Sunday, March 15, 2020

कलियुग के धर्म - 07. बौद्ध धर्म-भगवान बुद्ध-ईसापूर्व 567-487

कलियुग के धर्म - 07. बौद्ध धर्म-भगवान बुद्ध-ईसापूर्व 567-487
         
परिचय -
भगवान बुद्धदेव का जन्म राजा शुद्धोदन और मायादेवी के पुत्र के रूप मंे कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी मंे हुआ था। उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया, जिसका अर्थ है- ”वह जिसने अपना उद्देश्य पूर्ण कर लिया है।“ उनके पिता ने शिशु राजकुमार को देखने के लिए एक विद्वान ब्राह्मण ऋषि को आमन्त्रित किया और उसे देखते ही ऋषि ने भविष्यवाणी की- ”अलौकिक लक्षणांे से यह ज्ञात होता है कि नवजात शिशु सारे संसार को मुक्ति प्रदान करेगा।“ किन्तु ऋषि ने राजा को यह चेतवानी भी दी कि अगर बालक किसी समय रोगी वृद्ध या मृतक को देखेगा, तो वह संसार का त्याग भी कर सकता है। राजा यह सुनकर अत्यन्त चिन्तित हो उठे। उन्हांेने अल्पावस्था में ही सिद्धार्थ का विवाह कर दिया और उन्हंे एक प्रकार से सुखोपभोग के समस्त साधनों से परिपूर्ण विलास उद्यान मंे बन्दी ही बना लिया, पर अवश्यम्भावी को कौन रोक सकता है? जिस प्रकार जंजीरो में बंधी हाथी जंगलों मंे घूमने के लिए व्यग्र हो उठता है। उसी प्रकार राजकुमार भी संसार को देखने के लिए आतुर हो उठे। सारे पथ सजाये गये और सारा नगर उत्साह से भर उठा। नगर का परिभ्रमण करते हुए सिद्धार्थ ने एक बूढ़े को, एक रोगी को, एक मृतक को और अन्त में एक सन्यासी को देखा। सिद्धार्थ को बताया गया कि प्रथम तीन दृश्य बिरले नहीं है, क्यांेकि ये तो समस्त जीवित प्राणियांे की अवश्यम्भावी नियति है। इससे सिद्धार्थ अत्यन्त विचलित हुए और गहन चिन्तन में डूब गये। जब वे राजभवन वापस लौटे, तब किसी ने उन्हें यह शुभ समाचार प्रदान किया कि उनकी पत्नी यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया है और उसका नाम राहुल रखा गया है। इस समाचार से प्रसन्न होने के बदले सिद्धार्थ ने विचार किया, ”यह तो बन्धन के उपर लदा बन्धन है“, और उन्हांेने सत्य की खोज के लिए संसार का त्याग करने का निश्चय किया। उनका यह निश्चय तब कार्य रूप में परिणत हुआ, जब उन्हांेने अपने अवतरण के प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए सर्वस्व का परित्याग करते हुए प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। वे उरूविल्व (बुद्धगया) पहुँचे और वहाँ एक वट वृक्ष के नीचे आत्मज्ञान प्राप्त करने का संकल्प लेकर आसीन हो गये। छह वर्षाे की कठिन साधना के उपरान्त उन्हंे चिरवांछित आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और वे बोधिसत्व हो गये तदुपरान्त उन्हांेने अपने नये सन्देश का प्रचार करना आरम्भ किया। बुद्ध ने वाराणसी के निकट सारनाथ में पहला उपदेश प्रदान किया। अपने महान सन्देशों का पूरे पैतालिस वर्षाे तक प्रचार करते हुए तथा एक सुव्यवस्थित संघ की स्थापना के द्वारा उन्हांेने अपने अवतरण के उद्देश्य को पूर्ण किया। तदुपरान्त वैशाख पूर्णिमा को अस्सी वर्ष की प्रौढ़ अवस्था में कुशीनारा मंे उनका महापरिनिर्वाण हुआ। यह दिन तिगुना पुनीत माना जाता है क्यांेकि इसी दिन वे उत्पन्न हुए थे तथा इसी दिन उन्होनें बोध प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध ”महापरिनिब्बानसुत“ मंे कहा है कि (1) वह स्थान जहाँ उन्हांेने जन्म लिया अर्थात लुम्बिनी (2) वह स्थान जहाँ उन्हांेने स्वयं बोधत्व प्राप्त किया अर्थात बुद्धगया (3) वह स्थान जहाँ उन्होंने धम्मचक्कपवत्तनसुत्त ”प्रथम उपदेश“ दिया अर्थात सारनाथ या इशिपत्तन और (4) वह स्थान जहाँ उन्होंने महापरिनिब्बान ग्रहण किया अर्थात कुशीनारा ये ऐेसे स्थान हैं, जो धार्मिक प्रेरणा और प्रायश्चित की भावना का संचार करते है तथा उन लोगांे के लिए तीर्थ है जो उन पर विश्वास करते है। यद्यपि हम प्रकट रूप से बौद्ध नहीं है, तथापि हम बुद्ध को दस अवतारांे मंे से एक मानते है। महात्मा गाधी के अनुसार, ”बुद्ध के उपदेशांे का प्रमुख भाग आज हिन्दू धर्म का एक अपरिहार्य अंग बन गया है। गौतम ने हिन्दू धर्म में जो महान सुधार किया है। उससे विरत होना या उसके विपरीत कार्य करना आज हिन्दू भारत के लिए असम्भव है। उन्होंने अपने त्याग, अपने महान् वैराग्य तथा अपनी चरम पवित्रता के द्वारा हिन्दू धर्म पर अमिट छाप छोड़ी है तथा हिन्दू धर्म इस महान् उपदेष्टा का चिरन्तन ऋणी है। गौतम हिन्दू धर्म के सर्वाेत्कृष्ट तत्वों से परिपूर्ण थे। तथा उन्हांेने वेदों में गड़े हुए उन कुछ उपदेशो को पुनर्जीवित किया जो कचरे के साथ लिपटे हुए पड़े थे।“ वे केवल ”एशिया की ज्योति“ ही नही थे, अपितु सारे ”संसार की ज्योति“ थे। मानवता के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उन्नयन के लिए उनका अवधान महान् तथा अपरिमेय है। उनके जीवन एवं उपदेशांे ने लक्ष-लक्ष लोगों के दैनन्दिन जीवन तथा चिन्तन को प्रभाावित किया है। हमारी प्रार्थना है कि प्रेम और करूणा के मूर्तिमान विग्रह भगवान बुद्ध अपनी कृपा हम सब पर करे!
भगवान बुद्ध की वाणी
जो व्यक्ति भ्रम से मुक्त नहीं है, वह न तो मछली छोड़ने से पवित्र हो सकता है और न मांस छोड़ने से, न नग्न घूमने से और न मुण्डित होने, से न जटा धारण करने से और न वल्कल पहनने से, न भस्म रमाने से और न ही अग्नि को आहुति देने से। माँस भक्षण से अपवित्रता का जन्म नहीं होता, प्रत्युत क्रोध, प्रमाद, हठ, व्यभिचार, छल, ईष्र्या आत्मप्रशंसा, दूसरे की निन्दा, उद्धतता और अशुभ अभिप्रायो से अपवित्रता जन्म लेती है। सम्यक् दृष्टि उसके पथ को प्रकाशित करने वाली मशाल होगी। सम्यक् उद्देश्य उस के पथदर्शक होगें। सम्यक् वचन पथ में निवास करने के लिए उसके आश्रय स्थल होगें। उसकी पद गति सीधी होगी क्यांेकि यह सम्यक् आचार है। वही सुखी है, जिसने स्वार्थपरायणता को जीत लिया है। वही सुखी है जिसने शान्ति प्राप्त कर ली है और वही सुखी है जिसने सत्य को पा लिया है। सत्य आर्य और मधुर है, सत्य ही तुम्हंे अशुभ से मुक्त कर सकता है। संसार मंे सत्य के अतिरिक्त कोई दूसरा मुक्तिदाता नहीं है। सत्य पर आस्था रखो भले ही तुम उसको धारण न कर सको, भले ही तुम उसकी मधुरता को कटु समझो, भले ही तुम पहले इससे विमुख हो जाओ। सत्य पर दृढ़ आस्था रखो। सत्य जैसा है वह वैसे ही सर्वोत्कृष्ट है। कोई इसमें परितर्वतन नहीं कर सकता न कोई उसमें सुधार ही कर सकता है। सत्य पर आस्था रखो और उसे जीवन मंे उतारो। संसार के सभी भागो मंे सत्य का प्रसार और सद्धर्म का प्रचार करो ताकि अन्त में समस्त प्राणी धर्मराज्य के नागरिक हो जाएँ। उससे कहो, मैं किसी प्रतिदान की आशा नहीं करता, न ही मंै स्वर्ग मंे पुर्नजन्म चाहता हँू। परन्तु मैं मनुष्यांे के कल्याण की खोज करता हँू। उन लोगांे को वापस लाना चाहता हँू जो पथविचलित हो गये हंै। उन लोगांे को आलोकित करना चाहता हँू जो भ्रम की निशा मंे जी रहे है। संसार से समस्त पीड़ा और समस्त दुःखों को निकालना चाहता हँू। जो दूसरो को दुःख पहँुचाकर स्वयं आनन्द पाना चाहता है, वह घृणा से नहीं बच सकता, क्यांेकि वह स्वयं को घृणा के पाशो मे फँास लेता है। मन सभी प्रवृत्तियांे का अगुवा है। मन समस्त इन्द्रियों की शक्तियांे से उत्कृष्ट है। सभी सापेक्ष विचार मन में ही पैदा होते है। मन सभी संवेदनाओं का अग्रगामी है। इस भौतिक विश्व के समस्त तत्वो की अपेक्षा मन सबसे सूक्ष्म है। समस्त विषयभूत चेतना मन में ही उत्पन्न होती है। यदि कोई शुद्ध मन से बोेलता है या काम करता है तो आनन्द उसकी छाया के समान उसका अनुसरण करता है। जिसने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, वह वस्तुतः उस व्यक्ति से भी महान विजेता है, जिसने यद्यपि स्वयं से हजार गुना अधिक शक्तिशाली हजार शत्रुओ को पराजित तो किया है, पर जो अपनी इन्द्रियो का दास बना हुआ है। जिसका मन काम से लिप्त नहीं है, जो घृणा से प्रभावित नहीं है, जिसने शुभ और अशुभ दोनांे का परित्याग किया है एसे जागरूक व्यक्ति को कोई भय नहीं होता। जिस प्रकार तीर बनाने वाला तीर को सीधा करता है, ठीक वैसी ही विवेकी व्यक्ति अस्थिर, चंचल, दुर्रक्षित और दुर्नियंन्त्रित मन को सीधा कर लेता है। जितनी हानि शत्रु, शत्रु की और वैरी, वैरी की करता है, उससे अधिक बुराई झूठे मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है। जितनी भलाई माता, पिता या दूसरे भाई बन्धु नहीं कर सकते, उससे अधिक भलाई ठीक मार्ग पर लगा हुआ चित्त करता है और वह व्यक्ति का उन्नयन करता है। पूर्वजन्मांे से प्राप्त वस्तुआंे से लगाव, लोलुपता और इन्द्रियशक्ति दुःख के तथा संसार की असरता के कारण है। स्व की शरण स्व है क्यांेकि इसके अतिरिक्त और कौन शरण हो सकता है। एक पूर्ण संयमित स्व के द्वारा व्यक्ति ऐसी शरण प्राप्त करता है, जिसे पाना कठिन है। स्वयं के द्वारा ही बुराई की जाती है, स्वयं के द्वारा ही कोई भ्रष्ट होता है, स्वयं के द्वारा ही बुराइयों से बचा जाता है, स्वयं के द्वारा ही व्यक्ति तक पवित्र होता है। स्वयं पर ही पवित्रता और अपवित्रता निर्भर है, कोई दूसरे को पवित्र नहीं कर सकता। वह व्यक्ति जिसके हाथ, पैर, वाणी और मस्तिष्क संयमित है, वह व्यक्ति जिसे ध्यान मंे आनन्द आता है और जो प्रशान्त है, वह व्यक्ति, जो एकाकी और आत्मसंतुष्ट है, उसे वे भिक्षु कहते है। सत्य के सद्धर्म को ग्रहण करो, इसे रक्षित करो, इसे पढ़ो और पुनः पढ़ो, इसकी थाह लो, इसे प्रकाशित करो तथा विश्व के सभी भागांे के समस्त प्राणियो में इसका प्रचार करो। धर्म के कल्याणकारी और प्रशान्तदायी वचनों को सुनने की इच्छा करने वाले श्रोताआंे तुम चारो ओर एकत्रित हो जाओ। अविश्वासियों को सत्य को ग्रहण करने के लिए जाग्रत करो और उन्हें हर्ष एवं उल्लास से परिपूर्ण कर दो। उन्हंे उत्प्रेरित करो, उन्हंे उपदेश दो और उन्हंे तब तक उँचे से उँचा उठाओ जब तक वे सत्य को उसके समस्त वैभव और अनन्त गरिमा के साथ आमने-सामने न देख लें। हजारो निरर्थक शब्दों की अपेक्षा वह एक उपयोगी वाक्य उत्तम है, जिसके सुनने से व्यक्ति शान्ति प्राप्त करता है। अच्छा व्यक्ति सब कुछ त्याग देता है। साधु प्रेिरत होकर नहीं बोलता। सुख या दुःख से प्रभावित होकर विवेकी व्यक्ति न तो हर्ष प्रकट करता है और न विशाद ही। मैं तुझसे कहता हूँ कि तू जीवन के अपने व्यवसाव में स्थित रह और अपने कर्म को परिश्रमपूर्वक सम्पन्न कर। जीवन, धन और शक्ति पुरूष को नहीं बाँधते बल्कि जीवन, धन और शक्ति के प्रति आसक्ति ही उसे बाँध लेती है। चूँकि अपने कर्माे के फल से बचना असम्भव है, इसलिए हम सत्कर्म करंे। दूसरो का दोष देखना आसान है किंतु अपना (दोष) देखना कठिन है। व्यक्ति अपने पड़ोसी के दोषों को तो भँूसो की तरह उड़ाता फिरता है किंतु अपने दोषांे को वह वैसे की ढ़ाकता है जैसे एक धोखेबाज झूठ पासों को जुआरी से छिपाता है। दोनांे पक्षो की धैर्यपूर्वक सुनो जो व्यक्ति दोनो पक्षो को तोलता है, उसे मुनि कहा जाता है। जब दोनो पक्ष अपने मामले प्रस्तुत कर देते है तब संघ को समझौता सम्पन्न करने दो और एकता की स्थापना करने दो। ऐसा कोई व्यक्ति न तो हुआ था, न होगा और न है, जो पूरी तरह से निन्दित हो या पूर्णतः प्रशंसित। विजय से द्वेष उत्पन्न होता है, पराजित दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत करते है। विजय और पराजय का त्याग करने पर ही सुखपूर्ण शान्त जीवन बिताया जा सकता है। काम के समान कोई अग्नि नहीं है तथा द्वेष के समान कोई अपराध नहीं है। शरीर के समान कोई व्याधि नहीं और शान्ति (निर्वाण) से उँचा कोई आनन्द नहीं।

भगवान बुद्ध के संबंध मे स्वामी विवेकानन्द के उद्गार- 
”निष्कर्ष के रूप मंे मैं तुम लोगों को एक ऐसे व्यक्ति के संबंध मंे कुछ बाते बताना चाहता हूँ जिसने कर्मयुग के उपदेशों को यथार्थ रूप से व्यवहार में उतारा है। यह व्यक्ति है बुद्ध। वे ही एक ऐसे आद्वितीय पुरूष हैं जिन्होंने इसे पूर्णतया व्यवहार में उतारा है। बुद्ध के अतिरिक्त संसार में और जितने पैगम्बर हुए, वे बाह्य कारणांे से प्रेरित होकर निष्काम कर्म की ओर बढे़, पर बुद्ध अहैतुक कार्य करने वाला आदर्श कर्मयोगी हंै और मानवता का इतिहास उन्हें ऐसे महान पुरूष के रूप में प्रदर्शित करता है, जितना महान इस धरती पर और कभी पैदा नहीं हुआ। वे अतुलनीय है। उनके समान हृदय और मस्तिष्क का समन्वय करने वाला और कोई नहीं हुआ। उनमंे आत्मशक्ति का जितना प्रकाशन हुआ उतना और कभी किसी में नहीं हुआ। बौद्ध धर्म ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। पर हाँ, ऐेतिहासिक दृष्टि से दार्शनिक दृष्टि से नहीं क्यांेकि वह संसार मंे घटित होने वाला बृहत्तम धर्मिक आन्दोलन था, मानव समाज पर फूट पड़ने वाली विराटतम आध्यात्मिक लहर थी।“
बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है जो ईश्वर के बारे में खामोश है। इसके बजाय बौद्ध धर्म और कर्म के सिद्धान्तों को मानते हैं। इसके प्रस्थापक महात्मा बुद्ध शाक्यमुनि-गौतम बुद्ध थे। वे छठवीं से पाँचवीं शताब्दी ईसापूर्व तक जीवित थे। उनके गुजरने के अगले पाँच शताब्दियों में बौद्ध धर्म पूरे भारतीय महाद्वीप में फैला और अगले 2000 वर्षो में मध्य, पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी जम्बू महाद्वीप में भी फैल गया। आज बौद्ध धर्म में तीन सम्प्रदाय हैं- थेरवाद, महायान और वज्रयान। ”बुद्ध“ वे कहलाते हैं जिन्होंने सालों के ध्यान के बाद यथार्थता का सत्य भाव पहचाना हो। इस पहचान को बोधि नाम दिया गया है। जो भी ”अज्ञानता की नींद“ से जागते हैं, वे ”बुद्ध“ कहलाते हैं। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं-उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगें। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह उनके ”धर्म“ के अनुसार एक धार्मिक जीवन जीए और अपनी बुद्धि को शुद्ध करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है-इस दुःख भरी स्थिति का अंत।
बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त
बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
1.अनीश्वरवाद- बौद्ध धर्म ईश्वर जैसी किसी नित्य एवं सृष्टिकर्ता व सृष्टिनियामक सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता।
2.अनात्मवाद- बौद्ध धर्म जीवों में विद्यमान किसी नित्य या अनन्त, स्वरूपवान या अस्वरूपवान आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकारता। वास्तव में बुद्ध ने आत्मा जैसे विवादास्पद मुद्दे को स्पर्ष ही नहीं किया।
3.अनित्यवाद- प्रकृति में उपस्थित प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर और परिवर्तनशील है तथा कुछ भी नित्य नहीं है।
4.चार आर्य सत्य- 
1. दुःख, इस दुनिया में सब कुछ दुःख है। जन्म में, बुढ़े होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीजों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुःख है। 
2. दुःख प्रारम्भ, तृष्णा या चाहत दुःख का कारण है ओर फिर से सशरीर करके संसार को जारी रखती है। 
3. दुःख निरोध, तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है। 
4. दुःख निरोध का मार्ग, तृष्णा से मुक्ति आर्य अष्टांग मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है।
5.अष्टांग मार्ग- गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करने के लिए इस अष्टांग मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
1.सम्यक दृष्टि- चार आर्य सत्य में विश्वास करना।
2.सम्यक संकल्प-मानसिक और नैतिक विकास की प्रतिज्ञा करना।
3.सम्यक वाक- हानिकारक बातें और झूठ न बोलना।
4.सम्यक कर्म- हानिकारक कर्म न करना।
5.सम्यक जीविका- कोई भी स्पष्टतः या अस्पष्टतः हानिकारक व्यापार न करना।
6.सम्यक प्रयास- अपने आप सुधारने की कोशिश करना।
7.सम्यक स्मृति- स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना।
8.सम्यक समाधि- निर्वाण पाना और स्वयं का गायब होना।
6. दस शील- बौद्ध धर्म व्यक्ति को अपना आचरण सुधारने हेतू दस शीलों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, आमोद-प्रमोद का त्याग, सुगन्धित पदार्थों का त्याग, असमय भोजन का त्याग, कोमल शैया का त्याग तथा कामिनी कंचन का त्याग, का उपदेश देता है।
7. प्रतीत्य समुत्पाद- प्रतीत्य समुत्पाद का तात्पर्य है कि एक वस्तु की प्राप्ति होने पर दूसरे की उत्पत्ति। दूसरे वस्तु से तीसरे की उत्पत्ति। इस प्रकार यह हेतू प्रत्यय का सिद्धान्त है। चार आर्य सत्य इसी सिद्धान्त पर आधारित हैं।
8. मध्यम प्रतिपदा- बुद्ध ने धर्म पालन हेतू मध्यम मार्ग अपनाने का उपदेश दिया। अर्थात न तो कठोर तप करने का और न ही भोग विलास करने का समर्थन करते हैं। बल्कि समान्य रूप से अष्टागिंक मार्ग का अनुसरण करने पर बल दिया।
9. बौद्ध धर्म ग्रन्थ- बौद्ध धर्मावलम्बियों के सर्वप्रमुख धर्मग्रन्थ त्रिपिटक हैं। जिसके अन्तर्गत तीन ग्रन्थ समूह आते हैं। 1. विनय पिटक-पाँच ग्रन्थों का संग्रह, 2. सुत्त पिटक- दीघनिकाय, मझिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुतर निकाय और खुद्दक निकाय का संग्रह, 3. अभिधम्म पिटक।
बौद्ध धर्म की चार संगीति (सम्मेलन)- प्रथम संगीति (483 ईसापूर्व), द्वितीय संगीति (383 ईसापूर्व), तृतीय संगीति (251 ईसापूर्व), चतुर्थ संगीति (100 ईसवी) में हुई। चतुर्थ संगीति के समय बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान दो सम्प्रदायों में बँट गया।
महायान मतावलम्बी बुद्ध को अलौकिक शक्तियों से युक्त मानकर उनकी भव्य प्रतिमाएँ बनाकर उसकी पूजा अर्चना करते थे।
हीनयान मतावलम्बी बुद्ध को मनुष्य और बौद्ध धर्म का प्रवर्तक मात्र मानते थे।
कालान्तर में वज्रयान नामक एक नवीन सम्प्रदाय निकला जिसके पालक भैरवीचक्र के संस्कार रूप में मदिरा, मांस, स्त्री सम्भोग और मन्त्रोच्चारण का पालन करते थे। इसी वज्रयान से आगे चलकर 85 सिद्धों का सिद्धमार्ग निकला, जो शराब के नशें में मस्त खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या वनों में रहते थे।


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