त्रेतायुग के धर्म - 03. वैदिक धर्म-श्रीराम-ईसापूर्व 6000-2500
वाल्मीकि
वाल्मीकि प्राचीन भारतीय महर्षि हैं। ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध है। उन्होंने संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची गई रामायण ”वाल्मीकि रामायण“ कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य व कत्र्तव्य से परिचित करवाता है।
हिन्दुओं के प्रसिद्ध महाकाव्य वाल्मीकि रामायण, जिसे कि आदि रामायण भी कहा जाता है ओर जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र के निर्मल एवं कल्याणकारी चरित्र का वर्णन है, के रचयिता महर्षि वाल्मीकि के विषय में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ प्रचलित हैं जिसके आधार पर उन्हें निम्नवर्ग का बताया जाता है जबकि वास्तविकता इसके विरूद्ध हे। ऐसा प्रतीत होता है हिन्दुओं के द्वारा हिन्दू संस्कृति को भूला दिये जाने के कारण ही इस प्रकार की भ्रांतियाँ फैली हैं। वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या 7/94/16, 7/96/18 और 7/111/11 में लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरूण भी है और वरूण ब्रह्माजी के पुत्र थे। यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरूण अर्थात प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम ”अग्निशर्मा“ और ”रत्नाकर“ थे।
किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसन्तान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका लालन-पोषण किया। जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहाँ का भील समुदाय असभ्य था और वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म ही उनके लिए जीवन यापन का मुख्य साधन था। हत्या जैसा जघन्य अपराध उनके लिए सामान्य बात थी। उन्हीं क्रूर भीलों की संगति में रत्नाकर पले, बढ़े और दस्युकर्म में लिप्त हो गये। युवा हो जाने पर रत्नाकर का विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया और गृहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद वे अनेक सन्तानों के पिता बन गये। परिवार में बृद्धि के कारण अधिक धनोपार्जन करने के लिए वे और भी अधिक पापकर्म करने लगे।
एक दिन नारद ऋषि उस वन प्रदेश से गुजर रहे थे। रत्नाकर ने उनसे धन की माँग की और धन न देने की स्थिति में हत्या कर देने की धमकी भी दी। नारदमुनि के यह पूछने पर कि वह ये पाप कर्म किसके लिए करते हो, रत्नाकर ने बताया कि परिवार के लिए। इस पर नारद जी ने पूछा कि जिस तरह तुम्हारे पाप कर्म से प्राप्त धन का उपभोग तुम्हारे समस्त परिजन करते हैं क्या उसी तरह तुम्हारे पापकर्मो के दण्ड में भी वे भागीदार होगें? रत्नाकर ने कहा कि न तो मुझे पता है और न ही कभी मैेने इस विषय मंे सोचा है। नारदजी ने कहा कि जाकर अपने परिवार के लोगों से पूछ कर आओ और यदि वे तुम्हारे पापकर्म के दण्ड के भागीदार होने के लिए तैयार हैं तो अवश्य लूटमार करते रहना वरना इस कार्य को छोड़ देना। यदि तुम्हें सन्देह है कि हम भाग जायेंगें तो हमें वृक्षों से बाँधकर चले जाओ। नारदजी को पेड़ से बाँधकर रत्नाकर अपने परिजनों के पास पहुँचे। पत्नी, सन्तान, माता-पिता आदि में से कोई भी उनके पापकर्म के फल में भागीदार होने के लिए तैयार न था, सभी का कहना था कि भला किसी एक के कर्म का फल दूसरा कैसे भोग सकता है? रत्नाकर को अपने परिजनों की बातें सुनकर बहुत दुःख हुआ और नारद जी से क्षमा माँग कर उन्हें छोड़ दिया। नारदजी से रत्नाकर ने अपने पापों से उद्धार का उपाय पूछा। नारदजी ने उन्हें तमसा नदी के तट पर जाकर ”राम-राम“ का जाप करने का परामर्श दिया। रत्नाकर ने वैसा ही किया परन्तु वे राम शब्द को भूल जाने के कारण ”मरा-मरा“ का जाप करते हुए अखण्ड तपस्या में लीन हो गये। तपस्या के फलस्वरूप उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुये।
एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच (सारस) पक्षी के जोडे़ को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करूणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा- ”मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगतः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।।“ अर्थात ”अरे बहेलिए, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी।“
ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने प्रसिद्ध महाकाव्य ”रामायण“ (जिसे कि ”वाल्मीकि रामायण“ के नाम से भी जाना जाता है) की रचना की और ”आदिकवि वाल्मीकि“ के नाम से अमर हो गये। अपने महाकाव्य ”रामायण“ में अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चन्द्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। अपने वनवास काल के मध्य ”राम“ वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में भी गये थे। तथा जब ”राम“ ने अपनी पत्नी सीता का परित्याग कर दिया तब वाल्मीकि ने ही सीता को प्रश्रय दिया था। उपरोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि वाल्मीकि ”राम“ के समकालिन थे तथा जीवन में घटित प्रत्येक घटनाओं का पूर्णरूपेण ज्ञान वाल्मीकि ऋषि को था। उन्हें ”राम“ के चरित्र को इतना महान समझा कि उनके चरित्र को आधार मान कर अपने महाकाव्य ”रामायण“ की रचना की।
रामायण
रामायण, कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य है। इसके 24000 श्लोक हिन्दू स्मृति का वह अंग है जिसके माध्यम से रघुवंश के राजा राम की गाथा कही गयी। इसे आदिकाव्य भी कहा जाता है। रामायण का समय त्रेतायुग माना जाता है। कुछ भारतीय विद्वान कहते हैं कि यह 600 ई.पू. से पहले लिखा गया है। उसके पीछे युक्ति यह है कि महाभारत जो इसके बाद आया बौद्ध धर्म के बारे में मौन है यद्यपि उसमें जैन, शैव, पाशुपात आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिए। भाषा शैली से भी यह पाणिनी के समय से पहले का होना चाहिये। रामायण के सात अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते है जो ये है- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड (युद्धकाण्ड), उत्तरकाण्ड।
तुलसीदास कृत ”रामचरित्रमानस“ के अनुसार, सर्वप्रथम श्री राम की कथा भगवान शंकर ने माता पार्वती जी को सुनाया था। जहाँ पर भगवान शंकर, पार्वती जी को भगवान श्री राम की कथा सुना रहे थे, वहाँ कागा (कौवा) का एक घोसला था और उसके भीतर बैठा कागा भी उस कथा को सुन रहा था। कथा पूरी होने के पहले ही माता पार्वती को ऊँघ आ गई पर उस पक्षी ने पूरी कथा सुन ली। उसी पक्षी का पुनर्जन्म काकाभुषुण्डि के रूप में हुआ। काकभुषुण्डि जी ने यह कथा गरूड़ जी को सुनाई। भगवान श्री शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा ”आध्यात्म रामायण“ के नाम से प्रख्यात है। ”आध्यात्म रामायण“ को ही विश्व का सर्वप्रथम रामायण माना जाता है। वाल्मीकि ने भगवान श्री राम के इसी वृतान्त को पुनः श्लोकबद्ध किया जिसे ”वालमीकि रामायण“ के नाम से जाना जाता है।
भारत देश में विदेशियों का सत्ता हो जाने के बाद देव भाषा संस्कृत का ह्रास हो गया और भारतीय लोग उचित ज्ञान के अभाव तथा विदेशी सत्ता के प्रभाव के कारण अपनी ही संस्कति को भूलने लग गये। ऐसी स्थिति को अत्यन्त विकट जानकर जनजागरण के लिए सन्त श्री तुलसीदसा जी ने एक बार फिर से भगवान श्री राम की पवित्र कथा को देसी भाषा में लिपिबद्ध किया। सन्त तुलसीदास जी ने अपने द्वारा लिखित भगवान श्री राम की कल्याणकारी कथा से परिपूर्ण इस ग्रन्थ का नाम ”रामचरित्रमानस“ रखा। सामान्य रूप से इसे ”तुलसी रामायण“ के नाम से जाना जाता है। कालान्तर में भगवान श्रीराम की कथा अनेक विद्वानों ने अपने बुद्धि, ज्ञान तथा मतानुसार अनेक बार लिखा है। इस तरह से अनेकों रामायणों की रचना हुई है। दृश्य पदार्थ विज्ञान के इस काल में विज्ञान के द्वारा आयी तकनीकों से दृश्य-श्रव्य (आॅडियो-विजुअल) माध्यम के आ जाने के बाद सभी रामायणों का अध्ययन व विवादित अंशो को त्यागते हुए श्री रामानन्द सागर ने श्री राम के इस कथा का ”रामायण“ नाम से उसका दृश्य-श्रव्य रूपान्तरण कर दूरदर्शन के माध्यम से प्रसारित कराया। जिसके फलस्वरूप वर्तमान में शायद ही कोई बचा हो जो रामकथा से परिचित न हो। इसके उपरान्त भी अन्य ने भी दृश्य-श्रव्य माध्यम में इस कथा का प्रस्तुतिकरण करने का प्रयत्न किये परन्तु रामानन्द सागर कृत ”रामायण“ एक मानक बन चुका है और जनमानस में उसके जीवन्त पात्रों के प्रति ऐसी छवि बन गई कि वे उसके पात्रों के रूप में ही राम के जीवन काल के पात्रों को सत्य रूप में देखते हैं। फलस्वरूप चाहे जितनी बार रामायण का दृश्य-श्रव्य रूपान्तरण क्यों न हो, पर जनमानस में वह रूप नहीं उतरता।
हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भगवान राम, विष्णु के अवतार थे, इस अवतार का उद्देश्य मृत्युलोक में मानवजाति को आदर्श जीवन के लिए मागदर्शन देना था। इस प्रकार अन्ततः श्रीराम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया और धर्म की पुनस्र्थापना की। आदिकवि वाल्मीकि ने अपने रामायण के उत्तरकाण्ड में रावण तथा हनुमान की जन्म कथा, साता का निर्वासन, राजा नृग, राजा निमि, राजा ययाति तथा रामराज्य में कुत्ते का न्याय की उपकथायें, लव-कुश का जन्म, राम के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान तथा उस यज्ञ में उनके पुत्रों लव और कुश के द्वारा रामायण गायन, सीता का रसातल प्रवेश, लक्ष्मण का परित्याग का भी वर्णन किया है। और इसका राम के महाप्रयाण के बाद इसका समापन हुआ है।
राम कथा के रामायण में सारे चरित्र अपने धर्म का पालन करते हैं-
1. राम - एक आदर्श पुत्र हैं। पिता की आज्ञा उनके लिए सर्वोपरि है। पति के रूप में राम ने सदैव एक पत्नीव्रत का पालन किया। राजा के रूप में प्रजा के हित के लिए स्वयं के हित को तुच्छ समझते हैं। विलक्षण व्यक्तित्व है उनका। वे अत्यन्त वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुन्दर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादापुरूषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं।
2. सीता - महान पतिव्रता नारी। सारे वैभव और ऐश्वर्य को ठुकरा कर वे पति के साथ वन चली गई।
3. भातृ प्रेम - रामायण भातृ प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है। जहाँ बड़े भाई के प्रेम के कारण लक्ष्मण उनके साथ वन चले जाते हैं वहीं भरत अयोध्या की राज गद्दी पर, बड़े भाई का अधिकार होने के कारण, स्वयं न बैठ कर राम की पादुका को प्रतिष्ठित कर देते हैं।
4. कौशल्या - एक आदर्श माता। अपने पुत्र राम पर कैकेयी के द्वारा किये गये अन्याय को भुला कर वे कैकेयी के पुत्र भरत पर उतनी ही ममता रखतीं हैं जितनी कि अपने पुत्र राम पर।
5. हनुमान - एक आदर्श भक्त हैं, वे राम की सेवा के लिए अनुचर के समान सदैव तत्पर रहतें हैं। शक्तिबाण से मूर्छित लक्ष्मण को उनकी सेवा के कारण ही प्राणदान प्राप्त होता है।
6. रावण - रावण के चरित्र से सीख मिलती है कि अहंकार नाश का कारण होता है।
रामायण के अन्य चरित्र भी इसी भाँति अपने अपने सद्गुणों व दुर्गुणों के क्षेत्र में आदर्श हैं।
धर्म संस्थापक का परिचय
प्रत्येक निष्ठावान हिन्दू यह विश्वास करता है कि सर्वव्यापी ब्रह्म - भगवान विष्णु - उस समय लौकिक रूप धारण कर प्रकट होते हैं, जब पृथ्वी पर महान पापों के विनाश के लिए तथा धर्म की संस्थापना के लिए उनका अवतरण आवश्यक हो जाता है। यह विश्वास किया जाता है कि अयोध्या के युवराज श्रीराम वस्तुतः भगवान विष्णु के अवतार थे और वे उनके सप्तम अवतरण थे। वे भारत को राक्षसों के नरमेध और उत्पीड़न से बचाने के लिए, सन्त और साधुओं की रक्षा करने के लिए तथा पूर्ण मर्यादा के आदर्श को प्रदर्शित करने के लिए आये थे।
त्रेतायुग में अयोध्या (उत्तर प्रदेश, भारत देश) में दशरथ नामक एक धर्म परायण राजा राज्य करते थे, जो केवल एक महिमावान राजा ही नहीं, प्रत्युत एक महान योद्धा भी थे। वे सूर्यवंश की महान परम्परा के थे। यद्यपि दशरथ की तीन पतिव्रता पत्नियाँ- कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा थी, पर उन्हें अपने सिंहासन के उत्तराधिकार के लिए किसी पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई थी। इसलिए उन्होंने प्रसिद्ध ऋषि ऋष्यऋृंग के निर्देशन में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञाग्नि से एक भव्य मूर्ति खीर से भरे चरू के साथ प्रकट हुई। रानियों ने इसे ग्रहण किया और कालक्रम से कौसल्या से श्रीराम, कैकेयी से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुध्न का जन्म हुआ। ये पुत्र भगवान विष्णु के अंश माने जाते हैं। ज्येष्ठ पुत्र राम समस्त दैवी गुणों के आकार थे तथा सभी के प्रेम, वात्सल्य और श्रद्धा के पात्र थे। राजकुमारों को दिया जाने वाला समस्त प्रशिक्षण चारो भाईयों को प्राप्त हुआ। लक्ष्मण की जहाँ राम के प्रति विशेष श्रद्धा थी, वहीं शत्रुध्न की भरत के प्रति।
जिस समय राम मात्र सोलह वर्ष के थे, उस समय एक दिन ऋषि विश्वामित्र अयोध्या आये और उन्होंने दशरथ से राक्षसों का संहार करने के लिए राम और लक्ष्मण को उनके साथ भेजने के लिए कहा। ये राक्षस उपद्रव किया करते थे तथा ऋषियों को यज्ञ कार्य नहीं करने देते थे। ऋषि विश्वामित्र के आशीर्वाद से तथा शस्त्र विद्या में अपनी शक्ति और निपुणता से राम ने समस्त राक्षसों को मार डाला। ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त कर दोनों भाई प्रसिद्ध नरेश जनक की राजधानी मिथिला में लाये गये। यहाँ राम ने भगवान रूद्र के अलौकिक धनुष को उठाने और उसकी प्रत्यंचा में विलक्षण शक्ति एवं नैपुण्य का प्रदर्शन किया, जहाँ अनेक शक्तिशाली राजा ऐसा करने में असफल हो गये थे। श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा को इतनी शक्ति के साथ खींचा कि वह महान आयुध एक भयंकर टंकार के साथ टूट गया। राजा जनक ने अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए अपनी लाडली और अपार सुन्दर कन्या सीता का विवाह श्रीराम के साथ सम्पन्न किया।
समय बीतने पर दशरथ वृद्ध हो गये और उन्होंने श्रीराम को युवराज पद पर अभिषेक करना चाहा। सारी व्यवस्थाएँ कर ली गयीं, किन्तु एकाएक निष्ठुरहृदया रानी कैकेयी ने अपनी भ्रष्टबुद्धि दासी मन्थरा के भड़काने में आकर दशरथ से दो वरदान माँग लिये, जो उन्होंने कभी देना स्वीकार किया था। पहले वरदान के अनुसार राम को चैदह वर्षो का वनवास करना था और दूसरे वरदान के अनुसार उनके स्वयं के पुत्र भरत को युवराज के रूप में अभिषेक किया जाना था। राम अपने पिता के अत्यन्त आज्ञाकारी थे, अतः वे तत्काल सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास के लिए प्रस्थित हुए। इस कठोर आघात को न सह सकने के कारण दशरथ ने अपने प्राणों का परित्याग कर दिया। भरत राम के प्रति अत्यन्त श्रद्धा और प्रेम करते थे। उन्होंने राम को वापस लौटाने का बड़ा प्रयत्न किया, किन्तु इसमें असफल होने पर अन्ततोगत्वा उन्होंने राम की चरणपादुकाओं को ही सिंहासन पर स्थापित किया और राम के नाम पर राज्य का शासन करना प्रारम्भ किया।
राम, लक्ष्मण और सीता पंचवटी में निवास करने लगे। जब राम मारीच राक्षस की माया से कुटी से दूर चले गये थे, तब लंकाधिपति राक्षसराज रावण ने वहाँ से सीता को हर लिया। रावण ने सीता को अपनी रानी बनाने का शक्तिभर प्रयास किया परन्तु राम के चिन्तन में पूर्णतया निमग्न सीता ने अत्यन्त रोष के साथ उसके बुरे प्रस्तावों को तिरस्कृत कर दिया। इसलिए सीता को अशोकवाटिका में बन्दिनी बना लिया गया। राम, लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में व्याकुल होकर निकल पड़े, उन्हें मुमूर्षु जटायु और वानरराज सुग्रीव से कुछ सूत्र प्राप्त हुए। उन्होंने सुग्रीव के साथ मैत्री की, उसका अधिकार छीनने वाले भाई बाली के नाश में उसकी सहायता की और सुग्रीव द्वारा प्रदत्त वानरों की सेना के साथ सीता का उद्धार करने के लिए लंका पहुँचे।
राम और रावण के बीच महान युद्ध हुआ और अन्त में रावण अपने सभी निपुण योद्धाओं के साथ मारा गया और सीता को मुक्त किया गया। परन्तु राम आरम्भ में सीता को ग्रहण करने के लिए सहमत नहीं हुए क्योंकि वे इतने दिनों तक रावण द्वारा बन्दिनी रखी गयी थीं। अपनी पवित्रता का प्रमाण देने के लिए सीता ने अग्नि में प्रवेश किया। जब अग्निदेव स्वंय सीता को लेकर प्रकट हुए और उन्हें निष्कलंक रूप से पवित्र घोषित करते हुए, राम से उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा, तो प्रत्येक व्यक्ति अवर्णनीय उल्लास से भर उठा।
राम के भी हर्ष की कोई सीमा नहीं रही। रावण के भाई विभीषण को लंका के सिंहासन पर आरूढ़ करने के उपरान्त श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, विभीषण, सुग्रीव तथा अपने अत्यन्त विश्वस्त एवं प्रकाण्ड भक्त हनुमान के साथ अयोध्या लौटे। चैदह सुदीर्घ वर्षो के उपरान्त वसिष्ठ मुनि ने सीता सहित राम को अयोध्या के अधिपति के रूप में सिंहासन पर बिठाया। इस प्रकार राम के सुदीर्घ समृद्धशाली शासन का प्रारम्भ हुआ, जिसे चारणों ने एक स्वर से अयोध्या का ”स्वर्णयुग“ निरूपित किया है। वे कहते हैं-
”राम की प्रजा में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी। वे लोग रोगों से मुक्त थे। स्त्रियों को अपने पतियों या सन्तानों के अवसान का दुःख नहीं उठाना पड़ता था। कहीं भी कोई लुटेरा, धोखेबाज और झूठा व्यापारी नहीं था, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करता था। वृक्ष अपनी ऋतु में फलयुक्त होते थे। अन्नागारों को भरने में कभी भी फसल असफल नहीं हुई तथा लोग अपने परिश्रम के फल से सन्तुष्ट थे। सर्वत्र उल्लास, स्वास्थ्य औा आनन्द परिव्याप्त था।“
अमर कवि वाल्मिकि ने श्रीराम के इस दैवी एवं विलक्षण जीवन का वर्णन अपने प्रख्यात महाकाव्य रामायण में किया है, जो आज भी सभी हिन्दुओं का चिरन्तन सहचर बना हुआ है।
श्रीरामचंद्र की वाणी
इस पृथ्वी का कोई भी व्यक्ति प्रकृति के इस नियम से मुक्त नहीं हो सकता। अतएव मृतक के लिए शोक करना व्यर्थ है। जब समय आ जाता है तब कोई व्यक्ति बच नहीं पाता। मूढ़ अपने हृदय मंे अनुभव करता है कि धन परम कल्याणकारी तथा सुख का एकमात्र मार्ग है। वास्तव मंे वह अज्ञान दुःख और सभी प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियांे का जनक है। इस संसार में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं हंै। जो इस सर्वग्राही काल के मुख का कौर नहीं बनता। काल बड़ा भयंकर है जो भी दृश्यमान है, उसमें से किसी को काल नहीं छोड़ता और उन्हंे निगल जाता हैै। यह महानतम पुरूषो को भी नहीं छोड़ता। परमात्मा स्थिर आकाश है इसके प्रतिबिम्ब शाश्वत नहीं है। जिस प्रकार मात्र आकाश की सत्ता है उसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा ही एकमात्र सत्य है समस्त दृश्यमान वस्तुएँ इसके ही प्रतिबिम्ब है। मैं परमात्मा हँू और तुम मेरे प्रतिबिम्ब हो। मैनें अभी तुम्हंे जिस महान गुह्य तत्व को बताया है, उसे उन लोगो मंे कभी प्रकट न करना जिनकी मुझ पर भक्ति नहीं है। भले ही वे तुम्हंे इसके बदले में एक साम्राज्य ही क्यों न दे दे। इससे बढ़कर और उपदेश नहीं है जो तुम्हें प्रदान कर सकता हँू। अपने गुरू के विवेकयुक्त वचनों को श्रद्धापूर्वक सुनते हुए परमात्मा और जीवात्मा के अभेदत्व का अनुभव करने का प्रयास करो। उनका उपदेश है ”तत् त्वम् असि“ (तू वह है)। इस स्थिति तक पहुँचनंे के लिए सर्वाेपरि तुम्हंे गुरू कृपा प्राप्त करना आवश्यक है। यह शरीर पाँच तत्वो से निर्मित शान्त और नाशवान है। यह आत्मा से भिन्न है। आत्मा अनादि और अनन्त है। यह अविनाशी है। इसने ही इस शरीर का सृजन किया है। इस पर समुचित रूप से विचार करों और आत्मा को जानने का प्रयास करो। यदि तुम निरन्तर आत्मा का चिन्तन करोगे तो तुम्हारा मन पवित्र हो जायेगा और तुम्हारा अज्ञान तुम्हारे विगत संस्कारो के साथ ठीक वैसे ही उन्मूलित हो जाएगा जैसे प्रतिदिन औषधि लेने से तुम्हारी व्याधि पूर्णतया विलीन हो जाती है। जब मन शुद्ध होता है तब तुम्हें विशुद्ध आनन्द की उपलब्धि होगी। जो योगी मात्र आत्मतत्व पर चिन्तन करते हुए अपने दिन बिताता है, उसे प्रारब्ध के समाप्त होने तक जीवित रहना पड़ता है। उसके बाद वह मुझ परमात्मा मे लीन हो जाता है। जब व्यक्ति गुरू के या ग्रन्थों के उपदेशो के द्वारा जीवात्मा और परमात्मा के एकत्व की अनुभूति करता है तो तत्क्षण अज्ञान का स्रोत कारण और कार्य के साथ, परमात्मा में विलीन हो जाता है। इस स्थिति को मोक्ष कहते है। आत्मा चिर मुक्त होती है। जो योगियो की सेवा करता है। जो मेरा अत्यन्त भक्त है और जो विशुद्ध ज्ञान एवं परमानन्द से युक्त है, उसके हाथ की हथेली में मुक्ति रखी हुई है। जो मुझ पर भक्ति करते है, वे ज्ञान और वैराग्य प्राप्त करेगें तथा उन्हंे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलेगी। अपने पूर्वजन्म मंे तुम मुझ पर उत्कट भक्ति करते थे इसीलिए तुम मुझे देख पाए हो। समस्त दुःखो का परित्याग करके मेरे इसी स्वरूप का ध्यान करो। मैनें तुम्हंे जो उपदेश दिया है उसे मन में धारण कर लो और तुम मोक्ष प्राप्त करोगे। यह कोई व्यर्थ आशा नहीं प्रत्युत ध्रुव सत्य है। माया के दो रूप है- विक्षेप और आवरण। विक्षेप के द्वारा माया महत्तत्व से ब्रह्म तक सारे संसार की तथा साथ ही स्थूल और सूक्ष्म शरीरो की सर्जना करती है। आवरण के द्वारा माया आत्मा के ज्ञान को ढाँक लेती है। जिन दार्शनिकांे का मन मेरी अपनी माया के द्वारा विभ्रमित है वे मुझे जिसने यह मानव शरीर धारण किया है, नहीं पहचान सकते। वे सोचते हंै कि मैं हर्ष और विशाद से प्रभावित हँू। मंै यह शरीर हँू। ऐसा विचार अविद्या है तथा भ्रम की जननी है। मंै शरीर नहीं हँू । मंै आत्मा हँू ऐसा अनुभव ही विद्या है तथा यह भ्रम को नष्ट करने वाली होती है। अविद्या संसार का कारण है तथा विद्या संसार की विनाशक है। इसलिए जो मोक्ष पाना चाहते है उन्हंे एकाग्र चित्त से इस ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। मंै स्पष्टतः देखता हँू ऐसे व्यक्ति विरले हंै जो विपत्ति का सामना करते समय हताश नहीं होते या भ्रम से आच्छन्न नहीं होते जो अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के पूर्ण हो जाने पर घमण्ड नहीं करते और जो स्त्री के कटाक्ष से विचलित नहीं होते। हम विरले ही ऐसे व्यक्तियो को पाते है। वह व्यक्ति ”प्रशान्त“ की संज्ञा के योग्य होता है जो विलक्षण घटनाआंे से परिपूर्ण यौवन के अरण्य को सुरक्षित रूप से पार कर लेता है। जीवन उन लोगो के दुःख का कारण है जिन्होंने विवेक की शक्ति को विकसित नहीं किया है। और जिनका हृदय इन्द्रियों के विषय के सम्पर्क मंे आने के कारण उत्पीड़ित हो गया है। इसके विपरीत उन लोगांे के लिए जीवन का अर्थ आनन्द है, जिन्हांेने चरमतत्व के ज्ञान मे प्रशान्ति की उपलब्धि की है। जैसे वर्षा काल मे नदी में भँवरांे की एक श्रृंखला पैदा हो जाती है, वैसे ही धन भी मूढ़ जनों को अहंकार और दर्प के भंवर मे चक्राकार घुमाता रहता है। प्रकृति की सुन्दरता बिजली की कौध के समान अस्थिर है। सभी प्राणी यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र भी ठीक वैसे ही विनाश की ओर अनुधावित है, जैसे मरूस्थल मे प्रवाहित होने वाली जलधारा। कल्प के बाद कल्प व्यतीत हो जाते है, किन्तु काल कहा जाने वाला प्रवाह अप्रभावित और यथावत बना रहता है इस प्रकार काल न तो उत्थान है, न आन्दोलन और न एक स्थिर स्थिति है। जब तक व्यक्ति अंहकारयुक्त होता है तब तक वह दुःख भोगने के लिए बाध्य है और जब अहंकार नहीं रह जाता है। तब कोई कष्ट नहीं होता है। अतः उत्तम यह है कि बिना अहंकार के रहा जाए। सांसारिक व्यक्ति अपने अपने पूर्व जन्मांे में अर्जित पुण्यो के फलस्वरूप ही पतात्मा साधुओ और महात्माओ का सत्संग प्राप्त करते है। मैं ईश्वर सबको समदृष्टि से देखता हँूं। कोई विशेष व्यक्ति न तो मेरा अत्यन्त प्रिय है और न मैं किसी से घृणा ही करता हँू। कल्पवृक्ष के समान मै वही प्रदान करता हँू जिसकी मुझसे याचना की जाती है।
भगवान श्रीराम के संबंध मंे स्वामी विवेकानन्द के उद्गार-
”वीर-युग के प्राचीन आदर्श राम, सत्य और मर्यादा के विग्रह, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पिता और सर्वोपरि, आदर्श राजा राम को महान ऋषि वाल्मिकी ने हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। कोई भी भाषा इतनी विशुद्ध, इतनी पवित्र, इतनी सुन्दर और इसके साथ ही इतनी सहज नहीं हो सकती, जितनी कि वह भाषा जिसमें महाकवि ने राम का जीवन वर्णित किया है।“
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