Sunday, March 15, 2020

6. छठा अवतार: परशुराम अवतार

पहला युग / पाँचवाँ युग: सत्ययुग/स्वर्ण युग
ब. सार्वजनिक प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार

6. छठा अवतार: परशुराम अवतार

ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-वैशाख शुक्ल पक्ष-अक्षय तृतीया
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार 
                                    
परशुराम अवतार (पूर्व कथा)
समस्त जीव आत्मरक्षा के लिए कार्य करते है। मनुष्य कार्य भी करता है और विचार भी करता है। विचार के द्वारा मनुष्य अपनी उन्नति के विभिन्न उपाय ढँूढ़ निकालता है।
प्रारम्भ में सभी मनुष्य एक ही वर्ण के थे। क्रमशः मनुष्य के चिन्तन में विस्तार होने से उसके कार्याे में भी वृद्धि हुई। मनुष्यों के एक वर्ग ने समाज के मंगल हेतु केवल चिन्तन का ही कार्य अपनाया; वे लोग ब्राह्मण हुए। बाकी कार्यो का भार अन्य दो वर्गो ने उठा लिया। इनमें एक वर्ग खूब तेजस्वी तथा बुद्धिमान था; ये लोग समाज के हितरक्षक तथा दुष्ट लोगों के शासक क्षत्रिय हुए। एक अन्य वर्ग उतना बुद्धिमान न होने पर भी खूब कर्मकुशल थे। वे लोग समाज के धनवर्धक वैश्य हुए। स्थूलबुद्धि तथा हीन-स्वभाव लोगों ने परिश्रम का भार लिया और समाजसेवक शूद्र हुए। इस प्रकार एक ही मानवजाति चार वर्णो में विभक्त हो गई। 
ब्राह्मण हुए समाज के मस्तिष्क, जो समाज के मंगल के उपाय सोचते है। क्षत्रिय हुए बाहु और वे उन उपायों के आधार पर समाज की उन्नति करते है। मस्तिष्क की जितनी आवश्यकता है, बाहुओं की भी उतनी ही आवश्यकता है। दोनों के सम्मिलित भाव से कार्य किये बिना समाज का कल्याण नहीं होता। 
परन्तु वर्ग बनने पर विवाद भी सहज ही प्रकट हो जाते है। ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बीच प्रायः विभिन्न विषयों पर विवाद खड़ा हो जाता था। बीच बीच में उनमें युद्ध तक हो जाता। सम्भव है ब्राह्मणों ने साधना-तपस्या के द्वारा समाज में उपकार का कोई उपाय ढँूढ़ा, परन्तु क्षत्रियों ने उसे नहीं माना। यथा, ब्राह्मणों ने कहा कि क्षत्रिय को बाल्यकाल में ब्राह्मण के पास वेदाध्ययन करना होगा, कठोरतापूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करना होगा और सम्भव है क्षत्रियों ने सोचा, ‘‘हाँ, वेदाध्ययन तो अवश्य करना चाहिए, पर इतनी कठोरता तथा ब्राह्मण का शिष्यत्व आवश्यक नहीं। राजा का लड़का इतना सब करने क्यों जाएगा ?’’ ब्राह्मण ने देखा कि जिनके हाथों में राज्य के शासन का भार होगा, वे भोगासक्त, अविनयी तथा गुरूसेवाहीन हो जाएँ, तो इसमें समाज का मंगल नहीं है। अतः विवाद शुरू हुआ और एक वर्ग के युद्ध में पराजित होकर दूसरे वर्ग की अधीनता स्वीकार न करने तक युद्ध जारी रहा। 
इसी प्रकार एक बार क्षत्रियगण अपने ऐश्वर्य-गौरव से बड़ें अहंकारी हो उठे। देश का सारा धन तथा सभी मनुष्य उनके अधीन थे। ऐसी स्थिति में धर्म के नियम तथा ब्राह्मणों के आदेश पर चलना उनके लिए असह्य हो उठा। वे धर्म की नीतियों तथा धर्माचार्यो की अवज्ञा करने लगे। 
प्राचीन भारत में भृगुवंशी ब्राह्मण बड़े प्रभावशाली थे। इस वंश में अनेक तेजस्वी योगी पुरूषों ने जन्म लिया। भृगु के पुत्र महर्षि ऋचिक न केवल विद्वान और तपस्वी थे अपितु वे युद्धविद्या में भी पारंगत थे। गाधि राजा की पुत्री महर्षि विश्वामित्र की बहन सत्यवती के साथ उन्होंने विवाह किया। सत्यवती भी उन्हीं के समान तपस्विनी एवं भक्तिमती थीं। 
महर्षि ऋचिक ने धर्म के अधःपतन एवं अधर्म के उत्थान से व्यथित होकर जगत् के कल्याण हेतु बड़ी तपस्या की। आदर्श ब्राह्मण तथा आदर्श क्षत्रिय की सम्मिलित शक्ति के बिना मानवजाति का कल्याण असम्भव जानकर उन्होंने एक महायज्ञ किया। उन्होंने यज्ञ के लिए दो चरू बनाए। यज्ञ में काम आनेवाले खीर को चरू कहते हैं। उनमें से एक था अपनी सास के लिए क्षात्रतेजोमय चरू और दूसरा अपनी पत्नी के लिए ब्रह्मतेजोमय चरू। चरू पाकर गाधिपत्नी ने सोचा कि दामाद ने अवश्य ही अपनी पत्नी के लिए उत्कृष्ट चरू बनाया होगा। अतः उन्होंने अपनी पुत्री के समक्ष चरू बदलने अभिलाषा व्यक्त की, जिसे सरलहृदय सत्यवती ने तत्काल मान लिया। दोनों ने यथाविधि बदला हुआ चरू खा लिया। 
महर्षि ऋचिक यह बात सुनकर बड़े नाराज हुए और पति के आदेश के अवहेलना के लिए सत्यवती को खरी-खोटी सुनाने के बाद उन्होंने दोनों चरूओं का भेद समझा दिया। यह सुनकर कि शान्त ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय बालक जन्म लेगा, सत्यवती को बड़ा भय हुआ और चरू-भक्षण के फल का खण्डन करने के लिए वे ऋचिक से विनती करने लगीं। ऋचिक ने अपने तपोबल के द्वारा उस क्षत्रिय-शक्ति को अपने पुत्र से पौत्र मंे परिवर्तित कर दिया। 
ऋचिक के पुत्र जदग्नि ने अपने पिता से शिक्षा पाकर शास्त्र, तपस्या तथा धनुर्विद्या में असाधारण योग्यता प्राप्त की और रेणुका नाम की एक गुणवती कन्या के साथ विवाह कर आदर्श गृहस्थ का जीवन बिताने लगे। उनके पाँच पुत्र हुए, जिनमें सबसे छोटे का नाम राम था। 
राम में बाल्यकाल से ही असाधारण क्षात्रतेज दीख पड़ा। शास्त्रपाठ तथा तपस्या में उन्हें अरूचि न थी, परन्तु धनुर्विद्या से उनका विशेष लगाव था। कहीं भी अन्याय दृष्टिगोचर होने पर वे अपने बल से तत्काल उसका विरोध करते, व्यायाम, क्रीड़ा तथा शिकार में सदा उन्मत्त रहते। शिक्षा की समाप्ति के बाद उन्होंने कठोर तपस्या के द्वारा महादेव को प्रसन्न किया। महादेव ने उन्हें दो वर प्रदान किये - एक तो इच्छामृत्यु का अर्थात् अपनी इच्छा न हो तो रोग, अस्त्राघात अथवा बुढ़ापे से उनकी मृत्यु नहीं होगी; और दूसरा वर उन्हें एक परशु या कुठार के रूप में मिला। उसके हाथ में रहने पर युद्ध में कोई उनसे जीत नहीं सकता था। इस परशु की सहायता से उन्होंने सौ बार क्षत्रियकुल पर विजय प्राप्त की थी, इसीलिए उनका नाम परशुराम हो गया। 
एक दिन जदग्नि किसी कारणवश रेणुका पर इतने क्रोधित हो गए कि उन्होंने अपने पुत्रों को बुलाकर रेणुका का सिर काट डालने का आदेश दिया। राम उस समय आश्रम में नहीं थें पुत्रगण पिता के इस भयानक आदेश का पालन न कर सके और पितृ-शाप के भय से बेहोश होकर धरती पर गिर पड़े। तभी राम ने घर लौटकर देखा कि पिता क्रोध से आग-बबूले और भ्रातागण भय से मूर्छित हैं। उन्हें जमदग्नि ने मातृवध का आदेश दिया। राम ने तत्काल पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर चार वर देने की इच्छा व्यक्त करने पर राम ने माँगा -
(1) उनकी माता पुनर्जीवित होकर हत्या की बात भूल जायँ।
(2) भ्रातागण होश में आकर सब भूल जायँ। 
(3) युद्ध में कोई भी उन पर विजय न पा सके। 
(4) वे दीर्घजीवी हों। 
हैहय नाम के एक प्रबल प्रतापी क्षत्रिय वीर ने नर्मदा नदी के किनारे अपने नाम पर एक राज्य स्थापित किया। सुप्रसिद्ध माहिष्मती नगरी उनकी राजधानी थी। हैहयवंश के ही कीर्तिवीर्य के पुत्र अर्जुन ने काफी तपस्या करके योगप्रभाव से एक हजार लोगों की शक्ति अर्जित की थी, इस कारण उन्हें सहस्त्रबाहु और कीर्तिवीर्य के पुत्र होने के कारण कार्तवीर्य-अर्जुन कहा जाता था। एक बार विश्वश्रवा मुनि का पुत्र रावण दिग्विजय करने बाहर निकला और युद्ध करते करते नर्मदा नदी के तट पर पहुँचकर उसने हैहय राज्य में शिविर लगाया। अर्जुन की सैकड़ों पत्नियाँ थीं। वे अपनी पत्नियों के साथ नर्मदा में क्रीड़ा किया करते थे। पुराण में लिखा है कि एक बार अर्जुन ने अपने सहस्त्र बाहुओं के द्वारा नर्मदा का प्रवाह रोक दिया। रावण नदी के तट पर बैठा पूजा-पाठ कर रहा था। नदी में बाढ़ आ जाने से रावण के पूजा के उपकरण बह गए। इस बात पर दोनों के बीच युद्ध ठन गया। घमासान लड़ाई के बाद रावण पराजित और बन्दी हुआ। विश्वश्रवा मुनि यह समाचार पाकर स्वयं ही कार्तवीर्य के पास उपस्थित हुए और बड़ा अनुनय-विनय करके उन्होंने अपनी पुत्र रावण को छुड़ाया। 
वैसे हमारा विश्वास है कि रावण का जन्म काफी काल बाद हुआ था और एक व्यक्ति के हजार हाथ होना भी सम्भव नहीं है। तथापि इसमें सन्देह नहीं कि कार्तवीर्य-अर्जुन एक महान् वीर थे। 
एक बार अर्जुन शिकार के निमित्त भ्रमण करते हुए अपनी सेना के साथ जमदग्नि के तपोवन में अतिथि हुए। जमदग्नि ने अत्यन्त आदर के साथ अर्जुन का स्वागत किया। वे एक महायोगी थे और उनके लिए कुछ भी असाध्य न था; एक निर्धन ब्राह्मण होकर भी उन्होंने अपने योगबल से राजा को हर प्रकार के भोजन आदि के द्वारा सन्तुष्ट किया। पर अहंकारी, लोभी, असुरस्वभाव अुर्जन कृतज्ञ होना तो दूर, ईष्र्या से दग्ध हो उठा। मुनि के पास एक कामधेनु गाय थी। राजा द्वारा उसे माँगने पर मुनि ने कहा, ‘‘मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूँ। याग-यज्ञ के लिए घी-दूध की आवश्यकता पड़ती है और बहुत-सी गायें पालना मेरे लिए सम्भव नहीं है। इस एक गाय से ही मेरा काम चल जाता है, अतः मैं इस गाय को न दे सकूँगा।’’ इस निर्धन ब्राह्मण में इतना दुस्साहस! मैंने एक छोटी-सी चीज माँगी और इसने साफ इन्कार कर दिया! लोगों ने ब्राह्मणों को मान-सम्मान देकर सिर चढ़ा लिया है। मैं राजा हूँ, तथापि इसे मेरा आदेश अमान्य करते भय नहीं लगता।’’ यह सोचकर अर्जुन बलपूर्वक गाय को ले जाने का प्रयास करने लगे। परन्तु योगबल के सामने दूसरो कोई बल नहीं चलता। राजा गया का हरण करने में असमर्थ रहे और अपने राज्य को लौट गए। 
प्रतिहिंसा की अग्नि से राजा का हृदय जलता रहा। उन्होंने एक बहुत बड़ी सेना लेकर ऋषि के आश्रम पर चढ़ाई की। ऋषि उस समय समाधि-मग्न थे। उनका सिर काटने के बाद राजा कामधेनु को लेकर चले गए। 
राम उस समय किसी कार्यवश आश्रम के बाहर गए हुए थे। उन्होंने लौटकर देखा कि तपोवन तहस-नहस हो चुका है, आश्रमवासियों के रक्त से जमीन रँग गई है और महर्षि जमदग्नि योगासन में मृत पड़े हैं। क्या ही भयानक दृश्य था! धर्म की कैसी दुरवस्था हो चुकी थी! गाय के लोभ में ऋषिवध! ब्रह्मवध! धर्मरक्षक क्षत्रिय के लिए यह कितना बड़ा अन्याय था, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता था। पिता का मृतदेह पड़ा था, परन्तु श्राद्ध-तर्पण की तो बात ही नहीं उठती थी। पहले इस पृथ्वी के भार, मानवता के शत्रु का संहार किये बिना अन्य कुछ सोचा भी नहीं जा सकता था। हाथ में कुठार (फरसा) लिए, प्रतिहिंसा की मूर्ति बने, राम माहिष्मती नगरी की ओर दौड़ पड़े। जब एक बार कर्तव्य निश्चित हो जाता है, तब मनुष्य के मन में सम्भव-असम्भव का प्रश्न ही नहीं उठता। एक ब्राह्मणपुत्र हाथ में एक कुठार लिए अकेले ही महावीर अर्जुन के हजारों सैनिकों द्वारा रक्षित माहिष्मती नगरी पर आक्रमण करने चल पड़ा। 
नगर में प्रवेश करके राम ने उन्मत्त के समान लोगों को काटना शुरू किया। नागरिकगण भय के मारे इधर-उधर भागने लगे। कुठार के आघात से सिंहद्वार को तोड़ने के बाद राम ने राजपुरी में प्रवेश किया। सैनिकों के अस्त्राघात से उनका शरीर क्षत-विक्षत हो गया था, परन्तु कोई भी उन्हें रोक नहीं सका। सम्पूर्ण राजधानी को रक्त से प्लावित करते हुए उन्होंने अर्जुन पर आक्रमण किया और अपने अजेय कुठाराघात से उसका वध करके अपने आश्रम लौट आए। 
जमदग्नि एवं अर्जुन के वध की कहानी लोगों के मुख से अतिरंजित होते हुए सारे भारत में फैल गई। एक गाय के लिए इतने बड़े तपस्वी ऋषि की हत्या पर ब्राह्मण तथा उनके पक्षधर अत्यन्त क्रोधित हुए। और दूसरी ओर एक सामान्य ब्राह्मणपुत्र ने अपने कुठार से इतने बड़े व विख्यात राजा वीर अर्जुन का वध कर डाला, यह समाचार क्षत्रियों के लिए असह्य हो उठा। पूरे देश में यही एक चर्चा चलने लगी। क्षत्रियगण राम को दण्डित करने का विपुल आयोजन करने लगे। तपस्वी ब्राह्मण जगत् के मंगल हेतु भगवान को पुकारने लगे। पुरोहित ब्राह्मणों ने क्षत्रियों के संहार के निमित्त रूद्र-यज्ञ आरम्भ किया। रजोगुणी ब्राह्मणों ने अस्त्र उठाकर राम के सेनापतित्व में विप्रसेना का गठन किया। 
दोनों पक्षों के बीच घोर लड़ाई छिड़ गई। राम की अद्भुत वीरता के सामने क्षत्रियगण टिक न सके और बारम्बार पराजित होने लगे। राम अपना कुठार हाथ में लिए शत्रुओं की सेना में घुस गए और उन्हें गाजर-मूली की भाँति काटने लगे। अधिकांश वीर क्षत्रियों के हताहत हो जाने के बाद ही युद्ध थमा। परशुराम के नेतृत्व में ब्राह्मणगण सम्पूर्ण देश में धर्मस्थापना की व्यवस्था करने लगे। 
कुछ वर्ष शान्तिपूर्वक बीते। परन्तु पराजित क्षत्रियगण चुप-चाप नहीं बैठ सके। बदला लेने की भावना से वे धीरे धीरे अपनी सेना का गठन करने लगे, देखते-ही-देखते क्षत्रियकुल के बालक भी युवावस्था को प्राप्त हुए। उन्होंने पुनः ब्राह्मणों पर आक्रमण किया। भयानक रक्तपात एवं नरसंहार हुआ। क्षत्रियगण पुनः पराजित और हताहत हुए। 
कुछ वर्ष और शान्तिपूर्वक बीते। ब्राह्मणों ने सोचा था कि अब क्षत्रियगण सिर नहीं उठा सकेंगे। परन्तु महातेजस्वी क्षत्रियगण प्रतिशोध लेने के प्रयास में लगे रहे। उनकी सेना एकत्र हो जाने पर पुनः युद्ध हुआ। ब्राह्मण-क्षत्रियों के मिश्रित रक्त की धाराएँ बह चलीं, मृत देहों से धरती पट गई। इस प्रकार कुल इक्कीस युद्ध हुए। द्वेषभाव बढ़ते हुए क्रमशः घोर निष्ठुरता में परिणत हुआ, न्याय-अन्याय का बोध न रहा; जिससे जैसे भी बन पड़ा शत्रु-संहार की चेष्टा करता रहा। 
युद्ध करते करते राम अत्यन्त क्रोधित हो उठे। क्रुद्ध होकर उन्होंने युद्ध में पराजित क्षत्रियों को पकड़कर बन्दी बना लिया; कुरूक्षेत्र के निकट स्थित समस्त-पंचक में उन्होंने पाँच गड्ढे खोदे और बन्दी क्षत्रियों का सिर काटकर उनके रक्त से उन्होंने उन गढ्ढ़ो को भर दिया। उन्हीं गड्ढों में पितृ-तर्पण कर उन्होंने अपनी पिता की हत्या का प्रतिशोध लिया। क्षत्रिय कुल के बच्चों तक की कुठाराघात से हत्या करके उन्होंने क्षत्रियवंश को निर्मूल कर दिया; यहाँ तक कि गर्भवती नारियों के उदर चीरकर भी पुरूष भ्रूण मिलने पर उन्होंने उसे कुठाराघात से खण्डित कर दिया। 
सम्पूर्ण भारत राम के भय से संत्रस्त हो उठा। बड़ा साहसी व्यक्ति भी उनके सम्मुख खड़ा होने में असमर्थ हो जाता था। लोगों ने उनके बारे में कितनी ही अलौकिक घटनाओं की कल्पना कर ली। उनके आने की सूचना पाकर लोग प्राणों के भय से छिप जाते। उनका नाम ही आतंक का एक पर्याय हो गया, किसी के सहसा ‘परशुराम’ शब्द का उच्चारण कर देने मात्र से ही लोग सहम जाते। 
अनवरत युद्ध के कारण देश से धर्मनीति उठ गई। ऋषिगण अब शान्त बैठ सके; उन्होंने राम से हिंसा त्याग देने का अनुरोध किया। और हिंसा करने योग्य कोई बचा भी नहीं था; क्षत्रिय वंश तो पहले ही निर्मूल हो चुका था। राम समझ गए कि अब उनका कर्तव्य पूरा हो चुका है, जीवन का उद्देश्य सिद्ध हो चुका है। अब उनमें ब्राह्मण-भाव जाग उठा। उनका एकमुखी मन हिंसा के आवेश में हजारों ओर दौड़कर उन्हें पीड़ित कर रहा था- वे ब्राह्मण का शान्त संयमित मन पाने को व्याकुल हुए। ऋषियों के हाथ में पृथ्वी-शासन का भार सौंपकर उन्होंने भारतवर्ष का पूरी तौर से परित्याग किया और हिन्द महासागर के महेन्द्र पर्वत नामक एक द्वीप में जाकर कठोर तपस्या में लग गए। 
तब ब्राह्मणों ने धर्म के अनुसार देश के शासन की व्यवस्था की। कुछ क्षत्रिय-नारियाँ गर्भरक्षा के लिए राम के भय से पहाड़ों-जंगलों में छिपी हुई थीं। ब्राह्मणों ने काफी प्रयास करके उन्हें ढूँढ़ निकाला, उनसे उत्पन्न पुत्रों का यत्नपूर्वक पालन कर उन्हें उपयुक्त धर्मशिक्षा प्रदान की और बड़े होने पर राज्य-शासन का भार उन्हीं के हाथो सौंप दिया। इसके फलस्वरूप क्षत्रियगण ब्राह्मणों के अनुगत हो गये और उन लोगों द्वारा प्रचारित धर्म के नियम मानकर चलने लगे। देश में धर्म व शान्ति की पुनः स्थापना हुई। ब्राह्मण और क्षत्रिय का विवाद सदा-सर्वदा के लिए मिट गया। 

सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में छठवें अवतार - परशुराम अवतार तक अनेक असुरी राजाओं द्वारा राज्यों की स्थापना हो चुकी थी परिणामस्वरूप ऐसे परिस्थिति में एक पुरूष की आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी और उसने कई राजाओं का वध कर डाला और असुरों तथा देवों के सह-अस्तित्व से एक नई व्यवस्था की स्थापना की। जो एक नई और अच्छी व्यवस्था थी। इसलिए उस पुरूष को कालान्तर में उनके नाम-रूप पर परशुराम अवतार से जाना गया तथा व्यवस्था ”परशुराम परम्परा“ के नाम से जाना गया जो साकार आधारित ”लोकतन्त्र का जन्म“ था, जो निम्न प्रकार थी।
1. प्रकृति में व्याप्त तीन गुण- सत्व, रज और तम के प्रधानता के अनुसार मनुष्य का चार वर्णों में निर्धारण। सत्व गुण प्रधान - ब्राह्मण, रज गुण प्रधान- क्षत्रिय, रज एवं तम गुण प्रधान- वैश्य, तम गुण प्रधान- शूद्र।
2.गणराज्य का शासक राजा होगा जो क्षत्रिय होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति जो रज गुण अर्थात् कर्म अर्थात् शक्ति प्रधान है।
3. गणराज्य में राज्य सभा होगी जिसके अनेक सदस्य होंगे जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति के सत्व, रज एवं तम गुणों से युक्त विभिन्न वस्तु हैं।
4. राजा का निर्णय राजसभा का ही निर्णय है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति का निर्णय वहीं है जो सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित निर्णय होता है। 
5. राजा का चुनाव जनता करे क्योंकि वह अपने गणराज्य में सर्वव्यापी और जनता का सम्मिलित रुप है जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति सर्वव्यापी है और वह सत्व, रज एवं तम गुणों का सम्मिलित रुप है।
6. राजा और उसकी सभा राज्य वादी न हो इसलिए उस पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान ब्राह्मण का नियन्त्रण होगा जैसे- ब्रह्माण्डीय गणराज्य में प्रकृति पर नियन्त्रण के लिए सत्व गुण प्रधान आत्मा का नियन्त्रण होता है।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि चैथे अवतार की शैली में परशुराम ने साध्य अर्थात् गणराज्य की स्थापना के लिए राजाओं का वध करना प्रारम्भ किया परन्तु इससे क्षति सहित समाज या गणराज्य की स्थिरता न बने रहने के कारण को देखते हुये दूसरे और तीसरे अवतार को शैलीे में दोनों असुरों और देवों के विचारों में समन्वय स्थापित कर तथा द्वितीय अवतार की शैली में जनता के सहयोग के लिए राजा का चुनाव जनता से हो और निर्णय राज्यसभा में हो, देकर ही नई व्यवस्था दी। जिसे कालान्तर में ‘‘परशुराम परम्परा’’ के नाम से जाना जाता गया। यह अलग बात थी कि जनता राजा के वंश से ही राजा को चुन देती थी। यह व्यवस्था उस समय के लिए नई, कल्याणकारी और कालानुसार प्रभावकारी थी इसलिए वह त्रेता और द्वापर युग तक चलती रही चूॅकि व्यवस्था द्वापर युग तक रही इसलिए परशुराम का अस्तित्व भी द्वापर युग तक रहा। मनुष्यों के वर्ण में देवताओं के सभी गुण-सत्व गुण युक्त ब्राह्मण में तथा असुरों के समस्त गुण-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित हो गये थे। रज-तम गुण प्रधान वैश्य और शूद्र को ज्ञान से दूर इसलिए रखा गया था कि वे ज्ञान व समझ में नियन्त्रण में रहने वाले अपनी प्रकृति के अनुसार ही नहीं थे। इसलिए उनका नियंत्रण शारीरिक बल, आज्ञा और कानून द्वारा किया गया था। ये चारों वर्ण मूल मानव जाति से जो छठें अवतार परशुराम सहित पूर्व के पाॅच अवतारों तक थे उन्हीें से विभाजित थी अर्थात् परशुराम स्वयं ब्राह्मण वर्ण में हो गये थे परिणामस्वरूप एक नेतृत्व मन या विचार से दो नेतृत्व मन या विचार-असुर और देवता के उपरान्त चार नेतृत्व मन या विचार-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का निर्माण हो गया था।
कल्कि पुराण के अनुसार भगवान परशुराम, भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरू होगें और उन्हें युद्ध की शिक्षा देगें। वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके दिव्य शस्त्र प्राप्त करने के लिए कहेंगे।


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