Sunday, March 15, 2020

भगवान शंकर के अवतार: एक परिचय

भगवान शंकर के अवतार: एक परिचय
सम्पूर्ण आध्यात्मिक सूक्ष्म एवम् स्थूल सिद्धान्तों को व्यक्त करने का माध्यम मात्र मानव शरीर और कर्मक्षेत्र मात्र मानव समाज ही है। साथ ही उसका मूल्यांकन कत्र्ता मानव का अपना स्तर ही है। इसलिए अवतार सम्पूर्ण सिद्धान्तों का कालानुसार व्यक्त सगुण रूप मानव शरीर ही होता है। मूल रूप से अवतार शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्र्रह्मा अर्थात् सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अवतार होते है परन्तु एकात्मज्ञान अर्थात् ब्रह्मा और एकात्मध्यान अर्थात् शंकर सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य न हो सकने के कारण विष्णु के ही अवतार के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि एक मात्र कर्म ही मानव समाज में सार्वजनिक प्रमाणित होता है। इस एकात्मकर्म का कारण एकात्म प्रेम तथा एकात्म प्रेम का कारण एकात्मकर्म होता है। 
शंकर अर्थात् एकात्मध्यान का व्यक्त रूप एकात्म समर्पण अर्थात् पार्वती है। एकात्म ध्यान का कारण एकात्म समर्पण तथा एकात्म समर्पण का कारण एकात्म ध्यान होता है। वह ध्यान जो आत्मा के लिए हो और वह समर्पण जो ध्यान के लिए हो अर्थात् समभाव और ध्यान युक्त मानव शरीर ही शंकर का अवतार है। इस ध्यान का अर्थ काल चिन्तन है। विभिन्न कालों में विभिन्न रूपों में काल के प्रति समर्पण कराने अर्थात् एकात्मज्ञान और एकात्मकर्म की परीक्षा और परीक्षोपरान्त मार्ग प्रशस्त करने के लिए व्यक्तिगत प्रमाणित शंकर अर्थात् एकात्म ध्यान के 21 अंशावतार जाने जाते है। जो निम्नवत् है।
01. ऋषि दधीचि के समय- ”पिप्पलाद अवतार“
02. वेश्या की परीक्षा के समय - ”वैश्यनाथ अवतार“ 
03. विश्वानर मुनि के समय - ”गृहपति अवतार“ 
04. इन्द्र्र की रक्षा के लिए कश्यप मुनि के समय - ”एकादश रूद्र अवतार“ 
05. पार्वती की परीक्षा के समय - ”ब्रह्मचारी अवतार“ 
06. पार्वती को माॅगते समय - ”सुनट नर्तक अवतार“ 
07. पार्वती के पिता के समक्ष अपनी निन्दा के समय - ”साधु अवतार“ 
08. पार्वती द्वारा भैरव को श्राप देने पर भैरव के स्नेह में पार्वती का शारदा रूप सहित - ”महेश अवतार“ 
09. राजा भद्रायु की परीक्षा के लिए - ”द्विजेश्वर अवतार“ 
10. भील आहुक-आहुका पति-पत्नी की परीक्षा के लिए - ”मतिनाथ अवतार“ 
11. इछवाकुवंशीय श्रद्धेय की नवमी पीढ़ी में राजा नभग की परीक्षा के लिए-”कृष्ण दर्शन अवतार“ 
12. इन्द्र, बृहस्पति सहित अन्य देवताओं की परीक्षा के लिए- ”अवधुतेश्वर अवतार“ 
13. विदर्भ नरेश सत्यरथ और उसकी पत्नी के मृत्यु के उपरान्त अबोध बालक के कल्याण- ”भिक्षुवर्ण अवतार“ 
14. व्याघ्रपाद के पुत्र उपमन्यु की परीक्षा के समय- ”सुरेश्वर अवतार“ 
15. कूर्म अवतार के समय - विषपान और देवताओं के घमण्ड को तोड़ने के लिए - ”नीलकण्ठ यक्षश्रेश्वर अवतार“ 
16. कूर्म अवतार के समय विष्णु गणों के आतंक को समाप्त करने के लिए - ”वृषभ अवतार“ 
17. नृसिंह अवतार के समय नृसिंह का क्रोध शान्त करने के लिए - ”शरभ अवतार“ 
18. रामावतार के समय - ”दुर्वासा अवतार“ 
19. रामावतार के समय - ”हनुमान अवतार“ 
20. कृष्णावतार के समय - ”विभु अश्वश्थामा अवतार“ और 
21. अर्जुन की परीक्षा में - ”किरात अवतार“
शिव निराकार हैं तो शंकर साकार रूप में प्रक्षेपित हैं। शिव अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण जो सर्वत्र विद्यमान है। फलस्वरूप शिव का साकार पूर्ण अवतरण रूप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ज्ञान से युक्त होकर जगत के अधिकतम चरित्रों को आत्मसात् करने वाला और उससे मुक्त होता है। शिव-शंकर की दृष्टि में जगत का प्रत्येक वस्तु उपयोगी ही है, न की अनुपयोगी। अर्थात अनुपयोगी लगने वाले विषय, वस्तु, विचार इत्यादि को भी उपयोगी बना लेना महादेव शिव-शंकर का दिव्य गुण है। शिव-शंकर की पूजा हम मूर्ति, चित्र, या प्रतीक शिवलिंग के माध्यम से करते। शिव-शंकर की संस्कृति तो मात्र कल्याण की प्राथमिकता वाली संस्कृति है। शिव-शंकर के पूर्णावतार का अर्थ है- निम्नतम नकारात्मक से सर्वोच्च और अन्तिम सकारात्मक गुणों का महासंगम। शिव-शंकर के अन्य गुणों में निःसंग रहना, एकान्तवास करना, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड पर ध्यान रखना तथा विश्व के कल्याण के लिए प्रेरणा देना है। साथ ही अपनी मस्ती में मस्त इस भाॅति मस्त रहना भी है जैसे न ही कोई चिन्ता है और नही कोई कार्य करना है। जबकि वह विश्व कल्याण के लिए अपने कत्र्तव्य पर ध्यान भी लगाये रहते हैं।
शिव-शकंर अवतार के आठ रूप और उनके अर्थ निम्नवत हैं-
1.शर्व-सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण कर लेना अर्थात पृथ्वी के विकास या सृष्टि कार्य में इस रूप को पार कियें बिना सम्भव न होना।
2.भव-जगत को संजीवन देना अर्थात उस विषय को देना जिससे जगत संकुचित व मृत्यु को प्राप्त होने न पाये।
3.उग्र-जगत के भीतर और बाहर रहकर श्री विष्णु को धारण करना अर्थात जगत के पालन के लिए प्रत्यक्ष या प्रेरक कर्म करना। 
4.भीम-सर्वव्यापक आकाशात्मक रूप अर्थात आकाश की भाॅति सर्वव्यापी अनन्त ज्ञान जो सभी नेतृत्व विचारों को अपने में समाहित कर ले।
5.पशुपति-मनुष्य समाज से पशु प्रवृत्तियों को समाप्त करना अर्थात पशु मानव से मनुष्य को उठाकर ईश्वर मानव की ओर ले जाना। दूसरे रूप में जीव का शिव रूप में निर्माण।
6.ईशान-सूर्य रूप से दिन में सम्पूर्ण संसार में प्रकाश करना अर्थात ऐसा ज्ञान जो सम्पूर्ण संसार को पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित कर दे।
7.महादेव-चन्द्र रूप से रात में सम्पूर्ण संसार में अमृत वर्षा द्वारा प्रकाष व तृप्ति देना अर्थात ऐसा ज्ञान जो संसार को अमृतरूपी शीतल ज्ञान से प्रकाशित कर दे।
8.रूद्र-जीवात्मा का रूप अर्थात शिव का जीव रूप में व्यक्त होना।
शिव-शंकर देवता व दानव दोनों के देवता हैं जबकि श्री विष्णु सिर्फ देवताओं के देवता हैं। अर्थात शिव-शंकर जब रूद्र रूप की प्राथमिकता में होगें तब उनके लिए देवता व दानव दोनो प्रिय होगें लेकिन जब उग्र रूप की प्राथमिकता में होगें तब केवल देवता प्रिय होगें। अर्थात शिव-शंकर का पूर्णवतार इन आठ रूपों से युक्त हो संसार का कल्याण करते हैं।


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