Sunday, March 15, 2020

5. पाचवां अवतार: वामन अवतार

पहला युग / पाँचवाँ युग: सत्ययुग/स्वर्ण युग
अ. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार

5. पाचवां अवतार:  वामन अवतार
व्यक्तिगत प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार

ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-भाद्रपद शुक्ल पक्ष-द्वादशी
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार 
                             
वामन अवतार (पूर्व कथा)
हिरण्यकश्यपु के वध के उपरान्त बालक प्रह्लाद दैत्यों के राजा हुए। अपने पुत्र विरोचन के बड़े हो जाने पर उसी को राज्यभार सौंपकर उन्होंने साधन-भजन में ही पूरा मनोनियोग किया। विरोचन बड़े वीर और दाता थे। दाता के रूप में उनमें बड़ा दम्भ था। इसीलिए देवताओं ने ब्राह्मण-वेष में आकर उनसे आयु की भिक्षा माँगी। विरोचन ने आयुदान करके देहत्याग किया। तब उनके पुत्र बलि राजा हुए। 
बलि ने राजा हेकर धर्म-कर्म की ओर खूब ध्यान दिया। परन्तु वंशदोष के कारण उनका देवताओं से विरोध था। ईष्र्या करने से ईष्र्या बढ़ती गई। फिर उनका देवताओं के साथ युद्ध हुआ और बलि पराजित तथा अत्यन्त घायल हो गये। 
भृगुवंश के ब्राह्मण बलि के पुरोहित थे। वे लोग बड़े तपस्वी थे। उन लोगों ने अपनी तपस्या के प्रभाव से बलि को स्वस्थ कर दिया और उनसे विश्वजित् यज्ञ का अनुष्ठान कराया। इस यज्ञ के फलस्वरूप उनमें जगत् जय करने की शक्ति उत्पन्न हुई। देवताओं के साथ उनका विवाद क्रमशः बढ़ता गया। 
बलि ने पुनः स्वर्ग पर आक्रमण किया। देवगुरू बृहस्पति ने देवताओं से कहा, ‘‘भृगुवंशी ब्राह्मणों की सहायता से बलि ने महाशक्ति का संचय किया है। अब उसे हराना असम्भव है। अतः इस समय तुम लोग युद्ध से विरत हो, स्वर्ग छोड़कर चले जाओ। मत्र्यलोक में गोपनीयतापूर्वक रहते हुए आत्मरक्षा करो। कालक्रम से असुरों की शक्ति नष्ट हो जाने पर तुम लोग पुनः आकर स्वर्ग पर अधिकार कर लेना।’’
देवतागण स्वर्ग छोड़कर चले गए। बलि स्वर्ग के राजा हुए। भृगुवंशी पुरोहित की सलाह पर वे सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान पूराकर इन्द्र के समान हो उठे। बलि अपने वंशगौरव, स्वयं के गौरव तथा धर्मरक्षा के लिए दोनों हाथों से निर्धनों तथा ब्राह्माणों को दान करने लगे। दान करते-करते उनकी दान करने की इच्छा इतनी बढ़ गई कि वे ‘कल्पतरू’ हो गए, अर्थात उन्होंने अपने पूरे राज्य में यह घोषणा करा दी कि उनसे कोई भी जो कुछ माँगेगा, वह उसे प्राप्त होगा। तीनों लोकों से निर्धनों का कष्ट चला गया। चारों दिशाओं में ‘बलि की जय’ ध्वनि उठने लगी। असुरों का गौरव चरम सीमा तक जा पहुँचा। 
सब दोषों में बड़ा है अहंकार। अहंकारी का इस दुनिया में कोई मित्र नहीं होता। बलि धार्मिक और दाता होने के अहंकार में फूल उठे थे। उनकी बात पर कुछ कहने वाला कोई भी न था। अहंकार से क्रमशः उनका मन मतवाला हो उठा। बलि जो जी में आए, करते हुए क्रमशः धर्मपथ से विचलित होने लगे। असुरगण भी बलि के गौरव से उन्मत्त होकर लोगों के ऊपर अत्याचार करते फिरने लगे। अपनी जाति के लोगों का मान बचाए रखने तथा उनके बीच अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए बलि ने यह सब देखकर भी मानो नहीं देखा, सुनकर भी मानों नहीं सुना। 
धर्म हृदय की चीज है। जो जितना अधिक धार्मिक होता है, उसके धर्म का दिखावा उतना ही कम होता है। धर्म की तड़क-भड़क रहने से लोगों के बीच सम्मान मिलता है। इसीलिए संसार में देखा जाता है कि गलत उपायों से धन अर्जित करके दान करने पर लोगों को बड़ा धार्मिक माना जाता है। इसीलिए मान की इच्छा करने वाले अनुचित ढंग से धन एकत्र कर खूब दान तथा धूमधाम के साथ पूजा-अर्चना करते है। हिन्दू शास्त्र ऐसा करने वालों को असुर की संज्ञा देते हैं। स्वास्थ्य अच्छा रहे, आयु बढ़े, धन-दौलत में वृद्धि हो, खूब भोग हो, स्वर्ग में निवास हो आदि कामनाओं के साथ जो धर्म किया जाता है, उस धर्म के साथ भगवान का कोई सम्पर्क नहीं। ऐसे लोग भी धर्म करते हैं, परन्तु आवश्यकता पड़ी तो वे चाहे जैसे भी अनुचित उपायों के सहारे अपने गौरव की रक्षा करते हैं। भोग ही उनका उद्देश्य है, इसीलिए जहाँ धर्म के साथ भोग का विरोध होता है वहाँ पर वे अनायास ही धर्म का परित्याग कर देते है। केवल सम्मान, गौरव, शक्ति और भोग ही उनका लक्ष्य होता है। बलि और विशेषकर अन्य असुरगण इसी भाव के थे। तथापि बलि के शरीर में प्रह्लाद का रक्त था, अतः उनका धर्म से ही लगाव था। परन्तु अन्य असुरगण भोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते थे। 
कश्यप की पत्नी अदिति देवताओं की माता थीं। देवगण असुरों के भय से स्वर्ग छोड़कर छद्मावेश धारण किये बड़े कष्ट में दिन बिता रहे थे। इस कारण अदिति के मन में बड़ी पीड़ा थी। कश्यप तो दिन-रात तपस्या में मग्न रहते थे, अतः पुत्रों के मंगल-अमंगल की ओर उनका ध्यान न था। अतएव अदिति खिन्न मन के साथ भगवान से निरन्तर अपने पुत्रों के मंगल हेतु प्रार्थना करती रहती थी। अदिति की आकुलता देखकर कश्यप ने उन्हें तरह तरह के व्रतों का उपदेश दिया। अदिति की तपस्या से नारायण सन्तुष्ट हुए और उनसे वर माँगने को कहा। 
अदिति बोलीं, ‘‘प्रभो, अपने पुत्रों का दुःख अब मुझसे सहा नहीं जाता। उनके शत्रुओं का विनाश करके आप मुझे कृतार्थ करें।’’
नारायण ने कहा, ‘‘उनके कर्मो का क्षय हुए बिना उनका विनाश असम्भव है। प्रतीक्षा करो। युगधर्म की स्थापना के लिए मैं तुम्हारे गर्भ से जन्म लूँगा और असुरों को स्वर्ग से भगा दूँगा। तुम अतीव पवित्र भाव से जीवन बिताओं। और यह बात किसी के सामने व्यक्त न करना।’’
अदिति दिन-रात भगवान की आराधना में लगी रहीं। कुछ काल बाद उनकी कोख से एक ब्रह्मतेजोमय अपूर्व शिशु का जन्म हुआ। पाँच वर्ष का हो जाने पर बालक को बुद्धिमान तथा श्रुतिधर देखकर कश्यप ने उन्हें गायत्री मन्त्र की दीक्षा प्रदान की। थोड़े ही दिनांक में बालक समस्त विद्याओं में पारंगत हो गए। उनकी उमर बढ़ने पर भी शरीर पाँच वर्ष के बालक के समान ही रह गया। इसीलिए वे ‘वामन’ नाम से परिचित हुए। 
नर्मदा नदी के तट पर भृगुकच्छ नाम का एक रमणीय स्थान था। बलि ने वहाँ जाकर एक अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। दैत्यों के कूटबुद्धि गुरू शुक्राचार्य यज्ञ के प्रधान परिचालक थे। जगत् के समस्त वेदज्ञ ब्राह्मण सभा में उपस्थित थे। विभिन्न दिशाओं से कितने ही ब्राह्मण और निर्धन लोग बलि के यज्ञ में आकर स्वेच्छानुसार दान ग्रहण कर उन्हें आशीर्वाद देते हुए लौटने लगे। अन्नदान, वस्त्रदान, भूमिदान, गोदान, स्वर्गदान - हर प्रकार का दान चल रहा था। जगत में दरिद्रî दुःख को दूर करने का संकल्प लेकर बलि ने ‘कल्पतरू’ का रूप लिया था। बलि की जय-जयकार से दसों दिशाएँ गूँज रही थीं। 
एक दिन वामनदेव भी सिर के ऊपर छोटा-सा छाता लगाए हुए बलि की सभा में जा पहुँचे। उन ब्रह्मतेजोमय बालमूर्ति की अपूर्व मुखश्री ने बरबस ही सभा में उपस्थित सभी का ध्यान आकृष्ट कर लिया। धूप से उनका मुख लाल हो गया था। उनके मासूम मुखमण्डल पर थकान के चिन्ह देखकर सबके मन में स्नेहभाव का उदय हुआ। बलि ने अपने हाथ से आसन देकर उन्हें बैठाया; कितने दूर से आ रहे हैं, किसके पुत्र है आदि पूछते हुए उनके पाँव धुलाए, सिर पर अघ्र्य और खाने को मधुपर्क दिया। प्राचीन काल में किसी माननीय अतिथि के आने पर उनका इसी प्रकार स्वागत करने की प्रथा थी। 
भिक्षार्थीगण जैसे दाता के यश का कीर्तन करते हैं, अधिक पाने की आशा से दाता को उत्तेजित करते हैं, वामनदेव भी वैसे ही बलि तथा उनके पुरखों की कीर्ति की विषय में अपने मधुर कण्ठ से व्याख्यान करने लगे। हिरण्यकशिपु की वीरता, प्रह्लाद की भक्ति, विरोचन की दानशीलता और बलि के यज्ञ, दान, विनय, सौजन्यता आदि का वे ऐसा अद्भुत वर्णन करने लगे कि सभा में उपस्थित सभी लोग मुग्ध हो गये। सबने सोचा, छोकरा आज कोई राज्य आदि लेकर ही मानेगा।’’
बलि अत्यन्त विनीत भाव से बोले, ‘‘प्रभो, यदि आप इस दास से कोई दान ग्रहण करें, तो मैं कृतार्थ हो जाऊँ।’’ वामनदेव ने कहा, ‘‘हाँ, मैं एक छोटी-सी प्रार्थना लेकर ही आया हूँ; क्योंकि आप ही दाताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं तीन पाँव के माप की भूमि चाहता हूँ।’’ 
वामनदेव की प्रार्थना सुनकर सभा में उपस्थित कोई भी अपनी हँसी नहीं रोक सका। बलि ने कहा, ‘‘प्रभो, आप बालक है, अपना स्वार्थ जरा भी नहीं समझते। लगता है आपने कभी किसी से कोई याचना नहीं की है, केवल कुतूहलवश ही मेरे पास आ पहुँचे हैं। मैं तीनों लोकों का स्वामी हूँ। आप मुझसे ऐसा कुछ माँगिए, जिससे फिर कभी माँगना न पड़े।’’
वामन बोले, ‘‘यदि मन में तृप्ति न रहे, तो समुद्र सहित पृथ्वी का मालिक होकर भी अभाव दूर नहीं होते। इन्द्रियाँ मेरे वश में होने के कारण त्रिपाद भूमि मिल जाने से ही मैं सन्तुष्ट हो जाऊँगा। मैं इससे अधिक कुछ और नहीं चाहता।’’
तब बलि तीन पाँव भूमि दान करने के लिए हाथ में जल लेने को उन्मुख हुए। शुक्राचार्य अब तक चुपचाप सारी बातें सुन रहे थे। वे भली भाॅति समझ गए थे कि ये ब्राह्मण बालक कोई छद्मवेशी देवता ही हैं। इसीलिए उन्होंने बलि को दान करने से मना किया। परन्तु अभिमानी तथा तेजस्वी राजा बलि एक बार ‘दूँगा’ कहने के बाद भय के कारण फिर ‘नहीं दूँगा’ कहने को किसी भी हालत में राजी नहीं हुए। शुक्राचार्य ने उन्हें बहुत समझाया। बलि ने कहा, ‘‘मैं प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र हूँ। मेरे पितामह ने जिस सत्य के लिए अपने बाल्यकाल में इतने कष्ट सहे थे, पिता ने जिस सत्य के लिए देह त्याग किया था, मैं किसी भी कीमत पर उस सत्य को भंग नहीं कर सकता। ये छद्मवेशी देवता हों, तो भी मेरा क्या नुकसान होगा ? सत्य का पालन करने के फलस्वरूप मेरी तो सद्गति ही होगी। जीवन के भय से सत्य को भंग करके मै। नरकगामी नहीं होना चाहता।’’ यह कहते हुए उन्होंने कमण्डलु को हाथ में उठा लिया। शुक्राचार्य युक्ति-तर्क के द्वारा उन्हें रोकने में असमर्थ होकर योगबल से कमण्डलु में घुस गए और भीतर से उसका मुख बन्द कर दिया। हाथ में जल लेकर ही दान का संकल्प किया जाता है। बलि ने कमण्डलु का मुख बन्द देखा तो वे कुश के द्वारा खोदकर जल का मार्ग खोल देने का प्रयास करने लगे। कुश के चोट से शुक्राचार्य की एक आँख फूट गई। उन्होंने कमण्डलु के भीतर से ही बलि को शाप दिया, ‘‘तू श्री से भ्रष्ट हो जाय।’’
बलि ने वेदमंत्रों का उच्चारण कर वामनदेव को तीन पाँव भूमि का दान किया। सहसा वामनदेव का डीलडौल बदल गया। उन्होंनेएक पाँव के द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी को आवृत्त कर लिया और दूसरे पाँव से आकाश को ढँक लिया। अब तीसरा पाँव रखने को स्थान ही न बचा। दोनों पाँवों के बीच से तीसरा पाँव बाहर निकालकर वे बलि से बारम्बार पूछने लगे कि उसे कहाँ रखें। सभा में उपस्थित सभी लोग आतंक से सिहर उठे। बलि किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए और वामन उत्तेजित होकर कहने लगे, ‘‘राजन्, तुम्हीं ने तो कहा था कि तुम मेरे सारे अभावों को दूर करने में समर्थ हो। मुझको तुमने अबोध शिशु कहा था; क्यों, अब तुम अपने वचन का पालन क्यों नहीं करते? अब सत्य को भंग करने के परिणामस्वरूप तुम नरक में जाने को तैयार हो जाओ। यह कहकर देवदूतों का आह्वान करते ही उन लोगों ने आकर बलि को बाँध लिया। दैत्यों ने अपने राजा की ऐसी दुर्दशा देखकर मायावी वामनदेव के ऊपर आक्रमण कर दिया। परन्तु बलि ने उन लोगों को रोक दिया। पूरे राज्य में हाहाकार मच गया। 
प्रह्लाद निर्जन स्थान में रहकर दिन-रात श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न रहते थे। संकट में पड़े हुए बलि उन्हीं का स्मरण करने लगे। उनके इष्टदेव का आविर्भाव होने के कारण उनकी समाधि टूटी। वे राजसभा में जा पहुँचे। नारायण की यह अद्भुत मूर्ति देखकर वे प्रेम में विह्दाल होकर उनकी स्तुति करने लगे। वामनदेव ने तीव्र स्वर में प्रह्लाद से बलि के सत्यभंग की बात कही। प्रह्लाद बोले, ‘‘प्रभो, दाता के रूप में बलि को बड़ा अहंकार था। परन्तु इसके फलस्वरूप उसे योगियों के लिए भी दुर्लभ आपके श्रीचरणों का दर्शन हुआ। आपकी करूणा किसी हेतु के अधीन नहीं है। आप यज्ञफल के दाता हैं, दर्शन देकर आपने यज्ञ को पूरा किया। अब अपना तीसरा चरण बलि के मस्तक पर रखकर, आप सत्यभंग के पाप से इसकी रक्षा करें।’’
अब बलि का सारा अहंकार चूर्ण हो चुका था। श्रीहरि की कृपा से उनकी दिव्यदृष्टि खुल गई थी। उन्होंने पूरे हृदय से वामनदेव के चरणों में आत्मसमर्पण किया। भक्तवत्सल प्रभु ने अपना तीसरा चरण बलि के मस्तक पर रखकर उनके वचन की रक्षा की और प्रसन्न होकर बोले, ’’बलि, तुम असुरों के चिर-निकेतन-पाताल चले जाओ। आज से तुम अमर रहोगे और मैं हाथ में गदा लिए तुम्हारे द्वारा दिये गये दान की रक्षा करूँगा।’’ आत्मसर्मपण के फलस्वरूप बलि भगवान की अनन्त कृपा पाकर कृतार्थ हुए। देवतागण पुनः स्वर्ग पर अपना अधिकार पाकर सुखी हुए। 
बलि का गर्वहरण कर वामन ने युगधर्म का प्रचार किया। असुरों का प्रभाव दूर हुआ और धर्मप्राण लोगों को शान्ति की उपलब्धि हुई। 

सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में पाचवें अवतार - वामन अवतार में एक विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गयी हुआ यह कि एक प्रतापी, धर्मपरायण, प्रजावत्सल, सेवाभावी, दानवीर, सौम्य, सरल यानी सर्वगुण सम्पन्न राजा हुआ-बलि। लोग इसके गुण गाने लगे और समाजवादी राज्यवादी होने लगे। राजा बलि का राज्य बहुत अधिक फैल गया। समाजवादियों के समक्ष यानी मानवजाति के समक्ष एक गम्भीर संकट पैदा हो गया कि अगर राज्य की अवधारणा दृढ़ हो गयी तो मनुष्य जाति को सदैव दुःख, दैन्य व दारिद्रय में रहना होगा क्योंकि अपवाद को छोड़कर राजा स्वार्थी होगें, परमुखपेक्षी व पराश्रित होगे। अर्थात अकर्मण्य व यथास्थिति वादी होगे। यह भयंकर स्थिति होगी परन्तु समाजवादी असहाय थे। राजा बलि को मारना संभव न था और उसके रहते समाजवादी विचारधारा का बढ़ना सम्भव न था। ऐसी स्थिति में एक पुरूष की आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी। वह राजा बलि से थोड़ी सी भूमि समाज या गणराज्य के लिए माॅगा। चूँकि राजा सक्षम और निश्ंिचत था कि थोड़ी भूमि में समाज या गणराजय स्थापित करने से हमारे राज्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए उस पुरूष को राजा ने थोड़ी भूमि दे दी। जिस पर स्वतन्त्र, सुखी, स्वराज आधारित समाज-गणराज्य स्थापित किया और उसका प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और वह राजा बलि के सुराज्य को भी समाप्त कर दिया और समाज या गणराज्य की स्थापना की गयी। चूँकि यह पुरूष बौना अर्थात् छोटे कद का तथा स्वभाव और ज्ञान में ब्राह्मण गुणों से युक्त था इसलिए कालान्तर में इसे बामन अवतार का नाम दिया गया। ध्यान देने योग्य है कि प्रथम अवतार-मत्स्य ने समाज की रक्षा शुद्ध रूप से साध्य अर्थात् गणराज्य या समाज को साधन अर्थात् जनता का सहयोग प्राप्त कर की थी। दूसरा और तीसरा अवतार -कूर्म और बाराह ने साघ्य को साधन अर्थात् जनता के दोनों विचारों के समुदाय में समन्वय स्थापना कर की थी। चैथे- नृसिंह अवतार ने सीधे असुरों के राजा का वध कर ही साध्य अर्थात् गणराज्य या समाज की स्थापना की थी क्योंकि तब तक असुरों के एक राजा ही हुआ करते थे और राजा के वध के बाद नये राजा के अनुसार ही प्रजा का भी वहीं विचार होता था जो राजा का होता था। पाॅचवे- वामन अवतार ने राजा के सहयोग से ही उसके सुराज्य को समाप्त करने के लिए साधन का प्रयोग कर साध्य की प्राप्ति की। राजा बलि द्वारा इस अवतार को दी गई भूमि का क्षेत्र ही वर्तमान का उ0प्र0 के मीरजापुर जनपद का चुनार क्षेत्र है। जिस पर इस अवतार के कार्य का प्रथम चरण प्रारम्भ हुआ था जिसके कारण ही चुनार का प्रचीन नाम चरणाद्रिगढ़ था। जहाॅ आज भी मूल मानव जाति कूर्मि का बाहुल्य हैं। पाॅचवे अवतार तक अव्यक्त ऐकेश्वर वाद का ही अधिकतम प्रभाव समाज पर रहा। 


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