साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्म एवं दर्शन
दर्शन शब्द की उत्पत्ति ”दृश“ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है ”देखना“। यह दर्शन या तो इन्द्रियजन्य निरीक्षण हो सकता है, या प्रत्ययी ज्ञान अथवा अन्तर्दृष्टि द्वारा अनुभूत हो सकता है। यह घटनाओं के सूक्ष्म निरीक्षण, तार्किक परीक्षण अथवा आत्मा के अन्तर्निरीक्षण द्वारा भी प्राप्त होता है।
धर्म में पूर्ण चेतनात्मक एकता की अनुभूति को लक्ष्य माना जाता है। यह व्यक्ति और समाज में सामंजस्य एवं परस्पर अभियोजन स्थापित करने का यत्न करता है। धर्म के पालन से स्वपर कल्याण अर्थात श्रेय व प्रेय की सिद्धि होती है। इसलिए कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक चिंतन के द्वारा विश्व को मित्रतापूर्ण बनाना निश्चय ही धर्म का एक उद्देश्य है।
डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के अनुसार - ”दर्शन पूर्णता (पूर्ण सत्ता) का उत्तर तर्क से देता है जबकि धर्म इसका उत्तर विश्वास से देता है।“
दर्शन व धर्म भिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित होते हुए भी परस्पर पूरक हैं। धर्म में दर्शन का समावेश हो या न हो किन्तु दर्शन अपनी व्यापकता के अनुसार धर्म को भी चिन्तन का विषय बनाता है तथा उसे यौक्तिक आधार प्रदान करता है। दर्शन अपने समग्र रूप में ज्ञान, प्रमाण, सृष्टि, नैतिकता, धर्म, तत्वमीमांसा आदि की सत्य, निष्पक्ष, तर्कपूर्ण, बौद्धिक, सैद्धान्तिक व्याख्या कर उन्हें सुदृढ़ आधार प्रदान करता है। वह तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक दृष्टि अपनाते हुए तर्क-वितर्क, आलोचना-प्रत्यालोचना तथा विवेकपूर्ण मंथन के द्वारा निष्कर्षों की निरपेक्ष स्थापना करने का यत्न करता है। परम सत्ता की खोज, जिसे प्रायः धर्म श्रद्धा व विश्वास के आधार पर मानता है को आना लक्ष्य बनाता है तथा विवेकपूर्ण सद्आचरण द्वारा अभिव्यक्त करता है।
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