Sunday, March 15, 2020

भगवान ब्रह्मा के अवतार: एक परिचय

 भगवान ब्रह्मा के अवतार: एक परिचय
सम्पूर्ण आध्यात्मिक सूक्ष्म एवम् स्थूल सिद्धान्तों को व्यक्त करने का माध्यम मात्र मानव शरीर और कर्मक्षेत्र मात्र मानव ही है साथ ही उसका मूल्यांकन कत्र्ता मानव का अपना मन स्तर ही है। इसलिए अवतार सम्पूर्ण सिद्धान्तों का कालानुसार व्यक्त सगुण रूप मानव शरीर ही होता है। मूल रूप से अवतार शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अवतार के रूप में जाने जाते हैं। क्योंकि एक मात्र कर्म ही मानव समाज में सार्वजनिक प्रमाणित होता है। इस एकात्म कर्म का कारण एकात्म प्रेम तथा एकात्म प्रेम का कारण एकात्म कर्म होता है। 
ब्रह्मा अर्थात् एकात्म ज्ञान का व्यक्त रूप एकात्म वाणी अर्थात् सरस्वती है। एकात्म ज्ञान का कारण एकात्म वाणी तथा एकात्म वाणी का कारण एकात्म ज्ञान होता है। वह वाणी जो आत्मा के लिए हो और वह ज्ञान जो आत्मा के लिए हो अर्थात् सम्भाव वाणी और ज्ञानयुक्त मानव शरीर ही ब्रह्मा का अवतार है। बिना कर्म के ज्ञान प्रमाणित नहीं होता अर्थात् ज्ञान वही है जो व्यवहारिक हो। इस ज्ञान की खोज में भारत के ऋषि-मुनि, क्षत्रिय राजाओं ने लम्बे समय में चिन्तन और कर्म करके एकात्मज्ञान के शास्त्र-साहित्यों का भण्डार बना दिये है। उनमें से कुछ एकात्मज्ञान की ओर ले जाते है। तो कुछ संस्कारित मानव समाज के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य कर्म ज्ञान उपलब्ध कराते हैं। इस प्रकार वे सभी ऋषि-मुनि, और क्षत्रिय राजा एकात्म ज्ञान अर्थात् ब्रह्मा के ही अंशावतार है।
कर्म करते-करते एकात्म कर्म की ओर बढ़े मानव जाति के फलस्वरूप प्राप्त ज्ञान-कर्म ज्ञान सूत्रों का संकलन संहिता कहलाया। इस संहिता से विभिन्न दिशाओं से आत्मा के ज्ञान की ओर ले जाने वाले चार वेदों का वर्गीकरण हुआ। प्रथम-ऋग्वेद: ज्ञान द्वारा आत्मा का ज्ञान, द्वितीय-सामवेद: गायन द्वारा आत्मा का ज्ञान, तृतीय: यजुर्वेद: अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित कर्म-यज्ञों द्वारा आत्मा का ज्ञान, चतुर्थ-अथर्ववेद: औषधि द्वारा आत्मा का ज्ञान। इन वेदों के रचयिता - गृत्समद भार्गव परिवार, विश्वामित्र, कौशिक परिवार, वामदेव अंगिरस परिवार, भारद्वाज अंगिरस, कण्व परिवार, वशिष्ठ, घोर, जमदग्नि, तीन राजा-त्रसदस्यु, अजमीढ़ और पुरमीढ़ है। चूँकि बाद में आत्म तत्व और उसके सिद्धान्त के सम्बन्ध में ही देश-काल मुक्त ज्ञान होते है और ये ज्ञान और सिद्धान्त पूर्ण रूप से मानवीय प्रवृत्तियों से मुक्त अवस्था में होकर ही प्राप्त कर व्यक्त होता है। इसलिए इन्हें मानव शरीर द्वारा व्यक्त होते हुये भी ईश्वरकृत कहा जाता है। इन वेदों के उपरान्त ब्राह्मण ग्रन्थ - एतरेय, शतपथ, साम, गोपथ, वेदांग- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघटु, निरूक्त, छन्द, ज्योतिष, उपांग-मीमांसा, न्याय, सांख्य, योग, वैशेषिक, वेदान्त, उपवेद- यजुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्वेद, अथर्ववेद, कल्पसूत्र -श्रोतसूत्र (यज्ञों से सम्बन्धित), शुल्वसूत्र (यज्ञ स्थल, अग्नि वेदी निर्माण तथा माप से सम्बन्धित), गृह्य सूत्र (मानव जीवन से सम्बन्धित), धर्मसूत्र (धर्मिक तथा अन्य प्रकार के नियम), अरण्यक-एतरेय, कौशितकि, जैमिनीय, छन्दोग्य, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, शतपथ, उपनिषद्, एतरेय, कौशितकि, केन या तलवकार, छन्दोग्य, मैत्रीयणी, कठ, श्रोताक्षर, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, ईश, मुण्डक, प्रश्न, माण्डूक्य, पुराण-मत्स्य, मार्कण्डेय, भागवत, भविष्य, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, वायु, विष्णु, वाराह, वामन, अग्नि, नारदीय, पद्म, लिंग, गरूण, कर्म, स्कन्द, महाकाव्य-वाल्मीकि रचित रामायण और व्यास रचित महाभारत इत्यादि का सम्बन्ध मानव जीवन से है। इसलिए ये ऋषि-मुनि कृत कहा जाता है जो पूर्णतः वेदों पर ही आधारित है। उपनिषद् श्रृंखला में वर्तमान समय में उपनिषदों की संख्या एक सौ से उपर हो गयी है।
ज्ञान, वाणी और आदर्श चरित्र से युक्त हो ब्रह्मा के पूर्णावतार तथा विष्णु के अंशावतार श्रीराम का त्रेता युग में अवतरण हुआ था। उसके उपरान्त द्वापर में राम समाहित कृष्ण अर्थात् ब्रह्मा समाहित विष्णु के व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य पूर्णावतार के रूप में श्रीकृष्ण का अवतरण हुआ जिन्होंने उपनिषदों के सार को गीतोपनिषद् के रूप में प्रस्तुत कर सम्पूर्ण उपनिषदों का एकीकरण कर एकात्मज्ञान के साहित्यांे की श्रृंखला का अन्त कर दिये।
उपरोक्त सभी कार्य व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य काल में सम्पन्न हुये। वर्तमान के सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य काल में कृष्ण समाहित लव कुश सिंह ‘विश्वमानव’ अर्थात् विष्णु समाहित शिव-शंकर के सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित पूर्ण दृश्य पूर्णावतार ने गीतोपनिषद् के पूर्ण एकात्मज्ञान सहित एकात्म कर्मज्ञान को समभाव और उसके दृश्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को कर्मपेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचमवेद, कर्मोपनिषद्: समष्टि एवम् व्यष्टि, कर्मसूत्र साहित्य व्यक्त कर वेद, उपनिषद् और धर्मसूत्र साहित्यों की श्रृंखला का पूर्ण अन्त कर दिये।
ज्ञान तो सभी के साथ है परन्तु एकात्म ज्ञान ही ईश्वरीय ज्ञान है। ज्ञान की दिशा ही एकात्म निर्धारित करता है। कर्म द्वारा ज्ञान प्रमाणित होता है। ध्यान द्वारा ज्ञान और कर्म दोनों प्रमाणित होते है। ज्ञान तो सभी में है इसलिए सभी ब्रह्मा के अंशावतार ही है। परन्तु ब्रह्मा का सार्वोच्च और अन्तिम पूर्णावतार वही है जो एकात्मज्ञान और एकात्मवाणी से युक्त हो और कर्मक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हो।


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