स्वर्णयुग धर्म (धर्म ज्ञान का अन्त)-14.विश्व/सत्य/धर्मनिरपेक्ष धर्म
-लव कुश सिंह विश्वमानव-सन् 2012 ई0-विश्व/सत्य/धर्मनिरपेक्ष धर्म
आविष्कारकर्ता-मन (मानव संसाधन) का विश्व मानक एवं पूर्ण मानव निर्माण की तकनीकी
अगला दावेदार-भारत सरकार का सर्वोच्च नागरिक सम्मान-”भारत रत्न“
अपने विशेष कला के साथ जन्म लेने वाले व्यक्तियों के जन्म माह अक्टुबर के सोमवार, 16 अक्टुबर 1967 (आश्विन, शुक्ल पक्ष-त्रयोदशी, रेवती नक्षत्र) समय 02.15 ए.एम. बजे को रिफाइनरी टाउनशिप अस्पताल (सरकारी अस्पताल), बेगूसराय (बिहार) में श्री लव कुश सिंह का जन्म हुआ और टाउनशिप के E1-53, E2-53, D2F-76, D2F-45 और साइट कालोनी के D-58, C-45 में रहें। इनकी माता का नाम श्रीमती चमेली देवी तथा पिता का नाम श्री धीरज नारायण सिंह जो इण्डियन आॅयल कार्पारेशन लि0 (आई.ओ.सी. लि.) के बरौनी रिफाइनरी में कार्यरत थे और उत्पादन अभियंता के पद से सन् 1995 में स्वैच्छिक सेवानिवृत हो चुके हंै। जो कि ग्राम-नियामतपुर कलाँ, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर (उ0प्र0) पिन-231305 के निवासी हैं। दादा का नाम स्व. राजाराम व दादी का नाम श्रीमती दौलती देवी था। जन्म के समय दादा स्वर्गवासी हो चुके थे जो कभी कश्मीर के राजघराने में कुछ समय के लिए सेवारत भी थे। मार्च सन् 1991 में इनका विवाह चुनार क्षेत्र के धनैता (मझरा) ग्राम में शिव कुमारी देवी से हुआ और जनवरी सन् 1994 में पुत्र का जन्म हुआ। मई सन् 1994 में शिव कुमारी देवी की मृत्यु होने के उपरान्त वे लगभग घर की जिम्मेदारीयों से मुक्त रह कर भारत देश में भ्रमण करते हुये चितन व विश्वशास्त्र के संकलन कार्य में लग गये। किसी भी व्यक्ति का नाम उसके अबोध अवस्था में ही रखा जाता है अर्थात् व्यक्ति का प्रथम नाम प्रकृति प्रदत्त ही होता है। लव कुश सिंह नाम उनकी दादी स्व0 श्रीमती दौलती देवी के द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ।
भारत देश के ग्रामीण क्षेत्र से एक सामान्य नागरिक के रूप में सामान्य से दिखने वाले श्री लव कुश सिंह एक अद्भुत नाम-रूप-गुण-कर्म के महासंगम हैं जिसकी पुनरावृत्ति असम्भव है। इनकी प्राइमरी शिक्षा न्यू प्राइमरी स्कूल, रिफाइनरी टाउनशिप, बेगूसराय (बिहार), माधव विद्या मन्दिर इण्टरमीडिएट कालेज, पुरूषोत्तमपुर, मीरजापुर, उ0प्र0 (दसवीं-1981, 13 वर्ष 6 माह में), प्रभु नारायण राजकीय इण्टर कालेज, रामनगर, वाराणसी, उ0प्र0 (बारहवीं-1983, 15 वर्ष 6 माह में) और बी.एससी. (जीव विज्ञान) में 17 वर्ष 6 माह के उम्र में सन् 1985 ई0 में तत्कालिन गोरखपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध श्री हरिश्चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय, वाराणसी से पूर्ण हुई। तकनीकी शिक्षा में कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग एण्ड सिस्टम एनालिसिस में स्नातकोत्तर डिप्लोमा इण्डिया एजुकेशन सेन्टर, एम-92, कनाॅट प्लेस, नई दिल्ली से सन् 1988 में पूर्ण हुई। परन्तु जिसका कोई प्रमाण पत्र नहीं है वह ज्ञान अद्भुत है। अपने तीन भाई-बहनों व एक पुत्र में वे सबसे बड़े व सबसे कम प्रमाणित शिक्षा प्राप्त हैं। एक अजीब पारिवारिक स्थिति यह है कि प्रारम्भ निरक्षर माँ से होकर अन्त ”विश्वशास्त्र“ को व्यक्त करने वाले श्री लव कुश सिंह तक एक ही परिवार में है।
सभी धर्मशास्त्रों और भविष्यवक्ताओं के अनुसार और सभी को सत्य रूप में वर्तमान करने के लिए ”विश्वशास्त्र“ को व्यक्त करने वाले श्री लव कुश सिंह समय रूप से संसार के सर्वप्रथम वर्तमान में रहने वाले व्यक्ति हैं क्यूँकि वर्तमान की परिभाषा है-पूर्ण ज्ञान से युक्त होना और कार्यशैली की परिभाषा है-भूतकाल का अनुभव, भविष्य की आवश्यकतानुसार पूर्णज्ञान और परिणाम ज्ञान से युक्त होकर वर्तमान समय में कार्य करना। स्वयं को आत्म ज्ञान होने पर प्रकृति प्रदत्त नाम के अलावा व्यक्ति अपने मन स्तर का निर्धारण कर एक नाम स्वयं रख लेता है। जिस प्रकार ”कृष्ण“ नाम है ”योगेश्वर“ मन की अवस्था है, ”गदाधर“ नाम है ”रामकृष्ण परमहंस“ मन की अवस्था है, ”सिद्धार्थ“ नाम है ”बुद्ध“ मन की अवस्था है, ”नरेन्द्र नाथ दत्त“ नाम है ”स्वामी विवेकानन्द“ मन की अवस्था है, ”रजनीश“ नाम है ”ओशो“ मन की अवस्था है। उसी प्रकार लव कुश सिंह ने अपने नाम के साथ ”विश्वमानव“ लागाकर मन की अवस्था को व्यक्त किया है और उसे सिद्ध भी किया है। व्यक्तियों के नाम, नाम है ”भोगेश्वर विश्वमानव“ उसकी चरम विकसित, सर्वोच्च और अन्तिम अवस्था है जहाँ समय की धारा में चलते-चलते मनुष्य वहाँ विवशतावश पहुँचेगा ऐसा उनका मानना है। जिस प्रकार श्रीकृष्ण के जन्म से पहले ही ईश्वरत्व उन पर झोंक दिया गया था अर्थात् जन्म लेने वाला देवकी का आठवाँ पुत्र ईश्वर ही होगा, यह श्रीकृष्ण को ज्ञात होने पर जीवनभर वे जनभावना को उस ईश्वरत्व के प्रति विश्वास बनाये रखने के लिए संघर्ष करते रहे, उसी प्रकार इस लव कुश का नाम उन्हें ज्ञात होने पर वें भी इसे सिद्ध करने के लिए जीवनभर संघर्ष करते रहे जिसका परिणाम आपके समक्ष है।
श्री लव कुश सिंह “विश्वमानव” ने कभी किसी पद पर सरकारी नौकरी नहीं की इस सम्बन्ध में उनका कहना था कि-“नौकरी करता तो यह नहीं कर पाता। पद पर रहता तो केवल पद से सम्बन्धित ही विशेषज्ञता आ पाती। वैसे भी पत्र-व्यवहार या पुस्तक का सम्बन्ध ज्ञान और विचार से होता हैं उसमें व्यक्ति के शरीर से क्या मतलब? क्या कोई लंगड़ा या अंधा होगा तो उसका ज्ञान-विचार भी लंगड़ा या अंधा होगा? क्या कोई किसी पद पर न हो तो उसकी सत्य बात गलत मानी जायेगी? विचारणीय विषय है। परन्तु इतना तो जानता हूँ कि यह आविष्कार यदि सीधे-सीधे प्रस्तुत कर दिया जाता तो सभी लोग यही कहते कि इसकी प्रमाणिकता क्या है? फिर मेरे लिए मुश्किल हो जाता क्योंकि मैं न तो बहुत ही अधिक शिक्षा ग्रहण किया था, न ही किसी विश्वविद्यालय का उच्चस्तर का शोधकत्र्ता था। परिणामस्वरूप मैंने ऐसे पद ”कल्कि अवतार“ को चुना जो समाज ने पहले से ही निर्धारित कर रखा था और पद तथा आविष्कार के लिए व्यापक आधार दिया जिसे समाज और राज्य पहले से मानता और जानता है।”
भारत अपने शारीरिक स्वतन्त्रता व संविधान के लागू होने के उपरान्त वर्तमान समय में जिस कत्र्तव्य और दायित्व का बोध कर रहा है। भारतीय संसद अर्थात् विश्वमन संसद जिस सार्वभौम सत्य या सार्वजनिक सत्य की खोज करने के लिए लोकतन्त्र के रूप में व्यक्त हुआ है। जिससे स्वस्थ लोकतंत्र, समाज स्वस्थ, उद्योेग और पूर्ण मानव की प्राप्ति हो सकती है, उस ज्ञान से युक्त विश्वात्मा श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ वैश्विक व राष्ट्रीय बौद्धिक क्षमता के सर्वाेच्च और अन्तिम प्रतीक के रूप मंे व्यक्त हंै।
निःशब्द, आश्चर्य, चमत्कार, अविश्वसनीय, प्रकाशमय इत्यादि ऐसे ही शब्द उनके और उनके शास्त्र के लिए व्यक्त हो सकते हैं। विश्व के हजारो विश्वविद्यालय जिस पूर्ण सकारात्मक एवम् एकीकरण के विश्वस्तरीय शोध को न कर पाये, वह एक ही व्यक्ति ने पूर्ण कर दिखाया हो उसे कैसे-कैसे शब्दों से व्यक्त किया जाये, यह सोच पाना और उसे व्यक्त कर पाना निःशब्द होने के सिवाय कुछ नहीं है।
इस शास्त्र के शास्त्राकार श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ अपने परिचितों से केवल सदैव इतना ही कहते रहे कि-”कुछ अच्छा किया जा रहा है“ के अलावा बहुत अधिक व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की। और अन्त में कभी भी बिना इस शास्त्र की एक भी झलक दिखाये एकाएक यह शास्त्र प्रस्तुत कर दिया जाये तो इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है। जो इस स्तर पर है कि-“विश्व बुद्धि बनाम एकल बुद्धि”। और उसका परिणाम ये है कि भारत को वर्तमान काल में विश्वगुरू और संयुक्त राष्ट्र संघ तक के लिए सार्वभौम सत्य-सैद्धान्तिक स्थापना योग्य मार्गदर्शन अभी ही उपलब्ध हो चुका है जिससे भारत जब चाहे तब उसका उपयोग कर सके।
जो व्यक्ति कभी किसी वर्तमान गुरू के शरणागत होने की आवश्यकता न समझा, जिसका कोई शरीरधारी प्रेरणा स्रोत न हो, किसी धार्मिक व राजनीतिक समूह का सदस्य न हो, इस कार्य से सम्बन्धित कभी सार्वजनिक रूप से समाज में व्यक्त न हुआ हो, जिस विषय का आविष्कार किया गया, वह उसके जीवन का शैक्षणिक विषय न रहा हो, 48 वर्ष के अपने वर्तमान अवस्था तक एक साथ कभी भी 48 लोगों से भी न मिला हो, यहाँ तक कि उसको इस रूप में 48 आदमी भी न जानते हों, यदि जानते भी हो तो पहचानते न हों और जो पहचानते हों वे इस रूप को जानते न हों, वह अचानक इस शास्त्र को प्रस्तुत कर दें तो इससे बडा चमत्कार क्या हो सकता है।
जिस व्यक्ति का जीवन, शैक्षणिक योग्यता और कर्मरूप शास्त्र तीनों का कोई सम्बन्ध न हो अर्थात् तीनों तीन व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करते हों, इससे बड़ी अविश्वसनीय स्थिति क्या हो सकती है।
मूल पाशुपत शैव दर्शन सहित अनेक मतों का सफल एकीकरण के स्वरूप श्री लव कुश सिह “विश्वमानव” के जीवन, कर्म और ज्ञान के अनेक दिशाओं से देखने पर अनेक दार्शनिक, संस्थापक, संत, ऋषि, अवतार, मनु, व्यास, व्यापारी, रचनाकर्ता, नेता, समाज निर्माता, शिक्षाविद्, दूरदर्शिता इत्यादि अनेक रूप दिखते हैं।
विश्व धर्म
धर्म का अर्थशब्द कोश के अनुसार धर्म शब्द की उत्पत्ति “धृ” धातु से हुई है और धृ का अर्थ है “धारण करना”। ऋग्वेद में “अतो धर्माणि धारयन” के रूप में धर्म के धारण करने का उल्लेख मिलता है (ऋग्वेद, 1/22/18)। महाभारत में “धारणात् धर्म मित्याहुः धर्मोधारयते प्रजाः” (महाभारत, कर्ण पर्व, 49/50) के द्वारा एवं भगवद्गीता में “धृत्यायया धारयते” (गीता, 18/33) के द्वारा धारण का अर्थभाव स्पष्ट होता है। “धारण करना” को सरल शब्दों में अपनाना भी कहा जा सकता है।
ऋग्वेद में “त्रीणि पदा विचक्रमें विष्णुगोंपा अदाभ्यः। अतो धर्माणि धारयन।। (ऋग्वेद, 1/22/18)” के द्वारा व्यापाक अर्थ में कहा गया है कि परमात्मा ने आकाश में त्रिपाद परिमित स्थान में त्रिलोक का निर्माण कर उनमें धर्मो का धारण किया है। धृव्रतो (ऋग्वेद, 1/9/44/4) अर्थात् सत्यव्रत धारण करने वाले, अधि धा (ऋग्वेद, 1/10/54/11) अर्थात् अच्छी तरह धारण कर धर्मणामिरज्यसि (ऋग्वेद, 1/10/55/3) अर्थात्ा धर्मो के योग से अतिशय, ऐश्वर्य आदि को धारण करने का निर्देश मिलता है।
अथर्ववेद में सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म, यज्ञ आदि को धर्म तत्व मानते हुए पृथ्वी को धारण (अथर्ववेद, 12/1/1) करने की बात कही गयी है। महाभारत में वह वस्तु जो सम्पूर्ण विश्व को धारण कर रही है एवं समाज (प्रजा) की एकता को मूर्तिमंत करती है (महाभारत, कर्ण पर्व, 58-59), उसे ही धर्म कहा गया है।
धर्म के तत्वज्ञान (कठ उपनिषद्, 1/22/13), विधि-निषेध (तैत्तिरीय उपनिषद्, 2/11/1), सत्य (बृह. उपनिषद्, 1/4/14), पुण्य (छान्दोग्य उपनिषद्, 2/1/14), सांसारिक जीवन में अभ्युदय एवं जीवन के परम निःश्रेयस (वैशेषिक सूत्र, 1/1/1-3), चरित्र-आचरण (मनुस्मृति, 2/108) आदि को जीवन में धारण करना माना गया है जो निश्चित ही धारण के सम्बन्ध में विभिन्नताओं को दर्शाता है। अतः धर्म के धारण के सम्बन्ध में कोई एक पूर्ण निश्चित तथा सर्वमान्य विचार कर निर्णय कर पाना लगभग दुष्कर है किन्तु इतना निश्चित है कि धर्म का अर्थ निःसन्देह धारण करना ही माना गया है।
स्वामी विवेकानन्द के विश्वधर्म के सम्बन्ध में विचार-
01. जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहे हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।-”तत्वमसि“-वही तुम हो।
02. एक ही सूर्य विविध जल बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप दिखा रहा है। लाख-लाख जलकणों में लाख-लाख सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ा है तथा प्रत्येक जल कण में ही सूर्य की सम्पूर्ण प्रतिमूर्ति विद्यमान है; किन्तु सूर्य वास्तव में एक है। इन सब जीवगण के सम्बन्ध में भी यही बात है-वे उसी एक अनन्त पुरुष के प्रतिबिम्ब मात्र है। स्वप्न कदापि सत्य के बिना रह नहीं सकता, और वह सत्य-वही एक अनन्त सत्ता है। शरीर, मन अथवा आत्मा भाव में मानने पर आप स्वप्न मात्र हैं, किन्तु आपका यथार्थ स्वरूप अखण्ड सच्चिदानन्द है।-अद्वैतवादी यही कहते है। यह सब जन्म, पुनर्जन्म, यह आना-जाना यह सब उस स्वप्न का अंशभाग है। आप अनन्त स्वरूप है। आप फिर कहाँ जायेंगे? आत्मा कभी उत्पन्न नहीं होती, कभी मरेगी भी नहीं, आत्मा के किसी काल में माता-पिता, शत्रु-मित्र कुछ भी नहीं है; क्योंकि आत्मा अखण्ड सच्चिदानंद स्वरूप है। जिस व्यक्ति ने इसका साक्षात्कार किया है उसने ही मुक्तिलाभ किया है, वह इस स्वप्न को भगं करके उसके बाहर चला गया है, उसने अपना यथार्थ स्वरूप जाना है। अद्वैतवेदान्त का यही उपदेश है।
03. सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात् वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।
04. विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यहीं सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है।
05. यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म में अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। यदि हम पूर्ण एकत्व का आविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती।
06. हमें देखना है कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को जहाॅ भी और जिस स्थिति में भी है, सहायता नहीं दे सकता, तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं-तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त हो कर रह जायेगा।
07. हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है, न कुरान है परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह शिक्षा देनी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न-भिन्न रुप हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।
08. यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा।
09. ईसाई को हिन्दू अथवा बौद्ध नहीं होना पडे़गा, और न हिन्दू या बौद्ध को ईसाई ही, परन्तु प्रत्येक धर्म दूसरे धर्मो के सारभाग को आत्मसात् करके पुष्टिलाभ करेगा और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होगा। यदि इस सर्वधर्म परिषद् ने जगत् के समक्ष कुछ प्रमाणित किया है तो वह यह कि उसने यह सिद्ध कर दिखाया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय-विशेष की सम्पत्ति नहीं है तथा प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत-चरित्र स्त्री पुरूषों को जन्म दिया है। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजुुुुद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही अपना सर्वश्रेष्ठता के कारण जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अन्तस्थल से दया करता हॅू और उसे स्पष्ट शब्दों में बतलाये देता हूॅ कि वह दिन दूर नहीं हैं, जब उस-जैसे लोगों के अड़ंगों के बावजूद भी प्रत्येक धर्म की पताका पर यह स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा-”सहयोग, न कि विरोध“, पर-भाव-ग्रहण न कि पर-भाव-विनाश, ”समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह“!
10. एक मात्र वेदान्त ही समाज तन्त्रवाद की युक्तिसंगत दार्शनिक भित्ति होने लायक है। मानव समाज की उन्नति चाहने वाले व्यक्तिगण, कम से कम उनके परिचालक गण, यह समझने का प्रयत्न कर रहे हैं कि उनके धन साम्य एवं समान अधिकार पर आधारित मतवादों की एक आध्यात्मिक भित्ति रहना संगत है, और एक मात्र वेदान्त ही यह भित्ति होने के योग्य हैं। सामाजिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक, सभी क्षेत्रो में यथार्थ संगत स्थापित करने का केवल एक सूत्र विद्यमान है, और वह सूत्र-केवल इतना जान लेना कि मैं और मेरा भाई एक हैं। सब देशों में, सभी युगो में, सभी जातियों के लिए यह महान सत्य समान रूप से लागू है।
11. हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके-इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।
12. अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आया है। अब और ”रहस्य“ बनाये रखने से नहीं चलेगा। अब और वह हिमालय की गुहाओ। में, वन-अरण्यांे में साधु-सन्यासियों के पास न रहेगा, लोगों के दैनन्दिन जीवन में उसको कार्यन्वित करना होगा। राजा के महल में, साधु-सन्यासी की गुफा में, मजदूर की झोपड़ी में, सर्वत्र सब अवस्थाओं में-यहाॅ तक कि राह के भिखारी द्वारा भी-वह कार्य में लाया जा सकता है।
13. हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुम्हे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुर्बलता लाए, उसे जहर की भांति त्याग दो; उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दें। (मेरी समर नीति-पृ0-36)
14. हमें दिखलाना है-हिन्दुओं की आध्यामिकता, बौद्धो की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया-हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगे।
लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
का
”विश्व धर्म“
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लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ की वाणी
01. विश्व आत्मा या विश्व मन या एकात्म या सार्वभौम आत्मा जिसे ईश्वर या शिव या ब्रह्म भी कहते है, सर्वत्र विद्यमान है। इसे ही वर्तमान में सर्वमान्य रूप से सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त कहा जा रहा है और इसे समझाने या अनुभूति कराने वाले शास्त्र को विश्वशास्त्र।
02. सार्वभौम सत्य से सार्वभौम सिद्धान्त तक की यात्रा का मार्ग ईश्वरीय मार्ग है। जिसे समय-समय पर मानवीय शरीर के माध्यम से व्यक्त कर समाज में स्थापित करने वाले शरीर को अवतार कहते हैं और अवतार द्वारा दी गयी व्यवस्था को व्यक्ति में स्थापित करने वाले को गुरू कहते हैं।
03. ईश्वर या अवतार सम्पूर्ण मानव जाति सहित ब्रह्माण्डीय कल्याण के लिए कर्म करने के लिए व्यक्त होते हैं न कि किसी कथित वर्तमान किसी विशेष धर्म की सर्वोच्चता के लिए।
04. कथित वर्तमान विशेष-विशेष धर्म उसी ईश्वर को अपने-अपने संस्कृति की दृष्टि से देखते व निरूपित करते हैं।
05. कोई भी अवतार अपने जीवन काल में कोई नई व अलग सामाजिक व्यवस्था या संस्कृति की स्थापना नहीं करता बल्कि वह अपने पूर्व के अवतार के कार्यो को ही आगे बढ़ाता है। इस प्रकार प्रत्येक अवतार अपने पूर्व के अवतार का पुनर्जन्म ही होता है और उसका अन्तिम लक्ष्य सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त को पूर्ण प्रकाशित कर उसके द्वारा ईश्वरीय समाज का निर्माण करना होता है।
06. अवतार सार्वभौम आत्मा या सार्वभौम मन का रूप होता है। इसलिए उसका ”मैं“ का सम्बोधन संयुक्त या समन्वय या सार्वभौम को सम्बोधित होता है और इस ओर गति करने वाला प्रत्येक मानव महापुरूष या ईश्वर के अवतार के रूप में स्थापित होता रहता है।
07. अन्तः सूक्ष्म अदृश्य विषयों पर केन्द्रित मन अदृश्य काल में स्थित मानव की स्थिति है तथा बाह्य स्थूल दृश्य विषयों पर केन्द्रित मन दृश्य काल में स्थित मानव की स्थिति है
08. अन्तः सूक्ष्म अदृश्य विषय द्वारा ईश्वर या आत्मतत्व की अनुभूति कराने वाले शास्त्र को व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र तथा बाह्य स्थूल दृश्य विषय द्वारा ईश्वर या आत्मतत्व की अनुभूति कराने वाले शास्त्र को सार्वजनिक प्रमाणित विश्वशास्त्र कहते हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण द्वारा व्यक्त व व्यास रचित ”गीता या गीतोपनिषद्“ व्यक्तिगत प्रमाणित विश्वशास्त्र है तथा यह शास्त्र सार्वजनिक प्रमाणित ”गीता या गीतोपनिषद्“ या ”विश्वशास्त्र“ है।
09. काल और युग का निर्धारण किसी पूर्व निर्धारित समय सीमा या तिथि द्वारा नहीं बल्कि अधिकतम मानव के मन के केन्द्रित स्थिति द्वारा निर्धारित होती है।
10. ईश्वर नाम उस शब्द को कहते हैं जिसके माध्यम से उस ईश्वर या आत्मतत्व को जाना जाता है। अदृश्य काल में यह अदृश्य ईश्वर नाम तथा दृश्य काल में यह दृश्य ईश्वर नाम के रूप में व्यक्त होता है।
11. परिवर्तन या आदान-प्रदान या Transaction या Trade या व्यापार ही एक मात्र सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य सत्य है और यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड क्षेत्र में व्याप्त है। इस कारण यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सर्वोच्च और अन्तिम व्यापार क्षेत्र या व्यापार केन्द्र (TRADE CENTRE) है।
12. कोई किसी अन्य के लिए कर्म नहीं करता। सभी अपनी शान्ति, स्थिरता, एकता व विकास के लिए कर्म करते है चाहे वह मानव हो या ईश्वर हो या अवतार हो या कोई अन्य।
13. जिसका न आदि है, न अन्त है अर्थात् जो शाश्वत, हमेशा और सर्वत्र है। उस आत्म तत्व का जानना ही एक मात्र धर्म को जानना है और उस धर्म का नाम सनातन धर्म है। अवतारगण बार-बार समाज के बहुमत मन और प्रचलित भाषा की दिशा से उस आत्मतत्व की ओर योग कराने के लिए ही आते रहे हैं।
14. उस आत्मतत्व को जानने के लिए ज्ञान सूत्रों के माध्यम से वेदों में, ईश्वर नाम (ओउम्) के माध्यम से उपनिषद् में, उस आत्मतत्व के गुणों व ब्रह्माण्डीय वस्तुओं (सूर्य, चाँद, ग्रह, नक्षत्र, तत्व इत्यादि) के गुणों के साकार निरूपण (मूर्ति) के माध्यम से पुराणों में, प्रकृति (सत्व, रज, तम, आसुरी, दैवी व उसके अन्य अंश गुणों) के माध्यम से गीता/गीतोपनिषद् में व्यक्त किया गया है। इन सभी माध्यमों सहित वर्तमान पदार्थ विज्ञान, समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान, शासन प्रणाली इत्यादि के माध्यम से सार्वजनिक प्रमाणित गीता अर्थात् विश्वशास्त्र में व्यक्त किया गया है।
15. पौराणिक साकार चरित्रों के निरूपण से ही समाज में जो पहचान बनी वह धर्म-हिन्दू धर्म कहलाया जबकि अवतारगण (सनातन समर्थक) का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा और न ही वे इनकी पूजा करते हुये दर्शाये गये। अवतारगण मात्र शिव (आत्मा) और उसके प्रतीक रूप शिवलिंग तक ही सीमित रहे। क्योंकि वे जानते थे कि ये सब मात्र माध्यम हैं न कि लक्ष्य।
16. पिछले कुछ सौ वर्षो में जो दो सार्वाधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन इस मानव समाज में हुए हैं वे हैं-पदार्थ (भौतिक) विज्ञान व निराकार आधारित लोकतान्त्रिक शासन का विकास व इनके प्रभुत्व की ओर सदैव बढ़ता हुआ विकास। व्यक्ति का स्वयं को संचालन व्यष्टि मन से होता है परन्तु जब वह राजा के पद पर बैठता है तब वह व्यक्ति होते हुये भी संयुक्त मन-समष्टि मन से संचालित होता है। भगवान परशुराम ने साकार आधारित लोकतंत्र व्यवस्था दी थी जिसे परशुराम परम्परा के नाम से जानते हैं। वाल्मीकि रचित रामायण से आदर्श मानक व्यक्ति चरित्र का प्रस्तुतीकरण व्यक्ति संचालन का आदर्श रूप प्रस्तुत हुआ। भगवान श्रीकृष्ण ने साकार आधारित परशुराम परम्परा का नाश किया (क्योंकि उस समय राजा भी व्यष्टि मन से शासन करने लगे थे) और पूर्ववर्ती सभी मतो का समन्वय व एकीकरण करते हुये निराकार आधारित लोकतंत्र व्यवस्था के प्रारम्भ का बीज शास्त्र ”गीता/गीतोपनिषद्“ प्रस्तुत किये। उसके उपरान्त भगवान बुद्ध ने भगवान श्रीकृष्ण के क्रम को आगे बढ़ाते हुए बुद्धि, संघ व धर्म के शरण में जाने की शिक्षा दी। वर्तमान में पूर्ववर्ती सभी धर्मो व मतो का समन्वय व एकीकरण करते हुये निराकार आधारित लोकतंत्र व्यवस्था का वृक्ष शास्त्र विश्व नागरिक धर्म का धर्मयुक्त धर्मशास्त्र-कर्मवेद: प्रथम, अन्तिम तथा पंचम वेदीय श्रृंखला, विश्व-राज्यधर्म का धर्मनिपेक्ष धर्मशास्त्र-विश्वमानक शून्य-मन की गुणवत्ता का विश्वमानक श्रृंखला, आदर्श मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र समाहित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र अर्थात् सार्वजनिक प्रमाणित आदर्श मानक वैश्विक व्यक्ति चरित्र का प्रस्तुतीकरण लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने इस विश्वशास्त्र से किया है। आत्मतत्व की ओर जो व्यक्ति को जोड़ता है वह व्यष्टि गुरू तथा जो राज्य सहित व्यक्ति को आत्मतत्व की ओर मोड़ता व जोड़ता है वह राजगुरू या राष्ट्रगुरू कहलाता है। वर्तमान समय में राष्ट्र (राज्य) को मार्गदर्शन देने वाले शास्त्र का अभाव था जिसके लिए नये धर्मशास्त्र की आवश्यकता थी जो पूर्ण हुई। यदि आवश्यकता न रहती तो अन्तिम महावतार कल्कि की क्या आवश्यकता रहती और किस कार्य के लिए रहती? विचारणीय विषय है।
17. शास्त्र में दिये गये स्थानों के नाम, वे वर्तमान में हैं, इसलिए प्रयोग किये गये हैं जबकि शास्त्र उसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता को सिद्ध नहीं करता है।
18. शास्त्र में व्यक्त सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अन्तिम है जो सत्य है, न कि परिवर्तनशील विचार। जिसे मानव विचारों के उत्तरोत्तर बढ़ते स्तर से अन्त में यही प्राप्त करेगा। विचारों का अन्त ही सत्य है।
विश्व के प्रथम विश्वमानव (ग्लोबल ह्यूमन) स्वामी विवेकानन्द के इच्छानुसार
विश्व के अन्तिम विश्वमानव (ग्लोबल ह्यूमन) श्री लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ द्वारा व्यक्त
विश्वधर्म का धर्मशास्त्र
विश्वशास्त्र - द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज
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