Sunday, March 15, 2020

अवधूत भगवान राम

अवधूत भगवान राम
                
परिचय -
परमपूज्य बाबा अघोरेश्वर भगवान राम जी का जन्म बिहार राज्य के भोजपुर जिले के गुण्डी नाम के छोटे से गाँव में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष, सप्तमी, रविवार, संवत् 1994 (सन् 1937) को हुआ था। उनके माता-पिता का नाम श्री बैजनाथ सिह और श्रीमती लखराजी देवी था। माता जी के सन्यास लेने के बाद उनका नाम महामैत्रायिनी योगिनी पड़ा। बालक के अलौकिक क्रियाकलापों को देखकर परिवार वालों ने आपका नाम भगवान रखा। दुर्भाग्य से जब भगवान पाँच वर्ष के थे उनके पिता का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद उनके दादा श्री बाबू हृदय प्रसाद सिंह और दादी ने ही उनकी परवरिश की। भगवान शिक्षा के क्षेत्र में कम तथा मन्दिर में जाकर पूजा-अर्चना-ध्यान करने में अधिक रूचि लेते थे। उन्हें भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव आदि बहुत पसन्द थे। वह अपने साथियों से बहुत प्यार करते थे। भगवान के आध्यात्मिक झुकाव को देखते हुए उनके परिवार के सदस्यों ने गाँव में ही एक छोटा सा मन्दिर स्थापित किया जिसमें भगवान स्वयं एक शिवलिंग स्थापित किये। जिसमें वे स्वयं अधिक से अधिक समय जप और ध्यान में बिताते थे। वे अपने परिवार के साथ केवल 7 वर्ष तक रहे। फिर वे कभी भी एक स्थान पर नहीं रहे। उन्होंने अपने तप के दिनों में भोजन, कपड़े, आराम, गर्मी, सर्दी, सुरक्षा इत्यादि के लिए कभी ध्यान नहीं देते थे। 
आपके पूर्वजों का सम्बन्ध राजवंशों से रहा है। भारत के पश्चिमी भाग स्थित लोहागढ़ से सैकड़ों वर्ष पहले आपके पूर्वज भोजपुर में आ बसे थे। राज्यों एवं जमींदारीयों के उन्मूलन के बाद भी आपका परिवार सम्पन्न किसानों का है। आपका गोत्र भारद्वाज, शाखा वाजसनेयी, सूत्र पास्करगृहसूत्र, वेद यजुर्वेद तथा कुल देवी चण्डी है। कहते हैं त्रेता युग में मर्यादा पुरूषोत्तम राम को महर्षि विश्वामित्र ने पतित पावनी गंगा और सोनभद्र से घिरी हुई पवित्र धरती पर शिक्षा दी थी। इसी पवित्र धरती के सोनभद्र तथा गंगा नदी के तटों पर संतो का सतसंग आपको शैशव काल से ही प्राप्त होता रहा। गंगा और सोन के तटों पर, विन्ध्याचल के वनों और पर्वतों में आप साधनारत और विचरते रहे। काशी, गया, जगन्नाथपुरी तथा विन्ध्याचल के तीर्थो में, गंगा की कछारों पर स्थित श्मशानों में आप साधनारत रहे।
आप 9 वर्ष की उम्र में अपना गाँव छोड़ कर भगवान विश्वनाथ के दर्शन की इच्छा से पवित्र शहर काशी आ गये परन्तु आप रास्ता नहीं जानते थे जहाँ आपको रेशम की साड़ी में एक बूढ़ी औरत ने मार्गदर्शन दिया और गंगा स्नान के उपरान्त विश्वनाथ जी तथा अन्नपूर्णा मन्दिर का दर्शन कराकर अदृश्य हो गयी जिससे आपको हैरानी हुई और आप हरिश्चन्द्र घाट की ओर चले गये। वहाँ से वे बाबा किनाराम आश्रम गये जहाँ उस वक्त 11वें पीठाधीश्वर बाबा राजेश्वर राम थे। आपने अघोर दीक्षा के माध्यम से अघोर मार्ग अपनाया और भगवान से भगवान राम हो गये। हालांकि भगवान राम किनाराम आश्रम में अधिक समय तक नहीं रहे। 13 वर्ष की उम्र में वे आश्रम छोड़ कर गंगा और सोन के तटों पर फिरते रहे। 15 वर्ष की उम्र में सकलडीहा, (चन्दौली जिला) के निकट मेहरौरा के श्मशान भूमि में गंगा तट पर तीन दिन और तीन रात के गम्भीर तपस्या के उपरान्त आपको आत्मज्ञान प्राप्त हुआ। क्षेत्र के लोगों द्वारा उन्हें सम्मान दिया जाने लगा और उनके द्वारा लोगों को आशीर्वाद। उनकी उपस्थिति मात्र से ही लोगों की पीड़ा दूर हो जाती थी। लोगों ने उनके अन्दर के सर्वशक्तिमान और चमत्कार का अनुभव किया। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक बढ़ती गई।
विन्ध्याचल के काली खोह नामक स्थान पर आप जब रूके थे उस समय जशपुर (छत्तीशगढ़) के तात्कालिक शासक राजर्षि विजय भूषण सिंहदेव जी आपका दर्शन किये और जशपुर में आमंत्रित किये। वहाँ आपको भूमिदान मिली जिसमें आपने आश्रम स्थापित किये। प्रत्यक्ष रूप से, मानव समाज से आपका सम्पर्क 21 सितम्बर, 1961 को हुआ जब आपने श्री सर्वेश्वरी समूह की स्थापना की और दलितों, उपेक्षितों एवं असहायों की सेवा का व्रत लिया। कुष्ठ सेवा आश्रम की स्थापना, बीमारों की सेवा, असहाय लड़कियों का विवाह आदि अनेक सेवा कार्यक्रम आप द्वारा प्रतिपादित हुए। अवधूत भगवान राम कुष्ठ सेवा आश्रम, पड़ाव में 1962 में स्थापित हुआ। 26 मार्च, 1985 को अघोर परिषद् ट्रस्ट, जो ट्रस्ट अधिनियम के तहत पंजीकृत है, की आपने स्थापना की।
आपने अफगानिस्तान, ईरान, नेपाल, भूटान, संयुक्त राज्य अमेरिका, मैक्सिको तथा अन्य कई देशों में भक्तों के आग्रह पर तथा सेवा व्रत के अपने अनुष्ठान के सन्देश के निमित्त भ्रमण किया। आपने एक सच्चे सुधारवादी की भाँति अघोर परम्परा के प्रति समाज में फैली गलतफहमी की निन्दा की जिसके लिए आपने अघोर अनुसंधान संस्थान और पुस्तकालय की भी ट्रस्ट के अधीन स्थापना की। औघड़-अघोरेश्वरों की परम्परा को समाज के साथ आपने पहली बार सम्बन्धित किया है। आप पुरानी लीक पीटने के बजाय देश और काल की आवश्यकताओं के अनुसार व्यवस्था निर्धारित करने पर बल देते हैं। जानकारों के अनुसार आप किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतू अवतरित हुए थे।
उदास कोढ़ी, बेसहारा और शोशित लोगों के लिए जीवन भर सेवा करने के बाद 29 नवम्बर, 1992 को मैनहट्टन, संयुक्त राज्य अमेरिका में वे अपने नश्वर शरीर को छोड़ दिये। उनके शिष्य गुरूपद सम्भव राम जी उनके साथ थे। उनकी इच्छा के अनुसार उनके शरीर को वाराणसी के गंगा तट पर अन्त्येष्टि प्रस्तावित था। इस स्थान को अघोरेश्वर भगवान राम महाविभूति स्थल कहते हैं जो सर्वेश्वरी समूह संस्थान देवस्थानम् से एक किलोमीटर पर स्थित है।
उनके अन्तिम शब्द थे- ”रमता है तो कौन घाट-घाट में विराजत है, रमता है तो कौन, बता दे कोई“। मैं अघारेश्वर, स्वतन्त्र रूप से हर जगह जाने के लिए, सभी समय में, सूरज की किरणों में मौजूद हूँ, चाँद की किरणों में, हवा के अणुओं में और पानी की हर बूँद में मैं अघारेश्वर, सभी में मौजूद हूँ, लताओं में, पेड़ों में, पृथ्वी, फूल और वनस्पतियों में मैं अघोरेश्वर, पृथ्वी और आकाश के बीच अंतरिक्ष के हर कण और हर परमाणु में मोजूद हूँ, मैं प्रकाश और अँधेरे में भी मैं हूँ, मै साकार और निराकार भी रहा हूँ, मैं खुशी में और दुःख में भी रहा हूँ, मैं आशा  और निराशा में भी हूँ, मैं एक ही समय में अतीत, वर्तमान और भविष्य में घूमने में, मैं ज्ञेय और अज्ञेय भी हूँ, मैं स्वतन्त्र हूँ, यह सत्य है, सत्य है।

अघोर के सम्बन्ध में आचार्य रजनीश ”ओशो“ के विचार
अघोर का अर्थ होता है- सरल। किसी को ”घोरी“ कहो तो गाली हो सकती है घोर का अर्थ है- जटिल। अघोर का अर्थ होता है- सरल, बच्चे जैसा निर्दोष। अघोर तो सिर्फ थोड़े से बुद्धों के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। गौतम बुद्ध-अघोरी, कृष्ण-अघोरी, क्राइस्ट-अघोरी, लोओत्सु-अघोरी। गोरख-अघोरी। सरल निर्दोष, सीधे-साधे। इतने सरल कि गणित जीवन में है ही नहीं। हिसाब किताब लगाने का भाव ही चला गया है।

अवधूत भगवान राम की वाणी
1. सुधर्मा, सहज जन मुझ अघोरेश्वर के अनुशासन में रहकर जन्म-मृत्यु से, भव से, भव की भयावहता से मुक्त तभी होता है, जब प्राण वायु को जानता है और उसमें रमता है। जो प्राण वायु का संचय करता है, उसे सहजता और समाधि सरलता से सुलभ होती है। प्राण वायु ही अघोरेश्वर है, औघड़ है, सर्वेश्वरी है, सममुँह है, विषमता रहित है। यही अघोरेश्वर का धर्मज्ञान है, धर्म चक्षु है, धर्म श्रवण है, धर्म निहितता है, समाधिबोध है। यह बार-बार जन्म-मरण ग्रहण करने से वंचित होता है। भुने बीज से सदृश होता है। मुझ अघोरेश्वर के बोधन ज्ञान से, मुझ अघोरेश्वर के उपदेश के वगैर ज्ञान विमुक्त बोध नहीं होता है।
2. औघड़-अघोरेश्वर की जो विद्या है, जीव-संज्ञा से छूटने की और ब्रह्म-संज्ञा में प्रवेश पाने के लिए जो शिष्य परम्परा रही है, उसका लोप सा हो गया है। सुधर्मा, उसी परम्परा को ब्रह्म-संज्ञा में प्रविष्ट कर, औघड़-अघोरेश्वर अपने-आप में परिपूरित रहते हैं। जीव-संज्ञा को भुला देते हैं। औघड़-अघोरेश्वर की जो सहज विद्या है या जो मन्त्र है, पद है, उसे शिष्य परम्परा को चाहिए कि बिलाने से, परोक्ष होने से रोके। उसे शिष्य परम्पराओं में अभ्यास करावें, उसे अभ्यास करे, तभी वह परोक्ष होने से बच सकती है। अघोरेश्वर, औघड़ों को सहज और सुलभ उपलब्ध हुए विद्या रूपी जवाहरात को सुरक्षित रखना चाहिए, सुुधर्मा।
3. सुधर्मा, औघड़ और घर के होते हैं। और घर क्या है? जहाँ संयम है, सतर्कता है, सहनशीलता है, सम्यक दृष्टि है, समवर्तिता है, आत्मबुद्धि है, आत्मा में, प्राण वायु में जो रमण करता है वही और घर का होता है। जो ये घर का है उसमें सतर्कता नहीं है, संयम नहीं है, आत्मबुद्धि नहीं है, देह बुद्धि है, प्राण के प्रति जागरूकता नहीं है। जो कलुषित है, आलसी है, दीन और धर्म से अपरिचित है। अघोरेश्वर के मन्त्र और क्रिया से अपरिचित है, वह ये घर का है।
4. सुधर्मा, अघोरेश्वर किन-किन गुणों के होने से होते है? अघ कुकृत्य से विरत होने वाले को अघोरेश्वर कहते हैं। अघ अपायगति विरत को अघोरेश्वर कहते हैं। इन्द्रियों के भोग से, भव के भोग से, भव के अघ से विरत को अघोरेश्वर कहते हैं।
5. अघोरेश्वर के स्वभाव में, आचरण में, व्यवहार में, चर्या में न परिवर्तन होता है, न परिणाम होता है, न घटाव-बढ़ाव होता है। एक सा एक रस बने रहते हैं। सब पर समदृष्टि, सबके लिए करूणा, मैत्री और दया होती है। न अघारेश्वर अभाव में होता है न परिणाम होता है, न उतार-चढ़ाव होता है। संसार में कोई ऐसा दूसरा प्राणी नहीं है।
6. लोक के पुण्य क्षेत्र अघोरेश्वर होते है, औघड़ होते हैं। दान देने योग्य होते हैं, श्रद्धा देने योग्य होते हैं, सम्मान देने योग्य होते हैं, पूजनीय होते हैं, सराहनीय होते हैं।
7. मुझ अघोरेश्वर के अलौकिक-लौकिक विचारों में श्रद्धा रखने वाला अवधूत, औघड़ कहा जाता है। वे दान के अधिकारी होते हैं। दान देने वाला, सम्मान देने वाला, मान को प्राप्त होता है।
8. जो औघड़ बहुश्रुत होता है, स्मृतिमान होता है, वह अघोरेश्वर के अनुकूल होता है।
9. क्रोध, लोभ, प्रशंसा, मान, बड़ाई को जो महत्व देता है वह औघड़ साधु सिद्धि को प्राप्त नहीं होता, असिद्धि को प्राप्त होता है, आतुरता को प्राप्त होता है।
10. जो आश्रम के आश्रित रहते हैं वे औघड़ साधु यदि सुरा, नशीली वस्तुएँ, मैथुन से विरत नहीं होते हैं तो आश्रम की मर्यादा, प्रतिष्ठा और स्वयं अपनी मर्यादा प्रतिष्ठा खोकर असिद्धि के भागी होते हैं, अयोग्य होते हैं, मुझ अघोरेश्वर द्वारा प्रतिष्ठित आश्रमों में रहने के अयोग्य होते हैं, निन्दनीय, अशोभनीय, आलसी होते हैं, वैमनस्य बढ़ाने वाले होते हैं।
11. सुधर्मा, सबसे मूल्यवान धन एकान्तवास होता है। वचन धन भी होता है। विश्वास धन भी होता है। तप धन भी होता है। सुष्प्ता धन भी होता है। सेवा धन भी होता है। विवेक धन भी होता है। शालीनता धन भी होता है। श्रद्धा धन भी होता है। शील धन होता है। इन सब तरह के धन के साथ अच्छा धनवान ब्रह्मचर्य के साथ एकान्तवास करता है। वह महान धनवान है। वह देव को खरीदता है। धन की क्रय शक्ति से संसार के सभी रत्नों के पाने का जो आनन्द होता है, ब्रह्मचर्य के साथ एकान्तवास की शक्ति से प्राप्त आनन्द उससे कहीं अधिक होता है।
12. सन्देश वाहक और दूत का काम करने वाला कभी साधु नहीं हो सकता, वह असाधु है।
13. सुधर्मा, गौवें काली हों, चाहे लाल हों, चाहे सफेद हों, चाहे चितकबरी हों, उनका दूध एक सा ही रंग का सफेद होता है। उसी प्रकार मनुष्य चाहे क्षत्रिय हो, चाहे ब्राह्मण हो, चाहे वैश्य हो, चाहे शूद्र हो, चाहे चाण्डाल हो, वह यदि सुब्रत है मुझ अघोरेश्वर के प्रति श्रद्धावान है, शील सम्पन्न है, सत्यवादी है, भय-लज्जा युक्त है, जरा-मरण के बन्धन से परे होने के लिए तत्पर है, पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला है, तो ऐसे आसक्ति रहित कृत-कृत्य प्राणी का श्रद्धा रूपी दूध स्वच्छ और निर्मल होता है। दूसरे को पुष्ट करने वाला होता है। दधि या घृत देने वाला होता है। वहाँ जाति, देश अथवा प्रान्त का भेद नहीं होता।
14. सुधर्मा, पहले के लोग झूठ बोलने से, गलत कहने से भयभीत होते थे। अदालत (न्यायालय) में ईश्वर की शपथ लेते समय वह समझते थे कि हम गृहस्थ हैं, बाल-बच्चेदार हैं। हम झूठ नहीं बोलेंगे। उसका असर बाल-बच्चों पर होने का पूरा भय बना रहता था। अब के घूसखोर लोगों से यदि कोई सज्जन कहता है कि आयु अल्प है, गलत काम नहीं करना चाहिए, तो घूसखोर लोग कहते हैं कि हम बाल-बच्चेदार हैं, यदि ऐसा नहीं करेंगे तो उनके उदर की भूख कैसे मिटायेंगे? वे समाज को धोखा देते हैं, राष्ट्र को धोखा देते हैं।
15. आत्महित तथा परहित में लगा हुआ आदमी, आदमी है। आजकल के नेताओं की तरह परहित की दुहाई देने वाला, आत्महित भी नहीं कर पाता, परहित भी नहीं। मानवता से दूर रहने वाला अमानव है।
16. सुधर्मा, देश में नेताओं को, मिनिस्टरों को, मुख्यमंत्रियों को, राष्ट्रपतियों को तूने सुना है, जानता भी है। इनमें परिवर्तन होता है, परिणाम होता है। एक सा सदैव कोई नहीं रहता। ऐसे ही साधुओं में, औघड़ों में, ऊँचे जनों में भी परिणाम होता है, परिवर्तन होता है। अघोरेश्वर में न कोई परिणाम होता है, न परिवर्तन होता है। बहुत सी संस्थाओं में, बहुत सी पार्टियों में परिणाम होता है, परिवर्तन होता है, सदैव एक सा नहीं रहता है। बराबर घट-बढ़ होता है।
17. सुधर्मा, पशु और मनुष्य के बीच एक विशेष अन्तर यह है कि मनुष्य अपने स्वभाव, विचार और चिन्तन को बदल सकता है, जो पशुओं के लिए असाध्य है। मनुष्य में और पशु में इतना ही अन्तर है। मनुष्य गलत काम करता है और बार-बार करता है। वह खुद ही अपने आपको माफ नहीं कर सकता। अपने आपकी अवहेलना के सिवाय और कुछ नहीं कर सकता।
18. सुधर्मा! जहाँ शासक और अधिकारी राष्ट्र भक्त, समाज सेवक और चरित्रवान होते हैं, उस राष्ट्र में स्मगलर, मुनाफाखोर या तो बिला जाते हैं, भाग जाते हैं, या प्रवर्तन कर लेते हैं। ऐसा ही जानना चाहिए सुधर्मा और ऐसे ही समझना भी चाहिए। जनता का कष्ट, सुधर्मा साधु को भी व्यथित करता है। औघड़-अघोरेश्वर को भी जलती हुई जनता का उष्ण ताप छूता है, सुधर्मा। जो जल रहा है, जो जला रहा है, उसे उष्णता तो लगती ही है सुधर्मा। जो उस देश में रह रहा है वह भी वंचित नहीं रहता है, सुधर्मा।
19. सुधर्मा, पूरे जगत में कर्म से ही साधु होता है, कर्म से ही चोर होता है, कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है, कर्म से ही वैश्य होता है, कर्म से ही शूद्र होता है। जन्म से कुछ भी नहीं होता। चतुर मनुष्यों का यही निश्चय है।
20. सुधर्मा, नियम का, समय काल पाकर, परिवर्तन-परिमार्जन करना चाहिए। एक ही खूँटा से पशु सरीखे बँधे रहने को छोड़ना चाहिए जिसमें ऐसा होता है सुधर्मा, वह युग पुरूष समय और काल का जानने वाला होता है। उसी के साथ वह उन्नति भी करता है। विधान तुमने देखा है, सुना भी है कि हजारों साल से रूपान्तर होते होते आज इस रूप में दिख रहा है। कत्र्तव्य के साथ अधिकार का अधिकार सबको है। यह पहले नहीं था।
21. सुधर्मा, जरूरत है इस युग में अनगढ़ मानव को गढने की। मनुष्य स्वार्थी, संकीर्णता से ग्रसित हो गया है। इन दुर्बलताओं के आक्रान्त मनमानी शक्ल दीखने में अक्सर आते हैं। पेट ओर परिवार को आदर्श मान बैठे हैं।
22. सुधर्मा, मान का भी जो त्याग करता है, वही शील और शालीनता रूपी अतौल धन को प्राप्त करता है, जिसे न अग्नि नष्ट कर सकती है, न चोर चुरा सकता है और न राज्य कर उसे ले सकता है।
23. सुधर्मा, ग्रामीण गृहस्थों के घर-परिवार में कलह का कारण आलसी बहुओं का आगमन, निष्क्रिय बहुओं का आगमन, चोर बहुओं का आगमन, कामचोर बहुओं का आगमन होता है।
24. सुधर्मा, स्त्रियाँ दो बातों से असंतुष्ट रहकर ही शरीर त्याग करती हैं- मैथुन तथा सन्तानोत्पत्ति के न होने से।
25. सुधर्मा, कामातुर मनुष्य सांझ को ही अपने स्त्री के पास चला जाता है। खाना खाये रहता है। उत्तेजना उसके वीर्य को इतना पतला कर देती है कि कि लड़की जन्म लेती है। सुधर्मा, इसलिए खाना पच जाये, अर्धरात्रि खत्म हो जाय, तब स्त्री के पास जाने के लिए पुराने लोग कहते हैं। वीर्य परिपक्व रहे, पुत्र उत्पन्न होगा।
26. सुधर्मा, जो प्राणी अनुकूल है अपना, वह खून है अपना। जो छल-छिद्र से, कपट से, स्वार्थ से अपने अनुकूल होने का दम भरता है, वह खून नहीं पानी है।
27. सुधर्मा, संसार के बहुत से चतुर लेखकों की लेखनी, सुनिश्चित नहीं है कि वह आयु वाली होगी। हाँ, सुधर्मा! महापुरूषों की अनुभूति को व्यक्त करने वाली लेखनी लम्बी आयु वाली होती है। जन समूह की वह स्वीकृति प्राप्त की हुई होती है। अखबार, पत्र-पत्रिकाओं की तरह अल्पायु नहीं होती सुधर्मा।
28. सुधर्मा, सूर्य और चन्द्रमा के प्रकाश रश्मि की व्यापकता की तुलना में, पूर्ण व्यापकता, निमित्त मात्र में पूरे भूमण्डल में शब्द की व्यापकता है।


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