Sunday, March 15, 2020

4. चतुर्थ अवतार: नृसिंह अवतार

पहला युग / पाँचवाँ युग: सत्ययुग/स्वर्ण युग
अ. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार

4. चतुर्थ अवतार: नृसिंह अवतार
व्यक्तिगत प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार

ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-वैशाख शुक्ल पक्ष-चतुर्दशी
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार   
                            
नृसिंह अवतार (पूर्व कथा)
श्रीहरि ने वराह का रूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया है - यह समाचार पाने के बाद हिरण्यकश्यपु शोक तथा क्रोध से अधीर हो उठा। विश्वविजयी छोटा भाई कभी किसी से पराजित हो सकेगा, यह बात उसने कभी सपने तक में नहीं सोची थी। उसके विचार में तो सम्पूर्ण जगत् उन दोनों भाइयों का लीलाक्षेत्र था। उनकी क्रिया-कलापों में बाधक होनेवाला पूरे विश्व में कोई भी न था। और उसके भाई के कार्य में केवल बाधा ही नहीं डाली गयी थी, अपितु उसकी पूरी तौर से हत्या ही कर दी गयी थी। क्रोध से मानो उसका सारा शरीर ही जलने लगा। उसकी हुंकार तथा गर्जना से चारों दिशाएँ काँपने लगीं। 
उसने ब्राह्मणों से पूछा, ‘‘यह श्रीहरि कौन है? कहाँ रहता है? और उसे सबक सिखाने का क्या उपाय है?’’ उन्होंने बताया, वे इस विश्व के स्वामी हैं तथा सबके आराध्य हैं। वे वैकुण्ठ में रहते हैं और योग-यज्ञ आदि धर्म-कर्म सब उन्हीं के निमित्त किये जाते हैं। अपने भक्तों से वे बड़ा प्रेम करते हैं, अतः उन लोगों को कष्ट देने पर उन्हें भी कष्ट होगा।’’
ब्राह्मणों की बात सुनकर दैत्यराज समझ गया कि केवल शारीरिक शक्ति के बल पर शत्रु का अनिष्ट करना सम्भव नहीं है। दैवबल से अमर हुए बिना उनके साथ शत्रुता करने पर मृत्यु निश्चित है, अतः पहाड़ की एक कन्दरा में जाकर उसने कठोर तपस्या आरम्भ की। वह अपने पाँव के अँगूठों पर खड़ा होकर इतने मनोयोगपूर्वक अपने इष्टदेव ब्रह्मा का ध्यान करने लगा कि उसकी चेतना लुप्त हो गयी, पूरा मन ब्रह्मामय हो उठा, शरीर है या नहीं - इसका भी बोध नहीं रहा। मच्छर, दीमक और चीटों ने मिलकर उसके शरीर को अपना भोजन बना डाला। केवल उसका अस्थि-पंजर ही गुफा के भीतर दण्डायमान रहा। 
अब ब्रह्माजी उसे दर्शन दिये बिना नहीं रह सके। गुफा में आकर उन्होंने अपने कमण्डलु से जल छिड़का और उसके शरीर में रक्त-मांस की सृष्टि की। तत्पश्चात् उसके सिर पर हाथ रखकर उन्होंने उसका ध्यान भंग किया। ब्रह्मा बोले, ‘‘वत्स, मैं तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट हूँ, बोलो, तुम कौन-सा वर चाहते हो?’’ उसने कहा, ‘‘प्रभो, मैं अमर होना चाहता हूँ।’’ ब्रह्मा बोले, ‘‘बेटा, भला ऐसा भी हो सकता है क्या? अमर करने की क्षमता तो मुझमें नहीं है - हिरण्यकश्यपु ने कहा, ‘‘तो फिर मुझे ऐसा वर दीजिए कि किसी अस्त्र अथवा आपके द्वारा सृष्ट किसी भी जीव के द्वारा जल, स्थल, अग्नि, वायु, दिन या रात में मेरी मृत्यु न हो।’’ ब्रह्माजी ने ‘तथास्तु’ कहा। 
हिरण्यकश्यपु का मृत्युभय चला गया। अब वह श्रीहरि को मजा चखाने के उपाय सोचने लगा। अपनी असुर-सेना की सहायता से पहले तो उसने त्रिलोक पर विजय प्राप्त की। वह देवताओं को जीतकर ही चुप नहीं बैठा, बल्कि स्वयं ही स्वर्ग का राजा होकर उसने देवताओं को अपनी सेवा में नियुक्त किया। उसने स्वर्ग, मत्र्य तथा पाताल में यह घोषणा भी करा दी कि श्रीहरि की उपासना करने वाले शूली पर चढ़ा दिया जाएगा और उनके नाम का उच्चारण तक महान् अपराध माना जाएगा। अब से स्वयं उसी का ध्यान-भजन करना होगा, उसी के नाम पर यज्ञादि अनुष्ठान होंगे और उसी को जगदीश्वर कहा जाएगा। श्रीहरि को सबक सिखाने की यह क्या ही अद्भुत व्यवस्था थी! साधु-भक्तों को इससे जो कष्ट हुआ, वह बताने की आवश्यकता नहीं। सच्चे ब्राह्मणों ने योग-यज्ञ करना छोड़ दिया और चाटुकारों ने असुरराज के नाम पर यज्ञ करना आरम्भ कर दिया। असुरगण साधु-सज्जनों पर अत्याचार करने में लग गए। धर्म का लोप हो गया और मानव-जाति पशुओं में परिणत हो गयी। 
हिरण्यकश्यपु को एक बड़ा ही सुन्दर पुत्र हुआ। थोड़ा बड़े होते ही उसके मधुर आचरण ने सबका मन आकृष्ट कर लिया। वह बड़ा शान्त-शिष्ट था, अकेले ही खेलता, अपने आप में डूबा हुआ घूमता और सबसे प्रेम रखता था। उसका मुखमण्डल सुन्दर, कण्ठ मधुर तथा चाल-चलन मनोहर था। उसे प्रह्लाद नाम से सम्बोधित किया जाता था। 
हिरण्यकश्यपु स्वभाव से असुर होने पर भी, था तो कश्यप का ही पुत्र! अतः वर्ण से वह ब्राह्मण था। पाँच वर्ष की आयु में प्रह्लाद को शिक्षा के लिए गुरू के घर भेजा गया। दैत्यगुरू शुक्रचार्य के शण्ड तथा अमार्क नामक दो पुत्र थे। वे दोनों ही प्रह्लाद के शिक्षक हुए। गुरू के गृह में अनेक समवयस्क बालकों को पाकर प्रह्लाद बड़े ही आनन्दित हुए और उन लोगों के साथ पढ़ना आरम्भ किया। स्वर वर्णो को तो उन्होंने सुनते ही सीख लिया, परन्तु जब व्यंजन वर्णो का पाठ आरम्भ हुआ, तो ‘क’ अक्षर सुनते ही उनके मन में न जाने किस भाव का उदय हुआ कि वे लगातार रोने लगे। सभी अवाक् रह गये। कोई भी इसका कारण नहीं समझ सका। वे भी किसी प्रकार कुछ बता पाने में असमर्थ थे। दो-चार दिनों बाद अपना वह भाव थोड़ा कम होने पर उन्होंने बताया कि ‘क’ अक्षर का उच्चारण करते ही उन्हें कृष्ण की याद आ जाती है। कृष्ण के प्रति उनके मन में इतना प्रेम था कि इस अक्षर का उच्चारण करते ही कृष्ण के लिए उनका मन अधीर हो उठता था। शिक्षकों ने शास्त्र तो पढ़ रखे थे, पर उन्होंने भक्त नहीं देखे थे। उन लोगों ने सोचा कि यह सब बचपना है; इतना छोटा बच्चा भला कृष्ण के बारे में क्या जानता होगा! थोड़े दिन खेलकूद करने से सब भूल जायेगा। प्रह्लाद ने भी खेल में मन लगाया। लड़कों को साथ लेकर हरिपूजा और हरिनाम-संकीर्तन में वे स्वयं भी उन्मत्त हो जाते और उन लोगों को भी मतवाला कर डालते। नाम लेते-लेते कभी कभी वे अचेत हो जाते और उस समय समाधि की अवस्था में उन्हें श्रीहरि का दर्शन मिलता। लड़कों में से कइयों को इस प्रकार की समाधि होने लगी। पढ़ना-लिखना सब बन्द हो गया। हरिनाम की ध्वनि से चारों दिशाएँ गूँजने लगीं। उनके शिक्षक बड़ी कठिनाई में पड़े। प्रह्लाद के क्रिया-कलापों में एक ऐसा माधुर्य था कि सहसा उन्हें मना नहीं किया जा सकता था। विशेषकर राजपुत्र और वह भी हिरण्यकश्यपु के समान राजा के पुत्र की मनमानी में बाधा डालना - थोड़ा विचारणीय विषय था। यही सोचते-सोचते समस्या ने विराट् रूप धारण कर लिया। 
अब शण्ड तथा अमार्क ने प्रह्लाद को नियंत्रित करने का प्रयास किया। उन्होंने समझाया, ‘‘हरि तुम्हारे पिता का शत्रु है, चाचा का हत्यारा है; अतः वह तुम्हारा भी शत्रु हुआ।’’ परन्तु प्रह्लाद ने तरह तरह की युक्तियों से दिखाया कि हरि सबके मित्र हैं, वे किसी के भी शत्रु हो ही नहीं सकते। परन्तु विषयी पण्डितगण कभी भी भक्तों की युक्ति नहीं समझ सकते। शिक्षकगण प्रह्लाद की बातों को बेकार की धृष्टता समझकर बडे़ नाराज हुए। परन्तु प्रह्लाद और उनके मित्र किसी भी प्रकार वश में नहीं आये। वे दुगने उत्साह के साथ हरिनाम लेने लगे। पण्डितों ने भयभीत होकर राजा को इसकी सूचना दी। 
राजा ने प्रह्लाद को बुलाकर पूछा, ‘‘बेटा प्रह्लाद, किसने तुम्हें हमारे परम शत्रु हरि के बारे में बताया है?’’ प्रह्लाद बड़े विनयपूर्वक बोले, ‘‘पिजाजी, हरि की बात किसी को सिखानी नहीं पड़ती। हरि सबके भीतर विद्यमान हैं। मन के कामनाहीन और निर्मल होते ही श्रीहरि स्वयं प्रकट होते हैं। वे हमारी आत्मा हैं, प्राणों के प्राण हैं, वे भला शत्रु किस प्रकार हो सकते हैं?’’ बालक के मुख से ऐसी बुद्धिमत्तापूर्ण बातें सुनकर राजा हँस पड़े। उन्होंने सोचा कि जरूर ये सीखी-सिखाई बातें हैं, किसी दुष्ट ने इसे सिखा दी होंगी। उन्होंने प्रह्लाद को पुनः गुरू के घर भेज दिया। साथ ही उन्होंने गुरूगृह पर पहरा देने को सेना की एक टुकड़ी भी भेज दी, ताकि कोई अज्ञात अपरिचित व्यक्ति प्रह्लाद के पास न फटक सके। 
प्रह्लाद जो कुछ भी एक बार सुन लेते, वह सदा के लिए उनके मन में अंकित हो जाता था। परन्तु वे भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी विषय पर बिल्कुल भी मनोयोग नहीं करते थे। शिक्षकों ने उन्हें विभिन्न विषयों की शिक्षा देने का प्रयास किया, परन्तु प्रह्लाद ने कृष्ण-कथा एवं कृष्ण-गुण-कीर्तन के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय पर ध्यान नहीं दिया। शण्ड और अमार्क ने बाध्य होकर पुनः यह बात राजा के कानों तक पहुँचाई। 
ईष्र्या के समान कोई दूसरा विष नहीं होता। दैत्यराज ईष्र्या के विष से जलकर मरा जा रहा था। और फिर अपना ही पुत्र हरिभक्त हो - यह तो जले पर नमक के समान था। यह समाचार पाते ही उसका शरीर जल-भुन गया। और जलने की बात थी भी। जिसने तीनों लोकों से हरिनाम उठा दिया था, योग-यज्ञ, धर्म-कर्म आदि बन्द करा दिये थे, उसी के पुत्र के सिर पर आकर हरि सवार हो गये थे। पिता का शत्रु और चाचा का हत्यारा जानकर भी यह हरि की उपासना करता है। उसने समझ लिया कि निश्चय ही किसी महाशत्रु ने मेरे पुत्र के रूप में जन्म लिया है। यही सोचकर उसने जल्लाद को प्रह्लाद का सिर काट डालने का आदेश दिया। 
जल्लाद ने प्रह्लाद को श्मशान में ले जाकर उसके गले में तलवार से प्रहार किया। प्रह्लाद कृष्ण के ध्यान में मग्न रहे और उनका सिर कटा नहीं। जल्लाद ने भय से काँपते हुए लौटकर यह बात राजा को बताई। राजा ने सैनिकों को आदेश दिया कि प्रह्लाद को भाले से छेदकर मार डाला जाय। निर्दय असुर सैनिक अपने भालों से बारम्बार प्रहार करके भी प्रह्लाद के शरीर पर चिन्ह तक नहीं बना सके। सैनिकों ने विस्मित होकर राजा को सूचित किया। राजा ने आदेश दिया, ‘‘जाओ, राज्य के सबसे विशाल हाथी के पाँवों के नीचे फेंककर इसे पीस डालो।’’ सैनिकों ने प्रह्लाद के हाथ-पाँव बाँधकर उन्हें मतवाले हाथी के पाँवों-तले फेंक दिया। परन्तु हाथी के हृदय में भी तो नारायण विद्यमान है। हाथी ने उन्हें पाँवों से कुचला नहीं, बल्कि सूँड़ से उठाकर अपनी पीठ पर चढ़ा लिया। प्रह्लाद हाथी की पीठ पर बैठे हरिनाम करने लगे। 
राजा का हठ और असुरों का कौतूहल और भी बढ़ गया। उन लोगों ने करोड़ों जीवों की हत्या की थी, परन्तु इस कोमलजात बालक का वे बाल भी बाँका नहीं कर पा रहे थे। राजा का आदेश हुआ कि उसे जल में डुबाकर, आग में जलाकर, विष खिलाकर- चाहे जैसे भी हो, मार डालो। असुरों के हाथ में एक बड़ा ही मजेदार काम आ पड़ा। वे बालक की हत्या के लिए विविध उपाय सोचने लगे। 
असुरों ने प्रह्लाद के हाथ-पाँव बाँधकर उन्हें पानी में डाला और बीस-पच्चीस लोगों ने एक पत्थर लाकर उनके ऊपर रखकर दबा दिया, परन्तु पत्थर पानी में न डूबकर कार्क के समान तैरने लगा और प्रह्लाद के हाथ-पाँव के सारे बन्धन अपने आप खुल गये। वे उसी पत्थर पर बैठकर हरिनाम का उच्चारण करने लगे। 
भयानक सर्पो का विष लाकर उन लोगों ने प्रह्लाद को खाने के लिए दिया। श्रीहरि को निवेदित किये बिना तो वे कुछ खाते नहीं थे, अतः विष खाने के पहले उसे भी उन्होंने श्रीहरि को निवेदित किया। और इसके साथ ही विष अमृत में परिणत हो गया। प्रह्लाद उस अमृत का पान करके और भी तेजवान हो गये। उन्हें एक पहाड़ की चोटी पर ले जाकर वहाँ से फेंका गया, परन्तु वे पंख के समान हवा में तैरते हुए हरिनाम जपने लगें। 
अब और क्या किया जाय! उन लोगों ने देखा कि अब उन्हें केवल अग्नि में झोंकना ही बाकी रह गया है। उसका भी प्रयोग एक बार करके देखना ही था। परन्तु बालक की लीला देखकर असुरों के पाषाणसम प्राणों में भी भय का संचार हो गया था, अतः सभी आपस में आगा-पीछा करने लगे। परन्तु राजा के आदेश का उल्लंघन भी खतरे में खाली न था। अतः उन लोगों ने प्रह्लाद को एक स्थान पर बिठाकर उनके ऊपर पर्वत के समान काष्टराशि चढ़ाने के बाद उसमें आग लगा दी। आग की लपटें धू-धूकर जलती हुई आकाश को छूने लगीं और कई दिनों बाद अंगारों में परिणत हुई। तब देखने में आया कि प्रह्लाद ज्वलन्त अंगारों के स्तूप के बीच प्रसन्नबदन योगासन में बैठे हैं और उनका एक बाल तक नहीं जला है। 
ऐसी भयानक घटना न तो कभी किसी ने देखी और न सुनी ही थी। समाचार पाकर दैत्यराज पहले तो स्तम्भित रह गये। एक ओर तो शत्रु की याद से ईष्र्या की आग में उनका हृदय जला जा रहा था। दिन-रात उनकी तो एक ही चिन्ता व चर्चा थी कि हरि को कैसे सबक सिखाया जाय और बड़े लज्जा की बात तो यह थी कि उनका अपना पुत्र ही हरि का भक्त था! कहाँ तो पाँच साल का यह लड़का-और राज्य के समस्त योद्धा मिलकर भी उसे नहीं मार सके! क्या हरि इतने ही शक्तिमान हैं !!
हिरण्यकश्यपु चिन्ता करते-करते मानो उन्मत्त हो गया। उसका चेहरा इतना भयंकर हो उठा कि कोई उसके सामने जाने का साहस तक नहीं जुटा पाता था। ऐसा लगता था मानो वह पूरे जगत् को ही निगल डालेगा। 
याज्ञिक ब्राह्मणों ने कहा, ‘‘महाराज, बालक को योग में महासिद्धि प्राप्त हो गयी है। अभिचार-क्रिया के बिना उसकी हत्या असम्भव है। अस्त्र या अग्नि आदि बाह्य वस्तुओं के द्वारा उसका कोई अनिष्ट नहीं हो सकता। दैव द्वारा ही उसकी दैवीशक्ति का नाश करना होगा।’’
अभिचार के लिए विराट् आयोजन हुआ। एक विशाल धूनी जलाकर ब्राह्मण लोग उसमें मनों घी ढालते हुए तंत्र-मंत्र का पाठ करने लगे। यज्ञ के अन्त में पूर्णाहुति देते ही काले वर्ण के, लाल नेत्रोंवाले, पिंगल जटाधारी भैरवगण हाथ में त्रिशूल लिए यज्ञकुण्ड से बाहर निकलने लगे। ब्राह्मणों ने प्रह्लाद का विनाश करने के लिए उनका आह्वान किया था, परन्तु उन भैरवों ने भक्तद्वेषी असुरों पर ही आक्रमण कर दिया। पूरे राज्य में हो-हल्ला मच गया। प्रह्लाद से असुरों का कष्ट नहीं देखा गया। उनकी स्तुति पर भैरवगण अन्तर्धान हो गये। कैसी भयानक घटना थी वह! तो क्या यह बालक सर्वशक्तिमान है? तो क्या आखिरकार इसी के हाथों मरना होगा? हिरण्यकश्यपु पराजय का नाम तक नहीं जानता था। परन्तु यह तो पराजय से भी बड़ी बात थी। उसकी सारी चेष्टाएँ बेकार जा चुकी थीं। अब और क्या किया जाय ?
उसने प्रह्लाद को बुला भेजा। प्रह्लाद ने आकर पिता को साष्टांग प्रमाण किया और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। हिरण्यकश्यपु ने उनसे पूछा, ‘‘तू जो इतना हरि हरि करता है, बता तो, कहाँ रहता है वह?’’ प्रह्लाद ने कहा, ‘‘वे इस जगत् के ईश्वर हैं - सर्वत्र निवास करते हैं।’’
हिरण्यकश्यपु - ये सब पहेलियाँ बुझाना छोड़। बोल, इस समय वह कहाँ है ?
प्रह्लाद - पिजाती, मैं तो सर्वत्र ही उन्हें देख रहा हूँ। हाँ पिताजी, ये रहे मेरे प्रभु ! 
‘ये रहे’ सुनकर हिरण्यकश्यपु काँप उठा। उसने तत्काल पूरी ताकत के साथ एक लात जमाकर खम्भे को तोड़ डाला। 
खम्भा ज्योंही टूटा, त्योंही एक विकराल मूर्ति उसमें से गर्जन करते हुए बाहर निकली। उनका विशाल मस्तक सिंह के समान था। चारों हाथों में भयंकर नख थे। शरीर मनुष्य का-सा था। उनके हुँकार से पृथ्वी काँपने लगी। उनके साथ हिरण्यकश्यपु का भयानक युद्ध हुआ। अन्त में दिन-रात के सन्धिक्षण में उन अपूर्व जीव ने हिरण्यकश्यपु को अपने जंघे पर पटककर उसका हृदय फाड़ डाला। हिरण्यकश्यपु का वध करके भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ। वे भयानक गर्जना करने लगे। ब्रह्मा आदि देवगण भयभीत हुए कि कहीं ये क्रोध के वशीभूत होकर जगत् का ही ध्वंस न कर डालें। परन्तु किसी को भी उनके सम्मुख जाने का साहस नहीं हुआ। उन लोगों ने प्रह्लाद को उनके पास जाकर स्तुति करने का उपदेश दिया। प्रह्लाद ने अपने दोनों नन्हे-नन्हे हाथ जोड़कर श्रीहरि का स्तुति आरम्भ किया। भक्त का मधुर कण्ठस्वर सुनकर भगवान का हृदय पिघल गया। वे प्रह्लाद को गोद में लकर उनका शरीर चाटने लगे। 
शरीर नर के समान और सिर सिंह के समान होने के कारण ही भगवान की इस मूर्ति का नाम नरसिंह या नृसिंह है। 

सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में चैथे अवतार - नृसिंह अवतार का अवतरण उस समय हुआ जब हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यपु जिसने पुनः अपना राज्य स्थापित कर लिया। विष्णु के द्वितीय- कूर्मावतार मे समुद्र अर्थात् विचार मंथन में हुये आपसी सहकार के कारण देव-दानव में जो सह- अस्तित्व  की परम्परा चली थी उसे हिरण्यकश्यपु ने तोड़ डाला। हुआ यह कि हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद समाजवादी अर्थात् समाज या गणराज्य समर्थक बन गया। हिरण्यकश्यपु को यह सहन नहीं हुआ। वह प्रह्लाद को तरह-तरह से कष्ट देने लगा जिससे वह एकतन्त्रवादी अर्थात् राज्यवादी हो जाये। यह देवों और असुरों में हुये सह-अस्तित्व अर्थात् एक-दूसरे को मान्य करना के समझौते का स्पष्ट उल्लघंन था परन्तु हिरण्यकश्यपु के सामने समाजवादी चुप थे। परिणामस्वरूप एक पुरूष की आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना अर्थात् अदृश्य प्रकृति द्वारा निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गई और उसने हिरण्यकश्यपु को मार डाला। और समाजवादी प्रह्लाद की रक्षा कर समाजवाद या गणराज्यवाद की रक्षा की। चूॅकि प्रथम बार हिंसा मार्ग से समाजवाद की रक्षा की गई थी इसलिए उसके गुणों की तुलना सिंह से कर पूर्व अवतारों के नामकरण की परम्परानुसार कालान्तर में उसे नर-सिंह या नृसिंह अवतार का नाम दिया गया।


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