Sunday, March 15, 2020

श्रीमती एनीबेसेन्ट - थीयोसोफीकल सोसायटी

श्रीमती एनीबेसेन्ट - थीयोसोफीकल सोसायटी 
                     
परिचय -
डाॅ0 एनी वुड बेसेन्ट, अग्रणी थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला का जन्म लन्दन शहर में 1 अक्टुबर, सन् 1847 ई. में हुआ था। इनके पिता अंग्रेज थे। पिता पेशे से डाक्टर थे। पिता की डाक्टरी पेशे से अलग गणित एवं दर्शन में गहरी रूचि थी। इनकी माता एक आदर्श आयरिश महिला थीं। डाॅ0 बेसेन्ट के ऊपर इनके माता-पिता के धार्मिक विचारों का गहरा प्रभाव था। अपने पिता की मृत्यु के समय डाॅ0 बेसेन्ट मात्र पाँच वर्ष की थी। पिता की मृत्यु के बाद धनाभाव के कारण इनकी माता हैरो ले गई। वहीँ मिस मेरियट के संरक्षण में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की। मिस मेरियट इन्हें अल्पायु में ही फ्रांस तथा जर्मनी ले गई तथा उन देशों की भाषा सीखीं। 17 वर्ष की आयु में अपनी माँ के पास वापस आ गईं। युवास्था में इनका परिचय एक युवा पादरी से हुआ और 1867 ई. में उसी रेवरेण्ड फ्रैंक से विवाह भी हो गया। पति के विचारों से असमानता के कारण दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहा। 1874 में इनका, इनके पति द्वारा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। तलाक के बाद एनी बेसेन्ट को गम्भीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा और उन्हें स्वतन्त्र विचार सम्बन्धी लेख लिखकर धनोपार्जन करना पड़ा। कानून की सहायता से उनके पति दोनों बच्चों को प्राप्त करने में सफल हो गये। इस घटना से उन्हें हार्दिक कष्ट हुआ। उन्होंने ब्रिटेन के कानून की निन्दा करते हुए कहा कि- यह अत्यन्त अमानवीय कानून है जो बच्चों को उनकी माँ से अलग करवा दिया है। मैं अपने दुःखों का निवारण दूसरों के दुःखों को दूर करके करूंगी और सब अनाथ एवं असहाय बच्चों की माँ बनूंगी।
1878 में ही उन्होंने प्रथम बार भारतवर्ष के बारे में अपने विचार प्रकट किये। उनके लेख तथा विचारों ने भारतीयों के मन में उनके प्रति स्नेह उत्पन्न कर दिया। अब वे भारतीयों के बीच कार्य करने के बारे में दिन-रात सोचने लगीं। 1883 में वे समाजवादी विचारधारा की ओर आकर्षित हुई। उन्होंने सोशलिस्ट डिफेन्स संगठन नाम की संस्था बनाई। इस संस्था में उनकी सेवाओं ने उन्हें काफी सम्मान दिया। इस संस्था ने उन मजदूरों को दण्ड मिलने से सुरक्षा प्रदान की जो लन्दन की सड़कों पर निकलने वाले जुलूस में हिस्सा लेते थे। 1889 में एनी बेसेन्ट थियोसोफी के विचारों से प्रभावित हुईं। उनके अन्दर एक शक्तिशाली अद्वितीय और विलक्षण भाषण देने की कला निहित थी। अतः बहुत शीघ्र उन्होंने अपने लिये थियोसोफिकल सोसायटी की एक प्रमुख वक्ता के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को थियोसोफी की शाखाओं के माध्यम से एकता के सूत्र में बाँधने का आजीवन प्रयास किया। बड़े ही सौभाग्य की बात हुई की उन्होंने भारत को थियोसोफी की गतिविधियों का केन्द्र बनाया। उनका आगमन 1893 में हुआ। सन् 1906 तक इनका अधिकांश समय वाराणसी में बीता। वे 1907 में थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्षा निर्वाचित हुईं। उनहोंने पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए प्राचीन हिन्दू सभ्यता को श्रेष्ठ सिद्ध किया। धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य प्रारम्भ किया। भारत के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता आवश्यक है, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने होमरूल आन्दोलन संगठित करके उसका नेतृत्व किया। 20 सितम्बर, 1933 को वे ब्रह्मलीन हो गईं। आजीवन वाराणसी को हृदय से अपना घर मानने वाली बेसेन्ट की अस्थियाँ वाराणसी लायी गयीं।
डाॅ0 एनी बेसेन्ट स्वभावतः धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके राजनीतिक विचार की आधारशिला थी-उनके आध्यत्मिक एवं नैतिक मूल्य। उनका विचार था कि- अच्छाई के मार्ग का निर्धारण बिना आध्यात्म के संभव नहीं। कल्याणकारी जीवन प्राप्त करने के लिए मनुष्य की इच्छाओं को दैवी इच्छा के अधीन होना चाहिए। राष्ट्र का निर्माण एवं विकास तभी सम्भव है जब उस देश के विभिन्न धर्मो, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। सच्चे धर्म का ज्ञान आध्यात्मिक चेतना द्वारा ही मिलता है। उनके इन विचारों को महात्मा गाँधी ने भी स्वीकार किया। प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप आध्यात्मिक था। यही आध्यात्मिकता उस समय के भारतीयों की निधि थी। डाॅ0 बेसेन्ट का उद्देश्य था हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आयी हुई विकृतियों को दूर करना। उन्होंने भारतीय पुनर्जन्म में विश्वास करना शुरू किया। उनका निश्चित मत था कि वह पिछले जन्म में हिन्दू थीं। वह धर्म और विज्ञान में कोई भेद नहीं मानती थीं। उनका धार्मिक सहिष्णुता में पूर्ण विश्वास था। उनका भगवद्गीता का अनुवाद - थाट्स आॅन दी स्टडी आॅफ दी भगवद्गीता, इस बात का प्रमाण है कि हिन्दू धर्म एवं दर्शन में उनकी गहरी आस्था थी। वे कहा करती थीं कि हिन्दू धर्म में इतने सम्प्रदायों का होना इस बात का प्रमाण है कि इसमें स्वतन्त्र बौद्धिक विकास को प्रोत्साहन दिया जाता है। वे यह मानती थीं कि विश्व को मार्गदर्शन करने की क्षमता केवल भारत में निहित है। वे भारत के सदियों से अन्धविश्वासों से ग्रस्त मानव को मुक्त करना चाहती थीं। वे विधवा विवाह को धर्म मानती थीं। उनकी धारणा थी कि प्रौढ़ विधवाओं को छोड़कर किशोर एवं युवावस्था की विधवाओं को सामाजिक बुराई रोकने के लिए विवाह करना आवश्यक है। वे अन्तर्जातिय विवाहों को भी धर्मसम्मत मानती थीं। बहु-विवाह को वे नारी गौरव का अपमान एवं समाज का अभिशाप मानती थीं। किसी भी देश के निर्माण में प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह प्रबुद्ध वर्ग उस देश की शिक्षा का उपज होता है। अतः शिक्षा व्यवस्था को वे अत्यधिक महत्व देती थीं। उन्होंने शिक्षा पाठ्यक्रमों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा को अनिवार्य रूप से पढ़ाये जाने तथा उसे प्राचीन भारतीय आदर्शो पर आधारित होने के लिए जोर दिया। उनकी धारणा थी कि प्रत्येक भारतीय को संस्कृत व अंग्रेजी दोनों का ज्ञान होना चाहिए।
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि एनी बेसेन्ट ने गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन की अत्यन्त असंयमित भाषा में भत्र्सना करते हुये उनके आन्दोलन को क्रान्तिकारी, अराजकतावादी तथा घृणा और हिंसा को उभाड़ने वाला आन्दोलन निरूपित किया था। गाँधी के दर्शन एवं नेतृत्व को उन्हांेने स्वतन्त्रता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा बताया था। उन्होंने गाँधी जी को अस्पष्ट स्वराज देखने वाला और रहस्यवादी राजनीतिज्ञ बताया। उन्हें इस बात से सन्देह था कि गाँधी जी सच्चे हृदय से पश्चाताप, उपवास, तपस्या आदि में विश्वास करते हैं। उन्हांेने देश की जनता को चेतावनी दी थी कि यदि गाँधीवादी प्रणाली को अपनाया गया तो देश पुनः अराजकता के खड्ड में जा गिरेगा।
प्रतिभा समपन्न लेखिका और स्वतन्त्र विचारक होने के नाते श्रीमती एनी बेसेन्ट ने थियोसाॅफी (ब्रह्मविद्या) पर करीब 220 पुस्तकों व लेखों की बाढ़ लगा दी थी। पूर्व-थियोसाॅफिकल पुस्तकों एवं लेखों की संख्या लगभग 105 है। उन्होंने केवल एक साल के अन्दर 1895 में 16 पुस्तकें और पैम्प्लेट प्रकाशित किये जो 900 पृष्ठों से भी अधिक थे। भारतीय संस्कृति, शिक्षा व सुधारों पर संभवतः 48 ग्रन्थों और पैम्प्लेटों की उन्होंने रचना की। भारती राजनीति पर करीबन 77 पुष्प खिले। उनकी मौलिक कृतियों से चयनित लगभग 28 ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। कुल मिलाजुलाकर करीबन 505 ग्रन्थों व लेखों की मलिका डाॅ0 एनी बेसेन्ट ने ”हाउ इण्डिया रौट् फाॅर फ्रिडम (1915)“ में भारत को अपनी मातृभूमि बतलाया है। ”इण्डियाःए नेशन“ नामक जो पुस्तक जब्त कर ली गया थी उसमें उन्होंने स्वयत्त-शासन विचारधारा प्रतिपादित की है। 1917 में नजरबन्द किये जाने से पहले 70 वर्षीय वृद्धा ने अपने भारत भाइयों को आखिरी सन्देश दिया था- मैं वृद्धा हूँ, किन्तु मुझे विश्वास है कि मरने के पहले ही मैं देखंूगी कि भारत को स्वायत्त शासन मिल गया।
हिन्दुओं में सहस्रजीवी होना एक दुर्लभ सौभाग्य माना जाता है, जो देव कृपा से ही प्राप्त होता है। एनी बेसेन्ट को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। जन्म से वे आयरिश (विदेशी) थीं। पालन-पोषण इंगलैण्ड में हुआ, परन्तु व्यवहार की दृष्टि से श्रीमती एनी बेसेन्ट पूर्णतया हिन्दू ही नहीं अपितु महान हिन्दू थीं। वे बड़ी भाग्यशाली थीं, और भारत को भी सौभाग्य मिला कि वे ”सहस्रमास“ की अवधि पार कर छः वर्ष और जीवित रहीं। 
श्रीमती एनी बेसेन्ट मनुष्य जाति की विभूति थी। उनके साथी चाल्र्स ब्रेडला कहा करते थे - ”विश्व ही मेरा देश है, और परोपकार मेरा धर्म।“ बेसेन्ट पर चाल्र्स ब्रेडला के इस सिद्धान्त का प्रभाव पड़ा। यह आदर्श आदि शंकराचार्य के आदर्श को स्पर्श करता है। आचार्य शंकर कहते थे- ”मेरी माता पार्वती देवी और पिता भगवान महेश्वर हैं। सम्पूर्ण विश्व शिव-भक्त मेरे भाई-बहन हेैं और त्रिलोक मेरा देश।“ एनी बेसेन्ट को वेद और भारतीयों के देश भारत से विशेष प्रेम था। जब परतन्त्रता की श्रृंखला में अंग्रेजों ने भारत को जकड़ लिया और काले-गोरे के भेद में काले के नाम से भारत की सर्वत्र निन्दा की जाती, उस समय भी एनी बेसेन्ट को भारतमाता के बच्चों से विशेष प्रेम था। उन्होंने भारत को ही अपना देश बना लिया था और वे इसे, अपनी मातृभूमि की तरह आदर करते हुए, प्यार करती थीं। भारतीयों ने भी एनी बेसेन्ट के प्रति माँ के समान अपनी श्रद्धा व्यक्त की।
अपनी 86 वर्ष की आयु में से उन्होंने 40 वर्ष भारत की सेवा में ही व्यतीत किए। यदि शिक्षा काल की अवस्था को भी गिने, तो जीवन का दो तिहाई भाग भारत में, भारत के लिए कार्य करते हुए व्यतीत हुआ। वे थियोसाॅफीकल सोसायटी के माध्यम से आकर्षित हो कर भारत आईं। श्रीयुत स्टेड ने इस संस्था से परिचित कराया। श्री स्टेड ने पुस्तक- ”रिव्यू आॅफ रिव्यूज“ एनी बेसेन्ट को समालोचना के लिए भेजी थीं। अडियार के थियोसाॅफीकल समाज में वे प्रतिवर्ष राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं पर अपना महत्वपूर्ण अभिभाषण देती। भारत आने के पाँच वर्ष बाद ही उन्होंने पवित्र काशी नगरी में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज की स्थापना के संकल्प को पूरा किया। इस कार्य में विद्यावारिधि पूज्य डाॅ0 भगवानदास ने उनका अग्रगण्य सहयोग किया। शीघ्र ही अपने उत्साह और अन्यन्यता से एनी बेसेन्ट ने यह कालेज सर्वोत्तम शिक्षालयों की श्रेणी में ला खड़ा किया, जिसकी ओर अनेक शिक्षा-कला-विशारद आकर्षित हुए।
सार्वजनिक सेवा भावना के वशीभूत उन्होंने ”सेन्ट्रल हिन्दू कालेज, वाराणसी“ को पं0 मदन मोहन मालवीय जी को, हिन्दू विश्वविद्यालय के श्रीगणेश के साथ ही तत्परता से सौंप दिया और हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में भरपूर सहयोग दिया। एनी बेसेन्ट की सबसे बड़ी विशेषता थी- ”दूसरों के सत्कार्य की प्रशंसा करना और उसमें सहयोगी बनना“
उन्होंने राजनीतिक हलचल के समय अंग्रेजी दैनिक का सम्पादन किया, परन्तु अर्थाभाव के कारण कुछ वर्षो के बाद उसे बन्द करना पड़ा। तत्पश्चात् ”भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस“ में सम्मिलित हुईं और उसका सभापतित्व करने का सम्मान प्राप्त किया। उन्होंने होमरूल लीग, नेशनल कन्वेंशन ओर कामनवेल्थ आॅफ इण्डिया लीग की स्थापना की। देश सेवा के लिए वे जेल भी गईं। अपने विरोध की ज्वाला को इंग्लैण्ड तक फैलाया। उन्होंने 1915 में गोरखपुर में युक्त प्रान्तीय कान्फ्रेन्स और 1929 में लखनऊ में युक्त प्रान्तीय लिबरल कान्फ्रेन्स की अध्यक्षता की।
एनी बेसेन्ट में संगठन की अद्भुत क्षमता थी। वे अत्याचारों के विरूद्ध पीड़ितों के साथ रही। आज भले ही उनका पंचभौतिक शरीर नहीं है, परन्तु जिन्हें मनुष्य-मरणेत्तर-सत्ता और मानवता के कल्याणार्थ दैवी आत्माओं में विश्वास है- वे आज भी पीड़ित मानवता की सेवा और भारतीय संस्कृति के आदर्शो की स्थापना कर, उन्हें अभिवृद्ध करने की प्रेरणा श्रीमती एनी बेसेन्ट से लेते रहेंगे।

थियोसाॅफिकल सोसायटी का परिचय 
थियोसाॅफिकल सोसायटी, एक अन्तर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक संस्था है। ”थियोसोफी“ ग्रीक भाषा के दो शब्दों ”थियोस“ तथा ”सोफिया“ से मिलकर बना है जिसका अर्थ हिन्दूधर्म की ”ब्रह्मविद्या“, ईसाई धर्म के ”नोस्टिसिज्म“ अथवा इस्लाम धर्म के ”सूफीज्म“ के समकक्ष किया जा सकता है। कोई प्राचीन अथवा अर्वाचीन दर्शन, जो कि परमात्मा के विषय में चर्चा करे, सामान्यतः थियोसोफी कहा जा सकता है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आइंब्लिकस ने ईसवी सन् 300 के आसपास किया था। जो प्लैटो संप्रदाय के अमोनियस सक्कस का अनुयायी था। उसने सिमंदरिया के अपने ”सारग्राही मतवाद“ के प्रसंग में इस शब्द का प्रयोग किया था। इसके पश्चात् पाईथोगोरस के जीवनदर्शन में उसकी शिक्षाओं के अंश उपलब्ध होते हैं। थियोसाॅफिकल सोसायटी ने विधिवत् एवं सुनिश्चित परिभाषा के द्वारा थियोसाॅफी शब्द को सीमाबद्ध करने का कभी भी प्रयत्न नहीं किया। सोसाइटी के उद्देश्य में इस शब्द का उल्लेख तक नहीं है। समस्त धर्म एवं दर्शन का मूलसार ”सत्य“, थियोसोफी ही है। थियोसाॅफिकल सोसायटी वस्तुतः सब प्रकार के भेदभाव से रहित सत्यान्वेषी साधकों का एक समूह है। सोसाइटी के लिए महत्वपूर्ण है- केवल सत्यान्वेषण। उसके लिए व्यक्ति सर्वथा गौण है। व्यक्ति के सम्मान अथवा उसके विरोध के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है। इसने अनेक सुविख्यात, महत्वपूर्ण और विभिन्न विचारधारा वाले व्यक्तियों को प्रभावित किया है। सांस्कृतिक दृष्टि से इस संस्था द्वारा प्रचारित चिंतन पद्धति, विज्ञान, धर्म और दर्शन के संश्लेषण द्वारा आत्मचेतना के विकास की प्रेरणा प्रदान करती है। सोसाइटी का लक्ष्य ऐसे मानव समाज का निर्माण करना है जिसमें सेवा, सहिष्णुता, आत्मविश्वास और समत्व भाव स्वयंसिद्ध हों।
उद्देश्यों एवं मान्यताओं के अनुरूप ही सोसाइटी की मोहर है- परस्पर मिले हुए इन दो त्रिभुजों के द्वारा षट्कोण ग्रह बनता है। उत्तर की ओर शीर्ष वाला त्रिभुज आध्यात्मिक जगत् का प्रतीक है और दक्षिण की ओर शीर्ष वाला त्रिभुज भौतिक (जड़) जगत् का प्रतीक है। भारतवर्ष में इसे विष्णु की मुद्रा तथा पश्चिम में इसे सुलेमान की मोहर ओर डेविड की मुद्रा कहते हैं। इसके चारों ओर लिपटा हुआ सर्प जीवन की अमरता का प्रतीक है। यह अपने मुख द्वारा अपनी पूंछ को काटता है। यह ज्ञान का सर्प है जो कभी भी नष्ट नहीं होता। ऊपर छोटे से वृत्त में स्वस्तिक का चिन्ह भी इसी प्रकार अनन्त के ज्ञान का प्रतीक है। लंब, मस्तिष्क का प्रतीक है तथा समानान्तर रेखा जिस पदार्थ का प्रतीक है ये दोनों ”न“ बिन्दु पर मिलते हैं। वह ”जीवन“ का प्रतीक है जहाँ प्राणी अनुभव प्राप्त करता हुआ जीवन और जगत् से शिक्षा ग्रहण करता है। क्राॅस, विकास का माध्यम है। इसी का दूसरा नाम शूली पर चढ़ना अर्थात इन्द्रियों को वश में करना है। कहीं-कहीं क्रांॅस को स्वस्तिक के चिन्ह के भाँति बना देते हैं। तब यह जीवन की गति का भी द्योतक बन जाता है। सिद्धि प्राप्त करने के पश्चात् क्राॅस का स्वरूप होता है। इसका अर्थ यह होता है कि ”कर्मफल“ अपने हाथ में नहीं है। उसका हिसाब स्वर्ग में है। इस प्रकार वह साधक को प्रेरणा देता है कि ”ज्ञानमातंड की ओर देखो और आगे बढ़ते जाओ“। इस मुद्रा में क्राॅस इसी रूप में अंकित है। इसके ऊपर ”ऊँ“ तथा नीचे ये शब्द अंकित रहते हैं- ”सत्यान्नास्ति परो धर्मः (सत्य के अलावा कोई दूसरा धर्म नहीं है)“
रूस निवासी महिला मैडम हैलना पैट्रोवना ब्लैवैटस्की और अमेरीका निवासी कर्नल हेनरी स्टील ओलकोट ने 17 नवम्बर, 1875 को न्यूयार्क में थियोसाॅफिकल सोसाइटी की स्थापना की। सन् 1879 में सोसायटी का प्रधान कार्यालय न्यूयार्क से मुम्बई लाया गया। सन् 1882 में उसका प्रधान कार्यालय और भारतवर्ष की राष्ट्रीय शाखा 18 दिसम्बर, 1890 को अद्यार, चेन्नई में अन्तिम रूप से स्थापित कर दिया गया। सन् 1895 में राष्ट्रीय शाखा का प्रधान कार्यालय वाराणसी लाया गया। भारत आगमन के आरम्भकाल में सोसाइटी ने आर्यसमाज के साथ मिलकर भारतवर्ष के सांस्कृतिक, धार्मिक पुनर्जागरण की योजना बनाई थी और कुछ समय तक संयुक्त रूप से कार्य भी किया था, परन्तु बाद में दोनों संस्थाएँ पृथक हो गईं। अद्यार, चेन्नई स्थित कार्यालय के पास 266 एकड़ भूमि है, जिसमें अनेक भवन एवं कार्यालय हैं। यहाँ का पुस्तकालय संसार के सर्वोत्कृष्ट पुस्तकालयों में गिना जाता है। इसमें 12000 तालपत्र की पाण्डुलिपियाँ, 6000 अन्य अति प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ तथा 60000 से अधिक पुस्तकें हैं। ये पुस्तकें पाश्चात्य एवं भारतीय धर्म, दर्शन एवं विज्ञान विषयक हैं। इसका मुखपत्र मासिक ”थियोसाॅफिस्ट“ है। इसकी स्थापना मैडम हैलना पैट्रोवना ब्लैवैटस्की द्वारा हुई थी।
आरम्भ में थियोसाॅफिकल सोसाइटी का उद्देश्य विश्व के संचालित करने वाले नियमों के समबन्ध में ज्ञान अर्जन एवं उसका वितरण था। सन् 1875 से लेकर 1896 तक की कालावधि में उद्देश्यों में कई बार परिवर्तन किया गया और सन् 1896 में उद्देश्यों का वर्तमान रूप निर्धारित हुआ। यह सब प्रकार के भेदभावों से रहित सत्यान्वेषी साधकों की संस्था है जिसका लक्ष्य बन्धुत्व की प्रतिष्ठा द्वारा मानव समाज की सेवा करना है। इसके घोषित तीन उद्देश्य हैं-1. मानवजाति के सार्वभौम मातृभाव का एक केन्द्र बिना जाति, धर्म, स्त्री, पुरूष, वर्ण अथवा रंग के भेदभाव को मानते हुए बनाना। 2. विविध धर्म, दर्शन तथा विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहित करना। 3. प्रकृति के अज्ञात नियमों तथा मानव में अंतर्हित शक्ति की शोध करना। इसका लक्ष्य सत्य की खोज हे। मूलमंत्र शान्ति है तथा आदर्श वाक्य है- ”सत्य से श्रेष्ठतर कोई धर्म नहीं है“ हैं। सोसाइटी के साहित्य में 1. एक सर्वव्यापी सत्ता है वही समस्त सृष्टि का मूल स्रोत है। वह सब विश्व में ओत प्रोत है। 2. विकास क्रम, 3. कर्म सिद्धान्त, 4. पुनर्जन्म, 5. देवी विधान, 6. जीवनमुक्त सिद्ध पुरूषों का अस्तित्व, जिन्हें सोसाइटी में ”मास्टर“ के नाम से पुकारा गया है। 7. मनुष्य के सूक्ष्म शरीर और उसकी रचना, 8. मृत्यु और उसके पश्चात् की दशा, 9. आत्मोन्नति का मार्ग और मनुष्य का भविष्य, 10. विचार और उनका प्रभाव। सिद्धान्तों और विषयों की विशेष चर्चा की गई है।
व्यक्तिगत मोक्ष अथवा निर्वाण पर बल न देकर सोसाइटी समाजसेवा पर बल देती है। दयादाक्षिण्य के अवतार बुद्ध एवं परदुःखकातरता के साकार स्वरूप रंतिदेव इसके प्रेरणास्रोत हैं। संसार के कर्मभार को हल्का करना इसके साधक सदस्यों के जीवन की चरम साधना है। विचारस्वातन्त्र्य इसकी आधारशिला है। यह वस्तुतः संस्थान होकर भी विश्वबंधुत्व का स्थूल प्रतीक है। संस्थापिता से लेकर आज तक किसी भी अधिकारी अथवा लेखक ने सदस्यों के ऊपर कोई मान्यता अथवा राय लादने का प्रयत्न नहीं किया है। प्रत्येक व्यक्ति को, सोसाइटी के सदस्य को भी, यह अधिकार है कि वह प्रत्येक मान्यता का परीक्षण करे, उचित प्रतीत होने पर वह इसे स्वीकार करे अथवा निःसंकोच भाव से अस्वीकार करे दे। सन् 1924 तथा 1950 में इसकी जनरल कौंसिल ने विचारस्वातन्त्र्य सम्बन्धी प्रस्ताव पारित कर इस बात पर पूरा बल दिया है कि किसी भी सदस्य को कोई भी सिद्धान्त अथवा मतवाद अनिवार्य रूप से स्वीकार नहीं होना चाहिए। इसके तीन उद्देश्यों की स्वीकृति इसकी सदस्यता के लिए पर्याप्त हैं। प्रत्येक सदस्य को अधिकार है कि वह चाहे जिस धर्म, दर्शन, गुरू, संस्था, मतवाद आदि से अपने को आपको संबद्ध रखे। चूँकि यह संस्था प्रत्येक सदस्य को मन, वचन और कर्म की पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करती है इसलिए यह अपने रूप को स्पष्ट और पृथक रखना चाहती है। फलतः न तो यह अन्य किसी संस्था को अपना अंग बनाती है और न किसी अन्य संस्था के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध या समझौता ही स्थापित करती है।


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