साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्मसमभाव की अवधारणा और विश्वधर्म का आधार
मानव जीवन में धर्म का अपना विशिष्ट स्थान है। अतः प्राचीन काल से ही मानव धर्म के सम्बन्ध में विविध रूपों में चिन्तन प्रस्तुत करता रहा है। प्रकृति के परिवर्तनशीलता और मानव के विकास के साथ-साथ धर्म-धारणा में भी निरन्तर परिवर्तन, परिष्कार तथा विकास उदात्तता की ओर होता चलता गया है। सभी धर्म मानव जाति के उत्थान और एकता के लिए विकसित हुए हैं। सभी धर्म इसके लिए प्रेम, सौहार्द, सौमनस्यपूर्णता तथा समत्वभाव का चिन्तन प्रस्तुत करते हैं, तथापि धर्म को लेकर मानव समाज में हिंसा, द्वेष, वैमनस्य और वैर-विरोध पाये जाते हैं। सामान्य मानव के मस्तिष्क में धर्म के नाम पर या तो मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा, चर्च, अगियारि आदि स्मृति में आते हैं, या फिर वेद, उपनिषद्, गीता, रामायण, पुराण, त्रिपिटक, आगम शास्त्र, कुरआन, जेन्द-अवेस्ता, कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ, प्रार्थना, नमाज आदि। किन्तु धर्म यही तक सीमित नहीं है। धर्म के व्यापक धरातल को प्रस्तुत करने की दृष्टि से एवं धर्मानुयायियों में व्यापक कट्टरता, विद्वेष, साम्प्रदायिकता तथा हठधर्मिता को दूर करने की दृष्टि से ”धर्म समभाव“ की धारणा चिन्तकों द्वारा प्रस्तुत की गयी है। परन्तु स्वयं धर्म समभाव के विषय में भी कालान्तर में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण निर्मित होते गये। यही कारण है कि धर्म और धर्म समभाव का संगत अर्थ सही परिप्रेक्ष्य में उसके सभी पक्ष-उपपक्ष के साथ प्रस्ततु किया जाना आधुनिक काल की महती आवश्यकता बन गई है।
धर्म समभाव का अर्थ एवं परिभाषा
धर्म समभाव शब्द तीन पदों से बना है। प्रथम पद है-धर्म, द्वितीय पद है-सम और तृतीय पद है-भाव। शब्दकोश में हमें धर्म समभाव की सम्पूर्ण परिभाषा उपलब्ध नहीं होती है। अतः हम पदों के अर्थ निरूपित करते हुए इनके योग के आधार पर एवं विचारकों के दृष्टिकोण के आधार पर इसके (धर्म समभाव) प्रत्यय को समझने का यत्न करेंगे।
धर्म, सम एवं भाव, तीनों ही पद संस्कृत तथा हिन्दी भाषीय शब्द हैं। धर्म को ”धृ“ धातु से उत्पन्न मानते हुए सदाचार, सत्कर्म, आध्यात्मिक, नैतिक एवं चरम सत्य की वह अनुभूति जो समस्त प्राणियों में चेतनात्मक एकता के भाव जागृत करती है।
शब्दकोश के अनुसार सम का अर्थ समान, तुल्य, बराबर, वैसा ही समरूप आदि है। तथा भाव का अर्थ होना, भावना, विचार, विश्वास, आदर, प्रतिष्ठा आदि है। समानता अथवा तुल्यता का अर्थ राग-द्वेष से परे, निष्पक्ष, तुलनात्मक समान आदर विचार अथवा भावना के रूप में किया जा सकता है। अतः शब्दकोश के आधार पर धर्म समभाव का अर्थ धर्म के प्रति निष्पक्ष, तुलनात्मक समान आदर भाव रखना और ”सर्व धर्म समभाव“ का अर्थ सब धर्मो के प्रति निष्पक्ष, तुलनात्मक समान (राग-द्वेष से परे) आदर भाव (समभाव) रखना माना जा सकता है।
किसी भी धर्म को पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य समझना भूल है। किसी भी धर्म का उपयोग करते समय युगबाह्य (जो समयानुसार न हो, तत्कालीन देश-काल से मेल न खाता हो) अंश निकाल देना चाहिए और युगसत्य (जो तत्कालीन देश-काल से मेल खाता हो) जोड़ देना चाहिए। इस प्रकार विवेक और आदरपूर्वक उसका उपयोग करना चाहिए।
धर्म समभाव का व्यवहार करने वाला व्यक्ति यह मानकर चलता है कि साधारणतः सभी धर्म जगत के कल्याण के लिए उत्पन्न हुए हैं। वह प्रचलित धर्म की युग के अनुसार मानव कल्याण विरोधिता की विवेकपूर्ण जाँच करने के पश्चात् ही उसे स्वीकार या अस्वीकार करता है। जबकि धर्म सम्भाव विरोधी केवल अपने धर्म को (जिस धर्म का वह अनुयायी है एवं जिसे वह सत्य समझता है) छोड़कर अन्य सब धर्मों को मिथ्या समझता है। महापुरूषों, तीर्थंकरों, पैगम्बरों में ज्ञान, संयम आदि की दृष्टि से अंतर तो होता है लेकिन इससे धर्म समभाव के व्यवहार में बाधा उत्पन्न नहीं होती है। जैसे माता, पिता, चाचा आदि में अन्तर होता है किन्तु साधारणतः व्यवहार में वे सब वंदनीय/आदरणीय होते हैं। लेकिन वंदनीय होने से अन्तर समाप्त नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि समभावी अपने तीर्थ या तीर्थंकर एवं धर्म का अंध प्रशंसक और दूसरे के धर्म का अंधनिन्दक नहीं होता है। वह विवेकहीन होकर सबको सत्य नहीं मानता है वरन् संकुचितता का त्याग कर निष्पक्षता से उनका निरीक्षण-परीक्षण करता है, गुण-दोषों की जांच करता है, इससे समभाव पर कोई आंच नहीं आती है। इससे अपने युग की समस्याओं का निराकरण करने में सहायता मिलती है तथा मानव-जीवन के लिए युगानुरूप विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
धर्म समभाव की आवश्यकता
धर्म का उद्देश्य तो जगत में प्रेम, शान्ति व आनन्द को विकसित करना है। धर्म के अन्तर्गत सभी प्रचलित संस्थागत धर्मो को इसलिए स्वीकार किया गया है कि एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए (आत्मशुद्धि द्वारा आध्यात्मिक विकास और उसकी आत्मानुभूति के आधार पर जगत में दुःख निवारण तथा स्वपर कल्याण करना) भिन्न-भिन्न देश व काल में किये गये भिन्न-भिन्न प्रयास हैं। अतः विश्व में धर्म के विभिन्न रूप मिलते हैं। देश काल के अनुसार बाह्याचार (मन्दिर, मस्जिद, भाषा, कर्मकाण्ड, विधि-विधान, शास्त्र आदि) में वे विरोधी हैं, किन्तु उनके पीछे मूल उद्देश्य एक ही है। अतः प्रत्येक धर्म को अन्य धर्म से पृथक मानते हुए भी विरोधी मानना उपयुक्त नहीं है। सभी धर्म मानवीय मूल्यों के संरक्षण पर बल देते हैं।, सभी धर्म चेतनात्मक एकता को स्वीकार करते हैं। प्रत्येक धर्म में सत्य अन्तर्निहित है। अतः वह नष्ट न हो और उनकी (धर्मो की) विविधता भी बनी रहे इसके लिए उनमें धर्म समभाव के द्वारा ही समन्वय अथवा सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।
धर्म समभाव के स्वीकृत तत्वों के आधार पर धर्म समन्वय करने पर सत्य अक्षुण्ण रहता है तथा मिथ्यात्व, रूढ़िवादिता, धार्मिक कट्टरता, मोहांधता, संकीर्ण व संकुचित दृष्टिकोण आदि समाप्त हो जाते हैं। सभी धर्मों के प्रति सत्यनिष्ठ एवं विनयगत आदरभाव विकसिंत होता है। अतः धर्म समभाव की महत्ती आवश्यकता स्पष्ट होती है।
विश्वधर्म का आधार
विभिन्न प्रमुख धर्मो के धर्म प्रत्यय सिद्धान्तों के आधार पर सारतः स्पष्ट है कि -
1. सभी धर्म मानते हैं कि परम सत्ता मूलतः एक सर्वव्यापी, सर्वोच्च एवं परमपूज्य है।
2. सभी धर्म मानते हैं कि परमसत्ता के अतिरिक्त देवों/दूतों/फरिश्तों होते हैं।
3. सभी धर्म मानते हैं कि परमसत्ता का ज्ञान व निर्देश देने वाले, दिव्य ज्ञान से युक्त संदेशवाहकों/मार्गदर्शकों का आगमन होता है।
4. सभी धर्म मानते हैं कि अमर/अविनाशी चेतना होती है।
5. सभी धर्म मानते हैं कि मरणोत्तर जीवन होती है।
6. सभी धर्म मानते हैं कि धर्म-कर्म और कर्मफल के उपभोग के साथ ही पाप-पुण्य एवं स्वर्ग-नरक की धारणा में विश्वास है।
7. सभी धर्म मानते हैं कि राग, द्वेष, तृष्णा, अज्ञानादि से बन्धन है और अनासक्ति तथा तत्वज्ञान से मुक्ति होती है।
8. सभी धर्म मानते हैं कि जगत् और संसार चक्र होता है।
9. सभी धर्म मानते हैं कि दुःख से मुक्ति के लिए धर्म साधना का मार्ग स्वीकार करते हुए नैतिक मूल्यों का परिपालन आवश्यक है।
अंधश्रद्धा की अपेक्षा युगानुरूप विेवेकसम्मत ज्ञान सत्य होता है इसलिए धर्म ज्ञान एवं तत्संम्बन्धी विवेचन भी युगानुरूप एवं विवेकसम्मत होना चाहिए, जो कुछ न्यायसंगत व उचित है उसे स्वीकार करना चाहिए। अतः आधुनिक समकालीन चिंतको ने धर्म के विषय में पुनः चिंतन करना प्रारम्भ किया है। वे परम्परागत धर्मो की सभी मान्यताओं को आज युगानुरूप नहीं पाते हैं। उनके अनुसार कोई भी धर्म पूर्ण/सार्वभौमिक रूप से सत्य नहीं है और न ही वे आज की धारणाओं से संगति रखते हैं। अतः परम्परागत धर्मों में से कोई भी धर्म, आज का युगधर्म/सर्वमान्य हो सकने वाला सार्वभौमिक/विश्वधर्म नहीं हो सकता है। आधुनिक समकालीन चिंतक परम्परागत धर्मों के स्थान किसी ऐसे धर्म की स्थापना पर बल देते हैं जिसके विश्वास व मूल्य युगानुरूप बौद्धिक विकास के अनुकूल हों, जिसमें धर्म समभाव के सभी आधार उपलब्ध होते हों तथा जिसमें सिद्धान्त व व्यवहार में असंगत/विरोधाभासपूर्ण मान्यताओं को किसी भी प्रकार से स्वीकृति प्रदान न की गयी हो।
स्वामी विवेकानन्द के विश्वधर्म के सम्बन्ध में विचार-
1. जो व्यक्ति कहता है, इस जगत् का अस्तित्व है, किन्तु ईश्वर नहीं है, वह निर्बोध है, क्योंकि यदि जगत् हो, तो जगत् का एक कारण रहेगा और उसक कारण का नाम ही ईश्वर है। कार्य रहने पर ही उसका कारण है, यह जानना होगा। जब यह जगत् अन्तर्हित होगा, तब ईश्वर भी अन्तर्हित होंगे। जब आप ईश्वर के सहित अपना एकत्व अनुभव करेंगे, तब आपके पक्ष में यह जगत् फिर नहीं रहेगा। जिसे हम इस क्षण जगत् के रूप में देख रहे हैं, वही हमारे सम्मुख ईश्वर के रूप में प्रतिभासित होगा, एवं जिनको एक दिन हम बहिर्देश में अवस्थित समझते थे, वे ही हमारी आत्मा के अन्तरात्मा रूप में प्रतीत होंगे।- ‘तत्वमसि’- वही तुम हो।
2. एक ही सूर्य विविध जल बिन्दुओं में प्रतिबिम्बित होकर नाना रूप दिखा रहा है। लाख-लाख जलकणों में लाख-लाख सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ा है तथा प्रत्येक जल कण में ही सूर्य की सम्पूर्ण प्रतिमूर्ति विद्यमान है; किन्तु सूर्य वास्तव में एक है। इन सब जीवगण के सम्बन्ध में भी यही बात है-वे उसी एक अनन्त पुरुष के प्रतिबिम्ब मात्र है। स्वप्न कदापि सत्य के बिना रह नहीं सकता, और वह सत्य-वही एक अनन्त सत्ता है। शरीर, मन अथवा आत्मा भाव में मानने पर आप स्वप्न मात्र हैं, किन्तु आपका यथार्थ स्वरूप अखण्ड सच्चिदानन्द है। - अद्वैतवादी यही कहते है। यह सब जन्म, पुनर्जन्म, यह आना-जाना यह सब उस स्वप्न का अंशभाग है। आप अनन्त स्वरूप है। आप फिर कहाँ जायेंगे? आत्मा कभी उत्पन्न नहीं होती, कभी मरेगी भी नहीं, आत्मा के किसी काल में माता-पिता, शत्रु-मित्र कुछ भी नहीं है; क्योंकि आत्मा अखण्ड सच्चिदानंद स्वरूप है। जिस व्यक्ति ने इसका साक्षात्कार किया है उसने ही मुक्तिलाभ किया है, वह इस स्वप्न को भगं करके उसके बाहर चला गया है, उसने अपना यथार्थ स्वरूप जाना है। अद्वैतवेदान्त का यही उपदेश है।
3. सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।
4. विज्ञान एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं है। ज्योंही कोई विज्ञान शास्त्र पूर्ण एकता तक पहुँच जायेगा, त्योंहीं उसका आगे बढ़ना रुक जायेगा क्योंकि तब तो वह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर चुकेगा। उदाहरणार्थ रसायनशास्त्र यदि एक बार उस एक मूल द्रव्य का पता लगा ले, जिससे वह सब द्रव्य बन सकते हैं तो फिर वह और आगे नहीं बढ़ सकेगा। पदार्थ विज्ञान शास्त्र जब उस एक मूल शक्ति का पता लगा लेगा जिससे अन्य शक्तियां बाहर निकली हैं तब वह पूर्णता पर पहुँच जायेगा। वैसे ही धर्म शास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त हो जायेगा जब वह उस मूल कारण को जान लेगा। जो इस मत्र्यलोक में एक मात्र अमृत स्वरुप है जो इस नित्य परिवर्तनशील जगत का एक मात्र अटल अचल आधार है जो एक मात्र परमात्मा है और अन्य सब आत्माएं जिसके प्रतिबिम्ब स्वरुप हैं। इस प्रकार अनेकेश्वरवाद, द्वैतवाद आदि में से होते हुए इस अद्वैतवाद की प्राप्ति होती है। धर्मशास्त्र इससे आगे नहीं जा सकता। यहीं सारे विज्ञानों का चरम लक्ष्य है।
5. यह समझना होगा कि धर्म के सम्बन्ध में अधिक और कुछ जानने को नहीं, सभी कुछ जाना जा चुका है। जगत के सभी धर्म में, आप देखियेगा कि उस धर्म में अवलम्बनकारी सदैव कहते हैं, हमारे भीतर एक एकत्व है अतएव ईश्वर के सहित आत्मा के एकत्व ज्ञान की अपेक्षा और अधिक उन्नति नहीं हो सकती। ज्ञान का अर्थ इस एकत्व का आविष्कार ही है। यदि हम पूर्ण एकत्व का आविष्कार कर सकें तो उससे अधिक उन्नति फिर नहीं हो सकती।
6. हमें देखना है कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में और प्रत्येक राष्ट्र के घरेलू जीवन में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को जहाॅ भी और जिस स्थिति में भी है, सहायता नहीं दे सकता, तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं - तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धान्त हो कर रह जायेगा।
7. हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है, न कुरान है परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह शिक्षा देनी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न-भिन्न रुप हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।
8. यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म हो सकता है, तो वह ऐसा ही होगा, जो देश या काल से मर्यादित न हो, जो उस अनन्त भगवान के समान ही अनन्त हो, जिस भगवान के सम्बन्ध में वह उपदेश देता है, जिसकी ज्योति श्रीकृष्ण के भक्तों पर और ईसा के प्रेमियों पर, सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाशित होती हो, जो न तो ब्राह्मणों का हो, न बौद्धों का, न ईसाइयों का और न मुसलमानों का, वरन् इन सभी धर्मों का समष्टिस्वरूप होते हुए भी जिसमें उन्नति का अनन्त पथ खुला रहे, जो इतना व्यापक हो कि अपनी असंख्य प्रसारित बाहूओं द्वारा सृष्टि के प्रत्येक मनुष्य का प्रेमपूर्वक आलिंगन करें।... वह विश्वधर्म ऐसा होगा कि उसमें किसी के प्रति विद्वेष अथवा अत्याचार के लिए स्थान न रहेगा, वह प्रत्येक स्त्री और पुरूष के ईश्वरीय स्वरूप को स्वीकार करेगा और सम्पूर्ण बल मनुष्यमात्र को अपनी सच्ची, ईश्वरीय प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित रहेगा।
9. ईसाई को हिन्दू अथवा बौद्ध नहीं होना पडे़गा, और न हिन्दू या बौद्ध को ईसाई ही, परन्तु प्रत्येक धर्म दूसरे धर्मो के सारभाग को आत्मसात् करके पुष्टिलाभ करेगा और अपने वैशिष्ट्य की रक्षा करते हुए अपनी निजी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त होगा। यदि इस सर्वधर्म परिषद् ने जगत् के समक्ष कुछ प्रमाणित किया है तो वह यह कि उसने यह सिद्ध कर दिखाया है कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी सम्प्रदाय-विशेष की सम्पत्ति नहीं है तथा प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत-चरित्र स्त्री पुरूषों को जन्म दिया है। अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बावजुुुुद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और केवल उसका धर्म ही अपना सर्वश्रेष्ठता के कारण जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अन्तस्थल से दया करता हॅू और उसे स्पष्ट शब्दों में बतलाये देता हूॅ कि वह दिन दूर नहीं हैं, जब उस-जैसे लोगों के अड़ंगों के बावजूद भी प्रत्येक धर्म की पताका पर यह स्वर्णाक्षरों में लिखा रहेगा-‘सहयोग, न कि विरोध’, पर-भाव-ग्रहण न कि पर-भाव-विनाश, ‘समन्वय और शान्ति, न कि मतभेद और कलह’!
10. एक मात्र वेदान्त ही समाज तन्त्रवाद की युक्तिसंगत दार्शनिक भित्ति होने लायक है। मानव समाज की उन्नति चाहने वाले व्यक्तिगण, कम से कम उनके परिचालक गण, यह समझने का प्रयत्न कर रहे हैं कि उनके धन साम्य एवं समान अधिकार पर आधारित मतवादों की एक आध्यात्मिक भित्ति रहना संगत है, और एक मात्र वेदान्त ही यह भित्ति होने के योग्य हैं। सामाजिक, राजनीतिक एवं आध्यात्मिक, सभी क्षेत्रो में यथार्थ संगत स्थापित करने का केवल एक सूत्र विद्यमान है, और वह सूत्र- केवल इतना जान लेना कि मैं और मेरा भाई एक हैं। सब देशों में, सभी युगो में, सभी जातियों के लिए यह महान सत्य समान रूप से लागू है।
11. हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योगविद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।
12. अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आया है। अब और ‘रहस्य’ बनाये रखने से नहीं चलेगा। अब और वह हिमालय की गुहाओ। में, वन-अरण्यांे में साधु-सन्यासियों के पास न रहेगा, लोगों के दैनन्दिन जीवन में उसको कार्यन्वित करना होगा। राजा के महल में, साधु-सन्यासी की गुफा में, मजदूर की झोपड़ी में, सर्वत्र सब अवस्थाओं में- यहाॅ तक कि राह के भिखारी द्वारा भी - वह कार्य में लाया जा सकता है।
13.हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुम्हे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दुर्बलता लाए, उसे जहर की भांति त्याग दो; उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दें। (मेरी समर नीति-पृ0-36)
14. हमें दिखलाना है- हिन्दुओं की आध्यामिकता, बौद्धो की जीवदया, ईसाइयों की क्रियाशीलता एवं मुस्लिमों का बन्धुत्व, और ये सब अपने व्यावहारिक जीवन के माध्यम द्वारा। हमने निश्चय किया- हम एक सार्वभौम धर्म का निर्माण करेंगें।
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