Sunday, March 15, 2020

महर्षि अरविन्द

महर्षि अरविन्द 

परिचय -
भारतभूमि का चिन्मयी - भारतमता के रूप में दर्शन कर, भारतीयों को नवीन चेतना देने वाले, राष्ट्रवादी महर्षि अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 ई. में हुआ। पिता का नाम कृष्णधन घोष और माता का नाम स्वर्णलता देवी था। प्रारम्भिक शिक्षा दार्जिलिंग में हुई। उच्च शिक्षा इग्लैण्ड के मानचेस्टर और कैम्ब्रिज में प्राप्त की। इनके पिता चाहते थे कि पुत्र आई.सी.एस. करके उच्चाधिकारी बने, परन्तु सन् 1890 में आई.सी.एस. की अश्वारोहण की परीक्षा में जानबूझकर असफल होने से उत्तीर्ण न हो सके।
इग्लैण्ड से लौटकर, बड़ौदा राज्य में अंग्रेजी के प्राध्यापक बनें। वहाँ ब्रह्मानन्द व विष्णु भास्कर लेले नाम के दो योगियों के सम्पर्क में आये। 29 वर्ष की आयु में भूपालचन्द्र बसु की कन्या मृणालिनी से इनका विवाह हुआ। सन् 1903 में भगिनी निवेदिता से भेंट हुई। 1906 ई. में कलकत्ता वापस आये। ”वन्देमातरम्“ पत्र सम्पादन के माध्यम से राष्ट्रसेवा प्रारम्भ की। अलीपुर बम काण्ड में इन्हें बन्दी बनाकर, अलीपुर कारागृह में भेज दिया गया। जेल में इन्हें आत्म साक्षात्कार प्राप्त हुआ। जेल से मुक्ति के पश्चात् अंग्रेजों ने अपने राज्य की सीमा से बाहर कर दिया। आध्यात्मिक चेतना इतनी प्रगाढ़ जागृत हुई कि 1910 ई. में सन्यासी होकर पांडिचेरी में रहने लगे। 1914 ई. में ”आर्य“ नामक अंग्रेजी मासिक प्रारम्भ किया। 1918 ई. में इनकी पत्नी का देहावसान हुआ। श्रीमती मीरा रिचर्ड नाम की फ्रांसीसी महिला ने प्रभावित होकर इनका शिष्यत्व ग्रहण किया। बाद में वे श्री माँ के नाम से जानी गईं। 24 नवम्बर, 1926 को इन्हें सिद्धि प्राप्त हुई। दि लाइफ डिवाइन, योगिक साधना, ऐसेज आॅन गीता आदि 15 ग्रन्थ लिखे। उनका विश्वास था कि भारत एक दिन अखण्ड होकर रहेगा। 5 दिसम्बर 1950 को अपनी इहलीला समाप्त कर परम तत्व में समा गये।
श्री अरविन्द की प्रमुख कृतियां द मदर, लेटर्स आॅन योगा, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, फ्यूचर पोअट्री है। प्रमुख शिष्य चम्पक लाल, नलिनि कान्त गुप्त, कैखुसरो दादा भाई सेठना, निरोदबरन, एम.पी.पण्डत, प्रणब, इन्द्रसेन थे। 
श्री अरविन्द के भारतीय शिक्षा चिन्तन में महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने सर्वप्रथम घोषणा की कि - मानव सांसारिक जीवन में भी दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है। मानव भौतिक जीवन व्यतीत करते हुए तथा अन्य मानवों की सेवा करते हुए अपने मानस को ”अति मानस“ तथा स्वयं को ”अति मानव“ में परिवर्तित कर सकता है। श्री अरविन्द के दर्शन का लक्ष्य ”उदात्त सत्य का ज्ञान“ है जो ”समग्र जीवन दृष्टि“ द्वारा प्राप्त होता है। समग्र जीवन दृष्टि मानव के ब्रह्म में लीन या एकाकार होने पर विकसित होती है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा मानव ”अति मानव“ बन जाता है अर्थात वह सत, रज व तम की प्रवृत्ति से ऊपर उठकर ज्ञानी बन जाता है। अतिमानव की स्थिति में व्यक्ति सभी प्राणियों को अपना ही रूप समझता है। जब व्यक्ति शारीरिक, मानसिंक तथा आत्मिक दृष्टि से एकाकार हो जाता है तो उसमें दैवी शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। समग्र जीवन-दृष्टि हेतू अरविन्द ने योगाभ्यास पर अधिक बल दिया है। योग द्वारा मानसिक शान्ति एवं संतोष प्राप्त होता है। अरविन्द की दृष्टि में योग का अर्थ जीवन को त्यागना नहीं है बल्कि दैवी शक्ति पर विश्वास रखते हुए जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों का साहस से सामना करना है। अरविन्द की दृष्टि में योग कठिन आसन व प्राणायाम का अभ्यास करना भी नहीं है बल्कि ईश्वर के प्रति निष्काम भाव से आत्म समर्पण करना तथा मानसिक शिक्षा द्वारा स्वयं को दैवी स्वरूप में परिणित करना है। मस्तिष्क के विचार स्तर चित्त, मनस, बुद्धि तथा अन्र्तज्ञान होते हैं जिनका क्रमशः विकास होता है। अन्र्तज्ञान में व्यक्ति को अज्ञान से संदेश प्राप्त होते हैं जो ब्रह्मज्ञान के आरम्भ का परिचायक है। अन्र्तज्ञान द्वारा ही मानवता प्रगति के वर्तमान दशा को पहुँचती है। श्री अरविन्द की मस्तिष्क की धारणा की परिणत ”अतिमानस“ की कल्पना व उसके अस्तित्व में है। अतिमानस चेतना का उच्च स्तर है तथा दैवी आत्म शक्ति का रूप है। अतिमानस की स्थिति तक शनैः शनैः पहुँचना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। भारतीय प्रतिभा की तीन विशेषताएँ हैं- आत्मज्ञान, सर्जनात्मकता तथा बुद्धिमत्ता। भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान जैसी उत्कृष्ट उपलब्धि बगैर उच्च कोटि के अनुशासन के अभाव में संभव नहीं हो सकती जिसमें कि आत्मा व मस्तिष्क की पूर्ण शिक्षा निहित है।
प्रत्येक दार्शनिक अंततः एक शिक्षाविद् होता है क्योंकि शिक्षा, दर्शन का गत्यात्मक पक्ष है। वे वर्तमान शिक्षा-पद्धति से असन्तुष्ट थे। उनका कहना था- सूचनात्मक ज्ञान कुशाग्र बुद्धि का आधार नहीं हो सकता। यह ज्ञान तो नवीन अनुसंधान तथा भावी क्रियाकलापों का आरम्भ मात्र होता है। अरविन्द इस प्रकार की शिक्षा पद्धति चाहते थे जो विद्यार्थी के ज्ञान क्षेत्र का विस्तार करे, जो विद्यार्थीयों की स्मृति, निर्णयन शक्ति एवं सर्जनात्मक क्षमता का विकास करे तथा जिसका माध्यम मातृभाषा हो। शिक्षा द्वारा पुनर्जागरण तीन दिशाओं की ओर उन्मुख होना चाहिए। 1. प्राचीन आध्यात्म ज्ञान की पुर्नस्थापना, 2. इस आध्यात्म ज्ञान की दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान व विवेचनात्मक ज्ञान में प्रयोग तथा 3. वर्तमान समस्याओं का भारतीय आत्मज्ञान की दृष्टि से समाधान की खोज तथा आध्यात्म प्रधान समाज की स्थापना।
श्री अरविन्द के अनुसार- शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य विकासशील आत्मा के सर्वांगीण विकास में सहायक होना तथा उसे उच्च आदर्शो के लिए प्रयोग हेतू सक्षम बनाना है। अरविन्द के विचार महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के लक्ष्यों के समान है। श्री अरविन्द का विश्वास था कि मानव दैवी शक्ति से समन्वित है और शिक्षा का लक्ष्य इस चेतना शक्ति का विकास करना है। इसीलिए वे मस्तिष्क को छठीं ज्ञानेन्द्रिय मानते थे। शिक्षा का प्रयोजन इन छः ज्ञानेन्द्रियों का सदुपयोग करना सिखाना होना चाहिए। मस्तिष्क का उच्चतम सीमा तक पूर्ण प्रशिक्षण होना चाहिए अन्यथा बालक अपूर्ण तथा एकांगी रह जायेगा। अतः शिक्षा का लक्ष्य मानव व्यक्तित्व के समेकित विकास हेतू अतिमानस का उपयोग करना है। शिक्षा के पाठ्यक्रम के विषय में अरविन्द चाहते थे कि अनेक विषयों का सतही ज्ञान कराने की अपेक्षा विद्यार्थीयों को कुछ चयनित विषयों का ही गहन अध्ययन कराया जाये। वे भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग मानते थे क्योंकि उनका विचार था कि प्रत्येक बालक में इतिहास बोध होता है जो परकथाओं, खेल व खिलौनों के माध्यम से प्रकट होता है। अतः बालकों को अभिरूचि अपने देश के साहित्य एवं इतिहास के प्रति विकसित करनी चाहिए। श्री अरविन्द के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में जिज्ञासा, खोज, विश्लेषण व संश्लेषण करने की प्रवृत्ति होती है। अतः वे विज्ञान को पाठ्यक्रम में स्थान देते थे। विज्ञान द्वारा मानव प्राकृतिक वातावरण को समझता है तथा उसमें वस्तुनिष्ट बुद्धि के विकास हेतू अनुशासन आता है। मस्तिष्क को प्रधानता देने के कारण अरविन्द पाठ्यक्रम में मनोविज्ञान विषय को भी सम्मिलित करना चाहते थे जिससे कि ”समग्र जीवन दृष्टि“ विकसित हो सके। इसी उद्देश्य से वे पाठ्यक्रम में दर्शन एवं तर्क शास्त्र को भी स्थान देते थे।
श्री अरविन्द के अनुसार शिक्षण एक विज्ञान है जिसके द्वारा विद्यार्थीयों के व्यवहार में परिवर्तन आना अनिवार्य है। वास्तविक शिक्षण का प्रथम सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाना सम्भव नहीं अर्थात बाहर से शिक्षार्थी के मस्तिष्क पर कोई चीज न थोपी जाये। शिक्षण प्रक्रिया द्वारा शिक्षार्थी के मस्तिष्क की क्रिया को ठीक दिशा देनी चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थी को व्यक्तिगत अभिवृत्ति एवं योग्यता के अनुकूल शिक्षा देनी चाहिए। विद्यार्थी को अपनी प्रवृति अर्थात ”स्वधर्म“ के अनुसार विकास के अवसर मिलने चाहिए। श्री अरविन्द शिक्षक का महत्व प्रकट करते हुए कहते थे कि- शिक्षक प्रशिक्षक नहीं है, वह तो सहायक एवं पथप्रदर्शक है। वह केवल ज्ञान ही नहीं देता बल्कि वह ज्ञान प्राप्त करने की दिशा भी दिखलाता है। शिक्षण-पद्धति की उत्कृष्टता उपयुक्त शिक्षक पर ही निर्भर होती है।

महर्षि अरविन्द की वाणी
1.उत्पीड़न आज तक धार्मिक निष्ठा को नष्ट नहीं कर सका और आत्मचेतन भारत तो किसी तानाशाह की दण्डशलाका से दमित होने के लिए बहुत बड़ी ताकत है। अत्याचार कुचलते नहीं बल्कि सम्प्रत्यय और विश्वास की मोर्चाबन्दी करते है। और धरती पर ऐसी कोई शक्ति नहीं जो सच्चे लोगों के रक्त में एक बार अंकुरित हुये स्वतन्त्रता के बीज को उन्मूलित कर सके।
2.यह जनशक्ति ही है जो हमारी सम्पूर्ण आशा है...... सम्पूर्ण आश्वासन, भविष्य की हमारी सम्पूर्ण संभावना..... इसे सामाजिक और राजनीतिक प्रभुता प्राप्त करने के लिए अपने परिणाम, प्रबलता और महत्व में अनन्तगुना होना है।
3.एक चीज जिसे हमें सबसे पहले प्राप्त करना है वह है शक्ति-शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्ति और सर्वोपरि रूप से आध्यात्मिक शक्ति, जो दूसरी सारी शक्तियों का अक्षय स्रोत है। अगर हममें शक्ति है तो दूसरी हर चीज बहुत आसानी और स्वाभाविकता के साथ हमसे जुड़ जायेगी।
4.जिन्होंने अपने देश को स्वतन्त्र किया है वे सम्पूर्ण आत्मत्याग की यातना से गुजरे है। जो भारत को स्वतन्त्र करने की उत्कृष्ट आकांक्षा से प्रेरित है, उन्हें पहले उस मूल्य को अदा करना होगा, माता जिसका माँग करती है। पुनरूद्वार का अर्थ है पुनर्जन्म- नया जन्म और यह बुद्धि से नहीं मिलता, किसी नीति सेे नहीं मिलता, न ही इसे यांत्रिक परिवर्तन से प्राप्त किया जा सकता है। यह एक नया हृदय पाने से आता है, सब कुछ यज्ञाग्नि में झोंक देने से आता है। इसके लिए ”माता“ में पुनः जन्म लेना होता है।
5.भारत माता जो आदि जननी है। वह वस्तुतः पुनर्जन्म लेने का प्रयास कर रही है। वह असह्य वेदना और आँखों में आँसू लिए है उसे कठिनाई किस बात की है? इतनी विशाल होते हुए भी वह अशक्त क्यों है? अवश्य ही हममें कोई भारी दोष होगा। हमारे पास बाकी सब चीजे है बस हम शक्ति शून्य है। ऊर्जा का हममें अभाव है। हमने शक्ति को त्याग दिया है अथवा शक्ति द्वारा हम त्याग दिये गये है। हमारी माता का वास हमारे अन्तः करण में, मस्तिष्क में है। भुजाओं में नहीं है।
6.लोग अपने देश को एक जड़ पदार्थ का टुकड़ा समझते है। खेत, वन और पहाड़ियों - नदियों के रूप में, लेकिन मैं अपने देश को अपनी माता मानता हैं। मैं उसकी अराधना करता हँू। माता के रूप में उसकी पूजा करता हूँ। यदि कोई राक्षस किसी पुत्र की माता की छाती पर चढ़कर उसका खून चूसने लगे तो वह पुत्र क्या करेगा? मैं यह जानता हूँ कि मुझमें इस गिरे हुए राष्ट्र को उबारने की शक्ति है। मैं शारीरिक शक्ति की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं कोई तलवार या बंदूक उठाकर लड़ने नहीं जा रहा हूँ। मैं ज्ञान की शक्ति से विजय प्राप्त करूँगा।
7.मातृभूमि में जीना गर्व की बात है और मातृभूमि के लिए मरना सौभाग्य की।
8.”आत्म-विश्वास, आत्म ज्ञान, आत्मसत्ता के बोध से सम्पन्न अपनी सरकार“ यह श्री अरविन्द के स्वराज की परिभाषा थी जितनी राजनीतिक उतनी ही वेदान्तिक।
9.हमारा देश यह राष्ट्र ”प्रकृति“ की कर्मशाला की एक नयी और अनगढ़ या आधुनिक परिस्थितियों द्वारा रची गयी जाति नहीं है, बल्कि इस धरती पर प्राचीनतम जातियों और सबसे महान सभ्यताओं में से एक है।- तेज और ओज में सबसे अधिक अदम्य, महत्ता में सबसे अधिक उर्वर, जीवन में गहनतम और अन्तः शक्ति में असाधारण। भारत की स्वतन्त्रता, एकता और महानता अब विश्व के लिए आवश्यक हो गयी है।
10.हमें हर व्यक्तिगत स्वार्थ को बृहत्तर राष्ट्रीय सन्दर्भ में मिटा देना सीखना है, ताकि मानवता में ईश्वर विकसित हो सके। यह राष्ट्रीयता है जो इस समय युग-धर्म, काल धर्म है और ईश्वर इसे हमारी, हम सबकी ”एक माता“ के अन्दर अभिव्यक्त कर रहा है।
11.आओ, माता की पुकार सुनों। वह हमारे हृदय में है और अपने प्रकाट्य की प्रतीक्षा कर रही है। उसकी सेवा करो अपने शरीरों से या अपनी बुद्धि से या वाणी या समृद्धि से अथवा अपनी प्रार्थना और आराधना से पीछे मत हटो।
12.हमारा उद्देश्य होगा मानवता के लिए भारत के निर्माण में सहायक होना- यह राष्ट्रीयता की चेतना है जिसका हम दावा करते है। और अनुसरण करते है। हम मानवता से कहते है- वह समय आ गया है जब तुम्हें बड़ा कदम उठाना है और भौतिक सत्ता से निकलकर एक उच्चतर, गहनतर और विशालतर जीवन में उठना है जिसकी ओर मानवता संचरण कर रही है।
13.राष्ट्र निर्माण... इस महान कार्य में राजनीति तो केवल एक अंग है। हम केवल राजनीति को ही अर्पित नहीं होगें, न केवल सामाजिक समस्याओं, न ईश्वर-मीमांसा या दर्शन या साहित्य या विज्ञान को बल्कि हम इन सबको एक ”सत्व“ में एक अस्तित्व में शामिल करेगें और हमें विश्वास है कि यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यही हमारा राष्ट्रीय धर्म है। जिसके सार्वभौम होने का विश्वास भी हमें है।
14.यह भारत है जो इस सर्वोच्च आगे महान नियति के लिए नियत है। यह भारत है जो अपने अन्दर से विश्व के भावी धर्म को उत्सर्जित करेगा- उस शाश्वत धर्म को, जो सम्पूर्ण मानवजाति को ”एक आत्मा“ के रूप में निर्मित कर सकता है।
15.एक राष्ट्र के रूप में हम अपने जीवन की परिपूर्णता चाहते है.... हमारा उद्देश्य, हमारा दावा है कि हम एक राष्ट्र के रूप में विनाश को प्राप्त नहीं होंगे, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में जियेंगें।
16.भारत की रचना विधाता ने संयोग के बेतरतीब ईटो से नहीं की है। भारत की नियति का निर्माण करने वाला देवता चक्षुहीन अर्थात अंधा नहीं है। इसकी योजना किसी चैतन्य शक्ति ने बनाई है। जो इसके विपरीत कार्य करेगा वह मरेगा ही मरेगा।



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