Sunday, March 15, 2020

सत्ययुग के धर्म - 02. ब्राह्मण धर्म-ब्राह्मण गण-ईसापूर्व 6000-2500

सत्ययुग के धर्म - 02. ब्राह्मण धर्म-ब्राह्मण गण-ईसापूर्व 6000-2500

आरण्यक
सायण के अनुसार इसके नामकरण का कारण यह है कि इन ग्रन्थों का अध्ययन अरण्य (जंगल) में किया जाता था। अरण्यक का मुख्य विषय यज्ञभागों का अनुष्ठान न होकर तदंतर्गत अनुष्ठानों की आध्यात्मिक मीमांसा है। वस्तुतः यज्ञ का अनुष्ठान एक नितांत रहस्यपूर्ण प्रतीकात्मक व्यापार है और इस प्रतीक का पूरा विवरण आरण्यक ग्रन्थों में दिया गया है। प्राण विद्या का महिमा का भी प्रतिपादन इन ग्रन्थों में विशेष रूप से किया गया है। संहिता के मन्त्रों में इस विद्या का बीज अवश्य उपलब्ध होता है, परन्तु आरण्यकों में इसी को पल्लवित किया गया है। तथ्य यह है कि उपनिषद् आरण्यक में संकेतिक तथ्यों की विषद् व्याख्या करती हैं। इस प्रकार संहिता से उपनिषदों के बीच की श्रृंखला इस साहित्य द्वारा पूर्ण की जाती है।
आरण्यक हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च धर्मग्रन्थ वेदों का गद्य वाला खण्ड है। ये वैदिक वांग्मय का तीसरा हिस्सा है और वैदिक संहिताओं पर दिये भाष्य का दूसरा स्तर है। इनमें दर्शन और ज्ञान की बातें लिखी हुई हैं। कर्मकाण्ड के बारे में ये चुप हैं। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। वेद, मंत्र तथा ब्राह्मण का सम्मिलित अभिदान है। ब्राह्मण के तीन भागों में आरण्यक अन्तिम भाग है।
वेदों से सम्बन्धित आरण्यकों के मुख्य ग्रन्थ निम्नलिखित हैं-
1. ऋग्वेद - 
अ. ऐतरेय आरण्यक: ऐतरेय के भीतर 5 मुख्य अध्याय हैं। जिनमें प्रथम तीन के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ आश्वालायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। इसका रचना काल षष्ठ शताब्दी विक्रमपूर्व माना जाता है।
ब. शांखयन आरण्यक: यह ऐतरेय आरण्यक के समान है तथा 15 अध्यायों में विभक्त है जिसका एक अंश (तीसरे अ. से छठें अ. तक) कौशीतकि उपनिषद् के नाम से प्रसिद्ध है।
2. सामवेद- 
अ. तवलकार (या जैमिनियोंपनिषद्) आरण्यक: इसमें 4 अध्याय हैं और प्रत्येक में कई अनुवादक। चतुर्थ अध्याय के दशम अनुवाक में प्रख्यात तवलकार (या केन) उपनिषद् है।
     ब. छान्दोग्य आरण्यक
3. यजुर्वेद- 
अ. शुक्ल यजुर्वेद - वृहदारण्यक: वस्तुतः शुक्ल यजुर्वेद का एक आरण्यक ही है परन्तु आध्यात्मिक तथ्यों की प्रचुरता के कारण यह उपनिषदों में गिना जाता है।
ब. कृष्ण यजुर्वेद-
1.तैत्तिरीय आरण्यक: 10 परिच्छेदों (प्रपाठकों) में विभक्त है, जिन्हें ”अरण“ कहते हंै। इनमें 7, 8 व 9 प्रपाठक मिलकर ”तैत्तिरीय उपनिषद्“ कहलाते हैं।
2.मैत्रायणी आरण्यक
4. अथर्ववेद - कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं हैं।

उपनिषद्
वेद शब्द का अर्थ ”ज्ञान“ है। वेद-पुरूष के शिरोभाग को उपनिषद् कहते हैं। उप (व्यवधानरहित), नि (सम्पूर्ण), षद् (ज्ञान)। किसी विषय के होने न होने का निर्णय ज्ञान से होता है। अज्ञान का अनुभव भी ज्ञान ही कराता है। अतः ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए ज्ञान से भिन्न किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। उपनिषद् का अन्य अर्थ उप (समीप) निषत्-निषीदति (बैठने वाला) अर्थात जो उस परमतत्व के समीप बैठता हो अर्थात जिसे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके, वह उपनिषद् है। मक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों का वर्णन आता है। इसके अतिरिक्त अडियार लाइब्रेरी मद्रास से प्रकाशित संग्रह में से 179 उपनिषदों के प्रकाशन हो चुके हैं। गुजराती प्रिंटिंग प्रेस, मुम्बई से मुद्रित वाक्य महाकोश में 223 उपनिषदों की नामावली दी गई है। इनमें उपनिषद् 1. उपनिधित्स्तुति तथा 2. देव्युपनिषद्। 2 की चर्चा शिवरहस्य नामक ग्रन्थ में है लेकिन ये दोनो उपलब्ध नहीं हैं तथा माण्डूक्यकारिका के चार प्रकरण चार जगह गिने गये हैं। इस प्रकार अब तक ज्ञात उपनिषदों की संख्या 220 आती है।
निम्नलिखित 108 उपनिषद् की यह सूची मुक्तिकोपनिषद् में दी गयी है।
अ. ऋग्वेद से 10 उपनिषद् है और उनका शान्ति पाठ ”वण्में मनिस“ से आरम्भ होता है। जो प्रकार के अनुसार निम्नवत् हैं-
1.मुख्य उपनिषद् - एतरेय
2.योग उपनिषद् -बिन्दु
3.शैव उपनिषद् - अक्षमालिक
4.वैष्णव उपनिषद् - कोइ नहीं
5.शाक्त उपनिषद्- सौभाग्य, त्रिपुर, बहृच
6.सन्यास उपनिषद् - निर्वाण
7.सामान्य उपनिषद् - आत्मबोध, कौशीतिकी, मुद्रल

ब. सामवेद से 16 उपनिषद् है और उनका शान्ति पाठ ”आप्यायन्तु“ से आरम्भ होता है। जो प्रकार के अनुसार निम्नवत् हैं-
1.मुख्य उपनिषद् - केन, छान्दोग्य
2.योग उपनिषद् - योगचूड़ामिण, दर्शन
3.शैव उपनिषद् - रूद्राक्ष, जाबाल
4.वैष्णव उपनिषद्- अव्यक्त, वासुदेव
5.शाक्त उपनिषद् - कोई नहीं
6.सन्यास उपनिषद् - सन्यास, मैत्रेय, आरूणेय, कुण्डिक
7.सामान्य उपनिषद् - मैत्रायिण, सावित्री, वज्र-सिचू, महत्

स. अथर्ववेद से 31 उपनिषद् है और उनका शान्ति पाठ ”भद्रं कर्णेभिः“ से आरम्भ होता है। जो प्रकार के अनुसार निम्नवत् हैं-
1.मुख्य उपनिषद् - प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य
2.योग उपनिषद् - महावाक्य, शाण्डिल्य, पाशुपात
3.शैव उपनिषद् - अथर्व-शिर, बृहज्जाबाल, अथर्व-शिख, शरभ, भस्म, गणपति
4.वैष्णव उपनिषद् -गोपाल, तपिण, कृष्ण, हयग्रीव, दत्तात्रेय, गारूड़, नृसिंहतापनी, महानारायण, रामरहस्य, रामतापिण
5.शाक्त उपनिषद् - सीता, अन्नपूर्ण, त्रिपुरातपिन, देवि, भावन
6.सन्यास उपनिषद् - परिव्रात् (नारदपरिव्राजक), परमहंस-परिव्राजक, परब्रह्म
7.सामान्य उपनिषद् - सूर्य, आत्मा

द. यजुर्वेद के शुक्ल यजुर्वेद शाखा से 19 उपनिषद् है और उनका शान्ति पाठ ”पूर्णमदः“ से आरम्भ होता है। जो प्रकार के अनुसार निम्नवत् हैं-
1.मुख्य उपनिषद् - बृहदारण्यक, ईश
2.योग उपनिषद् - हंस, त्रिशिख, मण्डलब्राह्मण
3.शैव उपनिषद् - कोई नहीं
4.वैष्णव उपनिषद्- तारसार
5.शाक्त उपनिषद्- कोई नहीं
6.सन्यास उपनिषद् -  शात्यायिन, याज्ञवल्क्य, परमहंस, जाबाल, अद्वयतारक, तुरीयातीत, भिक्षुक
7.सामान्य उपनिषद् - मुक्तिक, सुबाल, मान्त्रिक, निरालम्ब, पैंगल, अध्यात्मा

य. यजुर्वेद के कृष्ण यजुर्वेद शाखा से 32 उपनिषद् है और उनका शान्ति पाठ ”सहनाववतु“ से आरम्भ होता है। जो प्रकार के अनुसार निम्नवत् हैं-
1.मुख्य उपनिषद् - तैत्तरीय, कठ
2.योग उपनिषद् - योग-कुण्डिलिन, अमृत-बिन्दु, अमृत-नाद, क्षुरिक, ध्यानिबन्दु, ब्रह्मिवद्या, योगतत्व, यागिशखा
3.शैव उपनिषद् - कैवल्य, रूद्र-हृदय, पंचब्रह्म, कालाग्निरूद्र, दक्क्षिणामूर्ति
4.वैष्णव उपनिषद् - नारायण, किल-सण्टारण
5.शाक्त उपनिषद्- सरस्वती रहस्य
6.सन्यास उपनिषद् - वाराह, अवघूत, तेजो-बिन्दु, कठरूद्र, ब्रह्म
7.सामान्य उपनिषद् - सर्वसार, शुक-रहस्य, प्राणाग्नि-होत्र, एकाक्षर, गर्भ, श्वेताश्वतर, शारीरक, अक्षि, स्कन्द

उपरोक्त के अलावा अन्य 112 उपनिषद् निम्नलिखित हैं-
1.अद्वैतोपनियषद्  2. अद्वैतभावनोपनिषद् 3. अनुभवसारोपनिषद् 4. अमनस्कोपनिषद् 5. अरूणोपनिषद्  6. अल्लोपनिषद् 7. अवधूतोपनिषद् (पद्यात्मक) 8. आचमनोपनिषद् 9. आत्मपूजोपनिषद् 10. आत्मोपनिषद् (पद्यात्मक) 11. आथर्वणद्वितीयोपनिषद् 12. आयुर्वेदोपनिषद् 13. आर्षेयोपनिषद् 14. आश्रमोपनिषद् 15. इतिहासोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक) 16. ईसावास्योपनिषद् उपनशत्स्तुति (शिव रहस्यान्तर्गत-अनुपलब्ध) 17. देव्युपनिषद् (शिवरहस्यान्तर्गत - अनुपलब्ध) 18. ऊध्वर्पण्ड्रोपनिषद् (वाक्यात्मक एवं पद्यात्मक) 19. ऐतेरेयोपनिषद् (खन्डात्मक) 20. ऐतेरेयोपनिषद् (अध्यायात्मक) 21. कात्यायनोपनिषद् 22. कामराजकीलितोद्वारोपनिषद् 23. कालिकोपनिषद् 24. कालिमेधादीक्षितोपनिषद् 25. कौलोपनिषद् 26. गणेशपूर्वतापिन्युपनिषद् (वरदपूर्वतापिन्युपनिषद्) 27. गणेशोत्तरतापिन्युपनिषद् (वरदोत्तरतापिन्युपनिषद्) 28. गान्धर्वोपनिषद् 29. गायजंयुपनिषद् 30. गायत्रीरहस्योपनिषद् 31. गुह्यकाल्युपनिषद् 32. गुह्यषोढ़ान्यासोपनिषद् 33. गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद् 34. गोपीचन्दनोपनिषद् 35. चतुर्वेदोपनिषद् 36. चाक्षुशोपनिषद् (चक्षरूपनिषद्, चक्षुरागोपनिषद्, नेत्रोपनिषद्) 37. चित्युपनिषद् 38. छागलेयोपनिषद् 39. तारोपनिषद् 40. तुलस्युपनिषद् 41. त्रिपुरामहोपनिषद् 42. त्रिसुपर्णोपनिषद् 43. दत्तोपनिषद् 44. दुर्वासोपनिषद् 45. द्वयोपनिषद् 46. नारदोपनिषद् 47. नारायणपूर्वतापिन्युपनिषद् 48. नारायणोत्तरतापिन्युपनिषद् 49. निरूक्तोपनिषद् 50. नीलरूद्रोपनिषद् 51. नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद् 52. नृसिंहषटचक्रोपनिषद् 53. पारमात्मिकोपनिषद् 54. पारायणोपनिषद् 55. पिण्डोपनिषद् 56. पीताम्बरोपनिषद् 57. पुरूषसूक्तोपनिषद् 58. प्रणवोपनिषद् (पद्यात्मक) 59. प्रणवोपनिषद् (वाक्यात्मक) 60. बटुकोपनिषद् 61. बास्कलमन्त्रोपनिषद् 62. बिल्वोपनिषद् (पद्यात्मक) 63. बिल्वोपनिषद् (वाक्यात्मक) 64. भगवद्रीतोपनिषद् 65. भवसंतरणोपनिषद् 66. मठाम्नयोपनिषद् 67. मल्लायुपनिषद् 68. महानारायणोपनिषद् (बृहन्नारायणोपनिषद्, उत्तरनारायणोपनिषद्) 69. महावाक्योपनिषद् 70. माण्डुक्योपनिशत्कारिका-आगम, अलातशान्ति, वैतथ्य, अद्वैत 71. मृत्युलांगूलोपनिषद् 72. यज्ञोपवीतोपनिषद् 73. योगतत्वोपनिषद् 74. योगराजोपनिषद् 75. योगोपनिषद् 76. राजश्यामलारहस्योपनिषद् 77. राधोकोपनिषद् (वाक्यात्मक) 78. राधोकोपनिषद् (प्रपठात्मक) 79. रामोत्तरतापिन्युपनिषद् 80. रूद्रोपनिषद् 81. लक्ष्म्युपनिषद् 82. लाड्ःगूलोपनिषद् 83. लिंगोपनिषद् 84. बज्रपजंरोपनिषद् 85. बनदुर्गोपनिषद् 86. विश्रामोपनिषद् 87. विष्णुहृदयोपनिषद् 88. 1.शिवसंकल्पोपनिषद् 89. 2.शिवसंकल्पोपनिषद् 90. शिवोपनिषद् 91. शैनकोपनिषद् 92. श्यामोपनिषद् 93. श्रीकृष्णपुरूषोत्तमसिद्धान्तोपनिषद् 94. श्रीचक्रोपनिषद् 95. श्रीविद्यात्तारकोपनिषद् 96. श्रीसूक्तम 97. शोढोपनिषद् 98. संकर्षणोपनिषद् 90. सदानन्दोपनिषद् 100. संन्यासोपनिषद् (वाक्यात्मक) 101. स हवैउपनिषद् 102. संहितोपनिषद् 103. सामरहस्योपनिषद् 104. सिद्धान्तविठ्ठलोपनिषद् 105. सिद्धान्तशिखोपनिषद् 106. सिद्धान्तसरोपनिषद् 107. सुदर्शनोपनिषद् 108. सुमुख्युपनिषद् 109. सूर्यतापिन्युपनिषद् 110. स्वसेवेद्योपनिषद् 111. हंसशोढोपनिषद् 112. हेरम्बोपनिषद्

उपनिषदों की शिक्षा शैली - 
”वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंकार है, वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है। वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं। यह आत्मा अध्यक्षर है। अक्षर का आश्रय लेकर जिसका अभिधान (वाचक) की प्रधानता से वर्णन किया जाय उसे अध्यक्षर कहते हैं। जिस प्रकार अकार नामक अक्षर अदिमान् है उसी प्रकार वैश्वानर भी है। उसी समानता के कारण वैश्वानर की अकार रूपता है। अकार निश्चय ही सम्पूर्ण वाणी है। श्रुति के अनुसार अकार से समस्त वाणी व्याप्त है। ओंकार की दूसरी मात्रा उकार है। उत्कर्ष के कारण जिस प्रकार अकार से उकार उत्कृष्ट सा है उसी प्रकार विश्व से तैसज उत्कृष्ट है। जिस प्रकार उकार, अकार और मकार के मध्य स्थित है उसी प्रकार विश्व और प्राज्ञ के मध्य तैजस है। सुषुप्ति जिसका स्थान है वह प्राज्ञ मान और लय के कारण आंेकार की तीसरी मात्रा मकार है। जिस प्रकार ओंकार का उच्चारण करने पर अकार और उकार अन्तिम अक्षर में एकीभूत हो जाते हैं उसी प्रकार सुषुप्ति के समय विश्व और तैजस प्राज्ञ में लीन हो जाते हैं। अमात्र जिसकी मात्रा नहीं हैं वह अमात्र ओंकार चैथा अर्थात तुरीय केवल आत्मा ही है। इस प्रकार अकार विश्व को प्राप्त करा देता है तथा उकार तैजस को और मकार प्राज्ञ को, किन्तु अमा़त्र में किसी की गति नहीं है। अतः प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अन्त है। प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है। प्रणव को ही सबके हृदय में स्थित ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओंकार को जानकर बुद्धिमान पुरूष शंका नहीं करता। तैतरीयोपनिषद् में कहा है कि जिस प्रकार शंकुओं (पत्तों की नसों) से सम्पूर्ण पत्ते व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार ओंकार से सम्पूर्ण वाणी व्याप्त है, ओंकार ही यह सब कुछ है।“
पुराण
पुराण का शाब्दिक अर्थ - ”पुराना“ अथवा ”प्राचीन“ होता हे। ”पुरा“ शब्द का अर्थ है- अनागत एवं अतीत। ”अण“ शब्द का अर्थ होता है- कहना या बतलाना। रघुवंश में पुराण का अर्थ है- ”पुराण पत्रापग मागन्नतरम्“ एवं वैदिक साहित्य में ”प्राचीनः वृत्तान्तः“ दिया गया है। सांस्कृतिक अर्थ से हिन्दू संस्कृति के वे विशिष्ट धर्मग्रन्थ जिनमें सृष्टि से लेकर प्रलय तक का इतिहास-वर्णन शब्दों से किया गया हो, पुराण कहे जाते हैं। पुराण शब्द का उल्लेख वैदिक युग के वेद सहित आदितम साहित्य में भी पाया जाता है। अतः ये सबसे पुरातन (पुराण) माने जा सकते हैं। अथर्ववेद के अनुसार - ”ऋचः मामानि छन्दांसि पुराणं यजुशा सह 11.7.2“ अर्थात पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् और छन्द के साथ ही हुआ था। शतपथ ब्राह्मण (14.3.3.13) में तो पुराणवाग्डःमय को वेद ही कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् (इतिहास पुरांण पंचम वदानांवेदम्, 7.1.2) ने भी पुराण को वेद कहा है। बृहदारण्यकोपनिषद् तथा महाभारत में कहा गया है कि ”इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बहयेत्“ अर्थात वेद का अर्थ विस्तार पुराण के द्वारा करना चाहिए। इनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक काल में पुराण तथा इतिहास को समान स्तर पर रखा गया है। अमरकोशादि प्राचीन कोशों में पुराण के सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (प्रलय, पुनर्जन्म), वंश (देवता व ऋषि सूचियाँ), मनवन्तर (चैदह मनु के काल) और वंशानुचरित (सूर्य चन्द्रादि वंशीय चरित) ये पाँच लक्षण माने गये हैं। माना जाता है कि सृष्टि के रचनाकर्ता ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम जिस प्राचीनतम धर्मग्रन्थ की रचना की, उसे पुराण के नाम से जाना जाता है।
पुराण, वैदिक काल से काफी बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवनधारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति-ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। 18 पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कहीं गई हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि से आरम्भ से अन्त तक का विवरण किया गया है। इनमें हिन्दू देवी-देवताओं का और पौराणिक मिथकों का बहुत अच्छा वर्णन है। कर्मकाण्ड (वेद) से ज्ञान (उपनिषद्) की ओर आते हुए भारतीय मानस में पुराणों के माध्यम से भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ।
प्राचीन काल से पुराण देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों सभी का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पुराण मनुष्य को धर्म एवं नीति के अनुसार जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। पुराण मनुष्य के कर्मो का विश्लेषण कर उन्हें दुष्कर्म करने से रोकते हैं। पुराण वस्तुतः वेदों का विस्तार है। वेद बहुत जटिल तथा शुष्क भाषा-शैली में लिखे गए हैं। वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना और पुनर्रचना की। कहा जाता है, ”पूर्णात पुराण“ जिसका अर्थ है, जो वेदों का पूरक हो, अर्थात पुराण (जो वेदों की टीका हैं)। वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया हैं। पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है। निर्गुण-निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना करना इन ग्रन्थों का विषय है। पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की कहानियाँ हैं। प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। पुराणों में देवी-दवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है। पुराणों में सत्य की प्रतिष्ठा में दुष्कर्म का विस्तृत चित्रण पुराणकारों ने किया है। पुराणकारों ने देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण किया है लेकिन मूल उद्देश्य सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
पुराणों की कुल संख्या 18 हैं जो विष्णु, शिव और ब्रह्मा से सम्बन्धित है। ये निम्न प्रकार हैं-
विष्णु से सम्बन्धित - विष्णु पुराण (श्लोक-23000), मत्स्य पुराण (श्लोक-14000), भागवत पुराण (श्लोक-18000), गरूड़ पुराण (श्लोक-19000), कूर्म पुराण (श्लोक-17000), वाराह पुराण (श्लोक-24000)
शिव से सम्बन्धित - स्कन्द पुराण (श्लोक-21000), वायु पुराण (श्लोक-24000), अग्नि पुराण (श्लोक-15000), लिंग पुराण (श्लोक-11000), नारद पुराण (श्लोक-25000), पद्म पुराण (श्लोक-55000)
ब्रह्मा से सम्बन्धित - ब्रह्म पुराण (श्लोक-10000), ब्रह्माण्ड पुराण (श्लोक-12000), ब्रह्मवैवर्त पुराण (श्लोक-18000), मार्कण्डेय पुराण (श्लोक-9000), भविष्य पुराण (श्लोक-14500), वामन पुराण (श्लोक-10000)



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