पहला युग / पाँचवाँ युग: सत्ययुग/स्वर्ण युग
अ. व्यक्तिगत प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार
3. तृतीय अवतार: वाराह अवतार
व्यक्तिगत प्रमाणित अंश प्रत्यक्ष अवतार
ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-
ब्रह्मा के अंश अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार
वाराह अवतार (पूर्व कथा)
ब्रह्मा ने सर्वप्रथम अपनी इच्छा के अनुरूप सनक आदि कई मुनियों की सृष्टि की। उन्हें ब्रह्मा का मानसपुत्र कहते हैं। वे भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं जानते। लज्जा, घृणा, भय अथवा कोई स्वार्थ उनमें नहीं था। वे लोग शिशु के समान सर्व बन्धनों से मुक्त होकर आनन्दपूर्वक तीनों लोगों में भ्रमण किया करते थे।
घूमते घूमते एक दिन वे वैकुण्ठ-लोक में जा पहुँचे। वैकुण्ठ के बाहर की शोभा देखकर उनके शिशुवत् हृदय में बड़ा आनन्द हुआ। वे लोग भीतर प्रविष्ट होकर श्रीहरि का दर्शन करने चले। परन्तु वैकुण्ठ के द्वारपाल जय तथा विजय ने उनका रास्ता रोक दिया। बालक-स्वभाव मुनियों द्वारा बाधा को न मानकर भीतर जाने का प्रयास करने पर जय तथा विजय ने उन पर बेंत से प्रहार किया। उन लोगों ने बच्चों के समान नाराज होकर द्वारपालों को बुरा-भला कहा और अभिशाप दिया, ‘‘तुम दोनों वैकुण्ठ के द्वारपाल होने योग्य नहीं हो। तुम्हारा पतन हो।’’
अभिमान से मन थोड़ा मलिन होने के बावजूद जय तथा विजय थे तो भगवान के ही द्वारपाल! मुनियों का शाप सुनते ही उन्हें होश आया। दोनों भयभीत होकर उनके चरणों में पड़ गये और क्षमा माँगने लगे। इसी बीच अन्तर्यामी श्रीहरि ऋषियों-अपने प्रिय भक्तों के अपमान की बात जानकर स्वयं ही बाहर निकल आये। उन्हें पाते ही मुनियों में से कोई उनके चरणों में जा पड़ा, किसी ने उनका हाथ पकड़ा और कोई उनकी गोद में चढ़ गया - मानों मातृहीन बच्चों को उनकी माँ मिल गयी हो। श्रीहरि उनका प्रेम देखकर, आनन्दपूर्वक अपने चारों हाथों से मुनियों के सिर सहलाने लगे। जय तथा विजय वैकुण्ठ से प्रताड़ित होने के भय से काँपने लगे। मुनियों के किंचित् शान्त होने पर श्रीहरि उन्हे स्नेहपूर्वक भीतर ले गये और बोले, ‘‘मेरे द्वापालों ने तुम्हारे साथ बड़ा ही अनुचित व्यवहार किया है। अपने पुण्यों के फल से वैकुण्ठ में आकर इन लोगों को बड़ा गर्व हो गया था और उसकी उपयुक्त सजा भी उन्हें मिल गयी है।’’
साधु का क्रोध जल के दाग के समान होता है। अब तक मुनिगण अपने क्रोध की बात तो भूल चुके थे, परन्तु जय तथा विजय के दुःख से वे बड़े दुःखी हुए। श्री भगवान को छोड़कर पाप-ताप-मोहमय जगत् में लौट जाना- इससे बढ़कर दुःख की बात और क्या हो सकती है? परन्तु ऋषियों की वाणी को विफल करने का कोई उपाय नहीं। उन्हें वैकुण्ठ छोड़कर जाना ही पड़ेगा। मुनियों ने श्रीहरि से कहा, ‘‘प्रभो, ऐसी व्यवस्था कीजिए कि जिससे ये लोग शीघ्र ही आपे पास लौट आयें।’’ श्रीहरि ने कहा, ‘‘इन लोगों ने साधनाएँ तो बहुत की है, परन्तु अहंकार नहीं छोड़ सके हैं। और भी सात जन्म तपस्या किए बिना इनका यह अहंकार जानेवाला नहीं है।’’ सात जन्मों की बात सुनकर जय-विजय आकुल होकर रोने लगे। उनका दुःख देखकर मुनियों को भी रूलाई आ गयी। वे लोग कहने लगे, ‘‘प्रभो, एक बार जिसे तुम्हारे चरणों का आश्रय मिल चुका है, उसके लिए तुम्हारा विरह कितना कष्टदायी होगा, क्यों तुम नहीं समझ सकते? एक दिन, दो दिन नहीं, सात जन्मों तक तुम्हें छोड़कर रह पाना भक्त के लिए असम्भव है। तुम इच्छामय हो, इनकी सजा कम कर दो।’’ भगवान ने जय-विजय से कहा, ‘‘तुम लोग शत्रुभाव लेकर मनुष्य-लोक में जाओ। शत्रुभाव बड़ा प्रबल होता है। लोग शत्रु के बारे में जितना सोचते हैं, उतना मित्र के बारे में नहीं सोचते। इस भाव से तीन जन्मों में तुम लोगों का अभिमान दूर हो जाएगा। प्रति बार में अपने हाथों से तुम्हारा वध करूँगां’’
जय-विजय ने सत्ययुग में हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु, त्रेता में रावण तथा कुम्भकर्ण और द्वापर में शिशुपाल तथा दन्तवक्र के रूप में जन्म ग्रहण किया। श्रीहरि ने स्वयं ही लीलामय रूप धारण करके उनका वध किया।
महर्षि कश्यप की दिति तथा अदिति नाम की दो पत्नियाँ थीं। अदिति के गर्भ से आदित्य अर्थात् देवताओं ने और दिति के गर्भ से दैत्यों ने जन्म ग्रहण किया। दिति का स्वभाव ठीक नहीं था। उसकी दो जुड़वा सन्तानें हुई, जिनका हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यपु नाम रखा गया। ये दोनों बचपन से ही बड़े शैतान थे। उनके भय से मुहल्ले के लड़के घर से बाहर तक नहीं निकलते थे। वे दोनों बड़े क्रोधी तथा झगड़ालू थे। उनका शरीर लोहे के समान कठोर था। उनमें हाथी-सा बल था और नाराज हो जाने पर खून-खराबा कर बैठना उनके लिए आम बात थी। ज्यों ज्यों उनकी उम्र बढ़ती गयी, त्यों त्यों वे और भी भयंकर होते गये। दया-धर्म की तो बात ही नहीं, मार-काट ही उनका नित्यकर्म हो उठा। केवल अपने गाँव के लोगों को परेशान करके उन्हें तृप्ति नहीं हुई, अतः वे देश के लोगों पर अत्याचार करते हुए घूमने लगे। राज्य के सभी गुण्डे-बदमाश उनके साथ आ मिले। धीरे-धीरे उनका एक अच्छा-खासा दल तैयार हो गया और वे लोग सबके ऊपर यथेच्छा शासन चलाने लगे। अन्य राजाओं के राज्य छीनकर उन लोगों ने एक विराट् साम्राज्य की स्थापना की।
युद्ध में शरीर के क्षत-विक्षत हो जाने से युद्ध का मजा किरकिरा हो जाता है। इसीलिए हिरण्याक्ष अपने शरीर को अमर करने के लिए तपस्या में जुट गया। असुरगण सृष्टिकर्ता ब्रह्मा तथा संहारकर्ता शिव की शक्ति तो करते थे, परन्तु प्रेममय श्रीहरि के प्रति उनके मन में प्रीति न थी। हिरण्याक्ष ने ब्रह्मा की आराधना करके उन्हें सन्तुष्ट किया। ब्रह्मा के वर देने की इच्छा व्यक्त करने पर उसने अपना शरीर अमर कर देने का अनुरोध किया। परन्तु ब्रह्मा बोले, ‘‘शरीर भला कैसे अमर हो सकता है? यह तो पंचभूतों की समष्टि है। मैं तुम्हें यही वर देता हूँ कि किसी अस्त्र से तुम्हारे शरीर को चोट नहीं पहुँचेगा।’’ हिरण्याक्ष ने सोचा कि शरीर पर अस्त्र का चोट न पहुॅचने पर, फिर तो युद्ध में पराजित होने का भय ही नहीं है; वह इसी के लिए तो अमर होना चाहता था। अतः यही वर पाकर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा ।
हिरण्यकश्यपु अपने साम्राज्य के शासन में ही व्यस्त रहा। और हिरण्याक्ष भयानक गुण्डागर्दी करते हुए घूमने लगा। उसे जहाँ कहीं भी किसी बलवान आदमी के होने की सूचना मिलती, वह वहीं जा पहुँचता। उसका सामना करने की भला किसमें क्षमता थी! उसके साथ युद्ध करने वाले की मृत्यु निश्चित थी। किसी भी अस्त्र का चोट उसके शरीर पर नहीं लगता था, अतः अन्य लोग उसका कोई अनिष्ट नहीं कर पाते थे। इसी प्रकार मानवलोक पर विजय प्राप्त करने के बाद वह लोहे की एक भयानक गदा लिए हुए देवलोक जा पहुँचा। उसने सोचा था कि मनुष्य तो सहज ही मर जाते हैं, परन्तु देवता अमर हैं, अतः यहाँ पर उन लोगों के साथ युद्ध का थोड़ा-सा आनन्द ले सकूँगा। परन्तु बुद्धिमान देवताओं ने पहले से ही उसके सामने हथियार डालकर गदा के आघात से स्वयं को बचाया। ऐसे आदमी के साथ भी क्या युद्ध किया जा सकता है!
अब युद्ध के अभाव में हिरण्याक्ष की नसें ऐसी फड़कने लगीं कि युद्ध किये बिना उसका जीना दूभर हो गया। किसी ने उसे सुझाया, ‘‘तुम हिमालय के साथ युद्ध करो।’’ इसलिए वह हिमालय के शरीर पर अपनी गदा से आघात करके थोड़ा विश्राम करने लगा। गदा के आघात से पर्वत टूटकर चूर्ण-विचूर्ण होने लगे। तब हिमालय के अधिष्ठातृ-देवता ने बाहर आकर उससे कहा, ‘‘ओ दैत्य, काष्ठ-मिट्टी के साथ युद्ध करना भी क्या किसी वीर को शोभा देता है? तुम समुद्र में वरूण देवता के पास जाओ, वहाँ तुम्हारी युद्ध की पिपासा मिट जायेगी।’’
हिरण्याक्ष तब हिमालय छोड़कर सागर के पास गया। हिरण्याक्ष के गदाघात से सागर का जल विक्षुब्ध हो उठा। मछलियाँ भयभीत होकर पलायन करने लगीं। सागर के राज्य में महा-हलचल मच गई। समुद्र के देवता वरूण सागरतल से बाहर आकर बोले, ‘‘अरे मूर्ख, तू क्यों व्यर्थ ही इन छोटी-मोटी मछलियों को भय दिखा रहा है? यदि सचमुच ही तेरी युद्ध करने की साध है, तो तू पाताल में जा। वहाँ वराहरूपी श्रीहरि के पास तेरा गर्व दूर हो जायेगा।’’
श्रीहरि का नाम हिरण्याक्ष ने पहले भी सुन रखा था। जब भी वह किसी दुर्बल पर अत्याचार करता, तभी उसे कहते सुन पाता, ‘‘ठीक है जा, श्रीहरि तो है ही!’’ वह नाम सुनते ही उसके प्राण ईष्र्या से जल उठते और वह सोचता कि बस एक बार उसे पा जाऊँ, तो देख लूँगा। परन्तु अब तक उसे श्रीहरि का पता नहीं मिल पाया था, आज वरूण के मुख से वह पाकर उसका उत्साह प्रज्जवलित हो उठा। उसे लगने लगा मानो श्रीहरि को उसने अभी पीस डाला है। वह उन्मादी के समान तत्काल पाताल की ओर दौड़ चला। पृथ्वी का उत्तर मेरू थोड़ा झुककर सूर्य के चारों ओर घूमता है। इसीलिए दक्षिण का समुद्र महासागर है और उत्तर का प्रदेश महादेश है। एक बार किसी कारणवश पृथ्वी का उत्तरी मेरू थोड़ा अधिक झुक गया। इसके फलस्वरूप सागर की जलराशि ने स्थल भाग को डूबा दिया। सभी जीव-जन्तुओं की मृत्यु हो गयी; केवल उच्च पर्वत शिखरों पर दो-चार मनुष्य बड़े कष्टपूर्वक बच रहे।
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने अपने प्रधान इंजीनियर विश्वकर्मा की सहायता से पृथ्वी का उद्धार करने का बड़ा प्रयास किया, पर कोई फल नहीं हुआ। तब ब्रह्माजी ने श्रीहरि की शरण ली। श्रीहरि ने एक विराट् शूकर का रूप लेकर पृथ्वी को अपने विशाल दातों में फँसाकर धीरे धीरे खींचा और उसे पूर्ववत् स्थापित कर दिया। तब सारा जल दक्षिणी महासागर में चला गया और उत्तर के ग्राम-नगर बाहर आ गये। श्वेत वराह जलमग्न पृथ्वी का उद्धार करने के बाद पाताल में जाकर वहीं विचरण करने लगे।
हिरण्याक्ष हरि को ढूँढ़ते हुए पाताललोक जा पहुँचा। वहाँ विशाल दन्तवाले दीर्घकाय श्वेतवर्ण शूकर तथा उसके विशाल उज्जवल नेत्र देखकर प्रथमतः तो वह अवाक् रह गया और तत्पश्चात् युद्ध करने का एक अच्छा मौका हाथ आया देखकर उच्च स्वर में बोल उठा, ‘‘वाह! शूकर तो जल में चर रहा है।’’ उसकी आवाज सुनते ही वराह इतनी तीव्र गर्जना कर उठे कि ग्रह-नक्षत्रों के साथ पूरा ब्रह्माण्ड कम्पित हो उठा। उनके दोनों नेत्रों से मानों आग की चिनगारियाँ निकलने लगी। उन्हें देखकर ऐसा लगता था मानो जगत् का सारा क्रोध मूर्तिमान हो उठा हो। हिरण्याक्ष को समझते देर न लगी कि उसकी इतने दिनों की युद्ध-पिपसा के दूर होने का सुअवसर आ पहुँचा है।
हिरण्याक्ष ने उछल कर अपनी बृहत् लौह-गदा शूकर के सिर पर चला दी। शूकर के थोड़ा पीछे हट जाने से उसकी गदा वराह के दाँत से लगकर चूर चूर हो गयी। अब दोनों के बीच धक्कामुक्की आरम्भ हुई। उनके पदाघात से पृथ्वी दोलायमान हो उठी। नोंच-काटकर दोनों एक-दूसरे का रक्तपात करने लगे। उनके रक्त से भूतल पर कीचड़-ही-कीचड़ हो गया। इस कीचड़ से जहाँ शूकर को सुविधा हुई, वहीं हिरण्याक्ष को घोर असुविधा होने लगी।
हिरण्याक्ष को इस जन्म में अब तक बराबरी का योद्धा नहीं मिल था, परन्तु आज शूकर के समक्ष उसके जीतने की आशा कम थी। उसके शरीर का रक्त क्रोध से गरम होकर मानो उबलने लगा। सहासा वह विराट् शूकर उसके नाम से होकर उसके शरीर के भीतर प्रविष्ट हो गया। इस पर क्रोध से हिरण्याक्ष की जो अवस्था हुई, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। मानो अपने हृत्पिण्ड को निकालकर ही उसे शान्ति मिलती! लीलामय भगवान इसी प्रकार अपने भक्त के साथ क्रीड़ा कर रहे थे।
वराह के पुनः बाहर अपने के बाद दोनों के बीच फिर घमासान युद्ध होने लगा। दोनों के शरीर से रक्त की धारा बह रही थी। लगता था कि दोनों के पदाघात से पृथ्वी अपने कक्षा से च्युत हो जायेगी और ऐसा होने पर निखिल ब्रह्माण्ड का ही ध्वंस हो जायेगा। अन्तरिक्ष में खड़े भयभीत देवतागण काँपने लगे। इधर संध्या भी हो चली थी। ब्रह्माजी ने चिल्लाकर कहा, ‘‘प्रभो, संध्या हो गयी है; संध्या केसमय असुरों की शक्ति बढ़ जाती है। इसका अभी संहार कर डालिए।’’ तब वराह ने अपने वज्रसम तीक्ष्ण दन्त से दैत्य का हृदय विदीर्ण कर डाला। रक्त की मानो नदी बह चली। काफी देर तक हाथ-पाँव पटकने के बाद असुर ठण्डा हो गया। स्वर्ग के देवता आदि वराह की जयध्वनि के साथ पुष्पवृष्टि करने लगे।
पृथ्वी का उद्धार हुआ। बिना अस्त्र के ही हिरण्याक्ष का वध हुआ। देवतागण अपने अपने स्थान पर चले गये। परन्तु श्रीहरि ने अपना शूकर रूप नहीं छोड़ा। वे कीचड़ में जाकर आनन्द करले लगे। एक शूकरी भी आकर उनके साथ रहने लगी। क्रमशः उनके बहुत-से बच्चे हुए और उनका एक बहुत बड़ा परिवार बन गया। वे अपने दल-बल के साथ लोकालोक पर्वत पर जाकर निवास करने लगे। इधर वैकुण्ठ में विश्वपति की अनुपस्थिति से समस्त कार्यो में बड़ी विश्रंृखला आ गयी। ब्रह्माजी उन्हंे ढँूढ़ते हुए लोकालोक पर्वत पर पहुँचे और वहाँ का माजरा देखकर अवाक् रह गये। बड़े कष्टपूर्वक अपनी हँसी रोककर वे श्रीहरि की स्तुति करने लगे। परन्तु उन रक्तवर्ण चतुर्भुज हंसवाहन को देखकर श्रीहरि भयपूर्वक अपने बाल-बच्चों के साथ भागने लगे। ब्रह्माजी हँसते हुए शिव के पास गये। शिवजी ने सब कुछ सुनकर कहा, ‘‘यह तुम्हारे समान साधु व्यक्ति का कर्म नहीं है। चलो, मैं तुम्हें दिखाता हूँ।’’
शिवजी ने हाथी के समान सूँड़ तथा दन्तधारी आठ पाँवों वाले एक विशेष जन्तु का रूप बनाया और लोकालोक पर्वत पर जाकर गर्जन करने लगे। इससे भड़ककर वराह ने उन पर आक्रमण कर दिया। दोनों में खूब युद्ध हुआ। तब अष्टपदी (शिव) ने वराह के शरीर में अपने दाँत घुसाकर उसे चीरकर दो टुकड़े कर डाला। इसके बाद श्रीहरि उस मृतदेह को त्यागकर शिवजी के साथ खिलखिला कर हँसते हुए स्वर्ग चले गये। अब भी पितृपुरूषों के श्राद्ध के अवसर पर घर-घर में उन्हीं आदि-वराह के रूप में श्रीहरि की पूजा हुआ करती है।
सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के व्यक्तिगत प्रमाणित काल में व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त सत्य आधारित सतयुग में तृतीय अवतार - बाराह अवतार तक मानव जाति का विकास और भूमि क्षेत्र बहुत बढ़ गयी थी। जिसमंे राजाओं द्वारा राज्य व्यवस्था स्थापित की जा चुकी थी। उस समय एक राजा हिरण्याक्ष था जो अपनी एकतन्त्रीय राज्य व्यवस्था विशाल क्षेत्रों में प्रभावी कर चुका था परिणामस्वरूप समाज या गणराज्य व्यवस्था संकुचित हो विकास रूक गया था अर्थात् जलमग्न हो गया था। अब तब राज्य समर्थकांे को असुर तथा समाज समर्थकों को देवता कहा जाने लगा था। असुरी राज्य स्थापित हो जाने पर पुनः ऐसे मेधावी, बुद्धि सम्पन्न, पुरूषार्थी, गम्भीर, अहिंसक, निष्कामी व्यक्ति की आवश्यकता समझी जाने लगी थी। तब इन गुणों से युक्त एक पुरूष की आत्मा अदृश्य प्राकृतिक चेतना अर्थात् अदृश्य प्रकृति द्वारा निर्मित परिस्थितियों से वर्तमान में कार्य करना, में स्थापित हो गयी। उसने लोगों का मनोबल बढ़ाया, उन्हें उत्साहित किया, सक्रिय किया। इस हेतु उसने अथक परिश्रम किया। परिणामस्वरूप लोग सक्रिय हुये और उन्होने अपने गणराज्य स्थापित किये। अन्ततः हिरण्याक्ष का राज्य खत्म हो गया। चूॅकि मानव जाति में ऐसी गुण वाला कोई व्यक्ति नहीं होता था इसलिए उसके गुणों की तुुलना सुअर अर्थात् बाराह से करते हुये पूर्व अवतारों के नामकरण की परम्परानुसार कालान्तर में उसे बाराह अवतार का नाम दिया गया।
No comments:
Post a Comment