Sunday, March 15, 2020

धर्म और रिलिजन

साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

धर्म और रिलिजन
पाश्चात्य चिंतन में धर्म के स्थान पर “रिलिजन” शब्द का प्रयोग मिलता है। अतः रिलिजन शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है। कई विद्वान रिलिजन शब्द का प्रयोग एवं धर्म शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं। वे इन्हें पूर्णतः एक ही मान लेते हैं और रिलिजन कह ही भाँति धर्म को व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं। इसका प्रमुख कारण दोनों में कुछ समरूपताओं का पाया जाना है, जैसे- पवित्रता, संयमपूर्ण जीवन, नैतिकता, विश्वास, ईश्वर की या परमसत्ता की मान्यता, प्रार्थना, उपासना, स्वर्ग-नरक आदि। किन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि धर्म व रिलिजन एक ही हैं या दोनों का प्रयोग समग्र अर्थ में एक दूसरे के स्थान पर किया जा सकता है।
धर्म के लौकिक प्रयोग (हिन्दी विश्वकोष, एकादश भाग, नगेन्द्रनाथ बसु, पृष्ठ 107-108) को वर्णित करते हुए धर्म व रिलिजन के अर्थभेद को स्पष्ट किया गया है। इसमें ऋग्वेद के अनुसार धर्म को जगत् के निर्वाहक नियमों के समूह के रूप में स्वीकार किया गया है। धर्म शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जबकि लैटिन-अंग्रेजी भाषा के रिलिजन शब्द से विभिन्न जातियों की ईश्वरोपासना प्रणाली का बोध होता है। संस्कृत में ईश्वरोपासना प्रणाली को महत्ता दी गयी है किन्तु वह आचार शब्द के अन्तर्गत है। धर्म शब्द से आचार शब्द का बोध कराते हुए क्रमशः उसका अर्थ संकुचित कर आचार के विभिन्नांशो के लिए उसका प्रयोग किया जाने लगा और ऐसी स्थिति में रिलिजन शब्द का अर्थ धर्म में प्रविष्ट हो गया तथा धर्म को रिलिजन शब्द के स्थान पर, रिलिजन को धर्म शब्द के स्थान पर प्रयुक्त किया जाने लगा।
मैक्समूलर के अनुसार- धर्म और रिलिजन दो पृथक भाषाओं के शब्द हैं अतः धर्म को ग्रीक या लैटिन में अनुवादित नहीं किया जा सकता है और न ही लैटिन के रिलिजन में ही धर्म का सम्पूर्ण अर्थ सन्निहित है।
धर्म एवं रिलिजन में एक अन्य प्रमुख भेद व्यापकता का भी पाया जाता है। धर्म में ईश्वर को मानने वाले और ईश्वर को न मानने वाले, दोनों को धर्म में समावेशित किया गया है। वैदिक धर्म में ईश्वर की सत्ता में विश्वास प्रकट किया गया है किन्तु जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म में ईश्वर (सृष्टा) के अस्तित्व में विश्वास प्रकट नहीं किया गया है जबकि रिलिजन के अर्थ के अन्तर्गत दिव्य सत्ता (ईश्वर), अलौकिक विश्वास, ईश्वर की अधिनता का आदर्श, ईश्वर का सृष्टित्व, उपवास, प्रायश्चित, विभिन्न उपासना पद्धतियाँ आदि को विशेष रूप से स्वीकार किया गया है। अनीश्वरवादी (ईश्वर को नहीं मानने वाला) धर्म हो सकता है, इसे प्रायः पाश्चात्य चिंतन परम्परा में स्थान दिये जाने का उल्लेख नहीं मिलता हे। दैवीय सत्ता के प्रकाशना (जिसके द्वारा ईश्वर स्वयं मनुष्यों को अपने विषय में जानकारी देता है), चमत्कार, आदि का बोध रिलिजन माना गया है। धर्म में भी आचार-विचार के दृष्टिकोण से इन समस्त भावों का आभास पाया जाता है किन्तु विभिन्न ग्रन्थों में धर्म के उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्म का अर्थ व स्वरूप रिलिजन के अर्थ एवं स्वरूप की अपेक्षा अधिक व्यापक है क्योंकि धर्म के रूप में तत्कालिन मनुष्य की सामाजिक व्यवस्था के स्वरूप के अनुसार धार्मिक विधि-विधान, सामाजिक एवं नैतिक नियमों, रीति-रिवाजों, ईश्वर, आत्मा, सृष्टि आदि से सम्बन्धित अवधारणाओं को वर्णित किया गया है। धर्म शब्द का प्रयोग मूर्तामूर्त, आत्मवाद व अनात्मवाद, ईश्वरवाद व अनीश्वरवाद, आचार, शास्त्र-आज्ञा, कर्तव्यपालन, श्रेय व प्रेय की सिद्धि, स्वभाव आदि सभी के लिए प्रयुक्त हुआ है। रिलिजन शब्द का प्रयोग कहीं पर भी अनात्मवाद या अनीश्वरवाद के लिए किया गया हो ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। कारण यह है कि रिलिजन का अर्थ ही मनुष्य को ईश्वर से सम्बन्धित करना अथवा बाँधना है। अतः यह स्पष्ट होता है कि धर्म शब्द का अर्थ व प्रयोग निःसन्देह व्यापक व विस्तृत अर्थ में हुआ है जबकि रिलिजन शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत कम व्यापक अर्थ में किया गया है।


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