तु पुष्टि भक्ति में भक्त को किसी साधन की आवश्यकता न होकर मात्र भगवद् कृपा का आश्रय होता है। मर्यादा भक्ति स्वीकार्य करते हुए भी पुष्टि भक्ति ही श्रेष्ठ मानी गई है। पुष्टिमार्गी जीव की सृष्टि भगवद् सेवार्थ ही है। ब्रह्म के साथ जीव-जगत् का सम्बन्ध निरूपण करते हुए उनका मत था कि जीव ब्रह्म का सदंश अर्थात सद् अंश है, जगत् भी ब्रह्म का सदंश है। अंश एवं अंशी में भेद न होने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म में परस्पर अभेद है। अन्तर मात्र इतना है कि जीव में ब्रह्म का आनन्दांश आवृत रहता है, जबकि जड़ जगत में इसके आनन्दांश व चैतन्यांश दोनों ही आवृत रहते है। श्री शंकराचार्य के अद्वैतवाद केवलाद्वैत के विपरीत श्री बल्लभाचार्यजी के अद्वैतवाद में माया का सम्बन्ध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रतिपादित किए जाने के कारण ही उक्त मत शुद्धाद्वैतवाद कहलाया, जिसके मूल प्रवर्तकाचार्य श्री विष्णुस्वामी जी हैं।
श्री बल्लभाचार्यजी के 84 शिष्यों में अष्टछापकवि गण भक्त सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास, परमानन्द दास प्रमुख थे। श्री अवधूतदास नामक परमहंस शिष्य भी थे। श्री बल्लभाचार्यजी के प्रताप से प्रमत कुम्भनदास जी तो सम्राट अकबर तक का मान-मर्दन करने में नहीं झिझके। परमानन्ददास जी के भावपूर्ण पद का श्रवण कर महाप्रभु कई दिनों तक बेसुध पड़े रहे। मान्यता है कि उपास्य श्रीनाथ जी ने कलि-मल-ग्रसित जीवों का उद्धार हेतू श्री बल्लभाचार्यजी को दुर्लभ आत्म-निवेदन-मन्त्र प्रदान किया और गोकुल के ठकुरानी घाट पर यमुना महारानी ने दर्शन देकर कृतार्थ किया। उनका शुद्धाद्वैत का प्रतिपादक दार्शनिक ग्रन्थ है- अणुभाष्य (ब्रह्मसूत्र भाष्य अथवा उत्तरमीमांसा)। अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं- पूर्वमीमांसाभाष्य, भागवत के दशम स्कन्ध पर सुबोधिनी टीका, तत्वदीप निबन्ध एवं पुष्टि प्रवाह मर्यादा। सम्वत् 1587, आषाढ़ शुक्ल तृतीया को उन्होंने अलौकिक रीति से इहलीला संवरण कर सदेह प्रयाण किया। वैष्णव समुदाय उनका सदैव चिरऋणी है।
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आचार्य और दर्शन
ब. नास्तिक - ईश्वर कारण नहीं है अर्थात ईश्वर को न मानना
1. चार्वाक- चार्वाक दर्शन
भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक प्रवृत्ति के बीच चार्वाक दर्शन एक अपवाद है, जो जड़वाद की अभिव्यक्ति करता है। जड़वाद मे जड़ को ही एकमात्र तत्व मानकर उसके द्वारा सभी पदार्थाे के अस्तित्व और उत्पत्ति की विवेचना की जाती है। भौतिक पदार्थ ही नहीं, बल्कि आत्मा एवं मन भी इसी जड़ तत्व के रूपान्तर माने जाते है। चार्वाक दर्शन के अनुसार भूत की परम सत्ता है जिससे चैतन्य या मन का आविर्भाव होता है। यह मनुष्य का चरम पुरूषार्थ केवल भौतिक पदार्थाे के उपभोगजन्य सुख तक ही सीमित करता है। खाओ पियो और मौज करो यही इस दर्शन का मूल मंत्र है। सम्भवतः खाने पीने पर अत्यधिक बल देने के कारण ही इसे चार्वाक दर्शन की संज्ञा दी गई है। कुछ विद्वान चार्वाक नामक एक राक्षस द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इस संज्ञा की उत्पत्ति का समर्थन करते है। यद्यपि चार्वाक दर्शन के मौलिक सूत्र अज्ञात है, परन्तु अन्य दर्शन में चार्वाक के विचारों की चर्चा और उनके खण्डन के लिए दिये गये विचारांे के संकलन से इस दर्शन की रूपरेखा तैयार की जा सकती है। चार्वाक नास्तिक, अनीश्वरवादी, प्रत्यक्षवादी तथा सुखवादी दर्शन है। यह वेदों का खण्डन करता है। नास्तिक ईश्वर की सत्ता में अविश्वास करता है। अनीश्वरवादी तथा सुख और काम को ही जीवन का अंतिम ध्येय मानता है। सुखवादी यह प्रत्यक्ष को ही ज्ञान का एकमात्र साधन मानता है। चार्वाक के अनुसार प्रमा अर्थात यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति प्रत्यक्ष से ही संभव है। प्रत्यक्षमेव प्रमाणम् यह इस दर्शन की मुख्य उक्ति है। प्रत्यक्ष का ज्ञान इंन्द्रियो से प्राप्त होता है। अतः यह अनुमान को अप्रमाणिक मानता है। यह शब्द अर्थात आप्त पुरूषांे विश्वसनीय पुरूष के उपदेशांे को भी ज्ञान का साधन नहीं मानता क्योंकि आप्त पुरूष प्राप्त करना ही कठिन है। अतः प्रत्यक्ष द्वारा ज्ञेय विषय ही एकमात्र सत्य है चंूकि प्रत्यक्ष से सिर्फ भूत या जड़ का ज्ञान होता है, इसलिए भूत को छोड़कर कोई भी तत्व यथार्थ नहीं है। ईश्वर, आत्मा स्वर्ग, कर्म सिद्धान्त आदि कल्पना मात्र है क्यांेकि वे अप्रत्यक्ष है। चार्वाक विश्व का अस्तिव स्वीकार करता है क्योंकि उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। प्रायः भारतीय दार्शनिकों ने जड़ जगत को पांच भूतों से निर्मित माना है। पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और आकाश इन पांचो के पांच गुण क्रमशः गंध, स्पर्श, रंग, स्वाद और शब्द है। जिनका ज्ञान क्रमशः नाक, त्वचा, आंख, जीभ और कान से होता है। इन पंचभूत तत्वो में से चार्वाक आकाश की सत्ता को नहीं मानता क्योंकि उसका प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। अतः वह यथार्थ नहीं है। इस प्रकार चार्वाक सिर्फ चार भूतों के संयोग से ही विश्व को निर्मित मानते है। साथ ही इसका निर्माण किसी परम सत्ता द्वारा नहीं बल्कि स्वाभाविक और आकस्मिक रूप से हुआ है। चार्वाक आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकार करता क्योंकि प्रत्यक्षीकरण नहीं होता यद्यपि चार्वाक चैतन्य को यथार्थ मानता है, क्यांेकि उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से प्राप्त होता है। परन्तु वह चैतन्य को आत्मा का गुण नहीं मानता बल्कि उसे शरीर का गुण मानता है। शरीर में ही जिनमें लाल अस्तित्व रहता है जिस प्रकार पान, कत्था, कसैला और चूना जिनमें लाल रंग का अभाव है, को मिलाने से लाल रंग का निर्माण होता है। उसी प्रकार पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल चार भूतों के आपस में मिलने से चैतन्य का विकास होता है। चार्वाक ईश्वर का अस्तित्व भी नहीं स्वीकारता क्योंकि उसका भी प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। वह सिर्फ अनुमान द्वारा ही जाना जाने के कारण वास्तविकता से दूर है। विश्व की नियमितता का कारण ईश्वर नहीं बल्कि स्वयं विश्व और उसका अपना स्वभाव है। यदि ईश्वर होता तो वह दुखियांे के दुःखांे का तत्काल अंत कर देता चार्वाक ईश्वर की आराधना को अपने आप को धोखा देना मानता है। भारतीय दार्शनिकों द्वारा बताये गये जीवन के चार लक्ष्यांे अर्थात पुरूषार्थाे धर्म, मोक्ष, अर्थ और काम में से चार्वाक सिर्फ अर्थ और काम को ही महत्व प्रदान करता है। इनमें से अर्थ को वह सुख और काम की प्राप्ति में सहयोग प्रदान करने वाला तथा काम को चरम लक्ष्य मानता है। उसके अनुसार काम की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। काम अर्थात इच्छाआंे की तृप्ति ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है मनुष्य के सारे कार्य काम या सुख के लिए होते है। यावज्जीवेत् सुख जीवेत् ऋण कृत्वा घृत पिेवेत् अर्थात जब तक जीये सुख से जीये सुख के उपभोग के लिए ऋण भी लेना पड़े तो पीछे नही हटना चाहिए। अतः जिस प्रकार भी हो सुख के साधन एकत्र करने चाहिए। चार्वाक दर्शन भोग, विलास, वासना, तृप्ति, मदिरापान आदि जैसे भी सुख मिले, उसका भोग करना चाहिए। सुखवाद की अतिवादिता के कारण ही चार्वाक दर्शन निन्दनीय हो गया है।
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आचार्य और दर्शन
ब. नास्तिक - ईश्वर कारण नहीं है अर्थात ईश्वर को न मानना
2. भगवान महावीर- जैन दर्शन
जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। जैन धर्म की भगवान महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त हैं उसके वालक निगंठ धम्म (निग्र्रन्थ धर्म), आर्हत् धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं। पाश्र्वनाथ के समय तक ”चातुर्याम धर्म“ था। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की। ”जैन“ कहते है उन्हें जो ”जिन“ के अनुयायी हों। जिन शब्द बना है जि धातु से। जि माने जीतना। जिन माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं जिन। जैन धर्म अर्थात जिन भगवान का धर्म। जैन धर्म का परम पवित्र अनादि मूलमंत्र है- अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यो को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी है।
जैन धर्म में 24 तीर्थकरों को माना जाता है। जैन धर्म में मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं-दिगम्बर, मुनि (श्रमण) वस्त्र नहीं पहनते हैं। श्वेताम्बर, सन्यासी सफेद वस्त्र पहनते हैं। श्वेताम्बर भी तीन भाग में विभक्त हैं। श्वेताम्बर आगम और दिगम्बर आगम जैन धर्म के मुख्य धर्म ग्रन्थ हैं। समस्त आगम ग्रन्थों को चार भागों में बाँटा गया है। 1. प्रथमानुयोग, 2. करनानुयोग, 3 चरर्नानुयोग और 4. द्रव्यानुयोग।
जैन दर्शन, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, जैन आत्मा को मानते हैं, वो उसे जीव कहते हैं। अजीव को पुद्गगल कहा जाता है। जीव सुख-दुःख, दर्द आदि का अनुभव करता है और पुनर्जन्म लेता है। जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहते हैं। सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र (चारित्र)। जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल (छह द्रव्य)। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष (सात तत्व) अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप (नौ पदार्थ। क्रोध, मान, माया ओर लोभ (चार कशाय)। देव गति, मनुष्य गति, तिर्यन्च गति, नर्क गति (चार गति), पंचम गति मोक्ष। नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप (चार निक्षेप)। जैन ईश्वर को मानते हैं लेकिन ईश्वर को सत्ता सम्पन्न नहीं मानते। ईश्वर सर्वशक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता-द्रष्टा है पर त्रिलोक का कत्र्ता नहीं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (पाँच महाव्रत)। निःशक्तित्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूढ़दृष्टित्व, उपबृंहन/उपगूहन, स्थितिकरण, प्रभावना और वात्सल्य (सम्यकत्व के 8 अंग)।
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आचार्य और दर्शन
ब. नास्तिक - ईश्वर कारण नहीं है अर्थात ईश्वर को न मानना
3. भगवान बुद्ध- बौद्ध दर्शन
बौद्ध धर्म के अनुयायी आर्य अष्टांग मार्ग के अनुसार जीकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं। गौतम बुद्ध के गुजरने के बाद, बौद्ध धर्म के अलग-अलग संप्रदाय उपस्थित हो गये हैं परन्तु इन सब के कुछ सिद्धान्त मिलते हैं।
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिए इसका अर्थ है- कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनन्त संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्म (बिना आत्मा के) होता है। कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शून्य होती है। परन्तु मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को जो कि दुःख का कारण है त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते हैं। बुद्ध का पहला धर्मोपदेश जो उन्होंने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था-
1.दुःख, इस दुनिया में सब कुछ दुःख है। जन्म में, बुढ़े होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीजों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है।
2.दुःख प्रारम्भ, तृष्णा या चाहत दुःख का कारण है और फिर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है।
3.दुःख निरोध, तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है।
4.दुःख निरोध का मार्ग, तृष्णा से मुक्ति आर्य अष्टांग मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।
गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
1. सम्यक दृष्टि- चार आर्य सत्य में विश्वास करना।
2. सम्यक संकल्प-मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना।
3. सम्यक वाक- हानिकारक बातें और झूठ न बोलना।
4. सम्यक कर्म- हानिकारक कर्म न करना।
5. सम्यक जीविका- कोई भी स्पष्टतः या अस्पष्टतः हानिकारक व्यापार न करना।
6. सम्यक प्रयास- अपने आप सुधारने की कोशिश करना।
7. सम्यक स्मृति- स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना।
8. सम्यक समाधि- निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना।
कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते हैं जिसमें आगे बढ़ने के लिए पिछले स्तर को पाना आवश्यक हैं। अन्य लोगों को लगता है कि इस मार्ग के स्तर सब साथ-साथ पाये जाते हैं। मार्ग को तीन स्तर में वर्गीकृत किया जाता है-प्रज्ञा, शीला और समाधि। गौतम बुद्ध से पाई गई ज्ञानता को बोधि कहते हैं। माना जाता है कि बोधि पाने के बाद ही संसार से छुटकारा पाया जा सकता है। सारी पारमिताओं (पूर्णताओं) की निष्पत्ति, चार आर्य सत्यों की पूरी समझ, और कर्म के निरोध से ही बोधि पाई जा सकती है। इस समय लोभ, दोष, मोह, अविद्या, तृष्णा और आत्मा में विश्वास सब गायब हो जाते हैं। बोधि के तीन स्तर हैं-श्रावकबोधि, प्रत्येकबोधि और सम्यकसंबोधि। सम्यकसंबोधि बौद्ध धर्म की सबसे उन्नत आदर्श मानी जाती है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार, इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक है और नश्वर है। कुछ भी स्थायी नहीं परन्तु वैदिक मत से विरोध है (क्षणिकवाद)। आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज नहीं है, जिसे लोग आत्मा समझते हैं वह चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है (अनात्मवाद)। बुद्ध ईश्वर की सत्ता नहीं मानते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद के नियम पर चलती है। परन्तु अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा है। कुछ देवताओं की सत्ता मानी गयी है पर वो ज्यादा शक्तिशाली नहीं हैं (अनीश्वरवाद)। शून्यता महायान बौद्ध सम्प्रदाय का प्रधान दर्शन है (शून्यतावाद)। बौद्ध धर्म में दो मुख्य सम्प्रदाय हैं- थेरवाद या हीनयान-बुद्ध के मौलिक उपदेश ही मानता है। महायान-बुद्ध की पूजा करता है और थेरवादियों को ”हीनयान“ (छोटी गाड़ी) कहता है।
पहले विभिन्न आचार्य तथा उनके दर्शन और अब अन्त में मेरा कर्म वेदांत और विकास दर्शन
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