Sunday, March 15, 2020

2. द्वितीय अवतार: कूर्म / कच्छपावतार

पहला युग / पाँचवाँ युग: सत्ययुग/स्वर्ण युग
अ. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार
2. द्वितीय अवतार: कूर्म / कच्छपावतार 
व्यक्तिगत प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार

ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार 

कूर्म अवतार (पूर्व कथा)
स्वर्ग के ऐश्वर्य का भोग करके एक बार देवताओं के मन में बड़ा गर्व हुआ। भोग-विलास में मत्त होकर उन लोगों ने सर्व प्रकार की तपस्याओं का परित्याग कर दिया। क्रमशः आलस्य और उसके फलस्वरूप शरीर-मन की दुर्बलताओं ने प्रकट होकर देवताओं का तेज नष्ट कर दिया। बचा रहा केवल उनके पूर्व गौरव का दम्भ, और कौन बड़ा है और कौन छोटा-यही लेकर उनके बीच निरन्तर कलह होने लगा। 
दूसरी ओर पातालवासी असुरों के उद्यम का अन्त न था। शास्त्रपाठ, दान, ध्यान, कला, वाणिज्य, कृषि आदि समस्त कार्यो में उनका समान उत्साह था। देखते-ही-देखते वे लोग महा-शक्तिमान हो उठे। देवताओं की दुर्बलता उनकी दृष्टि में आयी। एक दिन दाम्भिक देवताओं ने पाया कि असंख्य असुर सेना ने उनके स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया है। जिन दिनों वे भोग तथा आपसी कलह में व्यस्त थे, उसी अवधि में असुरगण धन-जन तथा विद्या-बुद्धि में उनसे आगे निकल गये थे। वैसे देवताओं ने बड़े जोर-शोर के साथ युद्ध आरम्भ किया और अकाट्य युक्तियों के साथ आपस में चर्चा करने लगे कि उनके बाणों से असुरों का ध्वंस होने में अधिक समय नहीं लगेगा। परन्तु परिणाम कुछ और ही हुआ। देवाताओं के बाण चाहे जितने भी तीक्ष्ण क्यों न रहे हों, परन्तु उन्हें चलाने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता थी, उसका देवशरीर में अभाव था। इधर असुरों का शरीर वज्रवत दृढ़ था। वे शारीरिक कष्ट तथा मृत्युभय की परवाह न करते हुए दल-के-दल देवसैन्य के भीतर प्रवेश करने लगे। उनकी ‘मारो-मारो’ ‘काटो-काटो’ की आवाज, भीषण हुँकार तथा आत्मरक्षा का प्रयास किये बिना दोनों हाथों से उन्हें निर्भयतापूर्वक तलवारें चलाते देखकर देवताओं में महान आतंक फैल गया। देवतागण दैत्यों का तेज सहन नहीं कर सके और परास्त होने के बाद स्वर्ग छोड़कर भाग गये। असुरों ने स्वर्ग-राज्य पर अधिकार कर लिया। 
असुरों का प्रहार ऐसा भयंकर था कि उनके अस्त्रों का आघात सहकर बचे रहने की अपेक्षा मृत्यु कहीं अधिक सुखकर होती। देवता अपना क्षत-विक्षत शरीर लेकर जिससे जहाँ भी हो सका, स्वर्ग-मत्र्य-पाताल के गिरि-गुफा आदि में अत्यन्त कष्टपूर्वक छिपे रहे। संयोगवश किसी किसी को असुरों की निगाह में आकर और भी कठोर अपमान तथा प्रहार सहना पड़ा। देवताओं के उद्धार का कोई भी उपाय नहीं बचा। चिरकाल तक असुरों के हाथ अपमानित होने तथा चोट सहते हुए जीवित रहने के अतिरिक्त देवताओं के लिए दूसरा मार्ग ही क्या था ? अहंकार और आलस्य का फल कितना विषमय होता है! 
प्रजापति ब्रह्मा देवताओं के दुःख से बड़े ही व्यथित हुए। असुरगण चाहे जितने भी अच्छे कार्य, दान-ध्यान आदि करते रहे हों, परन्तु उनका उद्देश्य नाम-यश और इहलोक का भोग करना था। नाम-यश तथा भाग के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार थे, परन्तु भगवान या धर्म की ओर उनका जरा भी आकर्षण न था। जो थोड़ा-बहुत धर्म उनमें दीख पड़ता था, वह भी केवल स्वार्थ-साधन का उपाय मात्र था। वे लोग भगवान को नहीं, अपितु भगवान से सुख-सुविधा चाहते थे। दूसरी ओर देवतागण सामयिक दुर्बलता के चलते दाम्भिक हो जाने पर भी भगवान से सच्चा प्रेम करते थे और धर्म के लिए ही धर्म की साधना करते थे। बीच बीच में उनके मन में भोग की कामनाएँ प्रबल हो जाने से उनमें कई प्रकार की दुर्बलताएँ आ जाती थीं, तथापि उनका मूल स्वभाव अच्छा था। 
असुरगण स्वर्ग की शासक होकर आसुरी विधान के अनुसार ही वहीं का शासन चलाने लगे। धार्मिक और ज्ञानी लोगों का अब कोई मान नहीं रहा। धनबल, देहबल तथा बाह्य सौन्दर्य की महिमा अत्यन्त बढ़ गयी। विचार करना शौक मात्र रह गया। खाना-पानी और मौज करना ही सभ्यता हुई। हड़बड़ी, शोरगुल तथा दिखावे से देश उन्मत्त हो उठा। स्वार्थ के लिए झूठ का आश्रय लेना नित्यकर्म हुआ। संसार में घोर आसक्ति के फलस्वरूप मनुष्य का मन वासना की अग्नि में दग्ध होने लगा। 
प्रजापति ने काफी प्रयास करके देवराज इन्द्र को ढूँढ़ निकाला और उन्हें लेकर वैकुण्ठपति श्रीहरि के सम्मुख उपस्थित हुए। वैसे तो श्रीहरि के लिए भूत-भविष्य-वर्तमान कुछ भी अज्ञात न था। देवताओं की दुर्दशा, असुरों का स्वर्ग-विजय आदि सब कुछ उन्हें विदित था, तथापि ब्रह्मा एवं इन्द्र के उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् बैठने पर उन्होंने कुशलता पूछी। इन्द्र लज्जा के कारण अपना सिर ही नहीं उठा पा रहे थे। ब्रह्मा ने ही सारी बातें श्रीहरि से निवेदित की। 
श्रीहरि ने देवताओं के कष्ट में सहानुभूति दिखायी और कहा कि उन्हें और भी पहले सूचित करने से अच्छा होता। विभिन्न बातें कहकर उन्होंने इन्द्र को उत्साहित किया। वे बोले, ‘‘देवराज, इस जीवन में उत्थान-पतन तो लगा ही रहता है। जय हो अथवा पराजय, पर देहधारी के लिए कर्म के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं। कर्मो के फल से ही देवाताओं की दुर्दशा हुई है और कर्म ही दैत्यों के उत्थान का भी कारण है। कर्म के द्वारा ही कर्म का क्षय करना होगा। परन्तु जैसे-तैसे कर्म करने से ही काम नहीं होगा, सत्परामर्श की भी आवश्यकता है। तुम लोग जो मेरी सलाह लेने आये हो, इसी में देवताओं के उत्थान का बीज निहित है। जो ठीक ढंग से कार्य करना चाहता है, उसे सच्चे आदमी के परामर्श के अनुसार ही चलना पड़ता है। जब तुम मेरे पास आये हो, तो समझ लेना कि अब तुम्हारे संकट के दिन बीत चुके है। मैं सर्वदा अपने शरणागतों की रक्षा करता रहा हूँ।’’
‘‘मैं कर्मफल का दाता हूँ, असुरों ने जो कार्य किया है उसके फलभोग को रोकने की क्षमता किसी में नहीं है। तुम लोगों को अब कठोर परिश्रम के द्वारा उनके कर्म को पराजित करना होगा। इस समय युद्ध के द्वारा दैत्यों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता देवताओं में नहीं हैं अतः तुम जाकर उन लोगों के साथ सन्धि कर लो। देव और असुर मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करों, उससे अमृत निकलेगा। अमृत का पान करके तुम लोग अमर हो जाओगे, अनन्त तेज प्राप्त करोगे और तुममें दैत्यों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता आ जायेगी।’’
परन्तु यह कार्य आसान नहीं था। पहले तो पराजित होकर भागे हुए इन्द्र को दैत्यराज से सन्धि की भिक्षा माँगनी थी, तदुपरान्त एक समुद्र का मन्थन करना था और फिर अमृत मिलने पर असुरों को भी तो उनका भाग देना होगा। असुरों के अमृत पीकर अमर हो जाने से तो देवताओं की सारी आशा ही धूल में मिल जाती है। परन्तु श्री भगवान की वाणी पर इन्द्र का ऐसा विश्वास था कि उनके मन में किसी भी प्रकार के सन्देह का उदय नहीं हुआ। इसी को कहते है देवहृदय। इन्द्र जानते थे कि श्री विष्णु से बढ़कर उनका हितैषी दूसरा कोई नहीं है। सच्चे भक्त का यही लक्षण है। 
देवराज के सिंहासन पर बैठकर असुरराज तीनों लोकों पर शासन कर रहे थे। आज देवेन्द्र राज्यहीन, मानहीन तथा अस्त्रहीन होकर दैत्यराज के सम्मुख सन्धि के प्रार्थी थे। इन्द्र की अपूर्व मुख्यकान्ति, उज्जवल वर्ण तथा निर्भीक पदक्षेपर देखकर द्वारपालों ने ससम्मान उनका मार्ग छोड़ दिया। इन्द्र ने सभा में प्रवेश किया और दैत्यराज के प्रति राजोचित सम्मान दिखाते हुए अपना परिचय दिया। 
दैत्यराज अब तक ईष्र्यापरायण होकर देवताओं तथा विशेषकर इन्द्र को दूर से ही देखते आये थे। परन्तु आज उनके बीच आकर इन्द्र ने अपनी अपूर्व अंगकान्ति से दैत्यसभा को म्लान कर दिया था। दैत्यगण सचमुच ही चकित होकर उनकी ओर आदर के साथ देखने लगे। उन्हें ऐसा लगा कि वस्तुतः यही व्यक्ति इस सिंहासन पर ठीक ठीक जँचेगा। दैत्यराज भी चिरकाल से ही जिन इन्द्र को श्रेष्ठ मानते आये थे, पाताल में रहकर भी जिन इन्द्र के स्वर्गभोग को अपने स्वप्रराज्य की कल्पना के रूप में सोचते थे, आज वे ही इन्द्र विनीत भाव से उनके सिंहासन के नीचे खड़े थे। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये। इस निस्तब्धता को भंग करते हुए इन्द्र बोले - ‘‘दैत्यराज, ईष्र्या के कारण हम काफी समय से शत्रुता करते अये हैं, तथापि दैत्य और आदित्य (देवता) - हम एक ही पिता की सन्तान है। स्वर्ग के सिंहासन पर आपका और मेरा समान अधिकार है। देव-दैत्यों के आप भी भाई हैं और मैं भी भाई हूँ। भाई-भाई के बीच आपसी कलह, सिंहासन को लेकर छीना-झपटी- यह सब बड़े ही लज्जा की बात है। घर में झगड़ा हो तो बाहरी शत्रु का बल बढ़ता है। यदि मिलकर रहें, तो हम कश्यप-सन्तानों के लिए पितृगौरव की रक्षा करना कठिन नहीं होगा। मैं अब सिंहासन के लिए लालायित नहीं हूँ। दैत्यों और देवताओं के कल्याण हेतु इस घृणित भ्रातृकलह के निवारणार्थ मैं आपके पास सन्धि की प्रार्थना लेकर उपस्थित हुआ हूँ।’’
गँवार और मूर्ख लोग मीठी बातों से सहज ही वश में आ जाते हैं। विशेषकर यदि कोई उनकी शरण ले, तो वे सचमुच ही पिघल जाते है। इन्द्र की इस मधुर प्रेमपूर्ण भाषा को सुनकर असुरगण बिल्कुल ही गद्गद हो गये। दैत्यपति ने इन्द्र को अपने सिंहासन के बगल में बैठकार उनके प्रति सम्मान दिखाया। 
इन्द्र ने कहा, ‘‘मैं वैकुण्ठ में नारायण के पास गया था। उन्होंने सलाह दी कि हम भाई-भाई आपसी विवाद त्याग दें और एक साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करें। मन्थन से अमृत का उद्भव होगा और अमृत का गुण तो सर्वविदित ही है। ’’
दैत्यराज यह अद्भुत प्रस्ताव सुनकर आनन्द से उन्मत्त हो उठे। सभा में उपस्थित दैत्यगण अमृत का नाम सुनते ही हो-हल्ला करने लगे। असुर नेताओं ने बड़ी कठिनाई से उन्हें शान्त किया। सभी लोग सन्धि की बात पर सहमत हुए। इन्द्र को ही समुद्र-मन्थन का नेतृत्व सौंप दिया गया। इन्द्र सभी चीजों की व्यवस्था करने चले गये। 
देवराज इन्द्र ने काफी ढँूढ़-तलाश करके समस्त देवताओं को एकत्र किया। श्री विष्णु की सलाह पर उन्होंने जो कुछ भी किया था, सभा में उन्होंने देवताओं के समक्ष वह सब कह सुनाया और समुद्र-मन्थन के बारे में उनके सुझाव माँगे। देवतागण मन्थन के लिए दण्ड तथा रस्सी की खोज में निकल पड़े। जगत् के समस्त पर्वतों से मन्थन-दण्ड होने का अनुरोध किया गया, परन्तु किसी ने भी इस गुरू कार्य में भाग लेने का साहस नहीं दिखाया। आखिरकार पाषाणकाय मन्दरगिरि ने इस कार्य के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान की। सर्प तथा नागों में वासुकी भी अमृत के लोभ में जीवन को दाँव पर लगाकर मन्थन-रज्जु बनने को राजी हुए। 
एक शुभ दिन देवों तथा असुरो की सेना ने महा-उत्साह के साथ मन्दरगिरि को उखाड़ा और उसे क्षीरसागर की ओर ले चले। परन्तु हाय! कुछ दूर हाते ही वे लोग इतने थक गये कि सबके मन में सन्देह उठा कि क्या इस पर्वत को सागर तक ले जाना सम्भव हो सकेगा ? लज्जा से देवेन्द्र का मुख बिल्कुल ही उतर गया। देवतागण कातर होकर श्रीहरि का स्मरण करने लगे। सहसा आकाश में एक विशाल मेघखण्ड के समान गरूड़ का आविर्भाव हुआ। उनके ऊपर रवि-रश्मियों से उज्जवल अपने आलोक से जगत् को उद्भासित करते हुए जगन्नाथ श्रीहरि विराजमान थे। देवगण हर्षपूर्वक उनकी जय-जयकार करने लगे। 
इस जयध्वनि से असुरों का हृदय सदा-सर्वदा कम्पित होता रहा है। आज इस असह्य उज्जवल ज्योति से उनके नेत्र अन्धे हो रहे थे और ऊपर से जयध्वनि सुनकर वे बड़े भयभीत होकर पलायन करने लगे। देवताओं ने बड़ी कठिनाई से उन्हें समझा-बुझाकर लौटाया। असुरों को भयभीत देखकर नारायण ने अपना तेज संवरण किया और प्रसन्न-मुख से सबको आश्वस्त करने लगे। उन लोगों को पर्वत वहन करने में असमर्थ देखकर नारायण ने एक साधारण-से मिट्टी के ढेले के समान उसे अपने हाथ से उठाकर गरूड़ की पीठ पर रख दिया। गरूड़ उसे ले जाकर समुद्र के बीच में रख आये। श्रीहरि के चिरभक्त देवगण तथा स्वार्थ के भक्त असुरगण उनके मधुर स्वभाव तथा मनोहर रूप को देख आनन्दित हुए। कोई विपत्ति पड़ने पर अपना स्मरण करने को कहकर वे अन्तर्धान हो गये। अमृतपान के लोभ में वासुकी नाग ने रस्सी के समान मन्दरगिरि को लपेट लिया और एक तरफ पूँछ तथा दूसरी ओर सिर बढ़ा दिया। अब इस बात को लेकर विवाद आरम्भ हुआ कि किस दल के लोग पूँछ पकड़कर खींचेंगे और किस दल के लोग सिर पकड़कर। देवताओं ने कहा, ‘‘हम ज्येष्ठ हैं, अतः हम साँप को सिर की ओर से पकड़ेंगे।’’ परन्तु दैत्यगण विजयी हुए थे, अतः वे लोग पूँछ पकड़ने को तैयार न थे। इस पर बुद्धिमान इन्द्र असुरों का दावा मानकर वासुकी की पँूछ पकड़ने चले गये। विवाद का सहज ही निपटारा हो गया। अहंकार के फलस्वरूप असुरों का पतन आरम्भ हो गया है- यह जानकार इन्द्र मन-ही-मन प्रमुदित हुए। ‘हरि हरि’ की महाध्वनि के साथ अतीव उत्साहपूर्वक मन्थन आरम्भ हुआ। 
थोड़ी-सी खींचा-तानी करते ही वासुकी गहरी साँस छोड़ने लगे और उनके विषाक्त निःश्वास से असुरगण दग्ध होने लगे। उन्होंने अहंकार के वशीभूत होकर स्वयं ही वासुकी का सिर पकड़ा था, अतः उनके लिए देवताओं के प्रति शिकायत व्यक्त करने का कोई मौका न था। फलतः उनका आपस में ही कलह आरम्भ हुआ। परन्तु देवताओं के सामने इसके प्रकट हो जाने पर वह लज्जा की बात होती, अतः उन्हें चुपचाप यह कष्ट सहन करना पड़ा। 
इधर एक और विपत्ति आ खड़ी हुई। मन्दराचल घूमते-घूमते सागरतल के कीचड़ में धँसने लगा। देवताओं के इंजीनियर विश्वकर्मा ने बहुत बुद्धि लगायी, परन्तु सागर के गहरे कीचड़ में इस गुरूभार पर्वत को ऊपर उठाये रखना सम्भव नहीं हो सका। लगता था कि सारा उपक्रम मिट्टी में मिल जायेगा। असहाय होकर देव-असुर पूरे मन-प्राण से श्रीहरि को पुकारने लगे। भक्तवत्सल भगवान फिर प्रकट हुए। भक्तों पर आया संकट देखकर बहुरूपी नारायण स्वयं ही मन्थन-कार्य की व्यवस्था करने लगे और बहु योजन आकर के एक विशाल कूर्म के रूप में सागरतल में प्रविष्टि होकर मन्दराचल को उन्होंने अपनी पीठ पर धारण कर लिया। देव-असुरगण उनके उसी अत्यद्भुत भक्तवत्सल रूप का चिन्तन करते हुए दुगने उत्साह के साथ पुनः मन्थन-कार्य में जुट गये। देवताओं तथा असुरों की मिश्रित शक्ति से वह विशाल पर्वत कूर्मावतार की पीठ पर तीव्र वेग के साथ घूमने लगा। जल-आलोड़न की प्रचण्ड ध्वनि से ब्रह्माण्ड के समस्त जीव स्तम्भित रह गये, आकाश में दु्रत वेग से चल रहे ग्रह थर-थर काँपने लगे और देवों-असुरों के कान मानों फटने लगे। सहसा एक तीव्र गन्ध उठा, जिससे देवासुरों का सिर चकराने लगा। देखते-ही-देखते समुद्र के जल पर एक अत्यन्त काला पदार्थ उतराने लगा और उसकी काली आभा से सम्पूर्ण जगत् स्याह हो गया। इस तीव्र गन्ध से प्रायः सभी लोग मूर्छित हो गये। श्रीहरि ने देवराज से कहा, ‘‘इन्द्र, तुम तुरन्त कैलास जाओ। कैलासपति महायोगी शिव के अतिरिक्त अन्य किसी में इस कालकूट विष को पीने की क्षमता नहीं है।’’ इन्द्र ने तत्काल ही प्रस्थान किया। 
कैलासपति बिल्ववृक्ष के नीचे योगासन में बैठे समाधिमग्र थे। महामाया उनकी सेवा की व्यवस्था में लगी हुई थी। इन्द्र ने जगदम्बा के चरणों में प्रणाम किया और उन्हें सारी बातें कह सुनाई। करूणामयी गौरी ने महादेव के कानों में ओंकार-ध्वनि करके उनकी समाधि को भंग किया। देवताओं के संकट की बात सुनकर आशुतोष शिव ने हल्की-सी मुस्कान के साथ इन्द्र को आश्वस्त किया और बैल पर सवार होकर क्षीरसागर की ओर चल पड़े। कालकूट विष समुद्र के जल में मक्खन की भाँति तैर रहा था। शंकरजी वहाँ पहुँचे और प्रसन्नवदन उसे पी लिया। जगत् शीतल हुआ। देवताओं को होश आने लगा। भोलानाथ श्रीहरि का दर्शन करके आनन्दविभोर हो उठे और हर्षातिरेक में डमरू बजाते हुए ‘बम बम’ की ध्वनि के साथ नृत्य करने लगे। तीव्र कालकूट विष का पान करने से उनका कोई अनिष्ट नहीं हुआ। बस, विष के ताप से उनका कण्ठ सदा के लिए नीला हो गया। तभी से उनका नाम ‘नीलकण्ठ’ भी पड़ा। शिवजी ने देव-असुरों को आशीर्वाद देकर बैल की सवारी करते हुए अपने कैलासधाम की यात्रा की। मन्थन का कार्य फिर आरम्भ हुआ। श्रीहरि सबको खूब उत्साहित करने लगे। सहसा जलराशि का भेदन करते हुए सुरभि नाम की एक अद्भुत गाय बाहर निकल आयी। उस गाय में ऐसी आश्चर्यजनक क्षमता थी कि वह बिना बछड़े के ही दूध देती थी। और वह थोड़ा-बहुत दूध नहीं देती थी - उसे दूहकर चाहे जितना दूध निकाला जा सकता था। श्री विष्णु की सलाह पर उसे यज्ञकर्ता ऋषियों को दान कर दिया गया। 
सुरभि के बाद एक  ऐरावत नाम का एक विशाल तथा सुन्दर श्वेत हाथी, उच्चैःश्रवा नामक घोड़ा आदि अनेक अद्भुत वस्तुएँ सागर से निकलने लगीं। नारायण ने प्रायः वे सभी इन्द्र को दे दीं। तदुपरान्त चारों दिशाओं को आलोकित करते हुए कौस्तुभ नाम की एक विशाल मणि निकली। नारायण ने उसे अपने गले में धारण कर लिया। 
इसके बाद मन्थन के वेग से एक परम सुन्दरी युवती समुद्र के जल पर उतराने लगी। देव-असुरगण मुग्ध होकर उसकी ओर देखने लगे। देवी ने जल से बाहर आकर एक अम्लान पंकजमाला विष्णु के गले में पहनाकर उन्हें पति के रूप में वरण किया। 
असुरगण विष्णु के भय से यह सारा अन्याय देखकर भी चुप रहे। सम्भवतः उन लोगों ने सोचा, ‘‘विष्णु सर्वदा तो हम लोगों के साथ रहेंगे नहीं, अतः बाद में देवताओं से यह सब छीन लेना बड़ा ही सहज कार्य होगा। और इस समय झंझट खड़ा करने पर अमृत की प्राप्ति में बाधा पड़ सकती है। एक बार अमृत पा लिया जाय, उसके बाद देखा जाएगा।’’
वैसे असुरों का इन सब में से आधी वस्तुओं पर दावा उचित ही था। पर यह सब पा लेने पर वे और भी अत्याचारी हो उठते, जगत् का और भी अनिष्ट करते। उन लोगों का यह सब न पाना क्या अच्छा नहीं हुआ ?
दिन-पर-दिन और महीने-पर-महीना समुद्र-मन्थन चलता रहा। उस विशाल पर्वत को लेकर खींचातानी करते करते देव-असुर इतने थक गये कि अब उनके हाथ नहीं चलते थे, शरीर शिथिल हो गये और सिर चकराने लगे। विशेषकर वासुकी तो खून की उल्टी करते करते बिल्कुल ही अचेत तथा मृतप्राय हो गये। असुरगण भी वासुकी के विषाक्त श्वास तथा मन्थन से प्राप्त वस्तुओं में हिस्सा न पाने के कारण अत्यन्त निरूत्साह हो गये थे। अब वे पूरी तौर से हताश होकर देवताओं के ऊपर नाराजगी प्रकट करने लगे। कहने लगे, ‘‘देवताओं का उद्देश्य कुछ अच्छा नहीं दीख पड़ता। लगता है कि उनके मन में कोई गहरा षड्यंत्र है।’’ इसी प्रकार उनके बीच तरह-तरह की कानाफूसी होती रही। 
तभी अतीव शीतल और सुगन्धित वायु प्रवाहित होने लगी। सबका शरीर नवीन बल तथा नये उत्साह से चेतनामय हो उठा, अकारण ही आनन्द से रोमांच होने लगा। देखते-ही-देखते एक शीतल ज्योति फैल जाने से दिन का प्रकाश म्लान हो गया- मानों स्वर्ग से भी महान् तथा आनन्दमय किसी लोक का वैभव प्रकट हुआ हो। देव-असुरगण हर्ष-विभोर होकर अनजाने ही एक सुर में जयध्वनि कर उठे। वे समझ गये कि उनके सारे श्रम को सार्थक करते हुए अमृत प्रकट हो गया है। 
हाथ में एक स्वर्ण-कलश लिए एक ज्योतिर्मय पुरूष बाहर आये। उनके नेत्र-मुख की भाव-भंगिमा अपूर्व थी। तरूण आयुवाले वे अमृतकुम्भ वहन करने के सर्वथा उपयुक्त थे। उन्हें ‘धन्वन्तरि’ नाम दिया गया। 
अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र जयंत अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर देवी के रूप में यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया। 
अमृत के बँटवारे में सुर तथा असुर पंक्तियाँ बनाकर बैठ गये। देवी ने असुरों के साथ हास-परिहास आरम्भ किया। धीरे-धीरे असुर भी वाचाल हो उठे। उन लोगों ने देवी के साथ व्यंग-विनोद शुरू किया। देवी ने देवताओं के बीच अमृत का वितरण आरम्भ किया। परन्तु रूपमुग्ध अजितेेन्द्रिय असुरगण रूप के मोह में भूले रहे। देवी का हास्यरस उन्हें अमृत से भी अधिक मधुर लग रहा था और हँसी के दौर चलते रहे, आनन्द के फुहारे छूटते रहे। 
राहु नामक एक असुर बड़ा ही चतुर था। उसे भुवनमोहिनी के मनोभाव का थोड़ा आभास मिल गया था, अतः वह धीरे-से देवताओं की पंक्ति में जाकर चन्द्रमा तथा सूर्य के बीच बैठ गया। उसके हाथ में अमृत पड़ते-न-पड़ते, चन्द्रमा तथा सूर्य ने संकेत से विष्णु को उसके बारे में बताया। विष्णु ने तत्काल सुदर्शन-चक्र से राहु का सिर काट डाला। पर इसी बीच वह झटपट अमृत को मुख में डालकर थोड़ा-सा निगल चुका था। इसीलिए उसका सिर भी बच गया और धड़ भी बच गया। इस प्रकार वह असुर दो भागों में कटकर भी अमर हो गया। अमृत पी लेने के कारण वह देवताओं की एक निम्न श्रेणी- नवग्रह में शामिल हो गया। इसी कारण वह अभी भी बीच बीच में चन्द्र अथवा सूर्य को निगलने का प्रयास करता है और इसके फलस्वरूप ग्रहण लग जाता है। 
देवताओं को देते देते ही अमृत समाप्त हो गया। सहसा इस ओर ध्यान जाने पर मोहिनी देवी चैंक उठी और अपूर्व लज्जापूर्ण भंगिमा के साथ असुरों से बोली, ‘‘अजी, बातों बातों में ही मैंने तो सब समाप्त कर डाला। तुम्हीं लोगों ने तो हास्य-विनोद में लगाकर मेरे मन को भुला दिया था। अब क्या होगा ?’’ उसने ऐसी करूण तथा असहाय दृष्टि से असुरों की ओर देखा कि वे लोग अमृत की बात बिल्कुल ही भूल गये। असुरों ने सोचा- चलो, थोड़े-से अमृत के लिए क्यों इसके मन को दुःखाया जाय ? इसके सामने अमृत तो क्या, जीवन भी तुच्छ है!!
देवी ने देवताओं के समक्ष अपना प्रसन्ना, वराभयकरा मातृरूप प्रकाशित किया और आकाश में विलीन हो गयीं। अब असुरों की तन्द्रा भंग हुई। असंयम का फल हाथो-हाथ पाकर लज्जावश उनमें से कोई भी दृष्टि उठाकर दूसरे की ओर नहीं देख सका। दीर्घकाल तक इतना कष्ट उठाने का यही फल मिला। सामने ही अमृतपान से तृप्त-तेजदृप्त देवतागण थे। पाताल में निवास, पराजय, यहाँ तक कि मृत्यु भी इस अवस्था से बल्कि हजारों-गुना अच्छी थी।
देवताओं ने उच्च स्वर में मोहिनी-रूपधारी श्रीहरि की मायाशक्ति की जय-घोषणा की। इसकी ध्वनि से दैत्यों के हृदय को वज्र से भी अधिक चोट पहुँची। वंचित तथा अपमानित असुरों ने नाराजगी में देवताओं पर धावा बोल दिया, परन्तु खेद। उनके अच्छे दिन जा चुके थे। उनका सारा प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुआ। असंयमी लोगों की शक्ति तथा विजय अल्प-कालिक होती है। शीघ्र ही मृत्यु से बचे हुए मुट्ठी भर असुरों ने पाताल के अन्धकार में भागकर अपने प्राण बचाये। देवराज इन्द्र ने स्वर्ग के सिंहासन पर आसीन होकर विश्व में शान्ति के साम्राज्य की स्थापना की। जगत् के अधीश्वर होकर भी श्रीहरि ने अपने आश्रित भक्तों के कल्याणार्थ एक कूर्म का शरीर धारण किया था। उनकी उसी असीम करूणा का स्मरण करते हुए हम लोग अब भी भक्तवत्सल कूर्म के रूप में उनकी पूजा किया करते हंै। 
अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है। कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। 
समुद्र मंथन से ये चैदह रत्न प्राप्त हुये थे- 1. कालकूट, 2. ऐरावत, 3. कामधेनु, 4. उच्चैःश्रवा, 5. कौस्तुभमणि, 6. कल्पवृक्ष, 7. रम्भाअप्सरा, 8. लक्ष्मी, 9. वारुणीमदिरा, 10. चन्द्रमा, 11. पारिजात, 12. शंख, 13. धन्वन्तरि और 14. अमृत।

सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में द्वितीय अवतार - कूर्म या कच्छपावतार का अवतरण तब हुआ, जब मानव जाति का विकास हुआ और जनसंख्या बढ़ी तो लोग अपनी अपनी तरह से अपनी व्यवस्था करने लगे और दो व्यवस्थाएॅ बनी समाज या गणराज्य और राज्य। दोनों व्यवस्थाओं के समुदाय अपनी-अपनी व्यवस्था को श्रेष्ठ मानते थे और चाहते थे कि दूसरे भी उनकी व्यवस्था को स्वीकार करें। इस कारण दोनों में लड़ाइ-झगड़े युद्ध होने लगे, जिनमें लोग मरने लगे परिणामस्वरूप मानव जाति की प्रगति रूक गई। उनमें से एक पुरूष जो इस भयंकर स्थिति को समझा और अपनी सहनशीलता, धैर्य, लगन व शान्ति से दोनों पक्षो को समझाया। अर्थात् उसकी आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना अर्थात् प्रकृति द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से कार्य करना, में स्थापित हो गयी। परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के बीच अपने अपने विचारों का मंथन (समुद्र मंथन अर्थात् विचार समुद्र के भांति अनन्त है उसका मंथन) हुआ और वह पुरूष दोनों के विचारों में एकता करते हुये चैदह मुख्य महत्व के विषयों (चैदह रत्नों) पर एकता स्थापित की जो दोनों पक्षो को मान्य थी चूँकि प्रथम अवतार को मछली के गुणों से प्रेरित नाम दिया गया था इसलिए इस अवतार का नाम कालान्तर में कछुए से तुलना कर कच्छपावतार या कूर्मावतार नाम दिया गया। उस पुरूष द्वारा सत्य सिद्धान्त (कछुये का सामजस्य व समन्वय सिद्धान्त) की धारण कर प्रयोग होने के कारण कहा गया।
यहाँ ध्यान देने योग्य यह है कि अब तक का विकास जिस भूमि पर चल रहा था वही क्षेत्र पूर्वकाल का कूर्मांचल प्रदेष और अब का कुमाँयु है। यही मूल मानव जाति है जो आगे चलकर विभाजित हो जाती है। इसी कूर्मावतार और कूर्मांचल के नाम से कूर्मि जाति जानी जाती है। जो भारत का उत्तरी हिमालय क्षेत्र में स्थित कूर्मांचल से धीरे-धीरे जल के घटने से रिक्त भूमि मिलने पर दक्षिण की ओर विकास करती गयी। ”विश्वशास्त्र“ भी समुद्र रूपी विचारों के मंथन से निकला अन्तिम ”अमृत कुम्भ“ है जो देवता व दानव दोनों के लिए उपलब्ध है।


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