साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्म का अर्थ
शब्द कोश के अनुसार धर्म शब्द की उत्पत्ति “धृ” धातु से हुई है और धृ का अर्थ है “धारण करना”। ऋग्वेद में “अतो धर्माणि धारयन” के रूप में धर्म के धारण करने का उल्लेख मिलता है (ऋग्वेद, 1/22/18)। महाभारत में “धारणात् धर्म मित्याहुः धर्मोधारयते प्रजाः” (महाभारत, कर्ण पर्व, 49/50) के द्वारा एवं भगवद्गीता में “धृत्यायया धारयते” (गीता, 18/33) के द्वारा धारण का अर्थभाव स्पष्ट होता है। “धारण करना” को सरल शब्दों में अपनाना भी कहा जा सकता है।
ऋग्वेद में “त्रीणि पदा विचक्रमें विष्णुगोंपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन।। (ऋग्वेद, 1/22/18)” के द्वारा व्यापाक अर्थ में कहा गया है कि परमात्मा ने आकाश में त्रिपाद परिमित स्थान में त्रिलोक का निर्माण कर उनमें धर्मो का धारण किया है। धृव्रतो (ऋग्वेद, 1/9/44/4) अर्थात सत्यव्रत धारण करने वाले, अधि धा (ऋग्वेद, 1/10/54/11) अर्थात अच्छी तरह धारण कर धर्मणामिरज्यसि (ऋग्वेद, 1/10/55/3) अर्थात धर्मो के योग से अतिशय, ऐश्वर्य आदि को धारण करने का निर्देश मिलता है।
अथर्ववेद में सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म, यज्ञ आदि को धर्म तत्व मानते हुए पृथ्वी को धारण (अथर्ववेद, 12/1/1) करने की बात कही गयी है। महाभारत में वह वस्तु जो सम्पूर्ण विश्व को धारण कर रही है एवं समाज (प्रजा) की एकता को मूर्तिमंत करती है (महाभारत, कर्ण पर्व, 58-59), उसे ही धर्म कहा गया है।
धर्म के तत्वज्ञान (कठ उपनिषद्, 1/22/13), विधि-निषेध (तैत्तिरीय उपनिषद्, 2/11/1), सत्य (बृह. उपनिषद्, 1/4/14), पुण्य (छान्दोग्य उपनिषद्, 2/1/14), सांसारिक जीवन में अभ्युदय एवं जीवन के परम निःश्रेयस (वैशेषिक सूत्र, 1/1/1-3), चरित्र-आचरण (मनुस्मृति, 2/108) आदि को जीवन में धारण करना माना गया है जो निश्चित ही धारण के सम्बन्ध में विभिन्नताओं को दर्शाता है। अतः धर्म के धारण के सम्बन्ध में कोई एक पूर्ण निश्चित तथा सर्वमान्य विचार कर निर्णय कर पाना लगभग दुष्कर है किन्तु इतना निश्चित है कि धर्म का अर्थ निःसन्देह धारण करना ही माना गया है।
धर्म (मजहब), किसी एक या अधिक परलौकिक शक्ति में विश्वास और इसके साथ-साथ उसके साथ जुड़ी रिति, रिवाज, परम्परा, पूजा-पद्धति और दर्शन समूह है। इस सम्बन्ध में प्रोफेसर महावीर सरन जैन का अभिमत है कि आज धर्म के जिस रूप को प्रचारित एवं व्याख्यायित किया जा रहा है उससे बचने की जरूरत है। वास्तव में धर्म, सम्प्रदाय नहीं है। जिन्दगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है, सार्वभौम चेतना का सत्संकल्प है। मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम होती जा रही है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे- स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता के रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। उस युग में व्यक्ति का ध्यान अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरूषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जय गान करने में अधिक था। धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रियाकलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतू ”कर्म-सिद्धान्त“ के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण ”भाग्य“ अथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरूषार्थवादी मार्ग के मुख्य द्वार पर ताला लगा दिया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज स्वयं भी भाग्यवादी बनकर सुख-दुःखात्मक स्थितियों से संतोष करता रहा। आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था परिववर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। आज के मनुष्य की रूचि अपने वर्तमान जीवन को सँवारने में अधिक है। उसका ध्यान ”भविष्योन्मुखी“ न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।
वेदान्त दर्शन एक एक करके इन तीन सोपानों (द्वैत, विशिष्टद्वैत, अद्वैत) का अवलम्बन करके अग्रसर हुआ है तथा हम इस तृतीय सोपान (अद्वैत) को पार करके अधिक अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि हम एकत्व के उपर अधिक जा नहीं सकते। धर्मज्ञान को उच्चतम चूड़ा में आरोहण करने के लिए मानव जाति को जिन सब सोपानों का अवलम्बन करना पड़ा है, प्रत्येक व्यक्ति को भी उसका ही अवलम्बन करना होगा। केवल प्रभेद यह है कि समग्र मानव जाति को एक सोपान से दूसरे सोपान में आरोहण करने के लिए लाख-लाख वर्ष लगे हो, किन्तु व्यक्तिगण कुछ वर्षों में ही मानव जाति का समग्र जीवन यापन कर ले सकते हैं, अथवा वे और भी शीघ्र, सम्भवतः छः मास के भीतर ही उसे सम्पूर्ण कर ले सकते हैं। (धर्म विज्ञान, पृष्ठ-134-135, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन) - स्वामी विवेकानन्द
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