Sunday, March 15, 2020

धर्म की परिभाषा, तत्व चिंतन और आवश्यकता

साभार - “विश्व के प्रमुख धर्मो में धर्म समभाव की अवधारणा”
प्रकाशक-वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
धर्म की परिभाषा, तत्व चिंतन और आवश्यकता
परिभाषा और तत्व चिंतन
धर्म अथवा रिलिजन की कोई निश्चित एवं सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है क्योंकि धर्म अथवा रिलिजन शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थो में किया जाता रहा है। 
जे.बी.प्राट के अनुसार - यह बड़ा बेतुका तथ्य प्रतीत होता है कि धर्म नाम का लोक प्रचलित शब्द जो मनुष्य जाति के होठों से बार-बार निःसृत होता है और जिससे मानव जीवन के सबसे प्रत्यक्ष व्यापार का बोध होता है फिर भी यह इतना जटिल है कि इसे परिभाषित करना अत्यंन्त दुष्कर है। धर्म की वहीं परिभाषा सर्वमान्य हो सकती है जो सभी धर्मो पर लागू हो सकती हो तथा जिसमें ज्ञान, भावना और कर्म तीनों का समावेश हो।
भारतीय चिंतन में धर्म को अनेक रूपों में परिभाषित किया गया है। जैसे- वेद में सत्य, ऋतु, व्रत, यज्ञ आदि को विभिन्न प्रकार से धर्म ही कहा गया है। तैत्तिरीय व छान्दोग्य उपनिषद् में नैतिक आदर्श या सदाचार को धर्म कहा गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में धर्म शब्द का प्रयोग आध्यत्मिक, नैतिक एवं भौतिक जगत (वस्तुओं) के संचालन के अर्थ में किया गया है। धर्म के सम्बन्ध में कहा गया है कि - यह धर्म सब भूतों का मधु है, और सब वस्तुएँ इस धर्म की मधु हैं और जो इस धर्म में प्रकाशमय, अमृतमय पुरूष है, वह आत्मा ही है, यह अनश्वर अमृत है, यह ब्रह्म है, यह सर्वमय है। बृहदारण्य्क उपनिषद् में धर्म को सत्य व सत्य को धर्म के रूप में विवेचित करते हुए सत्य बोलने वाले के लिए कहा गया है कि यह धर्म कह रहा है तथा धर्म की बात कहने वाले के प्रति कहा गया है कि वह सत्य कह रहा है। सत्य को धर्म धर्म के रूप में मानते हुए ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि ऋषियों ने सत्य को धर्म के रूप में देखा है-”सत्यं धर्माय दृष्टये“। सत्य ही धर्म की सच्ची प्रतिष्ठा है- ”धर्म प्रतिष्ठितः“। इसलिए सत्य से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं माना गया है - ”सत्यान्नास्ति परोधर्म“। सत्य से बढ़कर कोई धर्म, नीति, तप व बल नहीं माना गया है। सत्य पर सभी को अधिष्ठित मानते हुए यही कहा गया है कि यह संसार धर्म पर प्रतिष्ठित है - ”धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा“।
महाभारत में धर्म के लिए कहा गया है कि वह वस्तु जो सम्पूर्ण विश्व को धारण कर रही है या करती है अर्थात जो समस्त वस्तुओं का मूल आधार है एवं समाज की एकता को मूर्तिमंत करती है वही धर्म है। इसमें सत्य को सनातन मानते हुए सर्वाधिक महत्व दिया गया है।
मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षणों का वर्णन व्यवहार्य के अर्थ में किया गया है यथा-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध। यह राग द्वेष रहित आचरण को धर्म मानती है। मनुस्मृति के अनुसार वेदविरूधता अधर्म है।
गीता में धर्म को कत्र्तव्याकत्र्तव्य की व्यवस्था के रूप में माना गया है। उसमें राग-द्वेष को जीतकर स्वधर्म का आचरण, शास्त्रविधि से नियतकर्म करना, यज्ञादि कर्म करना, अनासक्त भाव से निरंतर कत्र्तव्य कर्म का अच्छी तरह आचरण (पालन) करना, निष्काम कर्म, स्वधर्म तथा समत्व बुद्धियोग (पुण्य-पाप दोनों का त्याग कर धर्म व अधर्म का निष्पक्ष बोध) से कत्र्तव्य का पालन करना-कर्म बंधन से मुक्त होने का उपाय ही धर्म माना गया है। भागवत पुराण में विद्या, दान, तप औा सत्य को धर्म के चार पर माने गये है। पुराणों में नैतिक गुणों को संस्कारों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है तथा कुछ स्थलों पर नैतिक गुणों को धर्म का मूल कहा गया है।
जैन धर्म में धर्म को धम्मं शब्द से निरूपित करते हुए उसके स्वरूप को विभिन्न प्रकार से वर्णित किया गया है। जिनोक्त धर्म का आचरण (मोक्षमार्ग-संयम का अनुगामी सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र व सम्यक् दर्शन (त्रिरत्न), ममत्वरहित एवं निरंहकार होकर आचरण करना) करना, महावीर की आज्ञा का पालन करना ही धर्म माना गया है। स्थानांग सूत्र में ग्राम धर्म, नगर धर्म, संघ धर्म आदि के सन्दर्भ में धर्म को सामाजिक विधि-विधानों के रूप में भी माना गया है। जैन धर्म में धर्म को शुभ कर्म, कत्र्तव्य, कुशल अनुष्ठान, सुकृत, पुण्य, सदाचार, स्वभाव, गुण, पर्याय, धर्मास्तिकाय, द्रव्य मर्यादा, रीति-व्यवहार आदि से सम्बद्ध माना गया है। उसमें धर्म के कई प्रकारों यथा नाम धर्म, स्थापना धर्म, साधु धर्म, श्रमण धर्म आदि का उल्लेख भी मिलता है। किन्तु धर्म का सार लक्षण चरित्र, विश्वकल्याण, ज्ञान, संयम, निर्वाण आदि को माना गया है।
बौद्ध धर्म में धम्म या धम्र्म (धर्म) के कई अर्थ और व्याख्यान मिलते हैं। टीकाकार बुद्धघोष तथा प्राचीन शास्त्र परम्परा के अनुसार ”वेदना“, ”संज्ञा“ और अहंकार इन तीनों स्कंधों को ही धम्म कहा गया है, जो विज्ञान या मन के परिणाम हैं। यमकवग्गो में धर्म के लिए कहा गया है कि जो मनुष्य राग, द्वेष और मोह का परित्याग कर प्रज्ञायुक्त चिंताविहिन चित्त से शास्त्रों का भाषण करता हुआ धर्म का आचरण करता है वह सद्गति को प्राप्त होता है (श्रमण का भागीदार होता है)। अवैर (अशत्रुता), इन्द्रिय संयम, शीलयुक्त आचरण को श्रेष्ठ माना गया है और उसे ही धर्म कहा गया है, धर्म से मानव चित्त शुद्ध एवं निर्मल होता है।
यहूदी धर्मग्रन्थ ”धर्मशास्त्र (बाइबिल)“ के पुराना नियम (ओल्ड टेस्टामेन्ट) में धर्म न्याय करते हुए यहोवा (परमेश्वर) के मार्ग में अटल बने रहने का विधान है। विश्राम के दिनों का पालन करना और यहोवा के पवित्र स्थान का भय मानना।, वाचा न तोड़ना व यहोवा की आज्ञा मानना भी धर्म माना गया है तथा इनका उल्लंघन करना अधर्म है। अन्याय से मुक्त करना, भूखों को अपनी रोटी बाॅट देना, दीन-दुखियों को संतुष्ट करना धर्मशास्त्र के अनुसार धर्म है। यहोवा की महिमा प्रकट करना भी धर्म माना गया है। यहोवा की महिमा को महत्व देते हुए यहोवा द्वारा ही कहलाया गया है कि ”यह मैं ही हूॅ जो धर्म से बोलता और पूरा उद्धार करने की शक्ति रखता हूॅ“।
ईसाई धर्म के नया नियम (न्यू टेस्टामेन्ट) में ईश्वर (परमेश्वर) से अपनी सम्पूर्ण बुद्धि, मन, प्राण शक्ति से प्रेम रखना और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखना ही परमेश्वर की सबसे बड़ी आज्ञा है। नम्रता, दयावंत होना, दीन मन होना, शुद्ध मन होना धर्म के लक्षण माने गये हैं और इनके समर्थकों को व अपनाने वालों को धन्य कहा गया है। संदेह, अनिश्चय, अविश्वास पाप है, अधर्म है तथा पवित्र आत्मा से जो मेल-मिलाप और एक-दूसरे का सुधार होता है उसे ही धर्म कहा गया है, आनन्द कहा गया है, यह परमेश्वर को प्रिय एवं मनुष्यों के ग्रहण करने योग्य है।
कुरान मज़ीद में कुरआन के ज्ञान को एवं उसके अनुसरण को धर्म माना गया है तथा इस्लाम धर्म अल्लाह (ईश्वर) की ओर से है, यह कहा गया है। इंसाफ (ईमान) का पालन करना, अल्लाह से डरना, नेक काम करना धर्म है तथा इसका पालन न करना दीन (धर्म) से इंकार कराना है। सूरे फातिहः में अल्लाह को सर्वोपरि एवं ज़जा (अंतिम न्यायी) माना गया है जो इस्लाम (शान्ति) की रूह है और इस्लाम ही धर्म है।
महात्मा गाँधी के अनुसार - ”सच्ची नीति ही सच्चा धर्म है। धर्म के बिना नीति का पालन नहीं किया जा सकता है, यानि नीति का आचरण धर्म के रूप में करना चाहिए। फर्ज (कत्र्तव्य), दया, सेवा आदि का निःस्वार्थ आचरण ही नीति है।“
डाॅ. भगवान दास के अनुसार - ”धर्म शाब्दिक दृष्टि से वह है जो किसी वस्तु को धारण किये होता है, उसे वह जो कुछ बनाता है, उसे टृटने और किसी अन्य वस्तु में परिवर्तित होने से बचाता है, इसका प्रमुख कार्य, इसका विशिष्ट लक्षण, इसका अनिवार्य गुण, इसकी अनिवार्य प्रकृति, इसका धर्म है।“
डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के अनुसार - ”जिन सिद्धान्तों का हमें अपने दैनिक जीवन शुद्धि के नियम या विधि-विधान बनाना है। अतः मनुष्य के उस आचार-विचार को धर्म कहते हैं जिसके द्वारा मनुष्य का वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण होता है, सुख बढ़ता है, एक व्यवस्था पैदा होती है“
ग्रीक दार्शनिक सुकरात (470-399 ई.पू.) के अनुसार ज्ञान ही धर्म है, परम शुभ है, निःश्रेयस है। ज्ञान, धर्म का पूर्व प्रतिबंध है। धर्म ज्ञान के अस्तित्व के कारण है और ज्ञान धर्म की प्रमाणिकता का कारण है। ज्ञान और धर्म तत्व के दो समानान्तर पहलू हैं। ज्ञान शुभ कमों का सार है और शुभ कर्म (सद्गुण) धर्म होते हैं- ऐसा मानते हैं। उनके अनुसार ज्ञान शिक्षणीय है अतः धर्म शिक्षणीय है और यह एकत् है। बुद्धिमता, साहस, न्याय व मिताचार आदि धर्म के विभिन्न प्रकाशन है।
विलियम जेम्स के अनुसार - ”धर्म का अर्थ व्यक्ति का वह एकान्तिक भाव, क्रिया एवं अनुभव है, जो व्यक्ति और ईश्वर (दिव्य सत्ता) के सम्बन्ध के ज्ञान से विकसित होते हैं।“
दी. पारसन्स के अनुसार - ”धर्म व्यक्तियों द्वारा समाज में विकसित विश्वासों, रिवाजों एवं संस्थाओं का समूह है।“
एम. सालोमन रिंच के अनुसार - ”धर्म उन निषेधों का संग्रह है जो हमारी शक्तियों के स्वतन्त्र कार्य (विकास) में बाधक है।“
मैथ्यू आॅर्नाल्ड के अनुसार - ”संवेग सहित नैतिकता ही धर्म है।“
एडवर्ड टाॅयलर के अनुसार - ”धर्म आध्यात्मिक सत्ताओं में विश्वास है।“
सर जेम्स फ्रजर के अनुसार - ”धर्म (रिलिजन) से मैं मनुष्य से श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराधना समझता हूॅ जिनके सम्बन्ध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव जीवन को मार्ग दिखलाती है और नियंत्रित करती है।“ 
मैक्समूलर के अनुसार - ”धर्म वह मानसिक शक्ति या प्रवृत्ति“ है जो मनुष्य को अनन्त सत्ता का ज्ञान प्राप्त कराने में सक्षम सिद्ध होती है।
गिलिन और गिलिन के अनुसार - ”एक सामाजिक समूह में व्याप्त उन भावनात्मक विश्वासों को जो किसी अलौकिक शक्ति से सम्बन्धित है तथा उन बाहरी प्रकट व्यवहारों, भैतिक वस्तुओं एवं प्रतीकों को जो इन विश्वासों से सम्बन्ध रखते हैं धर्म के सामाजिक क्षेत्र में सम्मिलित किया जा सकता है।“
जार्ज गैल्वे के अनुसार - ”अपने से परे शक्ति में मनुष्य का यह विश्वास धर्म है जिसके द्वारा वह अपनी संवेगात्मक आवश्यकताओं की संतुष्टि और जीवन की स्थिरता प्राप्त करता है तथा जिसे वह उपासना एवं सेवा के माध्यम से प्रकट करता है।“
ब्रैडले के अनुसार - ”उँचे शुभ स्तर पर पहुँची हुई नैतिकता धर्म में समाप्त होती है।“
हाॅफडिंग के अनुसार - ”मूल्यों के संरक्षण में विश्वास ही धर्म है।“
उपरोक्त समग्र विवेचन के अनुसार - धर्म की वे सभी परिभाषाएं सर्वमाान्य हो सकतीं हैं जो मानव के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों को अभिव्यक्त करती हों और जो पूर्वाग्रह रहित होकर वैयक्तिक और सामाजिक कल्याण के अन्तर्गत भौतिकता व आध्यात्मिकता (लोक मण्डल) को समन्वयात्मक रूप से समावेशित करती हों। 

आवश्यकता
मानव में पूर्णता की भावना होती है। वह केवल बौद्धिक सीमाओं में रह कर पूर्णत्व की उपलब्धि नहीं कर सकता है। धर्म में ईश्वर के द्वारा आवतरित होने का भाव, श्रेयस की भावना, नियामक सिद्धान्त आदि विश्व की प्रयोजनात्मक प्रक्रिया, उसकी निश्चित दिशा व लक्ष्य के आधार पर मानव में सार्वभौमिक सम्बन्धों के द्वारा समन्वय स्थापित करने की चेष्टा की जाती है। अतः धर्म के द्वारा व्यक्ति की अन्तर्दृष्टि का विकास होता है यह अन्तर्दृष्टि से प्रेरित उच्चतम चेतना का आदर्श होता है जो मनुष्य में सभी प्रकार के दिव्य विचारों को जन्म देता है तथा उनको अनुभवगम्य बनाने की चेष्टा करता है। यह हमारे भीतर जीवन के प्रति सहज निष्ठा और मानवीय प्रकृति की एकता के प्रति विश्वास उत्पन्न कर आध्यात्मिक आधार पर समस्त जीवन में सामंजस्य व संतुलन स्थापित कर भयमुक्त (अभय) करता है।
पूर्णता के लिए व्यक्ति की चाह, अभाव की भावना, अनन्तता की चेतना को जानने एवं प्राप्त करने की चेष्टा स्वाभाविक, दिव्य एवं शक्ति रूप है, चाहे वह एक विचार मात्र ही क्यों न हो। बुद्धिमान मनुष्य ने ही अमरत्व की इच्छा कर चक्षु आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों की ओर से विमुख करके अतंरात्मा को देखा है। सभी धर्मो में (ईश्वरवादी व अनीश्वरवादी) अतीन्द्रिय बोध के लिए इन्द्रियों को वश में कर कर्म करने को, नैतिकता को श्रेष्ठ आचरण एवं शुभ तथा कल्याणकारक माना गया है। 
संसार से पलायन कर मनुष्य न तो पूर्णत्व को उपलब्ध हो सकता है और न ही कोई भी कर्म करके अकर्म (निष्कर्मता) की दशा को उपलब्ध कर सकता है। मनुष्य जब तक जीवित है तब तक वह एक पल भी कर्म किये नहीं रह सकता। सब बुरी बातें हमारे हृदय से ही निकलती है। धर्म तत्व इन बुरे विचारों  का अपने आध्यात्मिक चिंतन के द्वारा शमन करता है तथा दिव्य शक्ति भाव को हृदय में प्रतिष्ठित करता है। धर्म सामूहिक रूप में तो सामाजिक अथवा संस्थागत होता है किन्तु व्यक्ति के सन्दर्भ में यह पूर्णतया उसके अंतर्जगत से सम्बन्धित होता हे।
धर्म व्यक्ति को मानसिक शक्ति प्रदान करता है तथा समुदाय में सामाजिक सामंजस्य उत्पन्न करने में योगदान देता है। अपूर्ण मानव सत्ता से भिन्न एक पूर्ण सत्ता ईश्वर धर्म का एक प्रमुख तत्व होता है जिस पर व्यक्ति का आस्थामय विश्वास होता है। इस विश्वास केन्द्रित भाव (आस्था) से आशावाद का जागरण होता है इसलिए ईश्वर नहीं वरन् जीवन-अधिक जीवन, व्यापक, अधिक समृद्ध तथा संतोषजनक जीवन ही धर्म का उद्देश्य है। धर्म मानव जीवन को दृढ़ता, पुनर्जीवन, अनुकम्पा, आश्वासन प्रदान करता है। प्राकृतिक मानव का रूपान्तरण नूतन जीवन के रूप में अर्थात उसे सभ्य एवं सुसंस्कृत करता है। वास्तविक धर्म का वैयक्तिक एवं सामाजिकता दोनों से सम्बन्ध होता है। वस्तुतः धर्म मत या धर्म सिद्धान्त स्वयं धर्म नहीं वरन् वे सब मनुष्यों को धर्म (धारण) तक ले जाने वाले साधन मात्र हैं जो मानव भावना को रूपान्तरित करते हैं। वह देश-काल् की सीमाओं में न बँधने वाला सार्वभौमिक सत्य है जो प्राणिमात्र को विश्वात्मा से आबद्ध करता है।


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