Sunday, March 15, 2020

कलियुग के धर्म - 09. टोईज्म धर्म-लोओत्से-ईसापूर्व 604-518

कलियुग के धर्म - 09. टोईज्म धर्म-लोओत्से-ईसापूर्व 604-518
   
परिचय -
छठीं शताब्दी ईसापूर्व में सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि चीन में भी धार्मिक परिवर्तनों का दौर चल रहा था। इसी समय वहाँ ताओ धर्म की स्थापना की गई थी, जिसके संस्थापक लोओत्से थे। ”ताओ“ शब्द का अर्थ है-मार्ग, परन्तु कालान्तर में इसका अर्थ ”पूर्ण यथार्थ“ माना जाने लगा। असल में पहले ताओं एक धर्म नहीं बल्कि एक दर्शन और जीवन शैली थी। बाद में बौद्ध धर्म के चीन पहुँचने के बाद ताओं ने बौद्धों से कई धारणाएँ उधार लीं और एक ”धर्म“ बन गया। बौद्ध धर्म और ताओ धर्म में आपस में समय-समय पर अहिंसात्मक संघर्ष भी होता रहा है। ताओ धर्म और दर्शन, दोनों का स्रोत दार्शनिक लाओ-त्सी द्वारा रचित ग्रन्थ ”दाओ-दे-चिंग और जुआंग-जी“ है। ताओ धर्म में कई देवी-देवता हैं और ये प्रेतात्माओं में भी विश्वास रखता है। ये एक बहुईश्वरवादी धर्म हे। सर्वोच्च देवी और देवता यिन और यांग हैं। देवताओं की पूजा के लिए कर्मकाण्ड किये जाते हैं और पशुओं और अन्य चीजों की बलि दी जाती है। चीन से निकली ज्यादातर चीजें जैसे चीनी व्यंजन, चीनी रसायन विद्या, चीनी कुग-फू, फेंग-शुई, चीनी दवाएँ आदि किसी न किसी रूप से ताओ धर्म से सम्बन्धित रहीं हैं। क्योंकि ताओ धर्म एक संगठित धर्म नहीं है इसलिए इसके अनुयायियों की संख्या पता करना मुश्किल है।
यह धर्म वास्तव में व्यक्ति को नैतिकता एवं सामाजिकता का पाठ पढ़ाता है। यह दैनिक जीवन में अच्छाई, सादगी, शुद्धता और भद्रता की शिक्षा देता है। ताओ धर्म के तीन रत्न हैं-दया, आत्मसंयम और विनम्रता। यह बुराई के बदले भलाई करने तथा किसी से बदले की भावना न रखने की शिक्षा देता है। ”यदि तुम्हें कोई गाली दे तो तुम उससे नाराज मत हो, उससे बदले की इच्छा रखे बिना दया और उदारता का व्यवहार करो“ ताओवाद के ये सन्देश बाद में ईसा मसीह ने भी दुहराये थे।
यह धर्म बुद्धिमान लोगों को ही आकर्षित कर सका, आम जनता को नहीं, फलस्वरूप यह अधिक विस्तार नहीं पा सका। यह अप्रगतिशील और भाग्यवादी विचारधारा का पोषक था क्योंकि मनुष्य के सभी कर्मो के लिए प्रेरणास्रोत ईश्वर को ही मानता था। इतना ही नहीं, इसने शिक्षा के भी त्याग की बात की थी। लाओत्से का मत था कि शिक्षा में असामाजिक तत्व मानव शान्ति में बाधक बन जाते हैं। कालान्तर में लाओत्से के शिष्यों ने अपने धर्मग्रन्थ को चमत्कार के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया। धीरे-धीरे यह धर्म अनुष्ठान प्रधान हो गया। दूसरी शताब्दी ईसापूर्व तक लाओत्से को देवता मानकर उसकी पूजा अर्चना की जाने लगी। इस प्रकार धीरे-धीरे यह धर्म पतन की ओर अग्रसर होता गया और अंधविश्वासों से परिपूर्ण हो गया। प्रथम शताब्दी ईसापूर्व तक यह बौद्ध धर्म के प्रसार के समक्ष टिक न सका और अत्यन्त संकुचित हो गया।


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