Sunday, March 15, 2020

धर्म एवं विज्ञान

साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्म एवं विज्ञान
विज्ञान की परिभाषा करते हुए यह कहा जाता है कि विज्ञान वह है जिसमें व्यवस्थित चिंतन के परिणामस्वरूप सिद्धान्त एवं प्रयोग होते हैं। यह एक प्रकार से प्रयोग को सर्वाधिक महत्व देता है अतः इसकी प्रमाणिकता का आधार अनुभूत तथ्य, तर्क, युक्ति होते हैं जो बुद्धिजनित होते हैं जिनके आधार पर वैज्ञानिक मापन, तोलन, परिकलन, वर्गीकरण करके कारणों का निर्धारण एवं नियमों को सूत्रबद्ध करता है। तथ्यों का विश्लेषण, वर्णन और व्याख्या करता है।
दूसरी ओर धर्म श्रद्धा, विश्वास एवं दिव्य सत्ता से सम्बन्धित होता है जिन्हें विज्ञान सत्य नहीं मानता, क्योंकि प्रायः धर्म अथवा धार्मिक विश्वास अनुभूतिपरक एवं श्रद्धाजनित होते हैं उन्हें तर्क द्वारा अथवा इन्द्रियानुभव द्वारा या उपकरणों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। धर्म का अनुभव व बोध श्रुति के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। उसमें भावनात्मक दृष्टिकोण अनिवार्यतः रहता है। अतः धर्म को विज्ञान का विरोधी एवं मानव प्रगति में बाधक माना गया है।
धर्म और विज्ञान के अपने-अपने क्षेत्र हैं तथा धर्म और विज्ञान दोनों ही हमारे ज्ञान के आवश्यक अंग हैं। धर्म हमारे जीवन के गंतव्य को निश्चित करता है, परन्तु विज्ञान हमारे समक्ष उन साधनों को प्रस्तुत करता है जो गंतव्य अथवा लक्ष्य तक पहुँचने में सहायक होते हैं। धर्म व विज्ञान में यद्यपि तार्किकता, अन्वेषण विधि, विषय सामग्री आदि को लेकर पर्याप्त अन्तर पाया जाता है किन्तु दोनों को एक दूसरे के पूर्णतः विरोधी मानना मानव कल्याण की दृष्टि से तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता है। पूर्ण संतोषप्रद जीवन के लिए धर्म और विज्ञान दोनों ही आवश्यक हैं। धर्म और विज्ञान में जो विरोध माना जाता रहा है वह इन दोनों के वास्तविक स्वरूप, विषय-वस्तु, पद्धति एवं उपयोग को न समझ पाने के कारण है।
जार्ज संेटियाना के अनुसार - ”धर्म और विज्ञान में संघर्षात्मक स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब धर्म विज्ञान का एवं विज्ञान धर्म का स्थान लेना चाहता है। सांसारिक कष्टों व दुःखों का (जो वास्तविक समस्या है) वास्तविक निवारण, वास्तविक तरीकों से ही होता है। उनकी निःस्सारता एवं काल्पनिकता के द्वारा नहीं। धर्म की विफलता का कारण दुःखों के निवारण के लिए काल्पनिक निदान (अप्राकृतिक) देना है। यदि धर्म में भी यथार्थता के आधार पर समस्याओं का निराकरण करने पर बल दिया जाये तो धर्म और विज्ञान में विरोधात्मक संघर्ष नहीं रहेगा।“
वैज्ञानिक मैंैस प्लैंक के अनुसार - ”प्रत्येक विमर्शी चिंतक यह स्वीकार करता है कि मानव जीवन को संतुलित एवं सामंजस्य रूप देने में धार्मिक तत्वों का एक महत्वपूर्ण योगदान है, अतः धर्म और विज्ञान के बीच कोई वास्तविक विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।“
आइन्सटाइन के अनुसार - ”धर्म के अभाव में विज्ञान पंगु है और विज्ञान के अभाव में धर्म अंधा है।“
अमेरिकी समीक्षात्मक यथार्थवादी विचारक सेलर्स के अनुसार - ”धर्म का भविष्य पारलौकिकता को तिलांजली देने में ही है। अनुभूत तथ्यों की उपेक्षा करने वाले तत्वों का आश्रय न लेकर क्रियाशील प्राकृतिक परिवर्तनों के आधार पर विश्व एवं चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए। नैतिक तत्व, एक प्रकार से धर्म जीवन-यापन करने की एक कला है।“

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - (पुस्तक - विज्ञान और आध्यात्किकता, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
1.यदि हम अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन में वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न एवं आध्यात्मिक एक साथ न हो पाए, तो मानवजाति का अर्थपूर्ण अस्तित्व ही संशय का विषय हो जाएगा। (पृ0-9)
2.अवश्य, सदाचार बहुत महत्वपूर्ण है। यह सही है कि अपने विचारों एवं भावनाओं को अनुशासित किये बिना मनुष्य धर्म के लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता, लेकिन आचार किसी भी अर्थ में धर्म का अन्तिम लक्ष्य नहीं है। (पृ0-17)
3.अन्त में देश-काल की सीमाओं में बद्ध ज्ञान का महामिलन उस ज्ञान से होगा जो इन दोनों से परे है, जो मन तथा इन्द्रियों के पहुँच से परे है- जो निरपेक्ष है, असीम है, अद्वितीय है। (पृ0-36)
4.विज्ञान सहज निर्धारण एवं उसे प्राप्त करने की प्रेरणा लक्ष्यों एवं प्रेरणाओं की सिद्धि के उपायों के बारे में धर्म, परोक्ष या अपरोक्ष रूप से विज्ञान से बहुत कुछ सीख सकता है। विज्ञान यह बता सकता है कि अमुक लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जाय। लेकिन वह यह नहीं बता सकता कि उसे कौन सा लक्ष्य प्राप्त करना चाहिए। (पृ0-55)
5.अनुभव ही ज्ञान का एक मात्र स्रोत है। विश्व में केवल धर्म ही ऐसा विज्ञान है जिसमें निश्चयत्व का अभाव है, क्योंकि अनुभव पर आश्रित विज्ञान के रूप में उसकी शिक्षा नहीं दी जाती। ऐसा नहीं होना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे लोगों का एक छोटा समूह भी सर्वदा विद्यमान रहता है, जो धर्म की शिक्षा अनुभव के माध्यम से देते हैं। ये लोग रहस्यवादी कहलाते हैं। और वे हरेक धर्म में, एक ही वाणी बोलते हैं। और एक ही सत्य की शिक्षा देते हैं। यह धर्म का यथार्थ विज्ञान है। जैसे गणित शास्त्र विश्व के किसी भी भाग में भिन्न-भिन्न नहीं होते। वे सभी एक ही प्रकार के होते है तथा उनकी स्थिति भी एक ही होती है। उन लोगों का अनुभव एक ही है और यही अनुभव धर्म का रूप धारण कर लेता है। (पृ0-70)
6.धर्म तात्त्विक (आध्यात्मिक) जगत के सत्यों से उसी प्रकार सम्बन्धित है, जिस प्रकार रसायन शास्त्र तथा दूसरे भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के सत्यों से। रसायन शास्त्र पढ़ने के लिए प्रकृति की पुस्तक पढ़ने की आवश्यकता है। धर्म की शिक्षाप्राप्त करने के लिए तुम्हारी पुस्तक अपनी बुद्धि तथा हृदय है। सन्त लोग प्रायः भौतिक विज्ञान से अनभिज्ञ ही रहते हैं। क्योंकि वे एक भिन्न पुस्तक अर्थात् आन्तरिक पुस्तक पढ़ा करते हैं; और वैज्ञानिक लोग भी प्रायः धर्म के विषय में अनभिज्ञ ही रहते हैं क्योंकि वे भी भिन्न पुस्तक अर्थात् वाह्य पुस्तक पढ़ने वाले हैं। (पृ0-71)
7.काल प्रवाह में सुसंगत परिवर्तन लाने के लक्ष्य को प्राप्त करना ऐसा आसान कार्य नहीं है जो इने गिने मुट्ठी भर उत्साही लोगों द्वारा चन्द दिनों में किया जा सके। यह कार्य लाखों लोगों के युग-युगान्तर तक किये गये साग्रह एवं निष्ठापूर्ण प्रयास द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति को पुनर्गठित करना होगा जिससे मानव के विचारों, आदर्शों एवं कार्यों को नई दिशा प्रदान की जा सके। (पृ0-78)
8.सम्भवतः ऐसा समय आ रहा है जब इस भौतिकवादी समाज में एक नयी भावना का उदय होगा और वह यह कि ईश्वर-दर्शन प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव है; तब सभी के उस दिशा में संघर्ष न करने पर भी जो ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रयोगात्मक अनुभव करना चाहंेगे उन्हें युग-चेतना से उपहास एवं संदेह के बदले, प्रोत्साहन प्राप्त होगा। (पृ0-100)


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