Sunday, March 15, 2020

धर्म एवं धर्मदर्शन

साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्म एवं धर्मदर्शन
वस्तुतः धर्मदर्शन न तो स्वयं धर्म ही है और न ही दर्शन। वरन् धर्म के दार्शनिक विवेचन को ही धर्मदर्शन कहते हैं। धर्मदर्शन के अन्तर्गत विश्व के समस्त धर्म और उनके विषय क्षेत्र के अध्ययन की विषय-वस्तु होती है। वह ईश्वरवादी एवं अनीश्वरवादी, आत्मवादी एवं अनात्मवादी धर्म प्रत्यय-प्रतीक तत्व, ईश्वर के गुण आदि की विवेकपूर्ण निष्पक्ष तुलनात्मक बौद्धिक व्याख्या प्रस्तुत करता हे। उन्हें तार्किक आधार प्रदान करता है। इसलिए वर्तमान जीवन के लिए धर्मदर्शन का विशिष्ट महत्व है। धर्मदर्शन धार्मिक चेतना से प्राप्त दिव्य जीवन की दार्शनिक अभिव्यक्ति है, व्याख्या है तथा दोनों ही (धर्म एवं धर्मदर्शन) सत्य को महत्व देते हैं।
जाॅन हिक के अनुसार - ”धर्म के सन्दर्भ में दार्शनिक चिंतन ही धर्मदर्शन है।“
प्रो. गैल्वे के अनुसार - ”धर्मदर्शन, दार्शनिक विधियों एवं दार्शनिक सिद्धान्तों का धर्म पर प्रयोग है।“
प्रो. डी.एम.एडवर्ड के अनुसार - ”धर्मदर्शन, धार्मिक अनुभूति के स्वरूप, व्यापार, मूल्य तथा सत्यता की दार्शनिक खोज है।“
प्रो. ब्राइटमैन के अनुसार - ”धर्मदर्शन, धर्म की बौद्धिक व्याख्या की खोज का एक प्रयास है। यह धर्म का सम्बन्ध अन्य अनुभूतियों से बतलाकर विश्वासों की सत्यता, धार्मिक मनोवृत्तियों एवं आधारों का मूल्य स्पष्ट करता है।“
महर्षि अरविन्द के अनुसार - ”धर्म एक क्षण भी खड़ा नहीं रह सका होता यदि वह महान सत्यों की बौद्धिक व्याख्या से अपनी पुष्टि नहीं करता, चाहे वे कितने ही अपर्याप्त हों“


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