चैथायुगः कलियुग
य. सार्वजनिक प्रमाणित अंश प्रेरक अवतार
9. नौवां अवतार: बुद्ध अवतार
ईश्वर के अंश अवतार
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार
बुद्ध अवतार (पूर्व कथा)
श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के जीवन द्वारा प्रदर्शित आदर्शो पर चलकर भारत की खूब उन्नति हुई थी। लोगों ने समझ लिया था कि ईश्वर-प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है, उसी में सुख-शान्ति है। इसीलिए वे लोग जीवन के सभी कर्म भगवान की प्राप्ति के लिए किया करते थे। इस प्रकार देश से पाप चला गया और सर्वत्र शान्ति की स्थापना हुई।
शान्ति के माहौल में लोग क्रमशः आराम-पसन्द होने लगे ईश्वर और धर्म केवल बातों में रह गए; मान-ऐश्वर्य तथा सांसारिक सुख ही जीवन का सार, है, यही भाव प्रबल होने लगा। धर्म-कर्म गौरव की वस्तु हो गयी, लोग भूल गये कि इसका उद्देश्य शान्ति है। अपने-अपने वर्ण का गौरव बढ़ाने के लिए ही लोग धर्म का आचरण करने लगे।
राजा-महाराजा अत्यन्त व्ययसाध्य योग-यज्ञ किया करते थे, परन्तु उसका उद्देश्य मान-यश हो गया। योगी तथा ब्राह्मण अत्यन्त कष्टसाध्य तपस्या करते हुए देहपात कर देते; परन्तु इस सबका एकमात्र उद्देश्य रह गया सम्मान, पूजाप्राप्ति तथा शिष्य बनाना। जाति का गौरव तथा संासारिक उन्नति को ही लेकर मानव भटक गया। देश से भगवान चले गये और धर्म का स्थान लोकाचार ने ग्रहण कर लिया। मनुष्य के प्राणों में सुख-शान्ति नहीं रही। जीवन भगवद्भक्ति-विहीन श्मशान में परिणत हुआ और उसमें धू-धूकर वासना की आग जलने लगी।
कपिलवस्तु नगरी में शुद्धोदन नाम के एक राजा थे। काफी आयु में उनकी एक सन्तान हुई। ज्योतिषियों ने गणना करके बताया, ‘‘यह बालक संसार में रहे तो चक्रवर्ती राजा बनेगा और संन्यासी होगा तो जगद्गुरू होगा।’’ उसका नाम सिद्धार्थ रखा गया। खूब सुन्दर, बुद्धिमान तथा धीर’-स्थिर होने के कारण सबका उसके प्रति स्नेह था, बालसुलभ चपलता का उसमें अभाव था, यहाँ तक कि खेलकूद भी उसे पसन्द न था। आयु के साथ साथ उसकी गम्भीरता में भी वृद्धि होने लगी। राजा शुद्धोदन सर्वदा शंकित रहते कि बालक कहीं संन्यासी न हो जाय। इसीलिए वे सिद्धार्थ को सदा प्रफुल्ल रखने का प्रयास करते।
बाल्यकाल से ही उसके हृदय में सर्व जीवों के प्रति समान रूप से दयाभाव दीख पड़ता। एक दिन देवदत्त नामक शाक्त बालक ने एक जंगली हंस पर तीर चलाया। आकाश में तीर से घायल होकर हंस सिद्धार्थ के निकट आ गिरा। सिद्धार्थ ने हंस को गोद में उठा लिया और तीर निकालकर उसे स्वस्थ कर दिया। देवदत्त अपना शिकार लेने को दौड़ता हुआ आया, परन्तु सिद्धार्थ किसी भी हालत में हंस देने को राजी नहीं हुए। इसी बात को लेकर दोनों के बीच विवाद छिड़ गया। निपटारे के लिए वृद्धों के पास जाने पर उन लोगों ने कहा, ‘‘जो प्राणी की रक्षा करता है, उसी का उस पर अधिकार होता है।’’
कपिलवस्तु नगर में एक कृषि-महोत्सव हुआ करता था। उस अवसर पर राजा, मंत्री आदि सभी खेतों में हल चलाते थे। इससे मिट्टी के भीतर से बहुत सारे कीट-पतंग बाहर निकल आते थे। उनमें से कुछ लोगों के पाँव-तले आकर मर जाते और बाकी को पक्षी पकड़कर खा जाते। जीवों के इस भयानक कष्ट को सह पाने में असमर्थ होकर सिद्धार्थ ने अपने पिता से यह प्रथा बन्द कर देने का अनुनय-विनय किया।
गोपा (यशोधरा) नाम की एक रूप-गुणवती कन्या के साथ सिद्धार्थ का विवाह हुआ। उनके वैराग्यग्रसित मन को आमोद-प्रमोद में मग्न रखने के लिए राजा ने एक प्रमोद-उद्यान का निर्माण कराया, जिसमें प्रतिदिन नृत्य-गीत के आयोजन हुआ करते थे। सिद्धार्थ उनमें सम्मिलित होते, परन्तु अन्य लोगों के समान रस नहीं ले पाते।
मनुष्य के दुःखों का कोई अन्त नहीं; एक को दूर करने पर दूसरा दुःख स्वतः ही आकर प्रकट हो जाता है। किसी के जीवन में दुःख देखते ही सिद्धार्थ का मन द्रवीभूत हो जाता और उन्हें इच्छा होती कि प्राण देकर भी यदि हो सके तो उस दुःख का मोचन किया जाय। एक दिन नगर-भ्रमण को निकलने पर उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति रोग की पीड़ा से बड़ा कष्ट पा रहा है। इसके साथ ही उनके चिन्तनशील मन में हलचल मच गई और भ्रमण वहीं स्थगित कर देना पड़ा।
एक अन्य दिन एक वृद्ध की दुर्दशा ने उनका ध्यान आकृष्ट किया। मानव-शरीर के इस सुनिश्चित परिणाम के विषय में सोचकर वे अधीर हो गए। दूसरे दिन एक अन्य दृश्य ने उन्हें और चंचल कर डाला। उन्होंने देखा कि एक मृत व्यक्ति को दाह करने हेतु श्मशान में लाया गया है और उसके स्त्री-पुत्र व्याकुल होकर रो रहे है। इस दृश्य ने सिद्धार्थ के मन में प्रबल वैराग्य का संचार किया। अहा! ऐसे अनित्य दुःखमय जीवन को लेकर हम लोग भूले हुए है! हो, तो फिर इस जीवन का मूल्य ही क्या है? सोचते-सोचते सिद्धार्थ इस विचार का कोई भी ओर-छोर न पा सके।
एक दिन एक शान्तमूर्ति संन्यासी का निर्विकार भाव देखकर उनके मन में एक नवीन विचार का उदय हुआ। उन्होंने सोचा - मैं भी ऐसा ही संन्यासी होकर तपस्या करके देखूँगा कि जरा-व्याधि-मृत्यु से छुटकारा पाने का कोई उपाय है या नहीं। उन्होंने पिता के समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त की। राजा यह सुनकर बड़े विचलित हुए, किसी भी युक्ति पर उन्होंने पुत्र के संन्यास का अनुमोदन नहीं किया; बल्कि कहीं सिद्धार्थ बिना बताए ही चले न जायँ, इसलिए उन्होंने कड़े पहरे की भी व्यवस्था कर दी।
उन्हीं दिनों गोपा के एक पुत्र हुआ। सिद्धार्थ ने देखा कि वे क्रमशः संसार में उलझते जा रहे है; अतः अब देरी करना उचित न समझकर एक दिन आधी रात के समय उन्होंने राज्य छोड़कर प्रस्थान किया।
सिद्धार्थ त्यागी के वेश में तपस्वियों के पास जाकर योग की शिक्षा ग्रहण करने लगे। उन दिनों लोग भाँति-भाँति की कठोर तपस्या करते थे और थोड़ी-सी कुछ अनुभूति होते ही अपने को सिद्ध समझकर उसका प्रचार करने लगते थे। सिद्धार्थ ने इसी श्रेणी के अनेक योगियों का शिष्यत्व स्वीकार कर उनके धर्ममतों में सिद्धि प्राप्त की। परन्तु उन्होंने देखा कि ये अनुभूतियाँ मनुष्य को जरा-मरण के हाथ से नहीं बचा सकती। इस पर उनके मन की अशान्ति और बढ़ गई।
विभिन्न स्थानों पर घूमते-घूमते क्लान्त एवं निराश होकर सिद्धार्थ ने निश्चय किया कि वे स्वयं ही ध्यान-तपस्या आदि करके जरा-मरण के निवारण का उपाय ढूँढ़ निकालने का प्रयास करेंगे। अतः वे गया के निकट निरंजना नदी के तट पर स्थित ऊरूबिल्ब ग्राम के एक मनोहर स्थान पर योगासन में बैठकर ध्यान में डूब गए। पाँच अन्य साधक भी उनकी तपस्या एवं तेजस्विता पर मुग्ध होकर उनके शिष्य बन गये और सिद्धार्थ की सेवा में लग गए।
सिद्धार्थ आहार-निद्रा को त्यागकर दिन-रात एकासन में बैठे ध्यान करने लगे। उपवास के कारण उनका शरीर इतना दुर्बल हो गया कि एक दिन स्नान करके नदी के तट पर चढ़ते समय वे मूर्छित हो गए। शिष्यों ने सोचा कि उनकी मृत्यु हो गयी है। मूच्र्छा टूटने पर उन्होंने सोचा कि इस प्रकार कठोरता के द्वारा शरीर बरबाद करने से सिद्धिलाभ सम्भव नहीं है। अतः वे पुनः आहार ग्रहण करने लगे। उन दिनों लोगों की धारणा थी कि अन्न-पान में कठोरता बरतना ही साधना है। सिद्धार्थ के उस कठोरता का त्याग कर देने पर शिष्यों ने सोचा कि उनका पतन हो गया है, अतः वे उन्हें छोड़कर चले गये।
सिद्धार्थ का शरीर स्वस्थ एवं सबल हुआ। फिर ध्यान करते करते उनका मन निर्वाण-सागर में मिल गया और उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति हुई। आनन्द और शान्ति से उनका हृदय परिपूर्ण हो उठा।
सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही जीवों के दुःख से कातर थे। बुद्धत्व की उपलब्धि के साथ ही वे दुःखमोचन का उपाय जान गये, परन्तु मुक्ति अथवा निर्वाण की बातें किसे सुनाते? सामान्य जन तो ये बातें समझ नहीं सकते थे। उन्हीं पाँच शिष्यों की बात उन्हें याद हो आई। खोजते-खोजते वे उन्हें काशी के निकट सारनाथ में मिले। उनके उपदेशों से निर्वाण प्राप्त कर शिष्यगण कृतार्थ हो गये। फूल खिलने पर भ्रमरों का अभाव नहीं रहता। सैकड़ों लोग उनसे धर्म की शिक्षा पाने को आ जुटने लगे। अनेक लोग सर्वस्व त्यागकर संन्यासी होने लगे।
शुद्धोदन अपने पुत्र के गौरव की बातें सुनकर बड़े आनन्दित हुए। उन्होंने बुद्धदेव को कपिलवस्तु ले आने को आदमी भेजा। बुद्धदेव का आगमन होने पर नगर के लोग उन्हें देखने को दौड़े आए। शुद्धोदन, गोपा आदि सबने निर्वाण-धर्म का उपदेश पाकर सुख-दुःख से मुक्ति पायी। शाक्यवंश के अनेक बालकों तथा युवकों ने संन्यास लेकर बुद्धदेव का अनुसरण किया; यहाँ तक कि बुद्धदेव का पुत्र राहुल भी संन्यासी हुआ।
बुद्धदेव उत्तरी भारत में सर्वत्र निर्वाण-धर्म का उपदेश देते हुए भ्रमण करने लगे। जो साधकगण कठोर तपस्या के उपरान्त भी अभीष्ट नहीं प्राप्त कर पा रहे थे, बुद्धदेव की कृपा से उन लोगों ने सिद्धिलाभ किया। संसार की ज्वाला में भुनकर मर रहे सहस्त्रों लोगों को भी बुद्धदेव के उपदेशों से शान्ति मिली। घृणित-पतित के रूप में जिन्हें समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था, बुद्धदेव ने शिष्य बनाकर उनका भी उद्धार किया। भारत में पुनः धर्मभाव जाग उठा, लोगों के मन में शान्ति का संचार हुआ।
अस्सी वर्ष की आयु में बुद्धदेव ने महानिर्वाण प्राप्त किया।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
दृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित अंश दृश्य सत्य चेतना से युक्त संघ और योजना आधारित कलियुग के प्रारम्भ में नवें अवतार - बुद्ध अवतार के समय तक एकतन्त्रात्मक राज्यों का विकास, विभिन्न नेतृत्व मनों आधारित जातियों, हिंसा, कर्म का प्राथमिता का विकास हो उसकी दिशा प्रसार की ओर ही थी। कृष्ण के अंश अपूर्ण मन अर्थात् अंश सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर ही बुद्ध थे परिणामस्वरूप वे स्वयं को पहचानकर कालानुसार आवश्यक मुख्य कार्य अर्थात् जनता द्वारा लोक धर्म शिक्षा और गणराज्य की स्थापना का शुभारम्भ का कार्य कर्मयोगी-वैरागी-सन्यासी की भाॅति पूर्ण किये। लोकधर्म शिक्षा के अन्तर्गत वे व्यक्तिगत कर्म के लिए -सत्यपात्र को दान नैतिकता के नियमों का पालन, अपने पुण्य का भाग दूसरों को देना, दूसरे द्वारा दिये गये पुण्य के भाग को स्वीकारना अपने त्रुटियों का सुधार, सम्यक-सिद्धान्त का श्रवण और प्रसार: सम्यक सिद्धान्त के अन्तर्गत - अन्धविश्वास तथा भ्रम रहित सम्यक दृष्टि, उच्च तथा बुद्धियुक्त सम्यक संकल्प, नम्रता-उत्सुक्तता-सत्यनिष्ठ युक्त सम्यक वचन, शान्तिपूर्ण-निष्ठापूर्ण-पवित्रता युक्त सम्यक कर्म, अहिंसा युक्त सम्यक आजीवन, आत्म निग्रह और आत्म प्रशिक्षण युक्त सम्यक व्यायाम, सक्रीय सचेतन मन युक्त सम्यक स्मृति, जीवन की यर्थाथता पर गहन अध्ययन युक्त सम्यक समाधि तथा यह लोक धर्म शिक्षा अनवरत चलती रहे इसलिए लोक शिक्षकों के रूप में साधुओं और भिक्षुओं का निर्माण सहित ‘‘बुद्धं शरणं गच्छामि’’ अर्थात् बुद्धि या प्रबुद्धों के शरण मंे जाओ और ‘‘धर्मम् शरणं गच्छामि’’ अर्थात् धर्म के शरण में जाओ का उपदेश देने का कार्य किये। गणराज्य स्थापना के शुभारम्भ के अन्तर्गत ग्राम, सभा, संघ या पंचायत से जुड़ने के लिए ‘‘संघ शरणं गच्छामि’’ का उपदेश देने का कार्य किये।
यहाॅ ध्यान देने योग्य यह है कि कृष्णावतार के समय गणराज्य स्थापना के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना द्वारा अदृश्य मन में तय की गई सम्पूर्ण नीति का वह हिस्सा अर्थात् वह अपूर्ण मन जो कृष्ण पूर्ण नहीं कर पाये थे उसके कुछ प्राथमिक अंश जैसे -सन्यास, लोकधर्म, ध्यान अर्थातृ काल चिन्तन और गणराज्य व्यवस्था का बीज जो मानव समाज का नये सिरे से सृष्टि का प्रथम चरण था वही कार्य बुद्धावतार में पूर्व कृष्णावतार से प्राप्त कर्मयोगी मन द्वारा ही बुद्ध ने पूर्ण किया था। बुद्ध द्वारा दिया गया ‘‘सम्यक’’ शब्द एकात्म ध्यान अर्थात् समभाव युक्त काल चिन्तन का ही बीज था जो कृष्ण के जीवन में समाहित था और गीतोपनिषद् में अव्यक्त रहा। चूॅकि एकात्म ध्यान, भगवान शिव-शंकर का स्वरूप है इसलिए वे अगले अवतार की दृष्टि रखते हुये अपने प्रचार का समस्त केन्द्र शिव-शंकर से जुड़ी स्थली के निकट ही रखें। बुद्ध अपने समस्त कार्यो को स्वयं जानते हुये कोई दार्शनिक आधार इसलिए नहीं दिये कि दार्शनिक आधार देने पर वह गीतोपनिषद् और कृष्ण में समाहित हो जाता परिणामस्वरूप कृष्ण का विवशतावश ही सही हिंसक जीवन और हिंसा कर्म की प्रधानता की ओर बढ़ते समाज में अहिंसा आधारित नये मानव समाज की सृष्टि कार्य असफल हो जाता। बुद्ध की कार्यप्रणाली दार्शनिक न होकर व्यावहारिक थी जो कर्मज्ञान अर्थात् कर्मवेद का सूक्ष्म बीज था। जिसकी व्यापकता के लिए उन्होंने हिंसक राजा सम्राट अशोक को अपने शरण में कर आन्दोलन का रूप दिये जो उस समय तक का दार्शनिक दृष्टि से पूर्णमुक्त सबसे बड़ा धर्मिक आन्दोलन था जो उनके महानिर्वाण के बाद इमारतों, मन्दिरों और बौद्ध धर्म में परिणत हो गया। बुद्ध का पूर्व नाम ‘‘सिद्धार्थ’’ अर्थात् ‘‘वह जिसने अपना उद्देश्य पूर्ण कर लिया हो।“ बुद्ध, मन की एक व्यावहारिक अवस्था अर्थात् बुद्धि है जो ज्ञान के साथ काल चिन्तन के संयोग से उत्पन्न होती है। छः वर्षो की साधना उन्होनें उम्र की परिपक्वता, सामाजिक विश्वसनीयता, कालानुसार कार्य और कार्यनीति के निर्धारण के लिए की थी। चूॅकि सत्य चेतना के अन्तर्गत ही प्राकृतिक चेतना समाहित होती है इसलिए प्राकृतिक चेतना के अन्तर्गत कृष्णावतार में रूक्मणि का अपूर्ण मन अर्थात् सूक्ष्म शरीर यशोधरा के स्थूल शरीर द्वारा व्यक्त हो सिद्धार्थ से पुत्र प्राप्त कर पूर्ण हो गया। यदि बुद्ध व्यक्तिगत प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना युक्त कृष्ण के अपूर्ण मन न होते तो वे बाह्य कारणों से प्रेरित होकर निष्काम कर्म की ओर बढ़ते परन्तु वे तो स्वयं अन्तः कारणों से प्रेरित थे जो उनमे कृष्ण के अपूर्ण मन का अंश था, से स्वयं अहैतुक कार्य के लिए कर्मयोगी बने थे। अब तब जो मन इस दैवी श्रृंखला विष्णु के अन्तिम दसवें अवतार के साथ पूर्ण होने के लिए अपूर्ण थे वे थे रामावतार के समय ‘‘लव और कुश’’ का संयुक्त एक मन, उर्मिला का अपूर्ण मन जो कृष्णावतार में सत्यभामा के रूप में पुनः अपूर्ण रह गया था। तथा कृष्णावतार में ही वे सभी नर-नारियों के अपूर्ण मन जो दास, संख्य, वात्सल्य, मधुर और अवैध प्रेम में बधकर संयुक्त एक अपूर्ण मन में परिवर्तित थे।
दृश्य काल के सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य काल में सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य सत्य चेतना से युक्त संघ और योजना आधारित कलियुग में दसवें अवतार के समय तक विश्व की स्थिति और विवाद मुक्त परिणामों का विवरण आगे है।
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