Sunday, March 15, 2020

ईश्वर और ईश्वर का संक्षिप्त इतिहास

‘‘श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में मत्स्य-कूर्मादि अनेक अवतारों पर चर्चा हुई है, लेकिन दशावतारवाद कब प्रचलित हुआ था, इसकी जानकारी नहीं मिलती। सम्भवतः जयदेव के काल - द्वादश शताब्दी में यह मतवाद सुपरिचित था। परशुराम आदि चारों महात्मा ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे, इसमें सन्देह नहीं। हिन्दू समाज के उत्थान-पतन विषयक इतिहास का स्पष्ट संकेत इनके जीवन में मिलता है। उपन्यास पाठ करके साहित्य-रसिक पाठक जैसा आनन्द और उपदेश प्राप्त करते है, वैसे ही पौराणिक कहानियाँ भी भक्तजनों को आनन्द और शिक्षा प्रदान करती है। इन दोनों तरह के साहित्यों का आनन्द तथा शिक्षा उनकी ऐतिहासिकता पर निर्भर नहीं करती।’’
विष्णु के दस अवतारों के स्थूल और सूक्ष्म अन्तिम दृश्य परिचय जो प्रारम्भ होता है - प्राकृतिक परिवर्तन के फलस्वरूप हुयी घटना जिसे प्रलय कहते है वहीं से इस वर्तमान मानव श्रृंखला के अब तक के विकास तक का परिचय।
प्रथम अवतार: मत्स्य अवतार
द्वितीय अवतार: कूर्म / कच्छपावतार
तृतीय अवतार: बाराह अवतार
चतुर्थ अवतार: नृसिंह अवतार
पंाचवाॅ अवतार: वामन अवतार
छठा अवतार: परशुराम अवतार
सातवाँ अवतार: श्री राम अवतार - रामायण (मानक व्यक्ति चरित्र)
आठवाँ अवतार: श्री कृष्ण अवतार - महाभारत (मानक सामाजिक व्यक्ति चरित्र)
नौवाँ अवतार: बुद्ध अवतार 
दसवाँ और अन्तिम महाअवतार: श्री कल्कि

ईश्वर और ईश्वर का संक्षिप्त इतिहास

विभिन्न मतों या विचारों का अन्त और मूल ”एक का विचार“ है। इस ”एक का विचार“ से हम सभी और ऊपर नहीं जा सकते। इस एक को वेदान्त में ”अद्वैत“ या ”अव्यक्त एकेश्वर“ कहा गया और उसी का प्रत्येक में प्रकाश अर्थात् ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता“ आत्मसात् किया गया, जो अदृश्य आध्यात्म विज्ञान ही नहीं वर्तमान के दृश्य पदार्थ विज्ञान के नवीनतम अविष्कार के फलस्वरुप सिद्ध हो चुका है। इसी एक अदृश्य सत्य को शिव या आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या भगवान कहा गया तथा उसके अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य गुण और दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित सिद्धान्त को दृश्य गुण कहा गया। जिस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता है।“ उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसका अदृश्य और दृश्य गुण का एक ही सिद्धान्त व्याप्त है। सिद्ध अर्थात् प्रमाणित विषयों और नियमों का अन्त ही सिद्धान्त है। जब अदृश्य आध्यात्म विज्ञान की ओर से सिद्ध विषयों और नियमों को व्यक्त करते हुए एक की ओर जाते हैं, तब वह अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्धान्त तथा जब दृश्य पदार्थ विज्ञान की ओर से सिद्ध विषयों और नियमों को व्यक्त करते हुये उस एक की ओर जाते हैं, तब वह दृश्य सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित सिद्धान्त कहलाता है। आध्यात्म की ओर से उस एक तक पहुँचने के बाद सिर्फ ज्ञान और वाणी रुप ही व्यक्त हो पाता है। और वह ”सभी एक ही हैं“, ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता“, ”समस्त विश्व एक परिवार है“, ”विश्व-बन्धुत्व“, ”बसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजन हिताय बहुजन सुखाय“, ”एक आत्मा के ही तुम प्रकाश हो“, ”आपस में प्रेम से रहो“, ”एकात्म मानवतावाद“ इत्यादि सत्य शब्द व्यक्त होते हैं, लेकिन यह व्यवहारिक नहीं हो पाते क्योंकि ये ज्ञान का एक फल है, ज्ञान का बीज नहीं जिससे प्रत्येक व्यक्ति इसके महत्व को समझ सके। परिणामस्वरुप ये व्यावहारिक नहीं बन पाते। इसे व्यावहारिकता में लाने के लिए ज्ञान का बीज अर्थात् दृश्य ज्ञान और कर्म ज्ञान अर्थात् सार्वजनिक प्रमाणित एकात्म कर्म-सिद्धान्त की आवश्यकता पड़ती है। ये सार्वजनिक प्रमाणित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ही ईश्वर है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसको आविष्कृत करने वाले ऋषि या अवतार हैं और इसके द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियमित करने वाला ब्राह्मण है। इसी सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित अदृश्य सिद्धान्त को दृश्य करने के लिए समय-समय पर उपयुक्त वातावरण मिलने पर यह सिद्धान्त, सिद्धान्तानुसार ही मानव शरीर धारण, जीवन, कर्म, ज्ञान, ध्यान और सिद्धान्त को व्यक्त करता है। जब तक की वह सिद्धान्त स्वयं को पूर्ण रुप में व्यक्त न कर ले। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि जिस प्रकार साधारण मानव अपनी इच्छा के लिए कर्म कर व्यक्त होता है उसी प्रकार सिद्धान्त स्वयं की इच्छा से स्वयं को व्यक्त करने के लिए कर्म कर व्यक्त होता है। वह शरीर जिसमें ईश्वर या सिद्धान्त का अवतरण होता है उसे ईश्वर का सगुण-साकार-दृश्य रुप कहा जाता है। परन्तु किसी भी स्थिति में शरीर ईश्वर नहीं होेता है क्योंकि प्रत्येक मानव शरीर सिद्धान्तानुसार ही व्यक्त होता है जो सिद्धान्त के ज्ञान से युक्त हो जाते है वे आत्म प्रकाश में होकर सफल जीवन व्यतीत करते हैं जो अज्ञान में रहते हैं वे अपने संकीर्ण ज्ञान व विचार के कारण सीमित चक्र में उलझकर रह जाते हैं। यहीं ज्ञान, कर्म ज्ञान या सत्य-सिद्धान्त की उपयोगिता है।    
शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म के गुण सिद्धान्त के अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित से दृश्य सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित करने के क्रम में तीन गुणों के कर्मों से युक्त हो संक्रमणीय, संग्रहणीय, गुणात्मक रुप से गुजरना पड़ता है वे हैं- एकात्म कर्म, एकात्म ज्ञान और एकात्म ध्यान। चूँकि एकात्म कर्म के बिना एकात्म-ज्ञान का जन्म नहीं होता इसलिए अदृश्य सिद्धान्त से प्रथमतया एकात्म कर्म का अवतरण होता है। पुनः एकात्म कर्म से एकात्म ज्ञान का अवतरण होता है। चूँकि एकात्म-ज्ञान बिना एकात्म-कर्म के सार्वजनिक प्रमाणित नहीं होता। इसलिए एकात्म-ज्ञान और एकात्म कर्म का संयुक्त अवतरण होता है। चूँकि एकात्म-ज्ञान और एकात्म-कर्म सार्वजनिक रुप से प्रमाणित हैं। जो आगे समाज के विकसित हो जाने पर व्यक्तिगत प्रमाणित में ही परिवर्तित हो जाता है। इसलिए सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय रुप से प्रमाणित होने के लिये दृश्य सिद्धान्त संयुक्त रुप से- एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म और एकातम-ध्यान से युक्त हो पूर्ण अवतरित हो जाता है। ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक प्रमाणित दृश्य सिद्धान्त के अवतरण के लिए ब्रह्माण्डीय एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म और एकात्म- ध्यान की आवश्यकता होती है। इन अवतारों के बीच मूल गुणों के अंशावतार भी होते हैं। 
उपरोक्त सम्पूर्ण दृश्य व्यक्त होने की क्रिया को ही व्यावहारिक रुप से समझने के लिए पुराणों में ब्रह्मा को एकात्म-ज्ञान से, विष्णु को एकात्म-ज्ञान सहित एकात्म-कर्म से तथा शिव-शंकर को एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म सहित एकात्म-ध्यान से प्रक्षेपित किया गया है। तथा सर्वप्रथम अदृश्य शिव-शंकर (एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म, एकात्म-ध्यान) से विष्णु (एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म), फिर विष्णु (एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म) से ब्रह्मा (एकात्म-ज्ञान) को बहिर्गत अर्थात् ब्रह्मा (एकात्म-ज्ञान) को विष्णु (एकात्म-कर्म, एकात्म-ज्ञान) में और विष्णु (एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म) को शिव-शंकर (एकात्म-कर्म, एकात्म-ज्ञान, एकात्म-ध्यान) में समाहित या समर्पित होते दिखाया गया है। यदि सिर्फ एकात्म-कर्म या एकात्म-ज्ञान में से एक से युक्त कोई अवतरित शरीर है तो उसे विष्णु का अंशावतार समझना चाहिए। यदि सिर्फ एकात्म-ज्ञान और एकात्म-ध्यान या एकात्म-कर्म और एकात्म-ध्यान में से एक से युक्त कोई अवतरित शरीर है तो उसे शिव-शंकर का अंशावतार समझना चाहिए। यदि कोई सिर्फ एकात्म-ध्यान से युक्त अवतरित शरीर है तो उसे शंकर का पूर्णावतार न कि शिव-शंकर का पूर्णावतार समझना चाहिए। चूँकि ब्रह्माण्डीय रुप से निराकार शिव एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म और एकात्म-ध्यान से ही प्रमाणित किये जा सकते हैं इसलिए एकात्म ध्यान के देवता शंकर को ही पुराणों में शिव-शंकर, महादेव, त्रिनेत्र आदि से सर्वोच्च सम्बोधन किया गया है। सिर्फ शिव-शंकर में ही ब्रह्मा और विष्णु समाहित और समर्पित हैं न कि शंकर में। अर्थात् जब विष्णु सक्रिय होते हैं तो ब्रह्मा निष्क्रिय हो जाते हैं और जब शिव-शंकर सक्रिय होते हैं तब विष्णु निष्क्रिय हो जाते हैं और जब शिव-शंकर निष्क्रिय  हो जाते हैं तब समझना चाहिए कि विनाश नजदीक आ रहा है। 
एकात्म का अर्थ कोई व्यक्ति व्यक्तिगत रुप से अपनी आत्मा के लिए न समझे, यह समझना एक समय सत्य हो सकता है जब उसमें मन या इच्छा का पूर्ण अभाव हो। इसका सही अर्थ सम्पूर्ण मानव जाति सहित ब्रह्माण्डीय रुप से स्वीकार्य सभी में व्याप्त उस आत्मा से है। इस प्रकार एकात्म ज्ञान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त विवादमुक्त, एकीकृत, स्वीकृत, सामान्यीकृत ज्ञान से है। एकात्म कर्म का अर्थ एकात्म ज्ञान पर आधारित एकीकृत, स्वीकृत, सामान्याकृत विवादमुक्त रचनात्मक कर्म से है। इसी प्रकार एकात्म ध्यान का अर्थ उस काल चिन्तन से है जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड सहित मानव जाति समर्पित, स्वीकृत, एकीकृत, विवादमुक्त होने के लिए विवशता संकट बन जाये। 
जब बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता है तब प्रत्येक ही व्यक्तिगत रुप से शिव-आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म का अवतार है। अर्थात् प्रत्येक में व्यक्तिगत आत्मा रुप से ज्ञान, कर्म और ध्यान है। मूल गुणों में प्रथम प्रत्येक ही व्यक्तिगत रुप से ब्रह्मा अर्थात् एकातम ज्ञान का अवतार है, इसलिए प्रत्येक को व्यक्तिगत रुप से ”मैं ही ब्रह्म हूँ“ कहने का सत्य अधिकार है परन्तु यह न तो सामाजिक और न ही सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय रुप से प्रमाणित है। क्योंकि इसके लिए सामाजिक या ब्रह्माण्डीय एकात्म ज्ञान चाहिए। द्वितीय- प्रत्येक ही व्यक्तिगत रुप से एकात्म-कर्म अर्थात् विष्णु का अवतार है। इसलिए प्रत्येक को व्यक्तिगत रुप से ”मैं ही विष्णु हूँ“ कहने का सत्य अधिकार है। परन्तु यह न तो सामाजिक और न ही सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय रुप से प्रमाणित है। क्योंकि इसके लिए सामाजिक या ब्रह्माण्डीय एकात्म-ज्ञान और एकात्म-कर्म चाहिए। तृतीय- प्रत्येक ही व्यक्तिगत रुप से एकात्म-ध्यान अर्थात् शंकर का अवतार है, इसलिए प्रत्येक को व्यक्तिगत रुप से ”मैं शंकर हूँ“ कहने का सत्य अधिकार है। परन्तु यह न तो सामाजिक और न ही सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय रुप से प्रमाणित है। क्योंकि इसके लिए सामाजिक या ब्रह्माण्डीय एकात्म-ध्यान अर्थात् काल चिन्तन चाहिए। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शंकर के सभी अवतार शिव-ईश्वर-आत्मा-ब्रह्म के व्यक्तिगत रुप से अवतार हैं। इसलिए प्रत्येक को व्यक्तिगत रुप से ”मैं ही शिव हूँ“ या ”मैं ही आत्मा हूँ“ या ”मैं ही ईश्वर हूँ“ कहने का सत्य अधिकार है। परन्तु यह न तो सामाजिक और न ही सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय रुप से प्रमाणित है। क्योंकि इसके लिए संयुक्त रुप से ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक एकात्म-ज्ञान, एकात्म-कर्म और एकात्म ध्यान चाहिए। और दृश्य रुप कांे प्रमाणित करने के लिए ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक प्रमाणित सर्ववयापी दृश्य सिद्धान्त चाहिए। उसके उपरान्त ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शिवमय हो ”सभी शिव हैं“, ”सभी शंकर हैं“, ”सभी विष्णु हैं“, ”सभी ईश्वर हैं“, ”सभी आत्मा हैं“ प्रमाणित हो जाता है। 



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