Sunday, March 15, 2020

आचार्य रजनीश ”ओशो“

आचार्य रजनीश ”ओशो“


परिचय -
रजनीश चन्द्र मोहन का जन्म 11 दिसम्बर, 1931 को भारत के मघ्य प्रदेश राज्य के जबलपुर शहर में हुआ था। 1960 के दशक में वे ”आचार्य रजनीश“ के नाम से ”ओशो रजनीश“ उसके उपरान्त ”ओशो“ नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक नेता थे तथा भारत तथा विदेशों में जाकर प्रवचन दिये। ”ओशो“ अपने विवादास्पद नये धार्मिक (आध्यात्मिक) आन्दोलन के लिए मशहूर हुए और भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में रहे। ”ओशो“ ने प्रचलित धर्मो की व्याख्या की तथा प्यार, ध्यान और खुशी को जीवन का प्रमुख मूल्य माना। ”ओशो“ ने सैकड़ों पुस्तकें लिखी और हजारों प्रवचन दिये। उनके प्रवचन पुस्तकों, आडियो कैसेट तथा विडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध है। अपने क्रान्तिकारी विचारों से उन्होंने लाखों अनुयायी और शिष्य बनाये। अत्यधिक कुशल वक्ता होते हुए इनके प्रवचनों के करीब 600 पुस्तकें हैं। ”सम्भोग से समाधि की ओर“ इनकी सबसे चर्चित और विवादास्पद पुस्तक है। इनके नाम से कई आश्रम चल रहे हैं। ”ओशो“ ने हर एक पाखण्ड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा का उन्होंने भारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखण्डियों को खूब लताड़ा। ”ओशो“ ने सम्यक सन्यास को पुनर्जिवित किया है। ”ओशो“ ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बासुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। सन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ”ओशो“ के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-सन्यास है। उनकी नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारीयों को निभाते हुए ध्यान व सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में एक सन्यास है जो इस देश में हजारों वर्षो से प्रचलित है। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़ जंगल की ओर। वह सन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है। वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है- अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी सन्यासी की पूजा होती है। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस़्त्रों की पूजा होती थी। वह सन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता? लेकिन जो लोग संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बँधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा।, वे ऐसे सन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और सन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहा। सन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसार पर निर्भर रहा और तथाकथित त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा सन्यास आनन्द न बन सका, मस्ती न बन सका। दीन-हीनता में कहीं कोई प्रफुल्लता होती है? धीरे-धीरे सन्यास पूर्णतः सड़ गया। सन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गये जो भगवान श्रीकृष्ण के समय गूंजे होंगे, सन्यास के मौलिक रूप में। अथवा राजा जनक के समय सन्यास ने जो गहराई छुई थी, वह संसार में कमल की भाँति खिलकर जीने वाला सन्यास नदारद हो गया। 19 जनवरी, 1990 को उनकी इस धरती की यात्रा हमेशा के लिए रूक गयी और वे अगली या़त्रा पर निकल पड़े। 

अक्टुबर व नवम्बर 1978 में दिये गये प्रवचन का अंश-

(1) एक तरह का सिद्व एक ही बार होता है, दोबारा नहीं होता। क्योकि जो सिद्ध हो गया, फिर नही लौटता। गया फिर वापस नहीं आता। एक ही बार तुम उसकी झलक पाते हो- बुद्व की, महावीर की, क्राइस्ट ही, मुहम्मद की, एक ही बार झलक पाते हो, फिर गये सो गये। फिर विराट में लीन हो गये। फिर दोबारा उनके जैसा आदमी नहीं होगा, नहीं हो सकता। मगर बहुत लोग नकलची होगें। उनको तुम साधु कहते हो। उन नकलीची का बड़ा सम्मान है। क्योंकि वे तुम्हारे शास्त्र के अनुसार मालूम पड़ते हैं। जब भी सिद्ध आयेगा सब अस्त व्यस्त कर देगा सिद्ध आता ही है क्रान्ति की तरह ! प्रत्येक सिद्ध बगावत लेकर आता है, एक क्रान्ति का संदेश लेकर आता है एक आग की तरह आता है- एक तुफान रोशनी का! लेकिन जो अँधेरे में पड़े है। उनकी आँखे अगर एकदम से उतनी रोशनी न झेल सके और नाराज हो जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं।
(2) जो एक गुरू बोल रहा है, वह अनन्त सिद्धों की वाणी है। अभिव्यक्ति में भेद होगा, शब्द अलग होगें, प्रतीक अलग होगें मगर जो एक सिद्ध बोलता है, वह सभी सिद्धो की वाणी है। इनसे अन्यथा नहीं हो सकता है। इसलिए जिसने एक सिद्ध को पा लिया, उसने सारे सिद्धो की परम्परा को पा लिया। क्यांेकि उनका सूत्र एक ही है। कुंजी तो एक ही है, जिसमें ताला खुलता है अस्तित्व का।
(3) परमात्मा त्यागी नहीं है, परमात्मा परम भोगी है, इस सारे अस्तित्व के भोग में लीन है। परमात्मा स्वयं त्यागी नहीं है। लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें समझा दिया है। इस त्याग के कारण या तो तुम दीन हो जाते हो- एक परिणाम, कि तुम्हें लगता है मैं गर्हित, मैं निंदित, मैं पापी, मैं नारकीय, मुझसे त्याग नहीं होता! या, अगर तुम चालबाज हुये, चालाक हुये- वह तरकीब निकाल लेगा वह त्याग का आवरण खड़ा कर लेगा।
(4) जिसको ज्ञान होता है वह ब्रह्मस्वरूप हो गया। जिसने स्वयं को जाना वह स्वयं ब्रह्म हो गया। उसे जानते ही वही हो जाता है। फिर शेष सब उसके बाद है। वह समयातीत हो गया, काल और क्षेत्र के बाहर चला गया। वह प्रथम है, वही अन्तिम है। सबसे पहले वही, सबसे अन्त में भी वही। असल में फिर एक ही है, दो नहीं हैं। फिर कौन गुरू, कौन चेला। फिर कौन भक्त, कौन भगवान! इतना भेद भी नहीं बचता, नहीं बचना चाहिए। इस अभेद में ही आन्नद की वर्षा है, अमृत का अनुभव है।
(5) जब इन्द्रिया बाहर की तरफ जाती है, अलग-अलग हो जाती है। जैसे कि तुम किसी वर्तुल के केन्द्र से रेखायें खीचों परिधि की तरफ तो जैसे-जैसे ये परिधि की तरफ बढ़ेगी, एक दुसरे से अलग होने लगेगी। अगर तुम परिधि से केन्द्र की तरफ खीचों, तो जैसे-जैसे केन्द्र की तरफ आने लगेगी, वैसे-वैसे करीब होने लगेगी। केन्द्र पर आकर एक हो जायेगी। उस केन्द्र का नाम आत्मा है, जिस पर सारी इन्द्रिया एक है।
(6) मेरी दृष्टि में- जो सबसे चमकते हुये सितारे है वे हैं- कृष्ण, पंतजली, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। राम की कोई मौलिक देन नहीं है, कृष्ण की मौलिक देन है। इसलिए हिन्दूओं ने भी राम को पूर्णावतार नहीं कहा। नागार्जुन, बुद्ध में समाहित है। जो बुद्ध में बीज रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रकट किया है। ऐसे ही कृष्णमूर्ति भी बुद्ध में समा जाते है। कृष्णमूर्ति, बुद्ध का नवीनतम संस्करण है। रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते है। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते है। जैसे कबीर की ही शाखायें है। जैसे कबीर में जो इकट्ठा था। वह आधा नानक में प्रकट हुआ है, और आधा मीरा में। मीरा की इकतारे पर कबीर की नारी गायी है। नानक में कबीर का पुरूष बोला है। कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते है। कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हो सकती है। अब इन चार (कृष्ण, पंतजली, बुद्ध, गोरख) से मैं किसी को भी छोड़ न सकूगाँ। जैसे चार दिशाएं है। ऐसे ये चार व्यक्तित्व है। जैसे काल और क्षेत्र के चारो आयाम है। ऐसे ये चार आयाम है। जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाएं सोची है। ऐसे ये चार भुजाएँ है। ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक को चार भुजाएँ है। भारत की सारी संत-परम्परा गोरख की ऋणी है जैसे पंतजली के बिना भारत में योग की कोई सम्भावना न रह जायेगी, जैसे बुद्ध के बिना ध्यान को आधार शिला उखड़ जायेगी, जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा- ऐसे गोरख के बिन उस परम को पाने के लिए विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था बनी, वह न बन सकेगी।
(7) कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते है तब भी योगी जागता है। इसका मतलब यह नहीं है कि योगी बैठे हैं या खड़े है कमरे में और जाग रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि शरीर सो जाता है मगर भीतर एक ज्योति जलती रहती है। एक होश सधा रहता है। ऐसा अगर हो जाय तो फिर न तो तुम जानोगें कभी बुढ़ापा आया और न जानोगे कि कभी मौत आयी। इसका मतलब यह नहीं है कि बूढ़े नहीं होओगे। शरीर बूढ़ा होगा, मगर तुम बूढ़े नहीं होओगे। शरीर ही मरेगा, तुम अमृत हो गये। गोरख के दो नाम प्रचलित है। एक नाम है- गोरख गोपाल। वह सदा ताजे, युवा रहे। दुसरा नाम है बूढ़ाबाल। बूढ़े हो गये फिर भी बालक के जैसे रहे, उतने ही ताजे। जैसे- सुबह-सुबह की ताजी-ताजी ओस, सुबह-सुबह खिली हुई फूल की कली, ऐसे ही ताजे रहे, उनकी ताजगी कभी न गयी।
(8) तंन्त्र, वाममार्ग, अघोरपंथ, नाथपंथ। ये सब नाम तंन्त्र के ही नाम है। वाम मार्ग का अर्थ होता है। बायें हाथ का रास्ता। तुम्हारे पास दो हाथ है- एक दायां हाथ है, तुम्हारा दायां हाथ जुड़ा है बायें मस्तिष्क से जिससे- तर्क, गणित, कर्मठता कार्यकुशलता, चालाकी, राजनीति, संसार, गद्य, विज्ञान, हिसाब/किताब, उपयोगिता, बाजार। तुम्हारा दायां मस्तिष्क जो कि बायें हाथ से जुड़ा है, काव्य का स्रोत है- अनुभूति, भाव, कला, प्रज्ञा, आन्नद, मस्ती, नृत्य, संगीत, उत्सव, कल्पना। जो भी मधुर है। जो भी स्त्रैण है, जो भी सुन्दर है उस सब का जन्म तुम्हारे दायें मस्तिष्क में होता है। यह तो बायां हाथ है वह तुम्हारे भीतर स्वांतः सुखाय का प्रतीक है। इसका कोई लक्ष्य नहीं है इसकी कोई दिशा नहीं है। यह कहीं जा नहीं रहा है। यह तो इसी क्षण में आन्नद मस्त, मुग्ध, होकर जीने की कला है। संसार सदा से दायें हाथ पर जोर देता रहा है, क्योंकि दायें हाथ में उपयोगिता है।
(9) वाममार्ग का अर्थ होता है- जीवन का लक्ष्य काम नहीं, विश्राम है। जीवन का लक्ष्य धन नहीं है, ध्यान है। जीवन का लक्ष्य गणित नहीं है, काव्य है। जीवन का चरमशिखर विज्ञान से उपलब्ध नहीं होगा, धर्म से उपलब्ध होगा। वाममार्ग कहता है- प्रेम प्रार्थना है। कुछ भी छोड़ना नहीं है, क्यांेकि जो परमात्मा ने दिया है उसकी उपयोगिता है उसका उपयोग करो और सीढ़ी बनाओं। वाममार्ग का अद्भुत संदेश है- अगर तुम बुद्धिमान हो तो जहर का ऐसा उपयोग करोगें कि वह औषधि हो जाये अगर तुम बुद्धु हो तो औषधि को भी जहर बना लोगे। वाममार्ग है- जीवन का सहज स्वीकार, उत्साहपूर्ण स्वीकार ! जीवन का उसकी समग्र विधा में जीने की क्षमता साहस।
(10) अघोर का अर्थ होता है- सरल। किसी को ”घोरी“ कहो तो गाली हो सकती है घोर का अर्थ है- जटिल। अघोर का अर्थ होता है- सरल, बच्चे जैसा निर्दोष। अघोर तो सिर्फ थोड़े से बुद्धो के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। गौतम बुद्ध-अघोरी, कृष्ण-अघोरी, क्राइस्ट-अघोरी, लोओत्सु-अघोरी। गोरख-अघोरी। सरल निर्दोष, सीधे-साधे। इतने सरल कि गणित जीवन में है ही नहीं। हिसाब किताब लगाने का भाव ही चला गया है।
(11) कृष्ण वाममार्गी है। तुम बुद्ध से ज्यादा प्रभावित हो जाते है क्योंकि वह राजमहल छोड़कर जाते है। तुम कृष्ण की अगर प्रशंसा भी करते हो तो थोड़े दबे-दबे कंठ से, थोड़े डरे-डरे, थोड़े भयभीत। अगर लोग कृष्ण की प्रशंसा भी करते है तो गीता वाले कृष्ण की करते है। पूरे कृष्ण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोगों की है। क्योंकि कृष्ण तो तुम्हारे जैसे मालुम पड़ते है बल्कि तुमसे भी आगे बढ़े हुये। तुम्हारा कृष्ण का स्वीकार अधुरा है। तुम कृष्ण में से बहुत सी बातें काट छांट कर डालना चाहोगे। तुम कृष्ण में संशोधन करने को सदा तत्पर हो। कृष्ण को लोग अपने-अपने हिसाब से मानते है। जितना मान सकते है उतना मान लेते है। बाकी छोड़ देते है। कृष्ण को पहचानने के लिए बड़ी गहरी आँखें चाहिए। कृष्ण को पहचानने के लिए जब तक भीतर की आँख न खुली हो। तब तक पहचानना मुश्किल है। क्योंकि वे वहीं खड़े है, भेद तो कुछ भी नहीं। उपर से भेद नहीं है भीतर से भेद है। तो जब तक भीतर देखने की क्षमता न हो, तब तक तुम कृष्ण को न समझ पाओंगे।
(12) उसके लिए सब हंसी खेल है, सब लीला है। इसलिए हमने कृष्ण को पूर्णावतार कहा। राम गम्भीर हैं छोटी-छोटी बात का हिसाब रखते है। नियम मर्यादा से चलते है- मर्यादा पुरूषोत्तम है। कृष्ण अमर्याद है न कोई नियम है न कोई मर्यादा। कृष्ण के लिए जीवन लीला है।
(13) कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम से कम पाँच हजाार वर्ष पहले पैदा हुये। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर महत्वपूर्ण में इतना फर्क है और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता । उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते तब हम उसकी पूजा शुरु कर देते हैं या तो हम उसका विरोध करते हैं। दोनों पूजाएं हैं एक मित्र की एक शत्रु की।
(14) राम कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण अवतार की तरह नहीं हैं, अंश हैं उनका अवतार। उपनिषद् के ऋषि कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। परमात्मा अगर पृथ्वी पर पूरा उतरे तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा। इसलिए श्रीकृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छु पाये हैं; बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी-डाइमेन्सनल; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता हो। राम वन-डाइमेन्सनल है। अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी सम्भव है, जब वह आदमी भी मल्टी-डाइमेन्सनल हो। हम आम तौर पर एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी हीेती है, उस पटरी पर हम चलते है। 
(15) कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया है कि कृष्ण का सम-सामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य के समझ से बाहर है। भविष्य में यह सम्भव हो पायेगा कि कृष्ण को हम समझ पाये। इसके कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों पर होकर भी गम्भीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं साधारण सन्त का लक्षण रोता हुआ होना है। जिन्दगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए इस देश में और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है। कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा गया है राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे परमात्मा हैं और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात् कर लिया है। कृष्ण अकेले हैं तो शरीर को उसकी समस्त में स्वीकार कर लेते हैं, ‘टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं सभी आयाम में सच है। 
(16) कृष्ण शान्तिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक चुनते है। एक अन्य वादी है। कृष्ण कहते हैं, शान्ति में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है, युद्ध में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरुरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए, शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत चाहिए निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाये इसलिए लड़ाई है तो धीरे-धीरे दो हिस्सा दुनियाँ के बट जायेंगे, जल्दी ही जहाँ एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतन्त्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते है? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियाँ इस जगह आ जाती है। जहाँ कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियाँ उस चेतना को भी पुकार लेती हैं, उस चेतना को भी जन्म दे देती है वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है।
(17) मेरे लिए सन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बन्धन नहीं मेरे लिए सन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए सन्यास कोई डिसिप्लिन नहीं है मेरे लिए सन्यास व्यक्ति के परम विवेक में स्वतन्त्रता की उद्भावना है उस व्यक्ति को मैं सन्यासी कहता हूँ जो परम स्वतन्त्रता में जीने का साहस करता है। न ही कोई बन्धन ओढ़ता है, न ही कोई व्यवस्था, न ही कोई अनुशासन ओढ़ता है। सन्यासी का मेरे लिए यहीं अर्थ है। जीवन की सघनता में खड़े होकर अगर कोई सन्यास के फूल खिलाना चाहता है तो एक ही अर्थ हो सकता है कि वह कर्ता न रह जाय, भोक्ता न रह जाय अभिनेता हो जाय, साक्षी हो जाय। देखें, करे लेकिन कहीं भी बहुत गहरे में बधंे नहीं सन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते है, कौन बाधा डालने वाला है? सन्यास आप ने लिया था, सन्यास आप छोड़ दे। आप के अतिरिक्त इसमें और कोई निर्णायक नहीं है। कम से कम सन्यासी सिर्फ धर्म का होना चाहिए। वह जैन न हो, ईसाई न हो, हिन्दू न हो। वह तो सिर्फ धर्म का हो। साथ ही ध्यान रहे, अब तक सन्यास सदा ही गुरु से बँधा रहा है- कोई गुरु दीक्षा देता है। सन्यास ऐसी चीज नहीं है जिसे कोई दे सके। सन्यास ऐसी चीज है जो लेनी पड़ती है, देता कोई नहीं या कहना चाहिए कि परमात्मा के सिवा कौन दे सकता है सन्यास?“ 
(18) रास का जो अर्थ है, वह सृष्टि की जो धारा है, उस धारा का ही गहरे- से -गहरा सूचक है। जीवन दो विरोधियों के बीच का खेल है। ये विरोधी लड़ भी सकते है, तब युद्ध हो जाता है। ये विरोधी मिल भी सकते है, तब प्रेम हो जाता है लेकिन लड़ना हो कि मिलना हो, दो की अनिवार्यता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है । हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं। यह हमारी स्थूल आँखे जो देख सकती है, उतना ही दिखाई पड़ रहा है लेकिन कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है। कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा सा नाटक है जो समस्त में चल रहा है। नृत्य उसकी एक बहुत छोटी सी झलक है। उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। कृष्ण, कृष्ण की तरह वहाँ नहीं नाचते कृष्ण वहाँ पुरुष तत्व की तरह नाचते है। गोपिकाएँ स्त्रियों की तरह वहाँ नाचती है, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं। प्रकृति और पुरुष का नृत्य है वह। वहाँ व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है। ‘इन्डिविजुअल’ का कोई मतलब नहीं है, इसलिए यह भी सम्भव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सका। अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नाच नहीं सकता हैै। एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है। और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहा है। निश्चित ही- इसे हम व्यक्तिवाची मानेंगे तो कठिनाई में पड़ेंगे। विराट प्रकृति और विराट पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य निकटतम है। अद्वैत के नृत्य निकटतम है उत्सव के। नृत्य निकटतम है रहस्य के। यह जो नृत्य चल रहा है चाँद के नीचे, आकाश के नीचे, इस नृत्य को साधारण नृत्य मैं नहीं कहता हूँ इसलिए यह किसी के मनोरंजन के लिए नहीं हो रहा है, किसी को दिखाने के लिए नहीं हो रहा है। कहना चाहिए एक अर्थों में ‘ओवर फ्लोइंग’ है इतना आनन्द भीतर भरा है कि वह सब तरफ बह रहा है। 
(19) जिसने बिना धैर्य के ध्यान किया, वह राजसी है जिसने बिना ध्यान के धैर्य रखा वह तामसी है और जिसने धैर्य और ध्यान का सन्तुलन बना लिया, वह सात्विक है। तब तुम्हें कृष्ण का सुख समझ में आ जायेगा की वह सत्व का क्या अर्थ है। धैर्य ऐसा, जैसे आलसी पुरुषों में होता है उन्हें कुछ पाने की जल्दी नहीं होती। पाने का ख्याल ही नहीं होता, कोई दौड़ ही नहीं होती। वे बैठे हैं, मिट्टी के ढेर है, कोई जीवन नहीं है, कोई उर्जा नहीं है, कोई गति नहीं है। फिर राजसी पुरुष हैं उनमें दौड़ तो बहुत होती है, रुकने की क्षमता नहीं होती ठहर नहीं सकते, प्रतीक्षा नहीं कर सकते, भाग सकते हैं जब कभी राजसी व्यक्ति जैसी उर्जा और आलसी जैसा धैर्य होता है तब ध्यान और धैर्य का संगम होता है। तब सोने में सुगन्ध आ जाती है तब सत्व का जन्म है। जीवन एक कला है वहाँ विपरीत को मिलाने की क्षमता होनी चाहिए।
(20) धर्म कोई विषय थोड़े ही है। धर्म की कोई सीमा थोड़े ही है। धर्म तो समस्त जीवन का नाम है। जीवन में जो कुछ भी समाविष्ट है, धर्म उस सभी के सम्बन्ध में वक्तव्य देने का हकदार है। राजनीतिज्ञ धर्म के सम्बन्ध में वक्तव्य नहीं दे सकता, क्योंकि राजनीति की सीमा है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति राजनीति के सम्बन्ध में वक्तव्य दे सकता है। क्योंकि धर्म की कोई सीमा नही है धर्म असीम है धर्म तो पूरे जीवन को घेरता है जैसे आकाश घेरता है। धर्म से तो कोई भी चीज छोड़ी नहीं जा सकती। धार्मिक व्यक्ति की दृश्टि तो सब सम्बन्धों में होगी।
(21) भारत ने एक राजनीति तय कर ली- धर्म निरक्षेपता की इसका परिणाम धर्म पर होने वाला है। यह बात गलत है। कोई राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष नहीं होना चाहिए। हाँ किसी विशिष्ट सम्प्रदाय का प्रभुत्व न हो यह ठीक है, लेकिन धर्मनिरपेक्ष तो कोई राज्य कैसे हो सकता है? हिन्दू न हो, मुसलमान न हो, यह ठीक है। होना ही नहीं चाहिए हिन्दू और मुसलमान। लेकिन यह अति है कि राष्ट्र हिन्दू हो जाता है, कि मुसलमान हो जाता है, दूसरी अति है कि राज्य अधार्मिक हो जाता है कि हमें धर्म से कुछ लेना देना नहीं है। आदमी के प्राण का इतना बहुमुल्य हिस्सा और तुम कहोगे हमें उससे कुछ लेना देना नहीं है! उसके घातक परिणाम होगें। राज्य को धर्म के तरफ सुविधा बनानी ही होगी। राज्य को धार्मिक नहीं होने की जरूरत है। हिन्दू, मूसलमान के अर्थ में, मगर होने की जरूरत है इस अर्थ में कि देश में ध्यान बढ़े, प्रेम बढ़े, शान्ति बढ़े। लोगों के जीवन में योग उतरे। लोगों के जीवन में एक अंतरंग अनुशासन जन्में और लोगों के भीतर आत्मा पैदा हो।
(22) यह जमाना बुरा आया है। अब तो एक ही उपाय है कि जो तुम्हारे हृदय में हो उसको तुम्हारे आचरण में बहने दो। अब वे दिन गये जब सूक्ष्म में जीते थे। अब तो स्थूल में बताना होगा। यह स्थूल युग आया। लोग शरीर को मानते हैं, आत्मा को तो मानते ही कहाँ? लोग संसार को मानते है, परमात्मा को मानते ही कहाँ? लोग पत्थर को मानते है, प्रेम को मानते ही कहाँ? यहाँ तो लोग जिसका दर्शन हो सके, स्पर्श हो सके, इंद्रियों से पकड़ में आ सके, उसको मानते है। तो अब तुम्हें धर्म को भी इस तरह लाना होगा। इसलिए अब हृदय में रखने की बात नहीं है इसे अपने हाथ में लाना होगा। बुद्ध ने करूणा बरसाई, मगर वह हृदय की थी, अस्पताल नहीं खोले, नही तो हाथ की हो जाती। बीमारों के हाथ पैर नहीं दबाये, नहीं तो हाथ की हो जाती। अगर इस दुनिया में ईसाइयत का प्रभाव बढ़ता जाता है तो इसका और कुछ कारण नहीं है, उसका कारण है कि ईसाइयत के पास स्थूल की पकड़ है और जो पुराने धर्म है- हिन्दू हंै, जैन हंै, बौद्व हंै, इनकी पकड़ अभी स्थूल पर नहीं है। इसकी पकड़ अभी सूक्ष्म पर है। ये पुराने दिनों की बात कर रहें हैं। ये सतयुग की बाते कर रहें है। अब जमाना और है जो चीज तुल सकती है तराजू पर, वही मानी जायेगी। हिन्दू बहुत परेशान रहते है कि लोग ईसाई क्यों बनाये जा रहें है, लोगों को रिश्वत दी जा रही है, लोगों को ईसाई बनाया जा रहा है। यह सब बकवास है। कोई किसी को जबरदस्ती ईसाई नहीं बना रहा है लेकिन ईसाइयत इस युग के बड़े अनुकूल मालूम पड़ती है गरीब को लगता है कि कुछ सहारा मिला। ईसाई मिशनरी आता है, वह पहले भोजन की ही बात करता है। ध्यान की तो वह कभी बात करता ही नहीं, वहाँ सिर्फ भोजन है। अस्पताल खोल देता है। स्कूल खोल देता है। लोगों को लगता है कि यह बात ठीक है, यह धर्म की बात हो रही है। आज दुनिया में एक तिहाई ईसाई है। सारे धर्मो पर छाती चली गयी है। उसका कुछ कारण इतना है कि देश के धर्म सतयुग की भाषा ही बोले चले जाते है। अभी भी हम कहते हैं कि साधु की सेवा करो और ईसाई कहता है कि साधु वह जो सेवा करें। इन दोनों का फर्क समझ लो।
(23) यह पूरा देश भाग्य के भोरोसे पर मर गया, इस पूरे देश पर आलस्य छा गया है, यह पूरा देश काहिल और सुस्त हो गया है, और इसमें अपनी काहिली और सुस्ती को बड़ा आध्यात्मिक रंग दिया कि भाग्य में जो होगा सो होगी। तो गरीबी है। भिखमंगी है तो भिखमंगी, गुलामी है तो गुलामी। भाग्य से सब कुछ होगा। उसकी जब इच्छा होगी तो सब ठीक हो जायेगा, हमें तो घिसटना है। इस देश का दुःख है कि हमने यह सूत्र पकड़ लिया आलस्य का, हम पड़े रह गये। पश्चिम की पीड़ा यह है कि उन्होंने सक्रियता पकड़ ली, इतनी ज्यादा पकड़ ली कि अब ये रात सोये कैसे, यह भी भूल गये। पश्चिम पागल हुआ जा रहा है। अतिसक्रियता के कारण। और पूर्व दीन-दरिद्र हो गया अति निष्क्रियता के कारण।
(24) उपाधियाँ मिलती है- पीएच0 डी0, डी0 लिट0 और डी0 फिल0। और उनका बड़ा सम्मान होता है। उनका काम क्या है? उनका काम यह है कि वे तय करते हैं कि गोरखनाथ कब पैदा हुए थे। कोई कहता है दसवीं सदी के अंत में, कोई कहता है ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भ में। इस पर बड़ा विवाद चलता है। बड़े-बड़ विश्वविद्यालयों के ज्ञानी सिर खपा कर खोज में लगे रहते है। शास्त्रो की, प्रमाणों की, इसकी, उसकी। उनकी पूरी जिन्दगी इसी में जाती है। इससे बड़ा अज्ञान और क्या होगा? गोरख कब पैदा हुए, इसे जानकर करोगे क्या? इसे जान भी लिया तो पाओगे क्या? गोरख न भी पैदा हुए, यह भी सिद्ध हो जाये, तो भी क्या फायदा? हुए हों या न हुए हों, अर्थहीन है। गोरख ने क्या जिया उसका स्वाद लो। इसलिए तुम्हारे विश्वविद्यालय ऐसी व्यर्थता के कामों में संलग्न है कि बड़ा आश्चर्य होता है कि इन्हें विश्वविद्यालय कहो या न कहो। इनका काम ही........तुम्हारे विश्वविद्यालय में चलने वाली जितनी शोध है, सब कूड़ा-करकट है। 
(25) दुनिया में दो तरह की शिक्षायें होनी चाहिए, अभी एक ही तरह की शिक्षा है। और इसलिए दुनिया में बड़ा अधुरापन है। बच्चों को हम स्कूल भेजते है, कालेज भेजते है, युनिवर्सिटी भेजते है, मगर एक ही तरह की शिक्षा वहाँ- कैसे जियो? कैसे आजिविका अर्जन करेें? कैसे  धन कमाओं? कैसे पद प्रतिष्ठा पाओं। जीवन के आयोजन सिखाते हैं जीवन की कुशलता सिखाते है। दूसरी इससे भी महत्वपूर्ण शिक्षा वह है- कैसे मरो? कैसे मृत्यु के साथ आलिंगन करो? कैसे मृत्यु में प्रवेश करो? वह शिक्षा पृथ्वी से बिल्कुल खो गयी। ऐसा अतीत में नहीं था। अतीत में दोनों शिक्षाएं उपलब्ध थीं। इसलिए जीवन को हमने चार हिस्सों में बाँटा था। पच्चीस वर्ष तक विद्यार्थी का जीवन, ब्रह्मचर्य का जीवन। गुरू के पास बैठना। जीवन कैसे जीना है, इसकी तैयारी करनी है। जीवन की शैली सीखनी है। फिर पच्चीस वर्ष तक गृहस्थ का जीवन: जो गुरू के चरणों में बैठकर सिखा है उसका प्रयोग, उसका व्यावहारिक प्रयोग। फिर जब तुम पचास वर्ष के होने लगो तो तुम्हारे बच्चे पच्चीस वर्ष के करीब होने लगेगें। उनके गुरू के गृह से लौटने के दिन करीब होने लगेगें। अब उनके दिन आ गये कि वे जीवन को जिये। फिर भी पिता और बच्चे पैदा करते चला जाये तो यह अशोभन समझा जाता था। यह अशोभन है। अब बच्चे, बच्चे पैदा करेंगे। अब तुम इन खिलौनों से उपर उठो। तो पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ। जंगल की तरफ मुँह- इसका अर्थ होता है कि अभी जंगल गये नहीं, अभी घर छोड़ा नहीं लेकिन घर की तरफ पीठ जंगल की तरफ मुँह। ताकि तुम्हारे बेटों को तुम्हारी सलाह की जरूरत पड़े तो पूछ लें। अपनी तरफ से सलाह मत देना। वानप्रस्थी स्वयं सलाह नहीं देता। फिर पचहत्तर वर्ष के जब तुम हो जाओंगे, तो सब छोड़कर जंगल चले जाना। वे शेष अंतिम पंचीस वर्ष मृत्यु की तैयारी थे। उसी का नाम सन्यास था। पचीस वर्ष जीवन के प्रारम्भ में जीवन की तैयारी, और जीवन के अंत में पच्चीस वर्ष मृत्यु की तैयारी।
(26) आज भारत गरीब है। भारत अपनी ही चेष्टा से इस गरीबी से बाहर नहीं निकल सकेगा, कोई उपाय नहीं है। भारत गरीबी के बाहर निकल सकता हैं, अगर सारी मनुष्यता का सहयोग मिले। क्योंकि मनुष्यता के पास इस तरह के तकनीक, इस तरह का विज्ञान मौजूद है कि इस देश की गरीबी मिट जाये। लेकिन तुम अकड़े रहे कि हम अपनी गरीबी खुद ही मिटायेगें, तो तुम हीं तो गरीबी बनाने वाले हो, तुम मिटाओंगे कैसे? तुम्हारी बुद्धि इसकी भीतर आधार है, तुम इसे मिटाओंगे कैसे? तुम्हें अपने द्वार-दरवाजे खोलने होगें। तुम्हें अपना मस्तिष्क थोड़ा विस्तार करना होगा। तुम्हे मनुष्यता का सहयोग लेना होगा। और ऐसा नहीं कि तुम्हारे पास कुछ देने को नहीं है। तुम्हारे पास कुछ देने को है दुनिया को। तुम दुनिया को ध्यान दे सकते हो। अगर अमेरिका को ध्यान खोजना है तो अपने बलबूते नहीं खोज सकेगा अमेरिका। उसे भारत की तरफ नजर उठानी पड़ेगी। मगर वे समझदार लोग हैं। ध्यान सीखने पूरब चले आते हैं। कोई अड़चन नहीं है उन्हें बाधा नहीं है। बुद्धिमानी का लक्षण यहीं है कि जो जहाँ से मिल सकता हो ले लिया जाये। यह सारी पृथ्वी हमारी हैं। सारी मनुष्यता इकट्ठी होकर अगर उपाय करे तो कोई भी समस्या पृथ्वी पर बचने का कोई भी कारण नहीं है।
(27) जब कोई देश गरीब होता है तब वहाँ कम्युनिज्म उठता है, धर्म नहीं। तब लोग मारने-मरने की उतारू हो जाते हैं। तब घिराव होता है, हड़तालें होती है, दंगे-फसाद होते है, हत्यायें-हिंसाए होती है। तब भजन नहीं उठता। भूखा अदमी हिंसा कर सकता है, प्रेम नहीं। भूखा आदमी क्रुद्ध होता है। भूखा आदमी करूणावान नहीं हो सकता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हँू यह देश ज्यादा दिन गरीब रह गया- जैसा कि इस देश के नेताओं ने तय कर रखा है कि गरीबी रहे- तो इस देश में सिवाय कम्युनिज्म के और कोई सम्भावना न रह जायेगी। जाने-अनजाने यह देश कम्युनिज्म की तरफ ले जाया जा रहा है। ले जाने वाले शायद इस बात से परिचित भी न हो, होश भी न हो उन्हें, शायद वे तो यही कोशिश करते है कि देश कम्युनिस्ट न हो जाये, मगर तुम्हारे कोशिशो का सवाल नहीं है, अगर देश गरीब रहता है तो कम्युनिज्म के सिवाय कुछ और नहीं हो सकता। भजन नहीं पैदा हो सकता।
(28) मैं इस देश को फिर से युवा करना चाहता हूँ। लेकिन बुढ़े नाराज है। बहुत नाराज हैं। पंण्डित, पुरोहित, पुरातनवादी बहुत नाराज है। उन्हें लगता है, मैं धर्म भ्रष्ट कर रहा हँू। उन्हें पता ही नहीं। उन्हें अपने संस्कृति का भी पता नहीं।
(29) इस देश को कुछ बाते समझनी होगी। एक तो इस देश को यह बात समझनी होगी कि तुम्हारी परेशानियों, तुम्हारी गरीबी, तुम्हारी मुसीबतों, तुम्हारी दीनता के बहुत कुछ कारण तुम्हारे अंध विश्वासों में है, कम से कम डेढ़ हजार साल पिछे घिसट रहा है। ये डेढ़ हजार साल पूरे होने जरूरी है। भारत को खिचकर आधुनिक बनाना जरूरी है। मेरी उत्सुकता है कि इस देश का सौभाग्य खुले, यह देश भी खुशहाल हो, यह देश भी समृद्ध हो। क्योंकि समृद्ध हो यह देश तो फिर राम की धुन गुंजे, समृद्ध हो यह देश तो फिर लोग गीत गाँये, प्रभु की प्रार्थना करें। समृद्ध हो यह देश तो मंदिर की घंटिया फिर बजे, पूजा के थाल फिर सजे। समृद्ध हो यह देश तो फिर बाँसुरी बजे कृष्ण की, फिर रास रचे! यह दीन दरिद्र देश, अभी तुम इसमें कृष्ण को भी ले आओंगे तो राधा कहाँ पाओगे नाचनेवाली? अभी तुम कृष्ण को भी ले आओगें, तो कृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ जायेगें, माखन कहाँ चुरायेगें? माखन है कहाँ? दूध दही की मटकिया कैसे तोड़ोगे? दूध दही की कहाँ, पानी तक की मटकिया मुश्किल है। नलो पर इतनी भीड़ है! और एक आध गोपी की मटकी फोड़ दी, जो नल से पानी भरकर लौट रही थी, तो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देगी कृष्ण की, तीन बजे रात से पानी भरने खड़ी थी नौ बजते बजते पानी भर पायी और इन सज्जन ने कंकड़ी मार दी। धर्म का जन्म होता है जब देश समृद्ध होता है। धर्म समृद्ध की सुवास है। तो मैं जरूर चाहता हँू यह देश सौभाग्य शाली हो लेकिन सबसे बड़ी अड़चन इसी देश की मान्यताएं है। इसलिए मैं तुमसे लड़ रहा हँू। तुम्हारे लिए।
(30) मनुष्य जाति की अस्सी प्रतिशत क्षमता युद्व में चली जाती है। यही अस्सी प्रतिशत क्षमता खेतो में लगे, कारखानों में लगें, यह पृथ्वी स्वर्ग हो जायेगी। जो सपना तुम्हारे ऋषि-महर्षि देखते थे- आकाश में स्वर्ग का, वह अब पृथ्वी पर बन सकता है, कोई रूकावट नहीं। लेकिन पुरानी आदतंे। यह हमारा देश, वह उनका देश। हमें भी लड़ना है। गरीब से गरीब देश भी अणुबम बनाने की चेष्टा में संलग्न है। भूखे मर रहे, मगर अणुबम बनाना है। भारत देश जैसे देश के पीछे भी यही भाव है। भूखे मर जाये, मगर अपनी शान रखनी है।
(31) इन आने वाले पच्चीस वर्षो में बड़ी निर्णायक घड़ी है। या तो आदमी नष्ट होगा और यह पृथ्वी आदमी से शून्य हो जायेगी, या फिर एक नये आदमी का जन्म होगा- एक नयी सुबह! लेकिन ये जो छोटे-छोटे चिराग जले है, इन्हीं से आशा बनी है।  


No comments:

Post a Comment