Sunday, March 15, 2020

धर्म एवं नैतिकता

साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्म एवं नैतिकता
अंग्रेजी में ग्रीक के Ethos शब्द से उत्पन्न Ethics और Mores से उत्पन्न Moral का अर्थ क्रमशः आचार रीति या रीति-रिवाज और परम्परा पालन है जो आचार-व्यवहार के नियमों के रूप में पालनीय होते हैं। दर्शन परिभाषा कोश के अनुसार - नैतिक आदर्श की दृष्टि से आचरण का अध्ययन करने वाला शास्त्र अथवा मुख्य रूप से मानव-स्वभाव, आदर्श और उसका अनुसरण करने के लिए बनाये गये नियमों से सम्बन्धित विचारों का तन्त्र विशेष नीति कहलाता है। नीति एवं दर्शन की वह शाखा जो कर्म में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ, कत्र्तव्य-अकत्र्तव्य, पुण्य-पाप इत्यादि भेदों का विवेचन करती है तथा इन भेदों के मूल में जो आदर्श निहित है उसका निरूपण करती है, आचार नीति अथवा नीति शास्त्र कहलाता है। अतः शब्दकोष के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि नीति यदि आचरण नियमरूप है तो नीतिशास्त्र विषयरूप है जिसमें नीति-आचरण का व विचारों का सैद्धान्तिक विवेचन होता है और नैतिकता उन नीति-आचरण का जीवन में व्यावहारिक प्रयोग है जिसमें व्यक्ति सदाचारी एवं निष्ठावान बनता है अर्थात् नैतिकता नियमों का पालन या सद्गुण युक्त जीवन है।
मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को दृष्टि में रखते हुए ही मानवोचित मूल्यो ंकी स्थापना की जाती है। ये मूल्य सभ्यता, संस्कृति, नीति, धर्म, सद्गुण, राजनीति आदि के सन्दर्भ में स्वीकार किये जाते हैं। मानव जीवन में धर्म एवं नैतिकता का विशेष महत्व होने के कारण चिंतकों ने इन दोनों के सम्बन्ध पर विविध प्रकार से चिंतन किया है।
धर्म का अर्थ धारणात्मक तत्व से है। वह कोई मत, पंथ या सम्प्रदाय आदि नहीं है, वरन् उन नियमों, वृत्तियों, आध्यात्मिक अनुभवों व कृत्यों का आचरण है जिनकों श्रेयकर माना गया है। नीति शब्द से ही नैतिकता शब्द विकसित हुआ है। नीति का शाब्दिक अर्थ किसी कार्य की सिद्धि के लिए अपनायी (प्रयुक्त) जाने वाली युक्ति या उपाय जो लोक या समाज के कल्याण के लिए उचित ठहराये हुए आचार-व्यवहार की निर्धारित व्यवस्था या नियम रूप व्यावहारिक सिद्धान्त है। इसे व्यवहार की रीति भी कहा जा सकता है।
धर्म के सैद्धान्तिक स्वरूप में नीति का और व्यावहारिक रूप में नैतिकता का समावेश अनिवार्यतः किया गया है किन्तु नीति या नैतिकता में धर्म का समावेश अनिवार्यतः हो ही यह आवश्यक नहीं है। यद्यपि जिस प्रकार से धर्म का सम्बन्ध मानव चेतना से है ठीक उसी प्रकार से नैतिकता का सम्बन्ध भी केवल मानव चेतना से या मानव जीवन से ही है। नैतिक आचरण (नैतिकता) की दृष्टि से सद्गुणों का विशेष महत्व है। अतः नैतिकता को मानव सभ्यता का आधार मानते हुए मानव जीवन दर्शन का निर्धारण किया गया है। धर्म अंतःकरण की गहन अनुभूति के आधार पर लोकसेवा और लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर अनुभवातीत, अतींद्रिय सत् से सम्बद्ध कर व्यक्ति की नैतिकता को आध्यात्मिक तत्वों से समायोजित करता है। धर्म के द्वारा होने वाली नैतिकता की अभिव्यक्ति मानव का तीनों वृत्तियों अथवा पक्षों (ज्ञान, भाव एवं कर्म) के समन्वय का परिणाम है। अतः नैतिकता विहिन धर्म का ंिचतन करना एवं धर्मविहीन नैतिकता का समर्थन करना मानव जीवन का ऐकांगी पक्ष ही होगा।
जे.एस. मैकेंजी के अनुसार - ”नैतिक जीवन का अर्थ ही है चरित्र निर्माण अर्थात निश्चित आदतों का निर्ताण है। जिनके आधार पर व्यक्ति जीवन यापन करता है अथवा आचरण करता है।“
मैथ्यू आॅर्नाल्ड के अनुसार - ”धर्म भावना (संवेग) में युक्त नैतिकता के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है।“

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - (पुस्तक - भारत का ऐतिहासिक क्रम विकास और अन्य प्रबन्ध, राम कृष्ण मिशन प्रकाशन)
1. नियम कभी घटनाचक्र से, सिद्धान्त कभी व्यक्ति से भिन्न नहीं होता। अपनी सीमा के भीतर, पृथक पदार्थ की, क्रिया अथवा निष्क्रिय सम स्थिति की विधि ही नियम कही जाती है। (पृ0-68)
2. नियम पदार्थों की यथास्थिति में है- इस विधि से कि पदार्थ एक दूसरे के प्रति कैसे क्रियमान होते हैं; न कि कैसे उन्हें होना चाहिए। (पृ0-68)
3. आध्यात्मिक नियम, नैतिक नियम, सामाजिक नियम, राष्ट्रीय नियम-तभी नियम है जब वे प्रस्तुत आत्मिक और मानव इकाईयों के अंग हो और इन नियमों से शासित मानी जाने वाली प्रत्येक इकाई को कर्म की अनिवार्य अनुभूति हो। (पृ0-68)
4. हमारा निर्माण नियम द्वारा और हमारे द्वारा नियम का निर्माण-यह चक्र चलता है। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में मनुष्य अनिवार्यतः क्या करता है, इस सम्बन्ध में सामान्य निष्कर्ष- एक उन परिस्थितियों के सम्बन्ध में मनुष्य पर लागू होने वाला नियम है। अचल, सार्वभौम मानवीय व्यापार ही मनुष्य का नियम है, जिससे कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकता- किन्तु यह भी सत्य है कि अलग-अलग व्यक्तियों के कार्यों का योग ही सार्वभौम नियम है। पूर्ण योग या सार्वभौम अथवा असीम ही व्यक्ति का निर्माण कर रहा है और व्यक्ति अपने क्रिया से उस विधान को सजीव बनाये हुए है। इस अर्थ में नियम सार्वभौम का ही दूसरा नाम है। सार्वभौम व्यक्ति पर निर्भर है, व्यक्ति सार्वभौम पर निर्भर है। यह अनन्त शान्त अंशों से निर्मित है। (पृ0-69)
5. आध्यात्मिक और नैतिक नियम प्रत्येक मनुष्य की क्रिया पद्धति नहीं है। शीलाचार, नैतिकता, और राष्ट्रीय नियमों के पालन की अपेक्षा इनका उल्लंघन ही अधिक किया जाता है। यदि ये सब नियम होते तो भंग कैसे किये जा सकते। (पृ0-70)
6. प्रकृति के नियमों के विपरीत जाने की सामथ्र्य किसी भी व्यक्ति में नहीं है। तो फिर ऐसा क्यों है कि हम सर्वदा मनुष्य द्वारा नैतिक और राष्ट्रीय नियमों के भंग किये जाने की शिकायत सुनते हैं? (पृ0-70)
7. राष्ट्रीय नियम, अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में, राष्ट्र के बहुमत की इच्छा के मूर्त रूप है- सर्वदा एक अन्य स्थिति, न कि यथार्थ स्थिति। इस प्रकार प्राकृतिक नियमों के सम्बन्ध में प्रयुक्त ‘नियम’ शब्द का अर्थ सामान्यतः नीतिशास्त्र और मानव क्रियाओं की भूमिका में बहुत बदल जाता है। (पृ0-70)
8. संसार के नैतिक नियमों का विश्लेषण करने पर और यथार्थ स्थिति से उनकी तुलना करने पर दो नियम सर्वोपरि ठहरते हैं। एक है अपने से प्रत्येक वस्तु के विकर्षण का नियम-हर व्यक्ति से अपने को पृथक करना जिसका परिणाम होता है, अन्ततः दूसरों की सुख-सुविधा की बलि देकर भी अपने अभ्युदय की सिद्धि। दूसरा है आत्म-बलिदान का विधान- अपनी चिन्ता से सर्वथा मुक्ति7सर्वदा केवल दूसरों का ध्यान करना। संसार में महान और सत्पुरुष वे हैं जिनमें यह दूसरी क्षमता प्रबल होती है। फिर भी ये दोनों शक्तियाँ साथ साथ संयुक्त रूप से काम कर रही है; प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में वह मिली हुई पायी जाती है, एक या दूसरी प्रमुख होती है। चोर, चोरी करता है; पर शायद, किसी दूसरे के लिए जिसे वह प्यार करता है। (पृ0-70)
9. मुक्ति ही विश्व की प्रेरक है और मुक्ति ही इसका लक्ष्य है। प्रकृति के नियम में ऐसी पद्धतियाँ हैं जिनके द्वारा हम जगदम्बा के निर्देशन में, उस मुक्ति तक पहुँचने का संघर्ष करते हैं। मुक्ति के लिए इस विश्वव्यापी संघर्ष की सर्वोच्च अभिव्यक्ति मनुष्य में मुक्त होने की सजग अभिलाषा के रूप में होती है। यह मुक्ति तीन प्रकार से प्राप्त होती है- कर्म, उपासना और ज्ञान से। कर्म-दूसरों की सहायता करने और दूसरों को प्रेम करने का सतत अविरत प्रयत्न। उपासना-प्रार्थना-वन्दना, गुणगान और ध्यान। ज्ञान-जो ध्यान से उत्पन्न होता है। (पृ0-73)


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