तीसरायुगः द्वापरयुग
द. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रेरक अवतार
8. आठवां अवतार: श्री कृष्ण अवतार
(मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र-महाभारत)
ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-भाद्रपद कृष्ण पक्ष-अष्टमी
ब्रह्मा के पूर्ण अवतार
विष्णु के पूर्ण अवतार
महेश के अंश अवतार
श्रीकृष्ण अवतार (पूर्व कथा)
इस जगत् में कुछ भी ज्यादा दिन नहीं चलता। रामराज्य भी कुछ काल बाद स्वार्थ राज्य में परिणत हुआ। राजागण स्वेच्छाचारी हो गए और आपस में लड़-झगड़कर प्रजा का सर्वनाश करने लगे। शास्त्र के नियम उठ गये और उनका स्थान विभिन्न प्रकार के कुत्सित लोकाचारों ने ले लिया। लोग अन्धे के समान उन सब नियमों का पालन कर अधः पतित होने लगे; बड़े बड़े पण्डित तथा धार्मिक जन भी उन नियमों के हाथ से नहीं बच सके। समाज में, परिवार में और धर्म में मनुष्य को कोई स्वाधीनता नहीं रह गई।
युधिष्ठिर के समान धार्मिक व्यक्ति ने भी जुए के खेल में अपने भाई तथा पत्नी को धन-दौलत के समान दाँव पर लगा दिया था। भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास हुआ। भीष्म, द्रोण, भीम, अर्जुन-कोई भी प्रतिवाद करने का साहस नहीं दिखा सका, जबकि वे भारत-विख्यात वीर पुरूष थे। यदुवंशियों ने नशे की हालत में एक-दूसरे का वध कर डाला। इन सारी घटनाओं के द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि समाज कितने परिमाण में दुर्नीतियों का शिकार हो चुका था।
मनुष्य को शान्ति का पथ दिखाने के लिए इस बार श्रीहरि ने बलराम और कृष्ण रूप धारण किया। परन्तु केवल बलराम को ही अवतार कहा जाता है, श्रीकृष्ण की दशावतारों में गणना नहीं होती है। यद्यपि दोनों की लीला अभेद है, यथापि हम यथासाध्य प्रचलित मत का ही अनुसरण करेंगे।
भोजवंशीय अभिजित राजा के पुत्र आहुक बड़े प्रतापवान राजा थे। उनके दो पुत्र थे - देवक और उग्रसेन। बलराम तथा कृष्ण की माता देवकी देवक की पुत्री थी। यदुवंशीय वसुदेव के साथ देवकी का विवाह हुआ। उग्रसेन का पुत्र कंस अपने पिता को बन्दी बनाकर स्वयं राजा हो गया। उसके दुराचार और अत्याचार से सभी त्रस्त थे। देवकी के विवाह के समय देववाणी हुई कि उनकी आठवीं सन्तान कंस का वध करेगी। कंस यह सुनते ही देवकी का वध करने को अद्यत हुआ। वसुदेव ने बड़ी कठिनाई से उसे इस हत्या से विरत किया और उसके सामने प्रतिज्ञा की कि देवकी के गर्भ से जन्मी प्रत्येक सन्तान वे कंस के हाथों सौंपते जाएँगे। इसके बावजूद कंस ने अपनी बहन तथा बहनोई को कारागार में बन्द करके रख दिया।
वसुदेव की रोहिणी नाम की एक अन्य पत्नी भी थी; वसुदेव कारागार में थे, अतः रोहिणी असहाय होकर अपने मित्र नन्द-गोप के यहाँ व्रज में निवास करने लगीं। देवकी के गर्भ से एक-एक कर छह सन्तानों ने जन्म लिया। कंस प्रत्येक नवजात शिशु की हत्या करता गया। सप्तम गर्भ की सन्तान दैवी उपाय से रोहिणी के पास पहुँच गई। सबको लगा कि सातवें मास देवकी का गर्भ नष्ट हो गया है। उसी से ये तीसरे राम - बलराम उत्पन्न हुए। देवकी के अष्टम गर्भ से श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। वसुदेव ने बड़ी कुशलता से नन्द-पत्नी यशोदा की नवजात कन्या के साथ श्रीकृष्ण को बदल दिया। कंस ने उसी कन्या की हत्या करने के बाद अपनी बहन तथा बहनोई को मुक्त कर दिया।
बलराम और कृष्ण नन्द की सन्तानों के रूप में पलने लगे। शैशव काल से ही उनके चरित्र में असाधारण विशेषताएँ व्यक्त होने लगी थीं। कृष्ण का रंग साँवला और बलराम का वर्ण गोरा था। देखने में अत्यन्त सुन्दर, अदम्य बलशाली और बुद्धि-व्यवहार में विज्ञ होने के कारण गोप-गोपिकाएँ उन्हें अपनी सन्तानों से भी अधिक स्नेह करते थे। व्रज के ग्वाल-बाल उन्हें छोड़कर क्षण भर भी नहीं रह पाते थे। गाय चराते समय वे नित्य नये खेल तथा मनोरंजन के उपाय निकालकर गोप-बालकों को आनन्दित करते थे। वन में विभिन्न प्रकार के हिंसक जन्तु थे, बलराम-कृष्ण ने उनका संहारकर व्रजभूमि को निरापद किया। दीर्घकाल तक निवास के फल-स्वरूप ब्रजभूमि में अच्छी घास का अभाव हो गया था। फिर उन दिनों लकड़बग्धों का भी उपद्रव बढ़ गया था। उन्होंने प्रस्ताव रखा, ‘‘यमुना के तट पर वृन्दावन नामक एक स्थान है। जैसा वह देखने में सुन्दर है, वैसे ही वहाँ घास की भी प्रचुरता है; वहाँ स्थानान्तरित हो जाने पर गोपवृन्द को हर प्रकार से सुविधा होगी।’’ बलराम-कृष्ण के उत्साहित करने पर ब्रजवासी वृन्दावन चले गए। इस प्रकार उन्होंने सभी विषयों में नवीनता और उन्नति का मार्ग दिखाकर गोप जाति में नवजीवन का संचार किया।
एक दिन गायें वन के भीतर चर रही थीं और ग्वाल-बाल खेल में मग्न थे। उसी समय जंगल में दावानल जल उठा। देखते-ही-देखते हवा के झोकों से आग चारों ओर फैल गयी। गायंे भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगीं और इस प्रकार संकट में और भी वृद्धि हो गयी। बलराम तथा कृष्ण असीम साहस और धैर्य का परिचय देते हुए गायों तथा गोपबालों को धीरे धीरे एकत्र कर वन से बाहर ले आए।
वृन्दावन के निकट एक सरोवर था, जिसमें अनेक काले काले विषधर साँप निवास करते थे और चरते-चराते किसी गाय या गोपबाल के उधर जाते ही उसे काट लेते थे। बाल-गोपालों की सहायता से बलराम-कृष्ण ने उन साँपों को मारकर असीम साहस दिखाया। प्रलम्ब तथा धेनुक नामक दो वन्य जन्तुओं को बलराम ने अकेले ही मार डाला। पुराणों में अनेक असुरों के वध की बातें हैं, पर वे इतनी अद्भुत तथा असम्भव लगती हैं कि उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। सार रूप में कहा जा सकता है कि बलराम-कृष्ण ने बाल्यकाल से ही ऐसे बल, बुद्धि एवं साहस का प्रदर्शन किया कि लोगों ने उनके विषय में अनेक असम्भव घटनाओं की कल्पना कर डाली थीं।
शान्त स्वभाव गोप कुल के नवजागरण तथा बलराम-कृष्ण की अपूर्व कीर्ति-कथा विभिन्न प्रकार से अतिरंजित होकर कंस के कानों में भी जा पहुँची। पश्चिमी भारत उसके प्रताप से कम्पित हो रहा था। अपने घर के पास ही गोपगण जाग उठे हैं - यह समाचार वह पचा नहीं सका। देवकी के सभी सन्तानों का तो वह अपने ही हाथों संहार कर चुका था, तो फिर ये दो बालक कहाँ से आ टपके! विभिन्न प्रकार की आशंकाओं से उसका मन आन्दोलित एवं ईष्र्या से दग्ध हो उठा। गोपकुल का गर्व चूर किये बिना उसे शान्ति नहीं मिल सकती थी। परन्तु अपने पिता को उसने बन्दी बना लिया था, भानजों की हत्या कर डाली थी और सैकड़ों प्रकार से लोगों पर अत्याचार करने के कारण कोई भी उसका मित्र नहीं रह गया था। अत्याचारी का मान बड़ा दुर्बल होता है। उसे प्रकट रूप से गोपों के साथ शत्रुता करने का साहस नहीं हुआ। उसने एक चाल का सहारा लिया।
कंस एक यज्ञ का आयोजन करने लगा। वृन्दावन के गोपगण उसी की प्रजा थे, अतः उसने यज्ञ के उपलक्ष्य में करस्वरूप उन्हें दूध-दही लाने का आदेश दिया। अक्रूर को इस समाचार के साथ वहाँ भेजा गया। कंस ने अकेले में अक्रूर को बता दिया था कि छल-बल से या चाहे जैसे भी हो बलराम-कृष्ण को मथुरा ले आना होगा। अक्रूर भी कंस के मित्र न थे, उन्होंने सारी बातें बलराम-कृष्ण को बता दीं। उस समय दोनों भाइयों की आयु सोलह वर्ष से भी कम थी।
नन्द आदि गोपगण राजा का आदेश पाकर दूध-दही लिए मथुरा आये। बलराम-कृष्ण ने भी अपने ग्वाल-बाल मित्रों के साथ उत्सव देखने के निमित्त उनका अनुगमन किया। राजधानी में पहुँचकर वे लोग डकैतों के समान लूट-पाट करने लगे। उनका सौन्दर्य तथा साहस देखकर नागरिकों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ। माली विभिन्न प्रकार के पुष्प तथा मालाएँ लेकर राजमहल में जा रहा था। उन लोगों ने माली से वह सब छीनकर स्वयं पहन लिया और आनन्द मनाने लगे। धोबी राजा के पोशाक आदि लेकर जा रहा था, इन लोगों ने उसे लूटकर स्वयं धारण कर लिया। इन दो बालकों में क्या ही असीम साहस था! जिस कंस के भय से सभी संत्रस्त रहते थे, ये लोग उसी की राजधानी में उसी की वस्तुएँ छीन-झपट रहे थे। जैसा कि स्वाभाविक था, सारा समाचार कंस तक जा पहुँचा। कंस क्रोध में पागल-सा हो गया।
उत्सव के निमित्त राजसभा में भी विभिन्न प्रकार के आमोद-प्रमोद की व्यवस्था हुई थी। कंस ने कुवलयापीड़ नामक एक पागल हाथी को मुख्य द्वारा पर खड़ा कराने के बाद, बलराम तथा कृष्ण को उत्सव दिखाने के बहाने बाुलावा देकर उसी रास्ते ले आने की व्यवस्था भी कर दी थी। महावत को बता दिया था कि वह उन्हें हाथी के पैरों तले रौंद डाले। यदि वे किसी प्रकार हाथी से बच भी निकले, तो फिर उन्हें मारने की एक अन्य व्यवस्था भी थी। उसकी सभा में अनेक पहलवान थे, जिसमें चाणूर तथा मुष्टिक सर्वप्रधान थे। कंस ने उन्हें बता रखा था कि बलराम-कृष्ण के दरबार में आते ही उन्हें कुश्ती लड़ने की चुनौती देकर मार डालना होगा। चैदह-पन्द्रह वर्ष के दो बालकों को मारने के लिए बड़ी पक्की ही व्यवस्था हुई थी।
बलराम-कृष्ण उत्सव देखने के लिए राजसभा की ओर चले। सिंहद्वार पर कुवलयापीड़ ने उन पर आक्रमण किया। असीम बलशाली राम क्षण भर में ही हाथी के पीछे जा पहुँचे और उसकी पूँछ पकड़कर खींचने लगे। हाथी के जी-जान से आगे बढ़ने का प्रयास करने पर बलराम ने अचानक ही उसे छोड़ दिया और साथ ही हाथी लुढ़ककर धरती पर गिर पड़ा। कृष्ण सामने ही थे। वे उछलकर उसके मस्तक पर चढ़ गए और पाद-प्रहार के द्वारा उसकी खोपड़ी का कचूमर निकाल दिया। इसी बीच बलराम भी दौड़कर आए और हाथी के दोनों दाँत उखाड़कर दोनों हाथों से उसे उसके शरीर में चुभोने लगे। हाथी भयानक स्वर में चीत्कार करने लगा। चारों ओर सैकड़ों लोग एकत्र होकर काफी शोरगुल मचाने लगे। हाथी के प्राण-पखेरू उड़ गए।
इसके पूर्व भी वे नगर में हलचल मचा चुके थे और इस घटना से राज्यसभा में उपस्थित सभी लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हुई। सभी इन दोनों भाइयों को देखने दौड़े। सैकड़ों लोग उन्हें घेरकर तरह-तरह के प्रश्न पूछने लगे। एक साँवले तथा दूसरे गौर वर्ण होने पर भी दोनों भाई रक्त से लाल हो गए थे, हाथों में हाथी के दाँत थे, कपड़े से कमर कसे हुए थे - इसी अवस्था में सैकड़ों नागरिकों से घिरे हुए वे सभा में प्रविष्ट हुए। बालकों की मनोहर मूर्ति और भी मनोहर होकर सबके हृदय में स्नेह का संचार कर रही थी। पर दुष्ट कंस की दृष्टि में ये यम के समान भयंकर प्रतिभाव हुए। अपने कर्तव्य में अक्षम होकर वह स्तम्भित रह गया।
चाणूर ने कृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम को द्वन्द्व-युद्ध की चुनौती दी। वे लोग भीमकाय और बदसूरत थे और बालक बलराम-कृष्ण कोमलजात तथा बड़े सुन्दर थे। अतः इस असमान द्वन्द्व-युद्ध में सबकी सहज सहानुभूति बलराम-कृष्ण के साथ ही रही। काफी देर तक युद्ध चलता रहा, परन्तु आखिरकार उन्होंने अद्भूत कुशलता के साथ चाणूर तथ मुष्टिक दोनों को मार डाला।
चाणूर और मुष्टिक के धराशायी हो जाने पर कंस भय से मरणासन्न हो गया। कृष्ण सहासा उछलकर मंच पर चढ़ गये और घूँसों के प्रहार से कंस के मस्तक से मुकुट को गिराकर उसके बाल पकड़कर सिंहासन के नीचे जमीन पर फेंक दिया और उस पर लात-घूँसों की भयंकर वर्षा करने लगे। सिंहासन के निकट कृष्ण को देखते ही कंस घबराकर जड़वत् हो गया था। इसके पूर्व हुई घटनाओं के द्वारा बलराम-कृष्ण ने सभा में उपस्थित सबके मन में अभूतपूर्व भाव का संचार किया था और अब इस अकल्पनीय घटना से सभी स्ताम्भित रह गये। किसी ने चूँ तक नहीं की। अन्त में कृष्ण के पाँव की भयानक ठोकर खाकर जब कंस खून की उल्टी करते हुए जीभ निकालकर मर गया और यह समाचार पाकर अन्तःपुर की नारियाँ भीषण चीत्कार करते हुए रूदन करने लगीं, तब मानो सबके होशो-हवास वापस लौटे। इसी बीच बलराम-कृष्ण ने वसुदेव के चरणों में प्रणाम किया और वे उनका आलिंगन करने के बाद अपने बाकी सगे-सम्बन्धियों के साथ उनका परिचय कराने लगे। अनेक सभासदों को इसके पूर्व ही बलराम-कृष्ण का परिचय प्राप्त हो चुका था। बलराम-कृष्ण द्वारा नगर में तरह तरह के उपद्रव प्रारम्भ करने पर प्रायः सभी प्रमुख व्यक्ति समझ गये थे कि वसुदेव के इन दो पुत्रों द्वारा कुछ न कुछ होने वाला है। किसी को भी कंस से प्रेम न था। अतः अब सभी जी खोलकर बलराम-कृष्ण को आशीर्वाद देने लगे।
बलराम-कृष्ण ने राजा उग्रसेन को कारागार से मुक्त कर दिया। वे पुनः मथुरा के राजा हो गए। बलराम-कृष्ण अब तक गोपों के घर में थे। उनकी शारीरिक शिक्षा तो अच्छी हो चुकी थी, परन्तु अब तक क्षत्रियोचित उपनयन, वेदाध्ययन आदि नहीं हो सका था। वसुदेव ने महर्षि गर्ग के हाथों उनका उन्नयन संस्कार कराकर उन्हें अवन्ती नगर में स्थित संदीपनी मुनि के पास वेदाध्ययन के लिए भेज दिया। वे श्रुतिधर थे, अतः अल्प काल में ही सर्व शास्त्रों में पारंगत होकर घर लौट आए।
उग्रसेन के राजा हो जाने पर भी, व्यवहार में बलराम और कृष्ण राज्य चलाने लगे। मगध का राजा जरासन्ध कंस का श्वसुर था। अपने दामाद के वध का बदला लेने के लिए उसने मथुरा को घेर लिया, परन्तु बलराम-कृष्ण की वीरता के सम्मुख पराजित होकर उसे पलायन करना पड़ा। बलराम-कृष्ण यदुवंशी युवकों को एकत्र कर उन्हे युद्ध की शिक्षा देने लगे। जरासन्ध ने भी उत्तरोत्तर बड़ी से बड़ी सेना लेकर बारम्बार मथुरा पर आक्रमण किया। इस प्रकार वह सत्रह बार युद्ध करने आया, परन्तु हर बार पराजित होकर लौट जाने को बाध्य हुआ।
बलराम-कृष्ण ने देखा कि जरासन्ध का सारा क्रोध उन्हीं दोनों पर है और उनके मथुरा रहते जरासन्ध युद्ध करने से बाज नहीं आएगा। यादवगण युद्ध करते करते थक चुके थे, राजकोष खाली हो चला था और दुर्ग भी टूट गया था। ऐसी अवस्था में युद्ध जारी रखना सम्भव न था। अतः उन्होंने मथुरा में ठहरना उचित न मानकर दक्षिणापथ की राह ली।
उन दिनों रेलवे, टेलीग्राफ तथा समाचार पत्रों का अस्तित्व नहीं था। बड़े कष्ट से दूतों के द्वारा एक प्रदेश का समाचार दूसरे प्रदेशों में पहुँचा करता था। बलराम-कृष्ण ने सोचा कि जरासन्ध को अब उनका समाचार नहीं मिल सकेगा। परन्तु जरासन्ध और उसके दूत बड़े चालाक थे। दूतों ने बलराम-कृष्ण विषयक सारा समाचार संग्रहित कर जरासन्ध के पास पहुँचा दिया। जरासन्ध ने मित्र-राज्यों की सम्मिलित विशाल सेना के साथ दक्षिणापथ की ओर अभियान किया। बलराम-कृष्ण के मौसा चेदिपति यह सब खबर पाकर बड़े ही विचलित हुए और उनकी सहायता के लिए एक चुनिन्दे सैनिकों को लेकर स्वयं ही जरासन्ध के पीछे पीछे चल पड़े।
बलराम-कृष्ण गोमन्त (गोवा) नामक पर्वतीय क्षेत्र में थे। जरासन्ध ने उस राज्य पर आक्रमण किया। समतल क्षेत्रों के निवासी योद्धा के लिए पर्वतीय प्रदेश में युद्ध करना बड़ा कठिन होता है और स्थान अपरिचित हो तो इसे बिल्कुल ही असम्भव समझना चाहिए। परन्तु मूर्ख अहंकारी जरासन्ध ने अपनी सेना के साथ पर्वतीय प्रदेश में प्रवेश किया। बलराम-कृष्ण उस क्षेत्र से भली भाँति परिचित हो चुके थे। चेदिपति की सहायता से उन्होंने जरासन्ध तथा उसके मित्र राजाओं को ऐसी शिक्षा दी कि उनमें से कइयों ने तो किसी प्रकार भागकर अपने प्राण बचाए; सेना, तम्बू, रथ, रसद, अस्त्र-शस्त्र कुछ भी लौटकर नहीं आया।
भागकर भी जरासन्ध से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता - यह देखकर बलराम-कृष्ण चेदिपति की सलाह पर पुनः मथुरा लौट आए। मथुरा नगरी समतल भूमि पर स्थित है, अतः उसे चारों ओर से घेरा जा सकता है। यदुवंश के योद्धाओं के साथ परामर्श करने के बाद वे लोग अपनी राजधानी समुद्रवेष्ठित द्वारावती (द्वारका) में ले आए और यादव वंश के युवकों को युद्धकला में प्रशिक्षित कर दिया। उनमें से श्रेष्ठ योद्धाओं की एक अजेय सेना का गठन करके, उसका नाम ‘नारायणी सेना’ रख दिया गया। श्रीकृष्ण युद्ध-कौशल में बेजोड़ थे। और बलराम शत्रु-संहार में अजेय तथा गदा-युद्ध में भारत के सर्वश्रेष्ठ वीर थे। उन्होंने हल के आकार का एक भयानक अस्त्र बनवाया था। उसे लेकर जब वे शत्रुसेना में प्रवेश करते तो किसी की खैर न थी। उनके शरीर में इतना बल था कि लोगों ने उन्हें बल का देवता मानकर उन्हें ‘बलदेव’ तथा ‘बलराम’ का नाम दे दिया था। हल उनका प्रधान अस्त्र था, अतः हलधर अथवा हलीराम उनका एक और नाम हुआ।
कुशस्थली के राजा रेवत की एक अतीव रूपवती कन्या थी। राजा ने बलराम को उस कन्या का दान किया। विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रूक्मिणी का हरण करके उससे श्रीकृष्ण विवाह किया। रूक्मिणी के पुत्र प्रदुम्न ने अपने मामा की पुत्री शुभांगी के साथ विवाह किया। उन दिनों इसी प्रकार के विवाह की प्रथा थी। इस विवाह के उपलक्ष्य में बलराम ने कई दिन विदर्भ की राजधानी कुण्डिन में बिताए। उन दिनों राजाओं के बीच बाजी लगाकर पासा खेलने की प्रभा खूबे प्रचलित थी। इस खेल में जो जितना दक्ष होता, वह उतना ही सम्मानित होता और खेल न जानना बड़े लज्जा की बात मानी जाती थी। बलराम वीर पुरूष थे, इस तरह के बच्चों के खेल उन्हें बिल्कुल भी नहीं भाते थे।
विवाह के उपलक्ष्य में कुण्डिन में दक्षिणात्य के अनेक राजा आए थे। वे सभी धर्मज्ञानरहित, जुआड़ी, छली तथा कलहप्रिय थे। बलराम बड़े सरल व्यक्ति थे। उन लोगों ने राम को पासा खेलने के लिए पकड़ा। वे सहमत हुए। अमनोयोग के साथ खेलते हुए पहले तो वे खूब हारे। राजागण और विशेषकर रूक्मी उनकी खूब हँसी उड़ाने लगे। यह उपहास क्रमशः निन्दा एवं अभद्रता में परिणत हुआ। तब बलराम के सावधानीपूर्वक खेलने पर प्रतिपक्ष हार गया। परन्तु उन लोगों ने हार को स्वीकार नहीं किया और उपहास आदि अवज्ञा करके बलराम को इतना नाराज कर दिया कि उन्होंने रूक्मी को द्वन्द्व-युद्ध के लिए चुनौती दे दी। मूर्ख राजागण बलराम के शान्त, सरल एवं निरहंकार स्वभाव को देखकर उनकी वीरता के बारे में अनुमान नहीं लगा सके थे। परन्तु जब युद्धक्षेत्र में उन्होंने खेल-खेल में ही रूक्मी का वध करने के बाद अन्य राजाओं को चुनौती दे, तो भय से सभी भाग खड़े हुए।
कन्या का हरण करके विवाह करना क्षत्रियों के लिए बड़े गौरव की बात थी, क्योंकि इसमें वीरता को खूब अभिव्यक्ति मिलती थी। दुर्योधन ने अपनी पुत्री लक्षणा के विवाह हेतु एक स्वयंवर का आयोजन किया था। श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्ब ने लक्षणा का हरण कर लिया। परन्तु राजाओं ने मिलकर शाम्ब को पकड़ लिया। बलराम जब शाम्ब को छुड़ाने गए, तो राजागण भय के मारे शाम्ब को मुक्त करने के लिए तैयार हो गए, परन्तु दुर्योधन उनसे सहमत नहीं हुआ। उनका बलराम के साथ युद्ध हो गया। बलराम जब अपनी गदा तथा हलास्त्र के साथ मैदान में उतरे, तो हस्तिनापुर की रक्षा करना कठिन हो उठा। सेना का संहार करने के बाद बलराम अपने हलास्त्र से किले की दिवारों को उखाड़ने लगे। दुर्योधन ने भयभीत होकर शाम्ब तथा लक्षणा को उनके हाथों सौंप दिया और गदा-युद्ध सीखने की अभिलाषा से वह उनका शिष्य बन गया। आशुतोष बलराम उस पर बड़े सन्तुष्ट हुए और पूरे हृदय के साथ उसे ऐसी शिक्षा दी कि दुर्योधन भी गदा-युद्ध में अपने गुरू के समान ही अजेय हो गया।
बलराम की सुभद्रा नाम की एक बहन थी। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य दुर्योधन को ही कन्या प्रदान करने की इच्छा व्यक्त की। परन्तु कृष्ण उसे सुभद्रा के उपयुक्त नहीं मानते थे। एक बार अर्जुन ने अपने भ्रमण के दौरान कुछ दिन उन लोगों के साथ निवास किया। कृष्ण के संकेत पर एक दिन वे सुभद्रा को लेकर भाग गये। इस पर बलराम अत्यन्त क्रुद्ध हुए और यादवसेना को अर्जुन को पकड़ लाने का आदेश दिया। यादवों ने अर्जुन पर आक्रमण किया। परन्तु सुभद्रा को सारथी के रूप में अर्जुन का रथ हाँकते देखकर वे लोग युद्ध करने को अग्रसर नहीं हुए। इस विषय में कृष्ण की भी सहमति है, यह जानकार बलराम का क्रोध क्षण मात्र में चला गया। युद्ध का उपक्रम विवाहोत्सव में परिणत हुआ।
बलराम का हृदय बड़ा ही कोमल था। कृष्ण यह भलीभाँति जानते थे और इसीलिए बीच-बीच में उन्हें चिढ़ाकर मजा लिया करते थे। बलराम चाहे जितने भी नाराज हो जायँ पर किसी को कोई कष्ट होते देख तत्काल पिघल जाते। श्रीकृष्ण से उनका इतना लगाव था कि वे किसी विषय में उन्हें बिन्दु मात्र भी नाराज नहीं करना चाहते थे। जीवन भर युद्ध में बिताने पर भी उन्हें युद्ध से प्रेम न था; अन्याय का प्रतिकार क्षत्रियों का विशेष धर्म है, अतएव कर्तव्यबोध से उन्हें युद्ध करना पड़ता था।
कौरव-पाण्डवों के बीच युद्ध की सम्भावना जानकर बलराम अत्यन्त व्यथित हुए। कृष्ण विवाद का निपटारा कराने हस्तिनापुर गए। बलराम को आशा थी कि उनके ऐसे कुशल भाई अवश्य ही विवाद को मिटाकर लौटेंगे। परन्तु दुर्योधन युद्ध करने को बड़ा उत्सुक था, अतः वह किसी भी कीमत पर समझौता करने को राजी न हुआ। श्रीकृष्ण अपने उद्देश्य में विफल होकर लौट आए। दुर्योधन बलराम के सुयोग्य शिष्य थे, अतः उन्हें दुर्योधन से बड़ा लगाव था। परन्तु जब वह श्रीकृष्ण के कहने पर भी युद्ध से विरत नहीं हुआ, तब वे बड़े मर्माहत हुए। सामने रहकर यह आपसी कलह देखना उनके लिए सम्भव न था। अतः वे तीर्थयात्रा के बहाने देश छोड़कर भ्रमण को निकल पड़े।
तीर्थदर्शन करते हुए बलराम नैमिषारण्य जा पहुँचे। ऋषिगण वहाँ एक यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। उसी उपलक्ष्य में वे लोग सूतजातीय व्यास-शिष्य रोमहर्षण को व्यासपीठ पर बैठाकर पुराण-कथा सुन रहे थे। बलराम के वहाँ पहुँचने पर मुनियों ने उनका यथाविधि स्वावगत किया, परन्तु रोमहर्षण अपने आसन पर ही स्थिर बैठे रहे। बलराम ने उनका यह अहंकार देखकर क्रोध में उन पर एक आघात किया, जिससे उनकी तत्काल मृत्यु हो गई। ऋषिगण हाय-हाय कर उठे। बलराम द्वारा कारण पूछने पर उन लोगों ने बताया कि व्यासपीठ पर आसीन होने के बाद किसी को अभिवादन न करने का नियम है। बलराम को बड़ा पश्चाताप हुआ और उन्होंने प्रायश्चित करने की इच्छा व्यक्त की। मुनियों ने उन्हें बताया कि उनसे ब्रह्महत्या का पाप हो गया है और भारतवर्ष के समस्त तीर्थो का भ्रमण ही इसका प्रायश्चित है।
विधाता के विधान को रोकने की किसी में सामथ्र्य नहीं है। कुरूक्षेत्र के युद्ध में जैसे अन्याय व निष्ठुरता का प्रदर्शन हुआ, बलराम के उपस्थित रहने से वैसा न हो पाता। परन्तु राजाओं का चरित्र यदि युद्ध के दौरान व्यक्त नहीं होता, तो मानव-जाति की शिक्षा नहीं हो पाती, क्षत्रिय कितने कलुषित हो चुके है - इसका पता नहीं चल पाता; भय के कारण दोनों पक्ष युद्ध से विरत हो जाते, परन्तु भीतर ही भीतर सारा पाप रह जाता। भगवान के करूणावतार बलराम के लिए इस युद्ध में भाग लेना सम्भव न था, इसीलिए भगवान ने उन्हें विशेष प्रयास से हटा दिया। उस समय कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस युद्ध में पूरे भारत के राजा एकत्र होंगे और इतनी अल्प अवधि में ही सारा क्षत्रियकुल निर्मूल हो जायगा।
बलदेव तीर्थो का भ्रमण करने लगे, परन्तु थोड़े ही दिनों में युद्ध सम्बन्धी भयानक संवाद पाकर वे विचलित हो उठे। प्रथमतः तो युद्ध ही बड़ा भयानक एवं बीभत्स था और फिर उसका समाचार भी काफी अतिरंजित होकर उनके पास पहुँचा था। प्रभास तीर्थ तक पहुँचते पहुँचते उनके सुनने में आया कि क्षत्रिय वर्ण का ध्वंस हो गया है, नारायणी सेना आदि सब समाप्त हो चुकी है, परन्तु दुर्योधन अब भी जीवित है। बलराम का मन आतंक से परिपूर्ण हो उठा और वे तीव्र गति से कुरूक्षेत्र आ पहुँचे। उस समय भीम तथा दुर्योधन, के बीच युद्ध चल रहा था।
बड़ा ही बीभत्स दृश्य था। भीम तथा दुर्योधन दोनों ही क्रोध से उन्मत्त होकर पशु के समान एक-दूसरे पर आक्रमण कर रहे थे। दोनों ही मरणासन्न हो रहे थे। दुर्योधन गदा-युद्ध में अद्वितीय थे, अतः भीम हारते जा रहे थे। तभी भीम ने दुर्योधन की जाँघ पर गदा से चोट की, जिसके फलस्वरूप जाँघ टूट गई और दुर्योधन धरती पर गिर पड़ा; भीम उसके सिर पर गदाघात करने लगे। गदा-युद्ध में नाभि के नीचे आघात करने का नियम नहीं था, और गिरे हुए शत्रु को अपमानित करना तो उससे भी बड़ा अन्याय समझा जाता था। बलराम क्रोध के आवेश में हाथ में हल उठाए भीम पर आक्रमण करने को दौड़े। कृष्ण ने उन्हे पकड़कर मना किया और पूर्व की घटनाएँ बताने लगे- ‘‘इसी दुर्योधन ने अपने ही कुल की रानी द्रौपदी को सभा के बीच नंगा करने का प्रयास किया था, बारम्बार उसे अपनी जाँघ पर बैठने को कहा था; इसीलिये भीम ने प्रतिज्ञा की थी कि एक दिन वह दुर्योधन की जाँघ तोड़ डालेगा। अपनी प्रतिज्ञा के पालनार्थ ही भीम ने उसकी जाँघ पर आघात किया है।’’ अब कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं हुई। बलराम को सारी बातें स्मरण हो आई। वे समझ गए कि कुरूक्षेत्र के इस जटिल घटनाक्रम के बीच श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए भी अपनी मति को स्थिर रखकर कर्तव्य का निर्धारण कर पाना सम्भव नहीं है। उस भयानक स्थान पर उन्हें क्षण भर भी ठहरने की इच्छा नहीं हुई और वे तत्काल ही कुरूक्षेत्र से चल पड़े।
कुरूक्षेत्र के युद्ध में श्रीकृष्ण अकेले ही युधिष्ठिर के पक्ष में सम्मिलित हुए थे। यदुवंश की सुशिक्षित वीर योद्धाओं की नारायणी सेना ने दुर्योधन का पक्ष लिया था। इसके फलस्वरूप यदुवंश के कई प्रमुख योद्धा कुरूक्षेत्र के युद्ध में भाग लेने से रह गए। बलराम-कृष्ण के साथ रहकर अनेकों बार युद्ध करने से इन लोगों को युद्धविद्या का असाधारण ज्ञान था। महाभारत युद्ध के बाद भारत में युद्ध की आवश्यकता नहीं रह गई थी और बिना युद्ध के यदुवंशी वीरों के लिए समय बिताना कठिन हो गया। मद्य-मांस उनका नित्य का आहार था, दम्भ-अहंकार उनके चरित्र का आभूषण था और मद्यपान कर दिन-रात तर्क-वितर्क, झगड़ा-टण्टा तथा जूआ खेलना उनका नित्यकर्म हो गया। कुरूक्षेत्र के समान एक महत्वपूर्ण युद्ध में भाग न ले पाने के कारण उन लोगों के मन में बड़ा खेद था। किसी युद्ध-विवाद के लिए वे लोग प्यासे हो उठे। कुरूक्षेत्र युद्ध के बाद बलराम-कृष्ण सभी विषयों में उदासीन हो चुके थे। तथापि उनके भय से ये लोग थोड़े शान्त रहते थे। अब उनकी निश्चेष्टता पर ये लोग और भी उन्मत्त हो उठे।
बलराम-कृष्ण ने देखा कि इस युद्धप्रिय जाति को सँभालकर रखना बड़ा कठिन है। उन्हें किसी प्रकार उत्सव-आमोद-प्रमोद में बहलाकर रखने के उद्देश्य से बलराम-कृष्ण ने उन्हें लेकर प्रभास तीर्थ जाने का निश्चय किया और तदनुसार व्यवस्था करने का आदेश दिया। बड़े उत्साहपूर्वक सारा आयोजन होने लगा। मधु-मांस की भी खूब व्यवस्था हुई।
प्रभास पहुँचकर सबने बड़ा शान्त भाव दिखलाया। परन्तु ज्यों-ज्यों यथेच्छा मधुपान करने से उन पर नशा चढ़ने लगा, त्यों-त्यों वे अदम्य हो उठे। पहले तो उनके बीच हास-परिहास शुरू हुआ और तदुपरान्त क्रमशः झगड़ा, हाथा-पाई और मार-पीट भी होने लगी। बलराम-कृष्ण ने यह सोचकर अस्त्र धारण कर लिया कि ये लोग शायद भय से शान्त हो जाएँगे। परन्तु इस पर वे लोग और भी भड़क उठे और एक-दूसरे की हत्या करने लगे। एक अन्य कुरूक्षेत्र का दृश्य अभिनीत होने लगा। सबके भीषण रूप से घायल या मृत हो जाने के बाद ही युद्ध थमा। बलराम-कृष्ण ने खड़े खड़े सब देखा। कोमल-हृदय बलराम इतना सब सहन नहीं कर सके और वहीं योगासान में बैठ समाधिमार्ग से वैकुण्ठ-लोक चले गए। यदुवंश के वृद्धों, नारियों तथा बालकों की रक्षा का भार दूत के मुख से अर्जुन को भेजने के बाद श्रीकृष्ण ने भी अपने ज्येष्ठ भ्राता का अनुसरण किया।
कृष्णभक्त वेदव्यास ने हिन्दू धर्म की रक्षा तथा प्रचार हेतु अनेक ग्रन्थ लिखे और श्रीकृष्ण-चरित्र के आदर्श के रूप में निष्काम कर्मयोग का भारत में प्रचार किया। इससे मानव-जाति को शान्ति की उपलब्धि हुई।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
दृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण दृश्य सत्य चेतना से युक्त भक्ति और प्रेम आधारित द्वापर युग में क्षत्रिय जाति में जन्में और यादव जाति में पले विष्णु के आठवें अवतार - योगेश्वर श्री कृष्ण अवतार के जन्म तक वर्णाश्रम के चार नेतृत्व-मन खण्ड-खण्ड जन्म आधारित होकर अनेक नेतृत्व मनों जातियों में स्थापित हो चुकी थी। परिणामस्वरूप मूल मानव जाति उसमें खो चुकी थी। ‘परशुराम-परम्परा’ टूट रही थी जहाॅ थी वहाॅ भी ब्राह्मण धर्म-अर्धम की व्याख्या करने में असमर्थ, जनसंख्या और समस्याओं के बढ़ने के कारण एकतन्त्रात्मक विचार को स्वीकार न करने की ओर बढ़ रही थी। बहुदेववाद भी मनों को अलग कर रखा था। देश-सम्बन्ध, रिश्ता-सम्बन्ध पूर्ण रूप से टूटकर, रक्त सम्बन्ध टूटते हुये तेजी से प्रसार की ओर था। ऐसी स्थिति में कृष्ण की आत्मा व्यक्तिगत प्रमाणित सत्य-चेतना अर्थात् स्वयं द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से भूतकाल का ज्ञान और भविष्य की आवश्यकतानुसार वर्तमान में कार्य करते हुये अपने उद्देश्यों को व्यक्तिगत रूप से उस समय व्यक्त करना जब उद्देश्य पूर्ण होने में कोई संदेह न हो, में स्थापित हो गयी। और वे कत्र्तव्य पथ पर अग्रसर हुये परिणामसवरूप श्रद्धेय श्रेष्ठजनों से श्रद्धा रखते हुये उनके प्रभाव से मुक्त रहकर कार्य करना, सम्पर्क में आये हुये सभी नर-नारियों को दास्य, संख्य, वात्सल्य, मधुर और अवैध प्रेम में स्वयं को मुक्त रखते हुये बाॅध देना, अपने बडे़ भाई बलराम को हल व मूसल धारण कराना, रूक्मिणी के स्वयंवर चुनने पर स्वयं अपना हरण करवा उसे प्रधानता देते हुये पूर्ण गृहस्थ सुख भोग करना, मानक गणराज्य या समाज के रूप में द्वारिका का निर्माण करना, साध्य (गणराज्य) को व्यक्त और साधन (प्रजा, सेना और गणराज्यों के राजा) दोनों का अव्यक्त प्रयोग या भोग करते हुये एकतन्त्रात्मक राजाओ के चरित्र का सार्वजनिक प्रदर्शन करवाकर उनका वध या पक्ष निर्धारण करना, सभी नेतृत्वकत्र्ता मनों अर्थात् जातियों के स्थायी एकीकरण सहित कर्म की ओर प्रेरित करने के लिए सम्पूर्ण उपनिषदों का सार-व्यक्तिगत प्रमाणित गीतोपनिषद् सहित अव्यक्त (निराकार) एवं व्यक्त (साकार) ऐकेश्वरवाद की स्थापना करने के लिए स्वयं को व्यक्तिगत प्रमाणित ईश्वर योगेश्वर रूप में प्रस्तुत करना इत्यादि सम्भव हो सका। कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन विवशता वश हिंसात्मक प्रधान हो गणराज्य की स्थापना में लगा रहा और अन्त में उनके द्वारा स्थापित व्यवस्था उनके जीवन में ही नष्ट हो गयी।
ईश्वर के आठवें प्रत्यक्ष एवम प्रेरक व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्णावतार श्री कृष्ण तथा विष्णु (एकात्व वाणी, ज्ञान ,कर्म व प्रेम) कें पूर्णावतार कें रुप में व्यक्त श्री कृष्ण का मुख्य गुण आर्दश सामाजिक व्यक्ति का चरित्र तथा अवतारी गुणों में साकार शरीर आधारित ”परशुराम परम्परा“ की असफलता को देखते हुये उसका नाश करकें निराकार नियम आधारित ”परशुराम परम्परा“ को प्रारम्भ किये। जिसके लिऐ वे मानक सार्वभौम सत्य ज्ञान-गीतोपनिषद् व्यक्त किये।
श्रीकृष्ण का नाम बेचने वाले सिर्फ भक्ति में ही लीन हैं। उनके मूल कार्य मानक सार्वभौम सत्य ज्ञान तथा निराकार नियम आधारित ”परशुराम परम्परा“ का नाम ही नहीं लेते जबकि भारत तथा विश्वस्तर पर गणराज्य का स्वरुप निम्नलिखित रुप में व्यक्त हो चुका है।
भारत में निम्न्लिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. ग्राम, विकास खण्ड, नगर, जनपद, प्रदेश और देश स्तर पर गणराज्य और गणसंघ का रुप।
2. सिर्फ ग्राम स्तर पर राजा (ग्राम व नगर पंचायत अध्यक्ष ) का चुनाव सीधे जनता द्वारा।
3. गणराज्य को संचालित करने के लिए संचालक का निराकार रुप- संविधान।
4. गणराज्य के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप-नियम और कानून।
5. राजा पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप- राष्ट्रपति, राज्यपाल, जिलाधिकारी इत्यादि।
विश्व स्तर पर निम्नलिखित रुप व्यक्त हो चुका था।
1. गणराज्यों के संघ के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ का रुप।
2. संघ के संचालन के लिए संचालक और संचालक का निराकार रुप- संविधान।
3. संघ के तन्त्रों को संचालित करने के लिए तन्त्र और क्रियाकलाप का निराकार रुप- नियम और कानून।
4. संघ पर नियन्त्रण के लिए ब्राह्मण का साकार रुप-पाँच वीटो पावर।
5. प्रस्ताव पर निर्णय के लिए सदस्यों की सभा।
6. नेतृत्व के लिए राजा- महासचिव।
श्रीकृष्ण की दिशा से शेष कार्य मानक सार्वभौम कर्मज्ञान का प्रस्तुतीकरण द्वारा नियम आधारित ”परशुराम परम्परा“ को पूर्णता प्रदान करना है। जिसके लिए निम्नलिखित की आवश्यकता है-
1. गणराज्य या लोकतन्त्र के सत्य रुप- गणराज्य या लोकतन्त्र के स्वरुप का विश्व मानक।
2. राजा और सभा सहित गणराज्य पर नियन्त्रण के लिए साकार ब्राह्मण का निराकार रुप- मन का विश्व मानक।
3. गणराज्य के प्रबन्ध का सत्य रुप- प्रबन्ध का विश्व मानक।
4. गणराज्य के संचालन के लिए संचालक का निराकार रुप- संविधान के स्वरुप का विश्व मानक।
5. साकार ब्राह्मण निर्माण के लिए शिक्षा का स्वरुप- शिक्षा पाठ्यक्रम का विश्व मानक।
यहाॅ ध्यान देने योग्य यह है कि कृष्ण के समय अधिकतम राज्य एकतन्त्रात्मक थी और उनका प्रसार भी तेजी से बढ़ रहा था। ऐसे में उन्हें ज्ञान द्वारा समझाकर गणराज्यों की स्थापना नहीं हो सकती थी। जो राज्य गणराज्य थे वहाॅ भी राजाओं के नियन्त्रण के लिए नियुक्त ब्राह्मण भी धर्म-अधर्म की व्याख्या करने में असफल हो चुके थे। विवशतावश उनके समक्ष हिंसा का एक मात्र रास्ता ही शेष था। परिणामस्वरूप उन्होनें व्यक्तिगत रूप से मानसिक वध तथा सार्वजनिक रूप से शारीरिक वध की नीति अपनायी। कृष्ण जानते थे कि राजा के चरित्र का सार्वजनिक प्रदर्शन करा उनके प्रजा को अपनी ओर आकर्षित किया जा सकता है क्योंकि प्रजा, राजा के आदेश को वाध्यतावश मानती है, उनके अन्तरात्मा को आदेश द्वारा नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। परिणास्वरूप प्रजा का अदृश्य रूप से आत्मबल मेरी ओर हो जायेगा। अर्थात् मानसिक वध हो जायेगा। सिर्फ शारीरिक बल ही उनकी ओर रहेगा, और आत्मबल ही मूल है। इस ज्ञान का लाभ व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करते हुये वे एकतन्त्रात्मक राजाओं के समक्ष स्वयं परिस्थिति उत्पन्न कर या गणराज्यों के राजा द्वारा उसे उत्पन्न करवा उनके चरित्र का सार्वजनिक प्रदर्शन चरम सीमा तक होने देकर, आवश्यक समझने पर स्वयं वध करते थे या राजाओं द्वारा वध करवाते थे या भविष्य के लिए छोड़ देते थे जिससे सर्वोच्च और अन्तिम युद्ध-महाभारत में सभी कृष्ण विरोधी एक पक्ष में हो जाये। उनका सम्पूर्ण लक्ष्य उस समय के सबसे बड़े राज्य हस्तिनापुर से ही पूर्ण हो सकता था इसलिए वहाॅ वे अपनी उपस्थिति बनाये रखने के लिए रिश्ता, मित्रता, गुरू, दूत इत्यादि विभिन्न चरित्रों से जुड़ गये थे। जब कौरव और पाण्डवों के बीच युद्ध निश्चित हो गया तब वे अपने एकात्मज्ञान और एकात्मध्यान शक्ति की अटलनीय सफलता को देखते हुये उन्होंने कौरवों पक्ष के माॅगने पर अपनी सेना स्वेच्छा से यह जानते हुये दे दिये कि उनका आत्मबल तो मेरे ही साथ है। और पाण्डव पक्ष के स्वयं उन्हें माॅग लिये जाने पर शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा के साथ अर्जुन का सारर्थी इसलिए बन गये कि पाण्डवों की मुख्य शक्ति अर्जुन में ही नीहित थी, जिसके कारण युद्ध में पराजय, पलायन और आत्मबल कमजोर पड़ सकता था, युद्ध न होने के इस अन्तिम कारण को भी वे वश में कर युद्ध की अटलनीयता को मजबूती प्रदान कर दिये थे। इस स्थिति तक लाने में पक्षों का विभाजन कृष्ण ने इस प्रकार कर रखा था कि शारीरिक-शक्ति दोनों पक्षों का लगभग बराबर हो और आत्मबल पाण्डव पक्ष में हो जिससे युद्ध लम्बी अवधि तक चलकर सम्पूर्ण एकतन्त्रात्मक राज्य का नाश किया जा सके और पुनः नये सिरे से मानव की सृष्टि गीता ज्ञान द्वारा एकीकरण एवम् निराकार एवम् साकार ऐकेश्वरवाद की स्थापना द्वारा किया जा सके। युद्ध और विजय की सुनिश्चितता इसलिए आवश्यक थी कि तब तक कृष्ण के सम्पूर्ण योजना को दोनों पक्ष समझने लगे थे और युद्ध न होने या पराजय की स्थिति में कृष्ण ही संकट में आ जाते और जीवन भर का परिश्रम और उद्देश्य भी सफल न हो पाता। परन्तु युद्ध क्षेत्र में अर्जुन के अन्दर मोह से उत्पन्न वैराग्य के कारण जो गीता ज्ञान सार्वजनिक रूप से युद्धोपरान्त व्यक्त करना चाहते थे उसे विवशतावश अर्जुन को कर्म अर्थात युद्ध की ओर प्रेरित करने के लिए व्यक्तिगत रूप से व्यक्त करना पड़ा। परिणामस्वरूप युद्धोपरान्त सार्वजनिक प्रजा ज्ञान की महत्ता स्वीकार करने में असमर्थ हो निष्क्रिय-निर्जिव-अपुरूषार्थी और असहाय हो गयी। परिणामस्वरूप उनकी व्यवस्था यहाॅ तक कि स्वयं उनका यदुवंश भी नष्ट हो गया। और कृष्ण का सम्पूर्ण नीति या पूर्ण मन का कार्य गणराज्य व्यवस्था की सर्वोच्च स्थापना, सन्यास आश्रम, प्रजा को ज्ञान की शिक्षा, सार्वजनिक प्रमाणित साकार ऐकेश्वर ध्यान और मूल मानव जाति की स्थापना के लिए अपूर्ण रह गया। यहाॅ ध्यान देने योग्य यह है कि कृष्ण का ज्ञान सहित कर्म की ओर प्रेरित करता गीतोपनिषद् सार्वजनिक रूप से निराकार ऐकेश्वरवाद को ही प्रमाणित करने में सफल रहा क्योंकि ज्ञान की प्रमाणिकता ध्यान अर्थात् काल चिन्तन की प्राथमिकता के साथ सार्वजनिक प्रमाणित हो जाती हैै। ध्यान अर्थात् काल चिन्तन के साथ ज्ञान की व्यावहारिकता कर्मज्ञान तो कृष्ण के जीवन में था जिसके कारण वे सफल जीवन पूर्णकर व्यक्तिगत रूप से साकार ऐकेश्वर सिर्फ अर्जुन के समझ ही प्रस्तुत किये। सार्वजनिक प्रमाणित साकार ऐकेश्वर के बिना निराकार ऐकेश्वर भी प्रमाणित नहीं हो पाता क्योंकि गुण ही निराकार के उपस्थिति का प्रमाण है। कृष्ण स्वयं को सार्वजनिक प्रमाणित साकार ऐकेश्वर सिद्ध नहीं कर पाये वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे क्योंकि फिर वहीं ज्ञान से सर्वोच्च ध्यान अर्थात् काल चिन्तन, धर्म की लगातार उन्नति, ज्ञान युक्त अवस्था में कर्म तथा स्थायी-स्वस्थ्य सर्वोच्च गणराज्य व्यवस्था स्थापित हो जाती फिर शेष दो विष्णु अवतारों की क्या आवश्यकता रह जाती? कृष्ण ‘‘परशुराम-परम्परा’’ को ही सुधार के साथ स्थापित करना चाहते थे जो एकतन्त्रात्मक राज्यों के नाश के बाद पुनः नये मानव समाज सृष्टि से प्रारम्भ होती, जिसकी आवश्यकता रामावतार में शुद्धात्मा बालकों लव और कुश द्वारा चुनौती दे व्यक्त की जा चुकी थी। रामावतार में श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों से प्रभावित जीवन उनके कृष्णावतार में बलराम, कृष्ण, रूक्मणि और सत्यभामा का श्रद्धा पूर्वक श्रद्धेय श्रेष्ठजनों के प्रभाव से मुक्त रहकर व्यतीत हुआ। सीता के मन की पूर्णता रूक्मणि के रूप में कृष्ण के संग सुखमय गृहस्थ जीवन व्यतीत होकर पूर्ण हुआ परन्तु पुत्र शोक के कारण नया उद्देश्य इच्छा उत्पन्न हो गया और उनका मन पुनः अपूर्ण रह गया। लक्ष्मण-बलराम रूप में कृष्ण से बड़े बनकर पूर्णता को प्राप्त हुये। उर्मिला, सत्यभामा रूप में कृष्ण और रूक्मणि की सेवा कर पूर्णता प्राप्त की, परन्तु रूक्मणि के स्थान पर आने की नयी इच्छा ने उसके मन को अपूर्ण कर दिया। जिसका कारण प्रेम में शंका करना था। सीता के सूक्ष्म शरीर के स्थूल शरीर को पहचानने के लिए कृष्ण ने तब तक प्रतीक्षा की जब तक कोई स्वयं उन्हें वर न चुन ले क्योंकि कृष्ण यह जानते थे कि अपूर्ण मन या सूक्ष्म शरीर की पूर्णता के लिए स्थूल शरीर धारण करता है और वह स्वयं वर चुनेगी क्योंकि बल बिना पूर्व जन्म के प्राप्त किये प्रकट नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा न होता तो स्वयं कृष्ण प्रेमावतार होते हुये भी उन प्रेमिकाओं में से किसी को अपनी पत्नी रूप में नही चुने बल्कि सभी को व्यक्त सान्निध्य में रख अवैध प्रेम में बाॅधकर अपूर्ण कर दिये। ये सभी वह अपूर्ण-मन के स्थूल शरीर थे जो रामावतार के समय अनेक नर-नारियों के मन अव्यक्त रूप से अपूर्ण थे। अनेकों जातियों में मूल मानव जाति के मिश्रित हो जाने से मूल मानव जाति के प्रतीक को उन्होंने यदुवंशी बलराम को हल व मूसल धारण करा अलग प्रस्तुत किया।
जिस प्रकार सीमित मस्तिष्क से असीम या अपने से अधिक मस्तिष्क की सही व्याख्या नहीं की जा सकती उसी प्रकार श्री कृष्ण के मस्तिष्क को समझने के लिए श्रीकृष्ण के मस्तिष्क के बराबर या अधिक स्तर के मस्तिष्क की आवश्यकता होगी। और श्रीकृष्ण ही एक मात्र ऐसे आठवें अवतार हुए जिन्हें समझे बिना मानव संसाधन का विकास असंभव है। यहीं कारण है कि श्रीकृष्ण जितना भक्ति के योग्य हैं उससे अनन्त गुना अधिक समझने के योग्य हैं। श्रीकृष्ण के मस्तिष्क के स्तर की व्याख्या करने वाले संबुद्ध सद्गुरु आचार्य रजनीश ”ओशो“ की सत्य दृष्टि संसार में प्रवाहित होने के बावजूद भी अधिकतम मानव का दुर्भाग्य है कि या तो वे उनकी सत्य दृष्टि से अनभिज्ञ हैं या वे समझने के लिए प्रयत्न ही नहीं करते और अपने व्यक्तित्व को संकुचित कर डालते हैं। यहाँ ओशो द्वारा श्रीकृष्ण के लिए कुछ सत्य दृष्टि प्रस्तुत है ताकि एक मात्र शेष अन्तिम अवतार को पहचानने की दृष्टि निर्मित हो सके। और भविष्य के ”मस्तिष्क के प्राथमिकता वाले युग“ में जीने के लिए स्वयं को योग्य बना सकें।
(1) अघोर का अर्थ होता है- सरल। किसी को ”घोरी“ कहो तो गाली हो सकती है घोर का अर्थ है- जटिल। अघोर का अर्थ होता है- सरल, बच्चे जैसा निर्दोष। अघोर तो सिर्फ थोड़े से बुद्धांे के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। गौतम बुद्ध-अघोरी, कृष्ण-अघोरी, क्राइस्ट-अघोरी, लोओत्सु-अघोरी। गोरख-अघोरी। सरल निर्दोष, सीधे-साधे। इतने सरल कि गणित जीवन में है ही नहीं। हिसाब किताब लगाने का भाव ही चला गया है।
(2) कृष्ण वाममार्गी है। तुम बुद्ध से ज्यादा प्रभावित हो जाते है क्योंकि वह राजमहल छोड़कर जाते है। तुम कृष्ण की अगर प्रशंसा भी करते हो तो थोड़े दबे-दबे कंठ से, थोड़े डरे-डरे, थोड़े भयभीत। अगर लोग कृष्ण की प्रशंसा भी करते है तो गीता वाले कृष्ण की करते है। पूरे कृष्ण को स्वीकार करने की हिम्मत बहुत कम लोगों की है। क्योंकि कृष्ण तो तुम्हारे जैसे मालूम पड़ते है बल्कि तुमसे भी आगे बढ़े हुये। तुम्हारा कृष्ण का स्वीकार अधूरा है। तुम कृष्ण में से बहुत सी बातें काट छांट कर डालना चाहोगे। तुम कृष्ण में संशोधन करने को सदा तत्पर हो। कृष्ण को लोग अपने-अपने हिसाब से मानते है। जितना मान सकते है उतना मान लेते है। बाकी छोड़ देते है। कृष्ण को पहचानने के लिए बड़ी गहरी आँखें चाहिए। कृष्ण को पहचानने के लिए जब तक भीतर की आँख न खुली हो, तब तक पहचानना मुश्किल है। क्योंकि वे वहीं खड़े है, भेद तो कुछ भी नहीं। उपर से भेद नहीं है भीतर से भेद है। तो जब तक भीतर देखने की क्षमता न हो, तब तक तुम कृष्ण को न समझ पाओंगे।
(3) उसके लिए सब हंसी खेल है, सब लीला है। इसलिए हमने कृष्ण को पूर्णावतार कहा। राम गम्भीर हैं छोटी-छोटी बात का हिसाब रखते है। नियम मर्यादा से चलते है- मर्यादा पुरूषोत्तम है। कृष्ण अमर्याद है न कोई नियम है न कोई मर्यादा। कृष्ण के लिए जीवन लीला है।
(4) कृष्ण का महत्व अतीत के लिए कम भविष्य के लिए ज्यादा है। सच ऐसा है कि कृष्ण अपने समय से कम से कम पाँच हजार वर्ष पहले पैदा हुये। सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय से पहले पैदा होते हैं और सभी गैर महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने समय के बाद पैदा होते हैं। बस महत्वपूर्ण और गैर महत्वपूर्ण में इतना फर्क है और सभी साधारण व्यक्ति अपने समय के साथ पैदा होते हैं महत्वपूर्ण व्यक्ति को समझना आसान नहीं होता। उसका वर्तमान और अतीत उसे समझने में असमर्थता अनुभव करता है जब हम समझने योग्य नहीं हो पाते तब हम उसकी पूजा शुरू कर देते हैं या तो हम उसका विरोध करते हैं। दोनों पूजाएँ हैं एक मित्र की एक शत्रु की।
(5) राम कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण अवतार की तरह नहीं हैं, अंश हैं उनका अवतार। उपनिषद् के ऋषि कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। परमात्मा अगर पृथ्वी पर पूरा उतरे तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा। इसलिए श्रीकृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छु पाये हैं; बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी-डाइमेन्सनल; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता हो। राम वन-डाइमेन्सनल है। अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी सम्भव है, जब वह आदमी भी मल्टी-डाइमेन्सनल हो। हम आम तौर पर एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी हीेती है, उस पटरी पर हम चलते है।
(6) कृष्ण का व्यक्तित्व बहुत अनूठा है अनूठेपन की पहली बात तो यह है कि कृष्ण हुए तो अतीत में लेकिन हैं भविष्य के। मनुष्य अभी भी इस योग्य नहीं हो पाया है कि कृष्ण का सम-सामयिक बन सके। अभी भी कृष्ण मनुष्य के समझ से बाहर है। भविष्य में यह सम्भव हो पायेगा कि कृष्ण को हम समझ पाये। इसके कुछ कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि कृष्ण अकेले ही ऐसे व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों पर होकर भी गम्भीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं साधारण सन्त का लक्षण रोता हुआ होना है। जिन्दगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले ही इस समग्र जीवन को पूरा ही स्वीकार कर लेते हैं। जीवन की समग्रता की स्वीकृति उनके व्यक्तित्व में फलित हुई है। इसलिए इस देश में और सभी अवतारों को आंशिक अवतार कहा है। कृष्ण को पूर्ण अवतार कहा गया है राम भी अंश ही हैं परमात्मा के, लेकिन कृष्ण पूरे परमात्मा हैं और यह कहने का, यह सोचने का, ऐसा समझने का कारण है। और वह कारण यह है कि कृष्ण ने सभी कुछ आत्मसात् कर लिया है। कृष्ण अकेले हैं तो शरीर को उसकी समस्त में स्वीकार कर लेते हैं, ‘टोटलिटी’ में। यह एक आयाम में नहीं सभी आयाम में सच है।
(7) कृष्ण शान्तिवादी नहीं हैं, कृष्ण युद्धवादी नहीं है। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक चुनते है। एक अन्य वादी है। कृष्ण कहते हैं, शान्ति में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है, युद्ध में शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर जरूरत है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए, शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत चाहिए निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो नहीं सकता क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। लेकिन अशुभ जीत न पाये इसलिए लड़ाई है तो धीरे-धीरे दो हिस्सा दुनियाँ के बट जायेंगे, जल्दी ही जहाँ एक हिस्सा भौतिकवादी होगा और एक हिस्सा स्वतंत्रता, लोकतन्त्र, व्यक्ति और जीवन के और मूल्यों के लिए होगा। लेकिन क्या ऐसे दूसरे शुभ के वर्ग को कृष्ण मिल सकते है? मिल सकते हैं। क्योंकि जब भी मनुष्य की स्थितियाँ इस जगह आ जाती है। जहाँ कि कुछ निर्णायक घटना घटने को होती है, तो हमारी स्थितियाँ उस चेतना को भी पुकार लेती हैं, उस चेतना को भी जन्म दे देती है वह व्यक्ति भी जन्म जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कृष्ण का भविष्य के लिए बहुत अर्थ है।
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