श्री नानाजी देशमुख
परिचय -
नानाजी देशमुख का जन्म महाराष्ट्र के परभनी जिले के कदाली नामक छोटे से कस्बे में 11 अक्टूबर, 1911 में हुआ था। नानाजी का लम्बा और घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता। उन्होंने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया। मामा ने उनका लालन-पालन किया। उनके पास शुल्क देने के लिए और पुस्तकें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी। अतः इस कार्य के लिये उन्होंने सब्जी बेचकर पढ़ाई के लिए पैसे जुटाते थे। वे मंदिरों में रहे और पिलानी में बिरला इंस्टीट्यूट में उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बाद में तीस के दशक में वे आर0एस0एस0 में शामिल हो गये। भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तर प्रदेश में रहा। उनकी श्रद्धा देखकर सरसंघचालक श्री गुरु जी ने उन्हें प्रचारक के रुप में गोरखपुर भेजा बाद में वे उत्तर प्रदेश के प्रांत संचालक बने।
नानाजी देशमुख लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित हुए। तिलक से प्रेरित होकर उन्होंने समाज सेवा और सामाजिक अतिविधियों में रुचि ली। आरएसएस केे अदि सरसंघचालक डाॅ0 केशव बलिराम हेडगेवार से उनके पारिवारिक संबंध थे। हेडगेवार ने नानाजी में छिपी प्रतिभा को पहचान लिया और आरएसएस की शाखा में आने के लिए प्रेरित किया।
1940 में, डाॅ केशव बलिराम हेडगेवार के निधन के बाद उन्हें कई युवकों को महाराष्ट्र की आरएसएस की शाखा में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। नानाजी ऐसे लोगों में से थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने के लिए आरएसएस से जुड़े। वे प्रचारक के रुप में उत्तर प्रदेश भेजे गये। आगरा में वे पहली बार डाॅ दीनदयाल उपाध्याय से मिले। बाद में नानाजी गोरखपुर गये जहाँ उन्होंने लोगों को संघ की विचारधारा के बारे में बताया। ये कार्य बिल्कुल भी आसान नहीं था, संघ के पास दैनिक खर्च के लिए भी धन नहीं थे। उन्हें धर्मशालाओं में ठहरना पड़ता था, उन्हें लगातार धर्मशाला बदलना पड़ता था, क्योंकि एक धर्मशाला में लगातार तीन दिनों से ज्यादा समय तक ठहरने नहीं दिया जाता था। अंत में बाबा राघवदास नें उन्हें इस शर्त पर ठहरने दिया कि वे उनके लिए खाना बनायेंगे। तीन साल के अंदर उनकी मेहनत ने रंग लाई और गोरखपुर के आस-पास करीब 250 संघ की शाखाएँ खुल गई। नानाजी ने हमेशा शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उन्होंने 1950 में गोरखपुर में पहले सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना की।
1947 में आरएसएस ने राष्ट्रधर्म और पांचजन्य नामक दो पत्रिकाओं और स्वदेश नामक पत्र की शुरुवात करने का फैसला किया। श्री अटल बिहारी बाजपेयी को संपादन और दीनदयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन, जबकि नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की जिम्मेदारी सांैपी गई। पैसे के अभाव में पत्र और पत्रिकाओं का प्रकाशन संगठन के लिए मुश्किल कार्य था, लेकिन इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आई और सुदृढ़ राष्ट्रवादी सामग्री के कारण इन प्रकाशनों को लोकप्रियता और पहचान मिली। 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिससे इन प्रकाशन कार्यों पर असर पड़ा। उन दिनों भूमिगत होकर इनका प्रकाशन कार्य लारी रहा।
जब आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा तो फैसला राजनीतिक संगठन भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ। श्री गुरुजी ने नानाजी को उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी का जमीनी कार्य उत्तर प्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। 1957 तक भाजपा ने उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में अपनी ईकाई बनाई, इस दौरान नानाजी नें पूरे उत्तर प्रदेश का दौरा किया और चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार में शामिल हो गई। नानाजी ने चैधरी चरण सिंह और डाॅ राम मनोहर लोहिया से अच्छे संबंध थे, इसलिए गठबंधन में उन्होंने अहम भूमिका निभायी। उत्तर प्रदेश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में विभिन्न राजनितिक दलों को एकजुट करने में नानाजी ने अहम भूमिका निभाई।
उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण रातनितिक शक्ति बन गया, न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के संबंध अच्छे थे। नानाजी विनोबा भावे के भुदान आंदोलन में सक्रिय रुप से शामिल हुए, दो महीनों तक विनोबा के साथ रहे, वे आंदोलन से प्रभावित हुए। जेपी आंदोजन में जब जयप्रकाश पर पुलिस नें लाठियाँ बरसाई, उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित निकाल लिया, जिसमें नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ टूट गया। बाद में जयप्रकाश नारायण और पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने नानाजी के साहस की भूरि-भूरि प्रशंसा की, उन्हें पुरस्कार के तौर पर बतौर उद्योग मंत्री शामिल होने का न्यौता भी दिया, लेकिन नानाजी ने इनकार कर दिया। आपातकाल हटने के बाद चुनाव हुए, जिसमें बलरामपुर लोकसभा सीट से नानाजी सांसद चुने गए। 1980 में साठ साल की उम्र में उन्होंने सक्रिय राजनिति से सन्यास लेकर आदर्श की स्थापना की,। बाद में उन्होंने अपना पूरा जीवन सामाजिक और रचनात्मक कार्यो में लगा दिया। वे आश्रमों में रहे और कभी अपना प्रचार नहीं किया। जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति को पूरा समर्थन दिया। जनता पार्टी के संस्थपकों में नानाजी प्रमुख थे। नानाजी ने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की और उसमें सेवा दी। उन्होंने चित्रकूट में चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय है और वे इसके पहले कुलाधिपति थे। 1999 में एन.डी.ए. सरकार ने उन्हें राज्यसभा से सांसद बनाया।
1969 में वे पहली बार चित्रकूट आए और अन्तिम रूप से वे चित्रकूट में बस गए। उन्होंने भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा देखी। वे मंदाकिनी के तट पर बैठ गये ओर अपने जीवन काल में चित्रकूट को बदलने का फैसला किया। अपने वनवास के काल में राम ने दलित जनों के उत्थान का कार्य किया। इससे प्रेरणा लेकर नानाजी ने चित्रकूट को अपने सामाजिक कार्यो का केन्द्र बनाया। उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा शुरू की। वे अक्सर कहा करते थे कि वे राजा राम से वनवासी राम की अधिक प्रशंसा करते हैं इसलिए वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में बिताएंगें। उन्होंने अपने अन्तिम क्षण तक इस प्रण का पालन किया। उनका निधन चित्रकूट में 27 फरवरी 2010 को हो गया। नानाजी ने 95 वर्ष की उम्र में देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना शरीर मेडिकल शोध के लिए दान करने की इच्छा जताई।
दीनदयाल शोध संस्थान
पं0 दीनदयाल उपाध्याय प्रणीत एकात्म मानववाद को मूर्त रूप दने के लिए नानाजी ने 1972 में नई दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। यह दर्शन समाज के प्रति मानव की समग्र दृष्टि पर आधारित है जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकता है। नानाजी देशमुख ने एकात्म मानववाद के आधार पर ग्रामीण भारत के विकास की रूपरेखा रखी। शुरूआती प्रयोगों के बाद उत्तर प्रदेश के गोंण्डा ओर महाराष्ट्र के बीड में नानाजी ने गांवों में स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, कृषि, आय अर्जन, संसाधनों के संरक्षण, सामाजिक विवेक के विकास के लिए एकात्म कार्यक्रम की शुरूआत की, पूर्ण परिवर्तन का आधार लोक सहयोग और सरकार है।
चित्रकूट परियोजना या आत्म निर्भरता के लिए अभियान की शुरूआत 26 जनवरी 2005 में चित्रकूट के आस-पास हुई, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है। इस परियोजना का उद्देश्य 2005 तक इन गांवों में आत्म निर्भरता हासिल करना था। परियोजना 2010 में पूरी हुई। परियोजना से उम्मीद जगी कि इसके आस-पास के 500 गांवों को आत्म निर्भर बनाया जाय जो भारत और दुनिया के लिए आदर्श बन सकता है। इस संस्थान की मदद से सैकड़ों गांवों को मुकदमा मुक्त और विवाद सुलझाने का आदर्श बनाया गया।
प्रशंसा और सम्मान
1999 में नानाजी देशमुख को पद्य्म विभूषण से सम्मानित किया गया। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने नानाजी देशमुख और उनके संगठन दीनदयाल शोध संस्थान की प्रशंसा की। अब्दुल कलाम ने कहा कि - चित्रकूट में मैंने नानाजी देशमुख और दीनदयाल उपाध्याय के उनके साथियों से मुलाकात की। संस्थान ग्रामीण विकास के प्रारूप को लागू करने वाला अनुपम संस्थान है। यह प्रारूप भारत के लिए उपयुक्त है। विकास कार्यो से अलग संस्थान विवादमुक्त समाज की स्थापना में मदद करता हे। मैं समझता हूँ कि चित्रकूट के आस-पास 80 गांव मुकदमा मुक्त हैं। गांव के लोंगों ने सर्वसम्मति से फैसला किया है कि किसी विवाद का हल करने के लिए वे अदालत नहीं जायेंगे। तय हुआ है कि विवाद आपसी सहमति से सुलझा लिए जायेंगे। विकास के इस अनुपम प्रारूप को समाजिक संगठनों, न्यायायिक संगठनों और सरकार के माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैलाया जा सकता है। नानाजी चित्रकूट में जो कर रहें हैं वह अन्य लोगों के लिए आँखें खोलने वाला होना चाहिए।
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