श्री रामकृष्ण परमहंस
श्री रामकृष्ण परमहंस का परिचय
गदाधर का जन्म कलकत्ते से सत्तर मील दूर पश्चिम में कामारपुकुर ग्राम में 18 फरवरी, 1836 ई0 बुधवार को हुआ था। बाद में ये ही श्रीरामकृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हुए। धार्मिकता श्रद्धा एवं भक्तिपूर्ण सरल ग्रामीण वातावरण मंे लालित-पालित होने के कारण गदाधर के हृदय में बाल्यकाल से ही भगवान के दर्शन की तीव्र अभीप्सा थी। पढ़नेे लिखने की ओर विशेष ध्यान न देकर वे साधु-संन्यासियांे एवं तीर्थयात्रियांे के बीच समय बिताते और अपने अन्य समवयस्क संगी-साथियांे को लेकर धार्मिक नाटक खेेला करते थे। उपयुक्त शिक्षा की ओर उनका मन लगे इसके लिए गदाधर को सत्रह वर्ष की आयु में कलकत्ते लाया गया। परंतु गदाधर ने देखा कि सभी प्रकार से जागतिक ज्ञान का लक्ष्य केवल भौतिक उन्नति ही है। अतः उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि वे अपना जीवन केवल आध्यात्मिक ज्ञान उपलब्धि में लगायेगे जिससे शाश्वत शान्ति की प्राप्ति निश्चित रूप से हो सके। अब परिस्थितियाँ कुछ इस प्रकार की होती गयी कि अल्प समय के भीतर ही वे दक्षिणेश्वर स्थित कालीमन्दिर के पुजारी बन गये जिसे कलकत्ते की एक धनी एवं धार्मिक विधवा रानी रासमणि ने बनवाया था। भगवान की पूजा करना उनकी रूचि का काम था, अतः उन्होंने अपने इस नये कार्य के कर्तव्यों को बड़ी उमंग तथा उत्साहपूर्वक अपना लिया। धीरे-धीरे उनकी पूजा-अर्चना माँ जगदम्बा के साक्षात दर्शन के लिए एक उत्कट अभिलाषा के रूप मे बदल गयी। वे दिन-रात प्रार्थना करते, ध्यान करते और माँ जगदम्बा के दर्शन के लिए फुट-फुटकर रोते। दिन के बीत जाने पर वे रो-रोकर कहते ”हे माँ, और एक दिन बीत गया और अभी भी मुझे तेरा साक्षात्कार नहीं हुआ।“ वे बहुत कम भोजन करते और सोते प्रायः बिल्कुल नहीं थे। अन्ततः उन्हें भगवददर्शन प्राप्त हुआ। श्रीरामकृष्णदेव अब कठोर आध्यात्मिक साधनाओं में लगे गये और उन्हांेने हिन्दू धर्म के विभिन्न पथो का अवलम्बन करते हुए तथा ईसाई धर्म एवं इस्लाम के नियमों का पालन करते हुए, सभी प्रकार से भगवान का साक्षात्कार किया। इस प्रकार विभिन्न रूपों में भगवान के साथ एकत्व का रसास्वादन श्रीरामकृष्ण ने किया- कभी तो अपने को अद्वैत मंे सम्पूर्ण रूप से लय करके और कभी माँ जगदम्बा के शिशु सन्तान बनकर के बाद द्वैत के ब्रम्हा के रूप को रखते हुए इन सब अनुभवो के बाद उन्हांेने घोषणा की, ”मैंने देखा है कि भगवान एक ही है जिनकी ओर सभी (धर्म) अग्रसर हो रहे हंै।“ जिन दिनों श्रीरामकृष्ण इस आध्यात्मिक परमानन्द का अनुभव कर रहे थें तभी उनके गाँव कामारपुकुर में यह जनश्रुति पहुँच चुकी थी कि वे पागल हो गये है। उनके इस पागलपन को ठीक करने के लिए उनकी माता तथा बड़े भाई ने उनका विवाह सारदादेवी से करा दिया, जो अब श्रीमाँ सारदा के नाम से विख्यात हंै किन्तु यह विवाह कैसा विचित्र था। श्रीरामकृष्ण वास्तव में उनको माँ जगदम्बा मानकर उनकी पूजा करते थें। उन दोनों का मिलन केवल आध्यात्मिक स्तर पर ही रहा तथापि श्रीरामकृष्ण ने सारदादेवी को गृहस्थी के सब कार्याे से लेकर ब्रह्मज्ञान तक सभी प्रकार की शिक्षा दी आध्यात्मिक जीवन की सभी साधनाओं के विषय में उपदेश दिया। श्रीरामकृष्ण की ही तरह सारदादेवी भी पवित्रता से भी अधिक पवित्र थी। वे मूर्तिमन्त सतीत्व थी। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- ”जब कमल खिलता है तब भ्रमर आप ही आप आ जाते है।“ सभी प्रकार के सभी धर्माे के अनुयायी स्त्री-पुरूष उनके पास आध्यात्मिक शान्ति पाने के लिए आते थें। जो भी सच्ची स्पृहा लेकर आता वह उनके असीम प्रेम का अनुभव करता था और उनके सान्निध्य तथा उपदेशों के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करता था। उनका महाप्रयाण 16 अगस्त 1886 को हुआ किंतु इसके पूर्व ही उन्होंने नवयुवको के एक दल का अपने आध्यात्मिक उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिए विशेष रूप से शिक्षित कर दिया था। श्रीरामकृष्णदेव के महाप्रयाण के बाद इन नवयुवको ने संसार त्याग दिया और उनके नाम पर एक साधु संघ का गठन किया जिसका उद्देश्य था- ”अपनी व्यक्तिगत मुक्ति तथा समस्त जगत का हित।“ इनमें सब से अधिक गतिशील तथा तेजस्वी थे - स्वामी विवेकानन्द, जिनके नेतृत्व में उन सब ने श्रीरामकृष्ण के सन्देश का भारत तथा अन्य देशों में प्रचार किया।
श्रीरामकृष्णदेव की वाणी
भगवान के असंख्य नाम और अनन्त रूप हैं जिनके माध्यम से उनके निकट पहुँचा जा सकता है। जिस किसी भी नाम और रूप में उनकी पूजा करोगे उसी माध्यम से उन्हंे प्राप्त कर लोगे। सत्य एक ही है, अन्तर है नाम और रूप का। एक ही जलाशय के तीन या चार घाट है, पर हिन्दू पानी पीते है उसे ”जल“ कहते है दूसरे पर मुसलमान उसी को ”पानी“ कहते है और अंग्रेज तीसरे पर उसी को ”वाटर“ कहते है। तीनो का तात्पर्य एक ही वस्तु से है, भेद केवल नाम का है इसी प्रकार कुछ लोग सत्य को ”अल्लाह“ के नाम से पुकारते है, कुछ ”गाॅड“ कहकर कुछ लोग ”ब्रह्म“ कहकर, कुछ लोग ”काली“ कहकर तो कुछ लोग ”राम“, ”ईसा“, ”दुर्गा“ तथा ”हरि“ नाम लेकर पुकारते है। कोई भी निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि भगवान केवल यह हैं और कुछ नहीं। वे निराकर हंै और फिर साकार भी। भक्तांे के हित वे रूप धारण करते है। किन्तु ज्ञानी की दृष्टि में वे अरूप ही है। जानते हो यह किस प्रकार है? सच्चिदानन्द परब्रह्म एक अनन्त समुद्र के समान है। तेज ठण्डक के कारण समुद्र में यत्र बर्फ की चट्टाने तैयार हो जाती है। इसी प्रकार मानो अपने उपासको की भक्ति की शीतलता के प्रभाव मंे अनन्त अपने को शान्त में रूपान्तरित करता है। और उपासकांे के सम्मुख साकार भगवान के रूप में प्रकट होता है। दूसरे जिस प्रकार सूर्याेदय होने पर समुद्र के ऊपर की बर्फ पिघल जाती है। उसी प्रकार ज्ञान का उदय होने पर देहधारी भगवान फिर अनन्त एवं निराकार ब्रह्म मंे लय हो जाते है तब साधक को ऐसा अनुभव नहीं होता है कि भगवान एक व्यक्ति है, और न तब भगवान के रूप ही दिखाई देते है। परन्तु यह ध्यान रखो कि साकार एवं निराकार दोनो एक ही सत्य के दो पक्ष है। भगवान निराकार हंै, और साकार भी, फिर वे इन दोनांे अवस्थाआंे के परे जो है, वह भी हंै केवल वे ही स्वयं जानते हैं कि वे क्या क्या हंै। जो लोग उनसे प्रेम करते हंै उनके हित वे नाना प्रकार से नाना रूपांे में स्वयं को व्यक्त करते हंै। किन्तु निश्चय ही वे साकार अथवा निराकार की सीमा से आबद्ध नहीं है। निर्गुण और सगुण ब्रह्म और शक्ति इन दोनांे मंे कोई भेद नहीं है। दोनो एक है। भगवान जब निष्क्रिय अवस्था मंे होते हंै अर्थात जब वे सृष्टि, स्थिति एवं संहार के कार्य मंे रत नहीं रहते तब हम उन्हंे ब्रह्म कहते है किन्तु जब वे इन कार्यकलापांे में लगे रहते है, तब हम उन्हंे काली अथवा शक्ति कहते हंै। सत्य और असत्य का विवेक सदा करना चाहिए। केवल भगवान ही सत्य हैं, वे ही नित्य वस्तु हंै बाकी सभी कुछ असत्य है, अनित्य है। इस प्रकार के विवेक द्वारा अपने मन से अनित्य वस्तुआंे को झाड़ फंेकना चाहिए। जब तक लज्जा, घृणा और भय ये तीनों विद्यमान है, तब तक भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। जो भगवान के लिए व्याकुल होता है, वह खाने-पीने जैसे तुच्छ बातों पर बहुत ध्यान नहीं देता। मनुष्य को कर्म करना ही होगा तभी वह भगवान के दर्शन पा सकता है। कर्म किये बिना भक्ति नहीं हो सकती, न उनके दर्शन ही हो सकते हैं। कर्म का अर्थ है- ध्यान, जप इत्यादि। भगवान का नाम-गुण कीर्तन करना भी कर्म है। दान, यज्ञ ये सब भी कर्म ही है। जब मनुष्य नीचे लिखे तीन भावो में से किसी एक में प्रतिष्ठित हो जाता है। तभी वह भगवान को पाता है 1.यह सब कुछ मैं हँू। 2.यह सब तू है। 3.तू प्रभू है और मै दास हूँ। तुम राधा और कृष्ण को मानो या न मानो किन्तु उनके एक दूसरे के प्रति आकर्षण को अवश्य स्वीकार करो। अपने हृदय में भगवान के लिए उसी प्रकार की व्याकुलता लाने का प्रयत्न करो। उन्हंे प्राप्त करने के लिए केवल व्याकुलता की आवश्यकता है। मैं कौन हूँ? इसका भँली-भाँति विचार करने पर दिखाई देता है कि मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। एक प्याज लो और उसके छिलके को अलग करते जाओ पहले बाहरी छिलके फिर मोटे सफेद छिलके मिलेगंे, इन्हंे एक-एक करके निकालते जाओ, अन्त में तुम्हंे कुछ भी नहीं मिलेगा। उस अवस्था मंे फिर मनुष्य को अपने अंह का अस्तित्व ही नहीं मिलता है। और तब उसे ढूढ़ने वाला ही कहाँ रह जाता है। उस अवस्था में उसे अपने शुद्ध बोध मंे ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का जो अनुभव होता है। उसका वर्णन कौन कर सकता है? जब तक भगवान बाहर तथा दूर प्रतीत होते हैं तब तक अज्ञान है परन्तु जब अपने अंतर मंे उनका अनुभव होता है, तब यथार्थ ज्ञान का उदय होता है। जो अपने हृदय मन्दिर मंे देखता है वह उन्हंे जगत मन्दिर में भी देखता है। जब तक आदमी समझता है कि भगवान वहाँ है तब तक वह अज्ञानी है परन्तु जब वह अनुभव करता है कि भगवान यहाँ है तभी उसे ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान एकत्व की ओर ले जाता है। अज्ञान नानत्व की ओर। निम्न श्रेणी का भक्त कहता है- भगवान है किन्तु वे बड़ी दूर स्वर्ग मंे हंै। मध्यम श्रेणी का भक्त कहता है कि- भगवान सभी जीवो में प्राण एवं चैतन्य के रूप में है। उत्तम श्रेणी का भक्त कहता है- भगवान स्वयं ही सब कुछ बने हुये हैं। मंै जो देखता हूँ वह भगवान का एक रूप मात्र है। एकमात्र वे ही माया, जगत एवं समस्त जीव बनें हैं। भगवान को छोड़ और कुछ है ही नहीं। प्रेम का अर्थ भगवान के प्रति प्यार है जिसमें मनुष्य सारे जगत को भूल जाता हैै। और साथ ही अपना शरीर जो इतना प्रिय है उसे भूल जाता है। चैतन्यदेव के अन्दर प्रेम उदित हुआ था। याद रखो भक्त का हृदय भगवान का निवास स्थान होता है यह ठीक है कि वे सभी प्राणियो मे वास करते है। किन्तु भक्त के हृदय में वे स्वयं को विशेष रूप से प्रकट करते है। भक्त का हृदय भगवान का बैठक खाना है। पे्रम प्रीति तीन प्रकार की होती है। समर्था (स्वार्थहीन), समंजसा (पारस्परिक) और साधारणीय (स्वार्थयुक्त)। समर्था प्रीति ही सबसे उच्च कोटि की है इसमे प्रेमी केवल प्रेमास्पद का ही सुख चाहता है। इसके लिए चाहे स्वयं को कष्ट ही क्यांे न सहन करना पड़े। समंजसा प्रीति मध्यम कोटि की है इसमे प्रेमी प्रेमास्पद के सुख के साथ स्वयं के सुख का भी ध्यान रखता है। साधारणी प्रीति सब से निम्न कोटि की है इसमे पे्रमी केवल अपनी ही सुख चाहता है। प्रेमास्पद के सुख-दुःख की कोई परवाह नहीं करता है। यदि तुम्हें पागल ही होना है तो संसार की वस्तुआंे के लिए पागल क्यों होते हो। पागल ही होना है तो केवल भगवान के लिए पागल बनो। शुद्ध ज्ञान और भक्ति एक ही वस्तु है दोनो साधक को एक ही लक्ष्य पर पहुँचाते है। भक्ति का मार्ग अधिक सरल है। ज्ञान मानो पुरूष है और भक्ति नारी है। ज्ञान की गति भगवान के बैठकखाने तक ही है। किन्तु भक्ति उनके अन्तःपुर तक प्रवेश कर सकती है। तुम्हारे लिए कर्म का पूर्ण रूप से त्याग कर देना सम्भव नहीं। तुम्हारी इच्छा हो या न हो तुम्हारा स्वभाव ही तुमसे कर्म करवायेगा इसीलिए शास्त्र कहते हंै- अनासक्त होकर कर्म करो। अनासक्त होकर कर्म करना यानी कर्मफल की आंकाक्षा न रखना इस प्रकार मोहमुक्त भाव से कर्म करने का नाम कर्मयोग है। यह संसार कर्मक्षेत्र है। यहाँ कर्तव्य करने के लिए हमारा जन्म हुआ है। जैसे लोगो का निवास देहात में होता है किन्तु वे काम करने के लिए कलकत्तेे आते है। परमहंस अवस्था को प्राप्त होने पर सभी कर्म छूट जाते है तब मनुष्य सदा भगवान का स्मरण मनन और ध्यान करता रहता है उसका मन सदा भगवान से युक्त रहता है। यदि वह कभी कुछ कर्म करता है तो वह केवल लोक शिक्षा के लिए होता है। चाहे जो व्यक्ति गुरू नहीं हो सकता जब एक बड़ा भारी शहतीर पानी पर तैरता है तो उस पर पशु भी बैठकर आगे निकल जाते है। किन्तु एक सड़ियल लकड़ी के टुकडे़ पर यदि कौआ भी बैठ जाय तो वह उसको लेकर डूब जाती है। इसीलिए प्रत्येक युग मंे मनावजाति को शिक्षा देने के लिए भगवान गुरू रूप में अवतीर्ण होते है। एकमात्र सच्चिदानन्द ही गुरू हैं। किसी नये देश मंे जाना हो तो ऐसे भक्ति के निर्देशानुसार ही चलना चाहिए जो वहाँ का रास्ता जानता है। बहुत सारे लोगो से पूछते रहने पर गोलमाल हो जाता है। इसी प्रकार भगवान के निकट जाना हो तो उसे एक ही गुरू का आदेश मानकर चलना चाहिए जो उस पथ को भँलि-भँाति जानता है। सभी गुरू बनना चाहते है किन्तु शिष्य भला कौन बनना चाहता है। भगवान मनुष्य के सामने प्रकट होते है और बात करते है तभी मनुष्य को उनका आदेश प्राप्त होता है। ऐसे आदेश प्राप्त गुरू के वाक्यों में अद्भूत शक्ति होती है। वे पहाडा़े को भी हिला देने वाले होते है। कोरे भाषणो से क्या होता है। लोग दो चार दिन उन्हें सुनते है और फिर भूल जाते है। लोग कोरे शब्दो को ग्रहण नहीं करते। अपनी श्रद्धा में सदैव दृढ़ एवं अचल रहो सारे ढ़ोग तथा असहिष्णुता का परित्याग करो। संसार मंे बदलचन स्त्री की भँाति रहो। बदचलन स्त्री अपनी घर गृहस्थी के काम काज ठीक तरह से करती है। किन्तु उसका मन दिन रात अपने यार की ओर ही लगा रहता है। इसी प्रकार तुम भी संसार से सब काम काज करते रहो, किन्तु अपने मन को सदा भगवान की ओर लगाये रहो। साधु अथवा देवता के समीप कभी रिक्त हस्त नहीं जाना चाहिए। जब किसी महापुरूष के पास जाओ तो कुछ न कुछ भंेट एक छोटा सा फल ही सही अवश्य ले जाओ। रूपये से केवल दाल रोटी आदि ही प्राप्त हो सकती है। उसे आना सर्वस्व अथवा एकमात्र ध्येय या साध्य मत समझो। जब किसी को भगवान के दिव्य प्रेम का नशा चढ़ जाता है, तब उसके कौन पिता, कौन माता या कौन पत्नी? तब उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता हैै। वह सब ऋणो से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था मंे मनुष्य जगत को भूल जाता है। अपनी देह जो सब को इतनी प्रिय होती है। उस देह तक को भूल जाता है। पण्डित और साधु पुरूष मंे एक बड़ा अंतर है। कोरे पण्डित का मन कामिनी और कांचन पर ही लगा रहता है। किन्तु साधु का मन हरि के चरण कमलों मंे लगा रहता है। कहा जाता है कि इस कलियुग मंे यदि कोई एक दिन और एक रात भगवान के लिए रोये तो वह उनके दर्शन पा जाता है। जिसके पास विश्वास है, उसके पास सब कुछ है, जिसके पास विश्वास नहीं उसके पास कुछ भी नहीं। भगवान के नाम पर विश्वास हो तो असम्भव सम्भव हो सकता है। विश्वास ही जीवन है और अविश्वास ही मृत्यु। भगवान के लिए बड़ो की आज्ञा का उल्लंघन करना पाप नहीं है। भरत ने राम के लिए कैकेयी की आज्ञा का उल्ंाघन किया, गोपियों ने कृष्ण के दर्शन के लिए अपने पति के आदेश का उल्लंघन किया। और प्रहलाद ने भगवान के लिए अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन किया था। यदि तुम स्वयं को भगवान के चरणांे में समर्पित कर दो तो भगवान भी तुम्हारे भविष्य के बारे मंे चिन्ता करेगें भगवान हमारे बिल्कुल अपने हैं। तुम उन पर जोर जबरजस्ती भी कर सकते हो।
श्रीमाॅ शारदा देवी
श्रीमाॅ शारदा देवी परिचय
श्री सारदामणि देवी का, जिन्हंे सारदा नाम से भी पुकारा जाता था, तथा जो आगे चलकर भारत और विदेशांे मंे श्रीमाँ के नाम से विख्यात हुई। जन्म 22 दिसम्बर 1853 को पश्चिम बंगाल के बाकुड़ा जिले के जयरामबाटी नामक गाँव मंे हुआ था। सारदा के माता और पिता श्यामासुन्दरी देवी और श्री रामचन्द्र मुखर्जी धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे और अपने धार्मिक तथा सामाजिक परम्पराओं को श्रद्धापूर्वक निभाते थे। पिता रामचन्द्र बहुत ही सरल और उदार प्रकृति के थे और पिता परिवार का भरण-पोषण पैतृक भूमि पर खेती बारी करके करते थे पुरोहिताई से भी उनकी कुछ आमदनी हो जाया करती थी। श्यामासुन्दरी कर्मठ महिला थी। दुनिया के दाँव पेंच से अनभिज्ञ वे अपने घरेलू कार्याे में ही व्यस्त रहती थी। सारदा ने अपने माता-पिता की ईश्वर भक्ति का परिचय देते हुए कहा था- ”यदि वे धर्मप्राण न होते तो भगवती उनके शिशु रूप में कैेसे जन्म लेती।“ कहा जाता है कि सारदा के जन्म से पहले ही उसके माता पिता का पूर्वाभास हो गया था कि एक दिव्यात्मा उनके घर में अवतरित होने वाली है। सारदा अपने गाँव के सीधे सादे ग्रामीणों के बीच पली और बढ़ी। ग्रामवासी अपने दैनिक जीवन की नीरसता को धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा या भक्ति-भाव से नाच गाकर दूर करते थे। धार्मिक अनुष्ठानांे के प्रति निष्ठा उन्हंे आत्मिक संतुष्टि देती थी जिसके कारण वे दारिद्रय के कष्ट को काफी हद तक सहन कर पाते थे। इस रमणीय और सरल परिवेश में सारदा के जीवन के कई वर्ष कटे। एक बार उन्हांेने कहा था- ”जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी“, यानि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। सारदा स्वयं एक सौम्य और सरल लड़की थी। वह स्वयं अपने साथियांे के साथ कभी नहीं झगड़ती, बल्कि उनके झगड़ो को ही निपटाया करती। वह पारिवारिक जिम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक निभाती और अपनी माँ को कपास चुनने में, गाय-बकरी को चारा देने में ओर छोटे भाई-बहनों को संभालने में मदद करती। यदा-कदा वह अपने भाईयों के साथ पाठशाला भी चली जाती। उसी दौरान वह रामायण और महाभारत भी पढ़ने लगी थी। पर भारत की आध्यात्मिक परम्पराओं से उसका परिचय साधुओं के भजन-कीर्तन और ग्रामीण नाटकों के माध्यम से ही हुआ जिनमें भारतीय आख्यानों की कथाएँ प्रस्तुत होती। पाँच वर्ष की आयु में सारदा का विवाह तेईस वर्षीय श्रीरामकृष्ण से हो गया। इस समय श्रीरामकृष्ण ईश्वर के ध्यान में पूर्णतया लीन रहते। उन्हें आने खाने-पीने, सोने और अन्य शारीरिक जरूरतों का कुछ होश न रहता। लोग तो उन्हें पागल ही समझने लगे थे। उनके सम्बन्धियों ने उन्हें सामान्य बनाने के उपाय के तौर पर उनका विवाह करने की सोची। इसे ईश्वर की इच्छा जानकर वे राजी हो गये। उन्होंने तो यहाँ तक बताया कि उनकी वधू कहाँ मिलेगी। किन्तु विवाह के तुरन्त बाद ही वे दक्षिणेश्वर लौट आए और खुद को आध्यात्मिक साधना में लीन कर दिया। लगभग आठ वर्षो के बाद श्रीरामकृष्ण कामारपुकुर लौटे और तभी सारदा का पहली बार अपने पति से परिचय हुआ। श्रीरामकृष्ण अपनी पत्नी के प्रति, जो उनके ही निर्देशों पर निर्भर थी, अपने उत्तरदायित्वों के विषय में पूर्ण रूप से सजग थे। अतः उन्होंने सारदा को सांसारिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा देना प्रारम्भ किया। उन्होंने जिस तरह मोहमाया न रखना, आत्मसंयम, ध्यान-धारणा इत्यादि आध्यात्मिक साधनाओं की आवश्यकता पर जोर डाला उसी तरह आतिथ्य धर्म, बड़ों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन, निःस्वार्थ भाव इत्यादि गृहस्थ के कर्तव्यांे से भी उसे परिचित कराया। यहाँ तक कि उन्हांेने सारदा को दीपक की बत्ती काटना, नाव या ट्रेन से यात्रा करना इत्यादि भी सिखाया इस प्रकार की शिक्षा का मूल उद्देश्य था- व्यक्ति, अवसर, स्थान और परिस्थिति के अनुरूप उचित, विवेकपूर्ण व्यवहार सिखाना। सारदा इस शिक्षा का जीवनपर्यन्त पालन करती रही। श्रीरामकृष्ण का संग पाकर उसके आनन्द की सीमा न रही। उसने स्वयं कहा था- ”ऐसा लगता था मानो हृदय मंे किसी ने आनन्द का पूर्ण घट स्थापित कर दिया हो, उस दिव्य आनन्द का वर्णन नहीं किया जा सकता।“ श्रीरामकृष्ण सारदा के भावी जीवन से पूर्वपरिचित थे ही, अतः वे लगातार उसे संसार की निरर्थकता और ईश्वर की सत्यता की शिक्षा देते रहे। एक दिन अकेले में श्रीरामकृष्ण ने सारदा से पूछा- ”क्या तुम मुझे संसार मार्ग मंे खींचने के लिए आई हो?“, ”बिल्कुल नहीं“ सारदा ने रंचमात्र दुविधा किए बिना उत्तर दिया- ”मैं आपको संसार मार्ग पर क्यों खीचने लगी? मंै तो आपके इष्टपथ में आपकी सहायता करने ही आई हूँ।“ एक दिन सारदा ने श्री रामकृष्ण के पैर सहलाते हुए उनसे पूछा- ”आप मुझे किस रूप मे देखते है?“ श्रीरामकृष्ण ने उत्तर दिया- ”जो माँ काली मन्दिर में हंै उसी ने इस शरीर को उत्पन्न किया है, अब नहबतखाने मंे है फिर वही इस समय मेरे पैर सहला रही है।“ उस रात दोनांे एक ही कमरे मंे सोए किन्तु दोनांे में एक दूसरे के लिए किसी प्रकार का शारीरिक आकर्षण नहीं था। श्रीरामकृष्ण सारदा देवी के दिव्यरूप और जीवन के मकसद से भली भाँति परिचित थे। उन्होंने उन्हंे शिष्यो में आध्यात्मिकता को उभारने के तरीकों के बारे में विस्तृत रूप में निर्देश दिया। अपनी महायात्रा के कुछ समय पहले उन्होंने उनसे कहा- ”तुम क्या कुछ भी नहीं करोगी क्या, (अपनी ओर इशारा करके) यही सब करेगा?“ लेकिन, सारदा देवी धीरे से बोली, ”मैं तो एक औरत हूँ मंै क्या कर सकती हूँ?“ नहीं, नहीं श्रीरामकृष्ण ने कहा, ”तुम्हंे बहुत कुछ करना होगा।“ एक अन्य अवसर पर उन्होंने उनसे कहा- ”देखो कोलकाता के लोग मानो अँधेरे मंे कीड़ो की तरह कुलबुला रहे हंै, तुम उनको देखना।“ फिर उन्हांेने अपने शरीर की ओर संकेत करते हुए कहा, ”आखिर इसने किया ही क्या है? तुम्हंे इससे कहीं ज्यादा करना होगा।“ कई वर्षाे बाद सारदा देवी ने अपने शिष्य से कहा था- ”ठाकुर (यानि श्रीरामकृष्ण) हर प्राणी मंे जगदम्बा की अभिव्यक्ति देखते थे। उन्हांेने मुझे संसार में ईश्वर के मातृरूप का प्रकाश करने के लिए छोड़ दिया है।“ हिन्दूू धर्म का यह वैशिष्ट्य है कि इसमें ईश्वर को मातृरूप में भी देखा जाता है। परब्रह्म तो अनाम, निराकार, गुणातीत और निर्विकार है। ब्रह्म की दृष्टि से न कोई सृष्टि है, न उसका पालन और न ही विनाश। ब्रह्म की अबोधगम्य रचानात्मक शक्ति है जो संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती है। ब्रह्म और उसकी शक्ति-शब्द और उसके अर्थ के समान ही अभिन्न है। शक्ति और जननी के बीच एक विशिष्ट समानता यह है, कि सभी जीव उन्हीं से उत्पन्न सामान्यतः हर स्त्री मातृत्व की ईश्वर प्रदत्त इच्छा होती है। जिन स्त्रियों मंे यह रचनात्मक शक्ति शारीरिक स्तर पर होती है। वे सन्तानोत्पत्ति से इस इच्छा की पूर्ति करती है, पर जिन स्त्रियों की आत्मा मंे रचना की शक्ति है वे आध्यात्मिक सन्तानांे द्वारा इस इच्छा को संतुष्ट करती है। सारदा देवी दूसरी श्रेणी की महिला थी। और इस कारण वे अनेकानेक आध्यात्मिक सन्तानांे की माँ थी। श्रीरामकृष्ण के देहावसान के पन्द्रह दिन बाद श्रीमाँ अपने शोक को भुलाने के लिए उनके शिष्यो के साथ तीर्थाटन के लिए निकली उन्होंने वाराणसी, अयोध्या, हरिद्वार तथा इलाहाबाद जैसे कई तीर्थाे की यात्रा की इस दौरान श्रीरामकृष्ण ने इन्हंे कई बार दर्शन दिए जिससे उनका शोक कुछ हलका हुआ। वृन्दावन में वे एक बालिका की भाँति आनन्दपूर्वक एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर जाती। यहीं श्रीरामकृष्ण ने उन्हें स्वामी योगानन्द को औपचारिक रूप से दीक्षा देने का निर्देश दिया और इस प्रकार स्वामी योगानन्द श्रीमाँ के पहले शिष्य बने। अमेरिका से लौटकर स्वामी विवेकानन्द ने गंगा के तट पर बेलुड़ मठ की स्थापना की। यह मठ श्रीरामकृष्ण के अनुयायियांे का स्थायी निवास हो गया जब श्रीमाँ ने बेलुड़ मठ देखा तो प्रसन्न हो गई और कहा- ”आखिरकार मेरी सन्तानांे को एक आश्रय मिल गया है। श्रीरामकृष्ण की कृपा उन पर हुई है।“ उपरी तौर से श्रीमाँ एक साधारण गृहस्थ जैसे ही रहती थी। जयरामबाटी मंे वे सब्जियाँ काटना, खाना पकाना, झाडू लगाना, कपडे धोना, बर्तन माँजना, आटा गूँथना, आदि गृहस्थी के कामो मंे व्यस्त रहती थी। इसके साथ ही वे अपने सम्बन्धियांे और उनसे मिलने जयरामबाटी आने वाले भक्तों का अपार धैर्य और स्नेह के साथ सेवा-शुश्रशा करती। श्रीमाँ के व्यक्तित्व मंे मानवी, दैवी, गुरू और एक माँ के गुणांे का अद्भूत सम्मिश्रण था। ऐसे तो वे एक सामान्य हिन्दू गृहिणी जैसी ही दिखती थी। अपने एक संबंधी की मृत्यु पर वे खूब रोई थी। दूसरे दिन अपने शोक का कारण बतलाते हुए उन्होंने कहा- ”मैं इस संसार में रहती हूँ, मुझे संसार रूपी वृक्षों के फलो का स्वाद तो चखना ही होगा।“ श्रीरामकृष्ण ने एक बार कहा था- ”जब जब ईश्वर मानवरूपी में अवतरित होते है तो मानव की तरह ही व्यवहार करते हंै, उन्हंे भी भूख प्यास लगती है और रोग, शोक तथा भय सताते है।“ एक दिन श्रीमाँ के एक शिष्य ने उनसे पूछा अच्छा क्या आपको सदैव अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं रहता? माँ ने कहा - ”हर घड़ी कहाँ रहता है? वैसा होने से क्या ये सब कामकाज किए जा सकते है? पर हाँ काम काज के बीच जब भी इच्छा होती है। तभी थोड़ा ध्यान करने से ही मेरी चेतना झट उद्दीपित हो जाती है। और महामाया की सारी लीला समझ में आ जाती है।“ श्रीमाँ अपने पति की तरह ही ईश्वर का अवतार थी। एक ही शक्ति , श्रीरामकृष्ण और श्रीमाँ के रूपों में प्रकट हुई थी। श्रीरामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के अपने कमरे में इसी दिव्य शक्ति की साकार रूप से पूजा की थी। वे चाहे साध्वी हो या जगदम्बा की अवतार अपने शिष्यांे के लिए वे गुरू भी थी और माँ भी। वे उन अतिविरल और असाधारण गुरूआंे में से थी जो न केवल अपने शिष्यांे के हृदय में आध्यात्मिक चेतना जागृत करते हंै। बल्कि उनकी मुक्ति होने तक उनकी सहायता करते रहते है। अपनी अन्तिम बीमारी के समय श्रीमाँ ने कहा था- ”क्या तुम सोचते हो कि मृत्यु के बाद भी मुझे तब तक छुटकारा मिल सकता है, जब तक मेरी सारी सन्तानंे जिनका भार मंैने लिया है, मुक्त नहीं हो जाती? मंत्र देना क्या ख्ेाल है? कितना बोझ सिर पर लेना पड़ता है, शिष्यो के लिए कितना चिन्ता करनी पड़ती है।“ अपनी मृत्यु के पाँच दिन पहले उन्हांेने भ्रमित और ईष्र्या-द्वेष से प्रताड़ित संसार को अपना अन्तिम संदेश दिया एक शोकाकुल महिला भक्त से उन्हांेने धीरे-धीरे कहा- ”एक बात कह देती हूँ। यदि शान्ति चाहती हो, बेटी तो किसी का दोष मत देखना दोष केवल अपना ही देखना संसार को अपनाना सीखो कोई पराया नही, बेटी संसार तुम्हारा ही है।“ मंगलवार, 29 जुलाई 1920 को दिन के करीब डेढ़ बजे उन्हांेने कुछ गहरी साँसें ली और महासमाधि मंे लीन हो गई। वे फिर इस भौतिक संसार में नहीं लौटी। दीर्घकालीन रोग से पीड़ित उनका शरीर शान्त हो गया और उसमें से एक दिव्य ज्योति निकलने लगी। कई लोग इस ज्योति से धोखे मंे आ गए और उन्हंे लगा कि श्रीमाँ अब भी जीवित है। उनके शरीर को मालाओं से सुसज्जित कर गंगा के उस पार बेलुड़ मठ ले जाया गया। वहाँ चन्दन काष्ठ की चिता पर उनका अन्तिम संस्कार सम्पन्न हुआ। उनके पुनीत जीवन के स्मारक के रूप मे उसी स्थान पर आज एक सफेद मन्दिर स्थापित है। उनके जन्मस्थान पर भी एक सफेद मन्दिर का निर्माण किया गया। इस मन्दिर पर लहराती ध्वजा पर एक ही शब्द लिखा है- ”माँ!“
श्री माॅ सारदादेवी की वाणी
सचमुच ठाकुर (राम कृष्ण परमहंस) ईश्वर ही थे। उन्होनंे दूसरे के दुःखो और कष्टों को दूर करने के लिए मानवी देह धारण की थी। वे वैसे ही रहे जैसे एक राजा अपने नगर मंे वेश बदलकर घूमता है जैसे ही लोगांे ने उन्हें पहचाना वैसे ही वे अदृश्य हो गये। ठाकुर सत्य से कितने जुडे़ हुए थे। वे कहा करते कि सत्य कलियुग की तपस्या है। व्यक्ति सत्य का पालन करके ईश्वर को पा सकता है। जब ठाकुर चले गये तब मैनें भी जाने का विचार किया वे तत्काल मेरे सामने प्रकट होकर बोले, नहीं तुम्हंे यहाँ रहना होगा यहाँ बहुत सा कार्य बाकी है। उन्हांेने बताया कि वे तीन सौ वर्ष तक सूक्ष्म शरीर मंे अपने भक्तो के हदय में निवास करेगें। जिसका मन शुद्ध होता है वह सभी को शुद्ध समझता है। औरतों का इतना क्रोध करना क्या अच्छा है? उन्हंे सहनशील होना चाहिए बचपन मंे माँ-बाप की गोद और युवावस्था में पति का आश्रय छोड़ उनके लिए और कहीं मर्यादा का स्थान नहीं है। स्त्रियाँ सामान्य रूप से संवेदनशील होती है। एक ही शब्द उन्हें क्रोधित कर देता है और आजकल शब्द भी कितने सस्ते हो गये है। उनमंे सहनशीलता होनी चाहिए और कितनी भी कठिनाई क्यांे न हो, उन्हे माँ, बाप या पति के साथ ही रहना चाहिए। एक दिन एक स्त्री भक्त ने श्रीमाँ से कहा कि- वे उसकी लड़की को विवाह करने के लिए आदेश दे। इस पर श्रीमाँ ने कहा- सारा जीवन दूसरे की दासी बनकर रहना उसकी इच्छानुसार चलना यह क्या कम कष्ट की बात है? यद्यपि अविवाहित जीवन में विपत्ति की कुछ सम्भावना रहती है फिर भी यदि कोई विवाह करने की इच्छा नहीं रखे तो उसे विवाह करने के लिए और जीवन भर सांसारिकता मंे फँसने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए। जो लड़किया पूर्ण संन्यास के जीवन को ग्रहण करना चाहती है। उन्हें ब्रह्मचर्य का जीवन बिताने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। एक दिन एक सन्यासी की माता ने श्रीमाँ से प्रार्थना की कि वे उसके पुत्र को सांसारिक जीवन मंे लौटने के लिए कहे श्रीमाॅ ने उत्तर दिया संन्यासी की माता बनना तो एक दुर्लभ सौभाग्य है। लोग तो एक पीतल के लोटे को भी नहीं छोड़ सकते। क्या संसार का त्याग करना सहज है? तुम क्यों चिंता करती है? अपनी ससुराल जानेवाली एक महिला से श्रीमाँ बोली किसी से घनिष्टता मत बढ़ाना परिवार के सामाजिक उत्सवो मंे अधिक भाग मत लेना कहती रहना रे मन अपने आप में रहो। दूसरों के बारे में जानने के लिए उत्सुक मत होना। ध्यान और प्रार्थना की अवधि धीरे धीरे बढ़ाती जाना। एक महिला किसी लड़के को गोेद लेना चाहती थी। उससे श्रीमाँ ने कहा ऐसा काम मत करना जिसके प्रति जो कर्तव्य हो उसे करती रहना पर प्रेम एक भगवान को छोड़ किसी से न करना। सांसारिक प्रेेम सदा अकथनीय दुःखों को साथ लाता है। अगर तुम किसी मनुष्य से प्रेम करोगीे तो तुम्हंे इसके लिए दुःख सहना होगा। वह धन्य है जो केवल भगवान से प्रेम करती हंै। भगवान से प्रेम करने पर दुःख नहीं भोगना पड़ता। एक बात कहती हूँ- यदि शान्ति चाहो बेटी तो किसी का दोष मत देखना दोष देखना अपना संसार को अपना बना लेना सीखो कोई पराया नहीं है, बेटी यह सारी दुनिया तुम्हारी अपनी है। मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है इसलिए किसी विशेष अवसर की प्रतीक्षा किये बिना जब भी मौका मिले, सत्संकल्पो को व्यवहार मंे उतारना चाहिए। मृत्यु समय-असमय का विचार नहीं करती। देखो किसी महापुरूष की सेवा करते हुए भी व्यक्ति गलती कर सकता है। यह ऐसे होता है जब व्यक्ति को ऐसी सेवा का सौभाग्य मिलता है तो उसका अहंकार बढ़ जाता है। तब वह जिनकी सेवा करता है। उन्हीं को कठपुतली के समान नियंत्रण करना चाहता है। वह उनके खाने, बैठने या उठने तक में हुक्म चलाता है। उसकी सेवा की भावना जाती रहती है। अनेक महापुरूष सम्पत्ति और वैभव से घिरे रहते है। इससे बहुत से लोग आकर्षित होकर उनका सेवक बनना चाहते है। ऐसे सेवक अपनी स्थिति के नशे में चूर रहते है और इस प्रकार वे खुद अपने पैरो में कुल्हाड़ी मार लेते है। बताओ भला कितने लोग सच्ची सेवा भावना से कार्य करते है। कोई भी व्यक्ति हमेशा दुःख नहीं भोग सकता। कोई भी व्यक्ति इस जगत में जीवन भर कष्ट मंे नहीं रहेगा। प्रत्येक कर्म का फल होता है और उसके अनुसार ही व्यक्ति सुख या दुःख का भोग करता है। कठिनाई तो आएगी पर वे सदा नहीं रहेगी। तुम देखोगे कि वे सब पुल के नीचे से बहकर निकलने वाले पानी के समान विलीन हो जाएगी। क्या तुम सोचते हो कि मृत्यु होने के बाद भी मुझे तब तक छुटकारा मिल पाएगा जब तक मेरी सन्ताने जिनका भार मैनें लिया मुक्त नहीं हो जाती है। मुझे तो उनके साथ निरन्तर रहना पडे़गा। मैनंे तो उनके सब कुछ का, उनके सारे पाप और पुण्य का भार लिया है। मैं उन लोगांे को छोड़ नहीं सकती है जिन्हंे अपनी सन्तान के रूप में स्वीकार किया है। धनी व्यक्तियों को अपने धन से भगवान और भक्तों की सेवा करनी चाहिए और निर्धनों को भगवान का नाम जपते हुए उनका भजन करना चाहिए। जान लो कि अपनी माता की सेवा ही तुम्हारा सर्वाेच्च कर्तव्य है, यदि वह तुम्हारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होती हो तो बात दूसरी है। कोई वस्तु कितनी ही छोटी क्यांे न हो पर उसकी अवमानना नहीं करनी चाहिए। अगर तुम किसी वस्तु का सम्मान करोगे तो उसके द्वारा तुम्हंे भी सम्मान मिलेगा छोटे से छोटा काम भी सम्मानपूर्वक करना चाहिए। व्यक्ति कितना ही आध्यात्मिक क्यांे न हो पर शरीर धारण करने का पूरा महसूल उसे चुकाना ही पड़ता है। एक महात्मा और सामान्य व्यक्ति मंे यह अंतर है कि जहाँ सामान्य व्यक्ति देहत्याग के समय रोता है। वहाँ महात्मा हँसता है। मृत्यु तो उसके लिए एक खेल के समान है। जब पति और पत्नी एकमत होकर आध्यात्मिक साधना करते है। तब आध्यात्मिक प्रगति सरलता से होने लगती है। केवल ईश्वर ही सत्य है बाकी सब कुछ मिथ्या है। जीवन का उद्देश्य ईश्वर की अनुभूति करना तथा उनके चिन्तन मंे निरन्तर लीन रहना है।
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