Sunday, March 15, 2020

युग परिवर्तन और परिवर्तनकर्ता का शास्त्रीय आधार

युग परिवर्तन और परिवर्तनकर्ता का शास्त्रीय आधार
शुक्रवार, 21 दिसम्बर, 2012 ई. 
के बाद
शनिवार, 22 दिसम्बर, 2012 ई. 
से
दूसरे और अन्तिम दृश्य काल, 
8वें मनवन्तर सांवर्णि मनु, 
दसवें और अन्तिम अवतार-कल्कि महावतार, 
पाँचवें, प्रथम और अन्तिम स्वर्णयुग, 
नये शास्त्र और नये व्यास 
के आरम्भ का शास्त्रीय आधार
काल, समय या युग परिवर्तन कब होगा? कैसे होगा और किस मानव शरीर के द्वारा होगा? और भविष्य के प्रति जिज्ञासा मानव स्वभाव का सबसे रूचिकर विषय है। इस आधार पर अनेक व्यापार भी चल रहें हैं। उपरोक्त प्रश्नों के हल को पाने के लिए हमें मानव सभ्यता के प्रारम्भ से चले आ रहे और समय-समय पर अन्य धर्म शास्त्रों के मान्यताओं तथा भविष्यवक्ताओं के विषय में जानना आवश्यक होगा।

अ. हिन्दू शास्त्र व मान्यता के अनुसार 
प्राचीन हिन्दू खगोलीय और पौराणिक पाठ्यों में वर्णित समय चक्र आश्चर्यजनक रूप से एक समान है। प्राचीन भारतीय भार और मापन पद्धतियाँ, अभी भी प्रयोग में हैं। इसके साथ-साथ ही हिन्दू ग्रन्थों में लम्बाई, भार, क्षेत्रफल मापन की भी इकाईयाँ परिमाण सहित उल्लेखित हैं। हिन्दू समय मापन (काल व्यवहार) में नाक्षत्रीय मापन, वैदिक समय इकाईयाँ, चाँद्र मापन, ऊँष्ण कटिवन्धीय मापन, पितरों की समय गणना, देवताओं की काल गणना, पाल्या इत्यादि हैं।

1. वेद व पुराण के अनुसार 
हिन्दू पुराण के अनुसार ब्रह्माण्ड का सृजन क्रमिक रूप से सृष्टि के ईश्वर ब्रह्मा द्वारा होता है जिनकी जीवन 100 ब्राह्म वर्ष होता है। ब्रह्मा के 1 दिन को 1 कल्प कहते हैं। 1 कल्प, 14 मनु (पीढ़ी) के बराबर होता है। 1 मनु का जीवन मनवन्तर कहलाता है और 1 मनवन्तर में 71 चतुर्युग (अर्थात 71 बार चार युगों का आना-जाना) के बराबर होता है। ब्रह्मा का एक कल्प (अर्थात 14 मनु अर्थात 71 चतुर्युग) समाप्त होने के बाद ब्रह्माण्ड का एक क्रम) समाप्त हो जाता है और ब्रह्मा की रात आती है। फिर सुबह होती है और फिर एक नया कल्प शुरू होता है। इस प्रकार ब्रह्मा 100 वर्ष व्यतीत कर स्वयं विलिन हो जाते हैं। और पुनः ब्रह्मा की उत्पत्ति होकर उपरोक्त क्रम का प्रारम्भ होता है। गिनीज बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड्स ने कल्प को समय का सर्वाधिक लम्बा मापन घोषित किया है।
काल मनवन्तर के मनु के नाम  अवतार
भूतकाल 1. स्वायंभुव मनु यज्ञ  
भूतकाल 2. स्वारचिष मनु विभु 
भूतकाल 3. उत्तम मनु सत्यसेना
भूतकाल 4. तामस मनु हरि
भूतकाल 5. रैवत मनु वैकुण्ठ
भूतकाल 6. चाक्षुष मनु अजित
वर्तमान 7. वैवस्वत  वामन
भविष्य 8. सावर्णि मनु सार्वभौम
भविष्य 9. दत्त सावर्णि मनु रिषभ
भविष्य 10. ब्रह्म सावर्णि मनु विश्वकसेन
भविष्य 11. धर्म सावर्णि मनु धर्मसेतू 
भविष्य 12, रूद्र सावर्णि मनु सुदामा
भविष्य 13. दैव सावर्णि मनु योगेश्वर
भविष्य 14. इन्द्र सावर्णि मनु वृहद्भानु
हम वर्तमान में ब्रह्मा के 58वें वर्ष में 7वें मनु-वैवस्वत मनु के शासन में श्वेतवाराह कल्प के द्वितीय परार्ध में, 28वें चतुर्युग का अन्तिम युग-कलियुग के ब्रह्मा के प्रथम वर्ष के प्रथम दिवस में विक्रम सम्वत् 2069 (सन् 2012 ई0) में हैं। वर्तमान कलियुग ग्रेगोरियन कैलेण्डर के अनुसार दिनांक 17-18 फरवरी को 3102 ई.पू. में प्रारम्भ हुआ था। इस प्रकार अब तक 15 नील, 55 खरब, 21 अरब, 97 करोड़, 61 हजार, 624 वर्ष इस ब्रह्मा के सृजित हुए हो गये हैं
विश्व का सृजन, विनाश और पुनः सृजन प्रत्येक 43,20,000 वर्ष के बाद होता है। जो एक के बाद एक आने वाले चार युग क्रमशः 1. सतयुग (स्वर्णयुग, आयु-1728000 वर्ष), 2. त्रेतायुग (रजतयुग, आयु-1296000 वर्ष), 3. द्वापरयुग (ताम्रयुग, आयु-864000 वर्ष), 4. कलियुग (लौहयुग, आयु-432000 वर्ष) है। प्रथम युग के बाद आने वाला युग अपने पहले के युग से कम आयु का होता है। ये चारो युग 25,920 वर्ष के चक्र में विभाजित होते हैं। प्रत्येक चक्र में चार राशियाँ क्रमशः कुंभ, वृष, सिंह और वृश्चिक बारी - बारी से आते-जाते हैं। चारो राशि चक्र को संयुक्त रूप से राशि चक्र (जोडिएक साइकिल) कहते हैं। प्रत्येक राशि 25,920 वर्ष के चैथे हिस्से 6,480 (या 6,500) वर्ष में आना-जाना होता है। इस समय हमारा प्रवेश कुंभ राशि में हो रहा है।
चतुर्युग के युगों में विशेष कला के साथ विष्णु के अवतार होते हैं। वर्तमान चतुर्युग में भगवान विष्णु के अभी तक 9 अवतार क्रमशः मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण व बुद्ध हो चुके हैं। दसवाँ कल्कि अन्तिम महाअवतार अभी होना है जो सफेद घोड़े पर सवार होकर हाथ में तलवार लेकर समस्त बुराईयों का नाश करेगें, ऐसी मान्यता है। (इन अवतारों के विषय में हम आगे विस्तृत रूप से पढ़ेगें)
ब्रह्मवैवर्त, विष्णु, भागवत, पद्म, गरूण तथा भविष्य पुराण में भगवान विष्णु के दसवें तथा महावतार ”कल्कि“ का वर्णन है। कहा गया है कि कलियुग शुरू होने के 5000 वर्ष बाद, 10,000 वर्षो तक भक्ति का प्रभाव बढ़ेगा। कलियुग के अन्त से भगवान विष्णु के अवतार से जुड़ी तथा शिव की भविष्यवाणीयाँ हैं, जो सृष्टि के संहारक व सर्जक हैं।
भागवत पुराण में सैद्धान्तिक रूप से एक ऐसे ग्रहण का उल्लेख पाया जाता है जो एक अवतार की सच्चाई का प्रमाण माना गया है।
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तिक बृहस्पति ।  एक राशै समेश्यन्ति तदा भवति तत्कृता ।।  (श्रीमद् भागवत पुराण, स्कन्द-12, अध्याय-2)
अर्थात जब पुख नक्षत्र चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक राशि समानवस्था में एकत्रित होते हैं तो सतयुग का आरम्भ होता है।
ऐसी अवस्था में सूर्य और चन्द्रमा को ग्रहण लगना अनिवार्य होता है। यह योग कहलाता है। यह योग परमेश्वर या प्रकट होने वाले अवतार या सुधारक की सत्यता को दिखाता है। महर्षि व्यास रचित और ईश्वर के आठवें अवतार श्री कृष्ण के मुख से व्यक्त श्रीमद्भगवद्गीता में भी अवतार के होने का प्रमाण मिलता है।
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः। अभियुत्थानम् धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-4, श्लोक-7)
अर्थात हे भारत! जिस काल में धर्म की हानि होती है, और अधर्म की अधिकता होती है। उस काल में ही मैं अपनी आत्मा को प्रकट करता हूँ।

2. पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य के अनुसार 
”अखिल विश्व गायत्री परिवार“ के संस्थापक, ”युग निर्माण योजना“ के संचालक व 3000 से भी अधिक पुस्तक-पुतिकाओं के लेखक पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य (जन्म-20 सितम्बर, 1911, मृत्यु-2 जून, 1990), जिनके कई लाख समर्थक-सदस्य हैं, के द्वारा लिखित व विश्लेषित पुस्तक ”युग-परिवर्तन: कैसे और कब“ में काल सम्बन्धित शास्त्रीय व्याख्या व कलयुग की समाप्ति का तथ्य प्रस्तुत किया गया है।
इस पुस्तक के भूमिका में लिखा है- ”सभी एक स्वर से यह कह रहें हैं कि प्रस्तुत वेला युग परिवर्तन की है। इन दिनों जो अनीति व अराजकता का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है, इन्हीं का बोलबाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विशमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है। ऐसे ही समय में भगवान ”यदा-यदा हि धर्मस्य“ की प्रतिज्ञा के अनुसार असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए कटिबद्ध हो ”संभवामि युगे युगे“ की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए आते रहें हैं। ज्योतिर्विज्ञान प्रस्तुत समय को जो 1850 ई. सदी से आरम्भ होकर 2005 ई. सदी में समाप्त होगा- संधि काल, परिवर्तन काल, कलियुग के अन्त तथा सतयुग के आरम्भ का काल मानता चला आया है।
                                          
इसलिए इस समय को युगसंधिकाल की वेला कहा गया है। कुछ रूढ़िवादी पण्डितों के अनुसार नया युग आने में अभी 3 लाख 34 हजार वर्ष की देरी है, किन्तु यह प्रतिपादन भ्रामक है, यह वास्तविक काल गणना करने पर पता चलता है। हरिवंशपुराण के भविष्य पर्व से लेकर श्री मद्भागवत्गीता का उल्लेख कर परम पूज्य गुरूदेव ने इसमें यह प्रमाणित किया है कि वास्तविक काल गणना के अनुसार सतयुग का समय आ पहुँचा। हजार महायुगों का समय जहाँ ब्रह्मदेव के एक दिवस के बराबर हो व ऐसे ही हजार युगों के बराबर रात्रि हो, वहाँ समझा जा सकता है कि काल की गणना को समझने में विद्वत्जनों द्वारा कितनी त्रुटि की गयी है। 
परमपूज्य गुरूदेव ने लिखा है कि 1980 ई0 से 2000 ई0 व बाद का कुछ समय अन्याय को निरस्त करने और सृजन को समुन्नत बनाने वाली, देव शक्तियों के प्रबल पुरूषार्थ के प्रकटीकरण का समय है। जब भी ऐसा होता है, तब दैवी प्रकोप विभीषिकाएँ विनाशकारी घटनाक्रम मनुष्य जाति पर संकटों के बादल के रूप में गहराने लगते हैं, ऐसी व्याधियाँ फैलती दिखाई देती हैं जो कभी न देखी, सुनी गयी, किन्तु समय रहते ही यह सब ठीक होता चला जाता है।
देखें तो, वस्तुतः विज्ञान के वरदानों ने मनुष्य को आज इतना कुछ दे दिया है कि सब कुछ आज उसकी मुट्ठी में है। द्रुतगामी वाहनों ने जहाँ आज दुनिया को बहुत छोटा बना दिया है, वहाँ इसका एक बहुत बड़ा प्रभाव मानव की मानसिक शान्ति, पारिवारिक’दाम्पत्य-जीवन एवं सामाजिकता वाले पक्ष पर भी पड़ा है। विज्ञान ने वरदान के साथ प्रदूषण को बढ़ाकर ओजोन परत को पतला कर पराबैगनी किरणों तथा अन्यान्य कैंसर को जन्म देने वाले घातक रोगाणुओं की पृथ्वी पर वर्षा का निमित्त भी स्वयं को बना लिया है। सात लाख मेगावाट अणु बमों की शक्ति के बराबर ऊर्जा प्रतिदिन पृथ्वी पर फंेकने वाला सूर्य इन दिनों कुपित है। सौरकलंक, सूर्य पर धब्बे बढ़ते चले जा रहे हैं। सूर्य ग्रहणों की एक श्रृंखला इस सदी के अन्त तक चलेगी जिसका बड़ा प्रभाव जीव समुदाय पर पड़ने की सम्भावना है।
परमपूज्य गुरूदेव एक दृष्टा, मनीषी, भविष्यवक्ता थे। जो भी उन ने 1940 ई0 से अब तक लिखा, समय‘समय पर वह सब होता चला गया। इस खण्ड में उनने अतिन्द्रिय दृष्टा महायोगी श्री अरविन्द से लेकर, बरार के विद्वान ज्योतिषि श्री गोपीनाथ शास्त्री, चुलैट, रोमारोलाँ, भविष्यवक्ता व हस्तरेखाविद् कीरों, महिला ज्योतिष बोरिस्का, बाइबल की भविष्यवाणीयाँ, नार्वे के प्रसिद्ध योगी आनन्दाचार्य, जीन डीक्सन, एण्डरसन गेरार्ड क्राइसे, चाल्र्स क्लार्क, प्रो. हटार, जमल वर्न, जार्ज बावेरी से लेकर कल्कि पुराण तथा आज के कम्प्यूटर युग में यूरोपिया द्वारा भविष्यवाणी करने वाले विद्वानों एल्विनटाॅफलर, फ्रिटजामा, प्रो0 हरीश मैकरे आदि का हवाला देते हुए, आने वाले दिनों के स्वरूप के विषय में लिखा है। उज्जवल भविष्य के दृष्टा परमपूज्य गुरूदेव ने समय-समय पर कहा है कि स्रष्टा को सुव्यवस्था और सुन्दरता ही प्रिय है।
संकटों की घड़ियाँ आसन्न दिखते हुए भी वह विश्वास नहीं छूटना चाहिए कि स्रष्टा अपनी इस अद्भ्ुात कलाकृति विश्वसुधा को, मानवी सत्ता को, सुरम्य, वाटिका को विनाश के गर्त में गिरने से पहले ही बचा लेता व अपनी सक्रियता का परिचय देता है। परिस्थितियों को उलटने का चमत्कार-युग परिवर्तन का उपक्रम रचने वाला पराक्रम करना ही इस युग के अवतार का प्रज्ञावतार का उद्देश्य है, यह भलि-भाँति आत्मसात् होता चला जाता है, पूज्यवर की पंक्तियों को पढकर, पूज्यवर ने लिखा है- ”अवतार सदा ऐसे ही कुसमय में होते रहे हैं, जैसा कि आज है। अवतारों ने लोक चेतना में ऐसी प्रबल प्रेरणा भरी है, जिसमें अनुपयुक्त को उपयुक्त में बदल देने का उत्साह लगने वाली संभावनाएँ सरल होती प्रतीत हों। दिव्य चक्षु युगान्तरीय चेतना को गंगावतरण की तरह धरती पर उतरते देख सकते हैं“ अपने 1990 ई0 के बसंत पर्व पर, महाकाल के संदेश में उनने प्रत्येक से प्रज्ञाअवतार के साथ, साझेदारी करने की बात को, समय की सबसे बड़ी समझदारी बताया तथा लिखा कि अब सभी के मन में ऐसी उमंगे उठनी चाहिए कि युग परिवर्तन की महाक्रान्ति में उनकी कुछ सराहनीय भूमिका निभ सकें। यह आमंत्रण सबके लिए है- ”इक्कीसवीं सदी-उज्जवल भविष्य“ का उद्घोष पूज्यवर ने आशावादिता की उमंगों को जिन्दा रखने के लिए दिया एवं उसी का सन्देश इस वांगमय में है।
  - ब्रह्मवर्चस
उनके अनुसार काल गणना के सन्दर्भ में युग शब्द का उपयोग अनेक प्रकार से होता है। जिन दिनो जिस प्रचलन का प्रभाव की बहुलता होती है उसे उसी नाम से पुकारा जाने लगता है। जैसे- ऋषियुग, सामंतयुग, जनयुग आदि। रामराज्य के दिनों की सर्वतोन्मुखी, प्रगति, शान्ति और सुव्यवस्था को सतयुग के नाम से जाना जाता है। कृष्ण की विशाल भारत निर्माण सम्बन्धी योजना के एक संघर्ष पक्ष को महाभारत नाम दिया जाता है। परीक्षित के काल में कलियुग के आगमन और उससे राजा के संभाषण अनुबंधों का पुराण गाथा में वर्णन है।
अब भी रोबोटयुग, कम्प्यूटरयुग, विज्ञानयुग आदि की चर्चा होती रहती है। अनेक लेखक अपनी रचनाओं के नाम युग शब्द जोड़कर करते हैं। जैसे यशपाल जैन का युगबोध आदि। यहाँ युग शब्द का अर्थ जमाने से है। जमाना अर्थात उल्लेखनीय विशेषता वाला जमाना, एक एरा, एक पीरीयड। इसी सन्दर्भ में आमतौर से ”युग“ शब्द का प्रयोग होता है।
युगों की गणना कितने प्रकार से होती है। उनमें एक गणना हजार वर्ष की है। प्रायः हर सहस्त्राब्दि में वातावरण बदल जाता है, परम्पराओं में उल्लेखनीय हेर-फेर होता है। बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ को एक युग के समापन और दूसरे युग का शुभारम्भ माना गया है।
इसी भाँति पंचांगों में कितने ही संवत्सरों के आरम्भ सम्बन्धी मान्यताओं की चर्चा है। एक मत के अनुसार युग करोड़ो वर्ष का होता है। इस आधार पर मानवीय सभ्यता की शुरूआत के खरबों वर्ष बीत चुके हैं और वर्तमान कलयुग की समाप्ति में अभी लाखों वर्ष की देरी है। पर उपलब्ध रिकार्डो के आधार पर तत्ववेक्ताओं और इतिहासकारों का कहना है कि मानवीय विकास अधिकतम उन्नीस लाख वर्ष पुराना है, इसकी पुष्टि भी आधुनिक तकनीकों द्वारा की जा चुकी है।
काल गणना करते समय व्यतिरेक वस्तुतः प्रस्तुतीकरण के गलती के कारण है। ग्रन्थों में जो काल गणना बतायी गई है, उसमें सूर्य परिभ्रमण काल को चार बड़े खण्डों में विभक्त कर चार देवयुगों की कल्पना की गई है। एक देव युग को 4,32,000 वर्ष का माना गया है। इस आधार पर धर्मग्रन्थों में वर्णित कलिकाल की समाप्ति की संगति प्रस्तुत समय से ठीक-ठीक बैठ जाती है। यह सम्भव है कि विरोधाभास की स्थिति में लोग इस काल गणना पर सहज ही विश्वास न कर सकें, अस्तु यहाँ ”युग“ का तात्पर्य विशिष्टता युक्त समय से माना गया है। युग निर्माण योजना आन्दोलन अपने अन्दर यही भाव छिपाये हुये है। समय बदलने जा रहा है, इसमें इसकी स्पष्ट झाँकी है।
प्रत्येक संधिकाल का अपना विशेष महत्व होता है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय संधिकाल कहलाता है। यह दोनो समय ”पर्वकाल“ कहलाता है। साधना पर विश्वास करने वाले इन दोनों समयों में उपासना साधना का विशेष महत्व मानते हैं। मन्दिरों से आरती और मस्जिदों से आजान की ध्वनि इन्हीं संधिकाल में सुनाई देती है। सर्दी और गर्मी इन दो प्रधान ऋतुओं के मिलन काल पर आश्विन और चैत्र की नवरात्रियाँ होती हैं। इन दोनों बेलाओं को पुण्य पर्व माना जाता है। इस अवधि में साधकगण विशेष साधनाएँ करते हैं।
कलियुग की समाप्ति और सतयुग के शुरूआत के सम्बन्ध में आम धारणा है कि सन् 1989 से 2001 तक के बारह वर्षो का समय संधिकाल के रूप में होना चाहिए। इसमें मानवी पुरूषार्थयुक्त विकास और प्रकृति प्रेरणा में सम्पन्न होने वाली विनाश की दोनों प्रक्रियाएँ अपने-अपने ढंग से हर क्षेत्र में सम्पन्न होनी चाहिए। बारह वर्ष का समय व्यवहारिक युग भी कहलाता है। युग संधिकाल को यदि इतना मानकर चला जाय, तो इसमें कोई अत्ययुक्ति जैसी बात नहीं होगी। 
हर बारह वर्ष के अन्तराल में एक नया परिवर्तन आता है, चाहे वह मनुष्य हो, वृक्ष, वनस्पति अथवा विश्व-ब्रह्माण्ड सभी में यह परिवर्तन परिलक्षित होता है। मनुष्य शरीर की प्रायः सभी कोशिकाएँ, हर बारह वर्ष में स्वयं को बदल देती हैं। अतः स्थूल शरीर को इसकी प्रतीत नहीं हो पाती किन्तु है यह विज्ञान सम्मत। काल गणना में बारह के अंक का विशेष महत्व हैं। समस्त आकाश सहित सौरमण्डल को बारह राशियों, बारह खण्डों में विभक्त किया गया है। पंचांग और ज्योतिषि का ग्रह गणित इसी पर आधारित है। इसी का अध्ययन कर ज्योतिर्विद यह पता लगाते हैं कि अगामी समय के स्वभाव व क्रियाकलाप कैसे होने वाले हैं? पाण्डवों के बारह वर्ष के वनवास की अवधि की महत्ता और विशिष्टता को ही दर्शाते हैं। इस आधार पर यदि वर्तमान बारह वर्षो को उथल-पुथल भरा संधिकाल माना गया है, तो इसमें विसंगति जैसी बात नहीं है।
कुछ रूढ़ीवादी पण्डितों का कथन है कि कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है। इस हिसाब से तो नया युग आने में 3 लाख 24 हजार वर्ष की देरी है। वर्तमान परिस्थितियों के पर्यवेक्षण से यह सत्य जैसा नहीं लगता। वास्तव में शास्त्रीय प्रतिपादन हर जगह विशिष्ट अर्थ रखते हैं। उन्हें उल्टा-पुल्टा जोड़ा गया है। उसी के कारण अंध मान्यताएँ फैलीं। प्रतिपादन गलत नहीं पर प्रस्तुतीकरण भ्रामक है। उसे समझा जाना चाहिए और उसका निराकरण किया जाना चाहिए। ग्रह-नक्षत्रों की भिन्न-भिन्न गति तथा उसके पृथ्वी पर पड़ने वाले भिन्न-भिन्न परिणामों को देखकर युग शब्द की समय अवधि भिन्न-भिन्न है।
वाजस संहिता (11,111) में मनुष्ययुग और देवयुग अलग-अलग स्पष्ट बताये गये हैं। ऋग्वेद ज्योतिपाठ में कहा गया है कि- बृहस्पति 12 राशि भोग लेते हैं तब एक युग आता है। एक राशि एक वर्ष की होती है। अतएव 12 राशियों का युग 12 वर्ष का हुआ। इसी प्रकार सूर्य की, चन्द्रमा की गणनाओं के हिसाब से युग की अवधि में काफी अन्तर है। वैज्ञानिकों ने खोज की है कि 11 वर्ष में सूर्य की अन्तर्दशा बदलती है। इस 12 वर्ष को ही उसका एक युग कहा जाता है। जहाँ 4 लाख 32 हजार वर्ष के एक-एक युग की कल्पना की गई है, वहाँ उसकी सुगति आर्षग्रन्थों की युग-गणना से किसी भी प्रकार नहीं बैठती। मनुस्मृति (मनु.1, 167-169) में लिखा है- ब्रह्माजी के अहोरात्र में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने में जो युग माने गए हैं, वे इस प्रकार हैं- 4 हजार वर्ष और उतने ही शत अर्थात 4 सौ वर्ष की पूर्व संध्या और 4 सौ वर्ष की उत्तर संध्या, इस प्रकार कुल 4800 वर्ष का सतयुग। इसी प्रकार 3600 वर्ष का त्रेता, 2400 वर्ष का द्वापर और 1200 वर्ष का कलियुग। ज्योतिष मेधातिथि ने सोचा होगा कि कलियुग तो मुझ तक ही कई हजार वर्षो का व्यतीत हो चुका है, फिर 1200 वर्षो का नहीं हो सकता। श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 12 अध्याय 2 के इस 34वें श्लोक के अनुसार - 4000 दिव्य वर्षो के अन्त में फिर सतयुग आयेगा जो मनुष्यों के मन और आत्मा में प्रकाश करेगा। मेधातिथि ने दिव्य शब्द का अर्थ देवता कर डाला और अभी तक प्रायः सभी पण्डित लोग ऐसा ही अर्थ करते रहें हैं। चूँकि एक मानुषी वर्ष के बराबर देवताओं का एक दिन होता है, यह विचार करके मेधातिथि ने भ्रम से 1200 वर्षो का कलियुग समझा और उन्हें देव वर्ष मानकर उसमें 360 से गुणा करके 432000 बना दिया और कलियुग की आयु लिख दी जो सर्वथा मिथ्या है। दिव्य का अर्थ देवता नहीं हो सकता। ऋग्वेद (2,164.46) मेें कहा गया है- अग्नि रूपी सूर्य को इन्द्र मित्र वरूण कहते हैं। वही दिव्य सुपर गुरूत्मान है। निरूक्त दैवत काण्ड (7,18) में कहा गया है-जो दिवि में प्रकट होता है उसे दिव्य कहते हैं। दिवि, द्य को कहते हैं। नैघण्टुक काण्ड में दिन के 12 नाम लिखे हैं उनमें द्यु शब्द भी दिन का वाचक है। अब दिव्य का अर्थ हुआ कि- जो दिन में प्रकट होता है। और यह प्रत्यक्ष है कि दिन में सूर्य ही प्रकट होता है। अतः दिव्य सूर्य का नाम है।
ऋग्वेद (1,16ः3,10) के मन्त्र में कहा गया है कि- आग का घोड़ा (सूर्य) है। इसमें भी सूर्य का ही वर्णन है। वेद में दिव्य नाम सूर्य का है, देवता को दिव्य कदापि नहीं कहते। व्याकरण से भी दिव्य शब्द का अर्थ देवता नहीं बनता। दिव् धातु में स्वार्थेयत प्रत्यय लगाने से दिव्य शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति यह हुई - दिव भवं दिव्यन अर्थात जो दिवि में प्रकट होता है। अतः दिव्य केवल सूर्य ही को कहते हैं। दिवि द्यु को कहते हैं और द्यु दिन का नाम है। देवता शब्द दूसरें देवातल आदि सूत्रों से बनता है। इस कारण भी दिव्य और देवता शब्दों का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। दिव्य शब्द और देवता शब्द बनाने के रूप ही अलग-अलग हैं।
कुल्लूक भट्ट ने तो अपनी मनुस्मृति (1,71) की टीका में लिखा है- चारों युग मनुष्यों के हैं। इनके बराबर देवताओं का एक युग होता है। इसलिए सतयुग 4800 वर्षो का और कलियुग 1200 वर्षो का ही हुआ। मेधातिथि ने चारों युगों को देवताओं के युग और उनके वर्षो को देव वर्ष लिखा है जिसका खण्डन कुल्लूक भट्ट 500 वर्ष पहले ही कर चुके हैं। वास्तव में सूर्य की उत्तर-दक्षिण गति को ही दिव्य वर्ष कहते हैं जिसकी गति 360 संख्या की है। अर्थात उत्तरायण के 6 मास और दक्षिणायन के 6 मास के 360 दिन-रात मनुष्यों के हुए। इसी को दिव्य वर्ष कहते हैं। अतः दिव्य देवताओं का वर्ष नहीं है। इसलिए जो आगे 360 से 1200 को गुणा कर आये हैं, वह गुणा न किया तो कलियुग की ठीक आयु 1200 वर्षों की हुई।
हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व में भी युगों का हिसाब इसी प्रकार बताया गया है-हे अरिदंम! मनुष्य लोक के दिन रात का जो विभाग बतलाया गया है। उसके अनुसार युगों की गणना सुनिए- 4000 वर्षो का एक कृतयुग होता है और उसकी संध्या 400 वर्ष की तथा उतना ही संध्यांश होता है। त्रेता का परिणाम 3000 वर्ष का है और उसकी संध्या तथा संध्यांश भी 300-300 वर्ष का होता है। द्वापर को 2000 वर्ष का कहा गया है और उसकी संध्या तथा संध्यांश 200-200 वर्ष के होते हैं। कलियुग को विद्वानों ने 1000 वर्ष का बतलाया है और उसकी संध्या तथा संध्यांश भी 100-100 वर्ष के होते हैं।
भागवत के तृतीय स्कन्ध में कहा गया है- चार, तीन, दो और एक। एक कृतादि युगों में यथाक्रम दैविगुण सैकड़ों की संख्या बढ़ती है। आशय यही है कि कृतयुग को 4000 वर्ष में 800 वर्ष जोड़कर 4800 वर्ष माने गये। इसी प्रकार शेष तीनों युगों की कालावधि समझी जाय। कुछ स्थानों पर मनुष्य के व्यवहार के लिए 12 वर्ष का एक युग भी माना गया है। जिसको 1000 से गुणा कर देने पर देवयुग होता है जिसमें चारों महायुगों का समावेश हो जाता है। इस 12 वर्ष के देवयुग को फिर 1000 से गुणा करने पर 1 करोड़ 20 लाख वर्ष ब्रह्मा का एक दिन हो जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय हो जाता है।
भगवान कृष्ण ने गीता में इसी युग की बात कही है- अहोरात्र को तत्वतः जानने वाले पुरूष समझते हैं कि हजार महायुगों का समय ब्रह्मदेव का एक दिन होता है और ऐसे ही 1000 युगों की उसकी रात्रि होती है। लोकमान्य तिलक ने इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि महाभारत, मनुस्मृति ओर यास्कनिरूक्त में इस युग गणना का स्पष्ट विवेचन आता है। लोकमान्य तिलक के अनुसार- हमारा उत्तरायण देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात है। क्योंकि स्मृति ग्रन्थों और ज्योतिष शास्त्र की संहिताओं में भी उल्लेख मिलता है कि देवता मेरू पर्वत पर अर्थात उत्तर धु्रव में रहते हैं। अर्थात दो अयनों में छः छः मास का हमारा एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के बराबर और हमारे 360 वर्ष देवताओं के 360 दिन-रात अथवा एक वर्ष के बराबर होते हैं। कृत, त्रेता, द्वापर ओर कलि ये चार युग माने गये हैं। युगों की काल गणना इस प्रकार है कि कृत युग 4000 वर्ष, त्रेता युग 3000 वर्ष, द्वापर युग 2000 वर्ष ओर कलि युग 1000 वर्ष । परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम आरम्भ नहीं हो जाता। बीच में दो युगों के संधिकाल में कुछ वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार कृत युग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर 400 वर्ष, त्रेता युग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर 300 वर्ष, द्वापर युग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर 200 वर्ष, कलि युग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर 100 वर्ष का सन्धिकाल होता है। सब मिलाकर चारो युगों का आदि-अन्त सहित सन्धि काल 2000 वर्ष का होता है। ये 2000 वर्ष और पहले बताये हुए सांख्य मतानुसार चारो युगों के 10000 वर्ष मिलाकर कुल 12000 वर्ष होते हैं।
इन गणनाओं के अनुसार हिसाब फैलाने से पता चलता है कि वर्तमान समय संक्रमण काल है। प्राचीन ग्रन्थों में हमारे इतिहास को 5 कल्पों में बाँटा गया है- 
1. हेमत् कल्प - 109800 वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 85800 वर्ष पूर्व तक।
2. हिरण्यगर्भ कल्प - 85800 वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 61800 वर्ष पूर्व तक।
3. ब्राह्म कल्प - 61800 वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 37800 वर्ष पूर्व तक।
4. पाद्य्म कल्प - 37800 वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 13800 वर्ष पूर्व तक।
5. बाराह कल्प - 13800 वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर वर्तमान समय तक चल रहा है।
अब तक बाराह कल्प के 1. स्वायम्भु मनु, 2. स्वरोचिष मनु, 3. उत्तम मनु, 4. तमास मनु, 5. रेवत मनु, 6. चाक्षषु मनु तथा 7. वैवस्वत मनु के मनवन्तर बीत चुके हैं और अब 7. वैवस्वत मनु तथा 8. सावर्णि मनु की अन्तर्दशा चल रही है।
कल्कि पुराण में बाराह कल्प के सावर्णि मनु के दक्ष, ब्रह्म, रूद्रदेव और इन्द्र सावर्णियों के मन्वन्तर बीत जाने पर अवतार होने और धरती में कलियुग की संध्या समाप्त होकर सतयुग प्रारम्भ होने का वर्णन आता है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी सम्वत प्रारम्भ होने के 5730 वर्ष पूर्व हुआ था। इन्द्र सांवर्णि के मन्वन्तर बाद ही कल्कि प्रकट होने की बात लिखी है जो कल्कि के जन्म से प्रारम्भ है और उसका काल वि0स0 4970 के आस-पास पाया जाता है।
कलियुग सम्वत् की जानकारी के लिए राजा पुलकेषिन द्वितीय चालुक्य ने विद्वान ज्योतिषियों से गणना कराई थी। दक्षिण भारत के इहोल नामक स्थान में प्राप्त शिलालेख में भी उसका उल्लेख सम्वत् 1969-1970 में पाया जाता है। इससे यही सिद्ध होता है कि भारत के बौद्ध प्रभाव को निरस्त करने वाले कल्कि का प्राकट्य सम्वत् 1969-1970 के आस-पास हो चुका है। इस सम्बन्ध में पुरातन इतिहास शोध-अधिष्ठान, मथुरा की ऐतिहासिक गवेषणाये बड़ी महत्वपूर्ण है। उसके शोधकर्ता ने भी उक्त तथ्य को माना है और अपनी विज्ञप्ति में ज्योतिष गणना का उल्लेख करते हुए स्वीकार किया है। इस समय ब्राह्म रात्रि का तमोमय सन्धिकाल है।
भागवत के दूसरे अध्याय में भी कलियुग की समाप्ति का स्पष्ट उल्लेख है- जब सप्तऋषि तारागण मघा नक्षत्र पर आये थे तब कलियुग आरम्भ हुआ और जब सप्तऋषि पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में आ चुकेंगें तो 1200 वर्षों में कलियुग राजा नन्द के समय वृद्धि को प्राप्त हो जायेगा। जब भगवान कृष्ण अपने धाम को पधारे, उसी समय से कलियुग चल पड़ा। सप्तऋषि तारागण वर्तमान समय में कृतिका नक्षत्र पर हैं। अब तक यह एक बार 27 नक्षत्र पर घूम चुके हैं। इस प्रकार मघा से रेवती तक 18, एक बार का पूरा चक्र 27 और कृतिका तक 3 अर्थात कुल 48 नक्षत्र घूम चुके। इस प्रकार कलियुग सम्वत् 2000 में श्रावण, कृष्णा अमावस्या को पूरा हो जाता है। कलियुग समाप्त होने का ठीक समय - जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय पुष्य नक्षत्र में प्रवेश करते हैं, एक राषि में आते हैं तो कलियुग समाप्त होकर सतयुग आरम्भ होता है। यह योग सम्वत 2000 की श्रावण कृष्णा अमावस्या तद्नुसार 1 अगस्त सन् 1943 में आ चुका है।
महाभारत में भी इससे मिलता-जुलता वर्णन है- वर्तमान युग के समाप्त होने के समय बड़ी कठोर घटनाएँ घटेंगी और उत्तम वर्ण वाले मनुष्यों की धीरे-धीरे और उन्नति होने लगेगी। कुछ समय पश्चात् दैव की इच्छा से लोक की वृद्धि करने वाला संयम फिर आ जायेगा। जब तिष्य में चन्द्र, सूर्य और बृहस्पति एक राषि पर समान अंशों में आवेगें तो सतयुग फिर आरम्भ हो जायेगा। फिर यथा समय वर्षा हुआ करेगी, सब लोग स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे। तिष्य शब्द के दो अर्थ होते हैं- पौष मास या पुष्प नक्षत्र। पौष का अर्थ स्वीकार करने वालों के मत से कुछ वर्ष पूर्व यह आ चुका है और सतयुग आरम्भ हो गया है। पुष्प नक्षत्र मानने वालों के मत से यह योग श्रावण कृष्ण अमावस्या संवत 2000 में आ चुका है।
काल के निर्णय के सम्बन्ध में भगवान व्यास ने वेदान्त दर्शन के चतुर्थ प्रपाठक में अपना मन्तव्य इस प्रकार प्रकट किया है- मनुष्यों की सृष्टि दो प्रकार की होती है-एक क्रमोन्नति वाली और दूसरी क्रमावनति वाली। प्रथम प्रकार की क्रम से उन्नति करने वाली प्रजा भोग भूमि (जैसे यूरोप, अमेरिका आदि) में पायी जाती है और दूसरी प्रजा कर्मभूमि (जैसे भारत वर्ष) में मिलती है। क्रमोन्नति बीज वाले पहले अवनति और पीछे क्रमशः उन्नति होती जाती है। क्रमावनति बीज वालों की पहले उन्नति और पीछे क्रमशः अवनति होती है। क्रमावनति वालों के सत्य, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग ये चार युग क्रमशः होते हैं। इसके विपरीत क्रमोन्नति वालों का प्रथम कलियुग होता है फिर क्रम से वृद्धि होते होते सतयुग की सी उत्तम अवस्था आ जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जिन भारतवासियों की अभी अवनति हो रही है, उनकी पहले उन्नति हुई थी और जिन विदेशियों की इस समय उन्नति दिखलाई पड़ रही है, वे पहले अवनति की दशा में थे। इसका दृष्टान्त इस प्रकार है कि जैसे पक्षी आकाश में उड़ रहे हों तो उनमें से जो पक्षी क्रमशः ऊपर की ओर चढ़ रहा है उनकी उन्नति और जो नीचे उतर रहा हो उसकी अवनति का अनुमान करना चाहिए। इसी प्रकार पहले भारत में सतयुग की अवस्था थी जिसका क्रमशः त्रेता, द्वापर, कलियुग के रूप में ह्रास होता गया है। अब उसके पुनः गिरने के लक्षण स्पष्ट हो रहे हैं। इससे अनुमान लगाना भी असंगत नहीं कि अब कर्मभूमि भारत में कलियुग समाप्त होकर पुनः सतयुग की दशा आने वाली है। युग निर्धारण का यह अप्रत्यक्ष तरीका हुआ, जिसमें सीधे गणना द्वारा काल निर्णय न कर, उस समय की परिस्थितियों के आधार पर उसका अनुमान लगाया जाता है। भारतीय शास्त्रों में यह शैली भी प्रचलित है।
ऐतरेय ब्राह्मण में इस सम्बन्ध में एक प्रकरण बड़ा ही भावपूर्ण व शिक्षाप्रद है। एक ऋषि को हतोत्साहित और निराश देखकर इन्द्र उपदेश देते है-जिस समय समाज या व्यक्ति निद्रावस्था में बेखबर पड़े रहते हैं अर्थात अज्ञानावस्था में रहते हैं, उस समय कलियुग होता है। जब निद्रा भंग होकर जँभाई लेते है, चैतन्य जान पड़ते हैं, तब द्वापर होता है। फिर जब वे उठकर बैठ जाते हैं, तब त्रेता समझना चाहिए। जब वे खड़ा होकर चलने लग जायें अर्थात कत्र्तव्य-कर्मो में उचित रूप से संलग्न हो जाये, तब कृतयुग अथवा सत्ययुग समझ लेना चाहिए।
कृष्ण ने युद्ध रोकने के लिए समझाते हुए कहा था- जब संग्राम में श्वेत घोड़ों के सारथी कृष्ण को आगबबूले की तरह होते और महावीर अर्जुन को गाण्डीव धनुष से वज्राघात की सी टंकार करते देखोगे, तब न तो त्रेता ही रहेगा, न कृतयुग और न द्वापर। जब जप होम आदि किये हुये सूर्य के समान प्रखर तेज वाले कुन्तिपुत्र युधिष्ठिर को अपनी सेना की रक्षा करते और शत्रु की सेना जलाते देखोगे, तब न त्रेता रहेगा, न कृतयुग और न द्वापर।
महाभारत के हरिवंश पर्व में इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में युग परिवर्तन के वे लक्षण बतालाये गये हैं, जो इस समय हमको अपने सम्मुख दिखलाई पड़ रहे हैं- कलि समाप्त होने पर उसके संध्यांश के समय प्रचण्ड व्याधियाँ उठ खड़ी होती है। प्रजा में असन्तोष बढ़ता है और घोर युद्ध भी होते हैं। जिनमें जनता का अत्यन्त नाश होता है। सतयुग आरम्भ होने के पहले एक बार पाप और अशान्ति की पराकाष्ठा हो जाती है। ऐसा होने पर ही समझना चाहिए कि कलियुग क्षीण हुआ। फिर सुधरी हुई परिस्थिति कृतयुग के रूप में प्रकट होती है और मनुष्यों में दिव्य गुणों का आविर्भाव होता है। उस समय शास्त्रों के आदेशानुसार लोग अध्यात्मवादी और ब्रह्मपरायण होने लगते हैं। 
हरिवंश पुराण में कलिकाल का वर्णन इस प्रकार किया गया है- लोग अन्न, वस्त्र तथा खाने-पीने की चीजों को भी चुराने लगेंगे। चोर आपस में ही चोरी करेंगे और एक-दूसरे को मारेंगे। इस प्रकार जब चोरों से चोरांे का नाश होगा, तब शान्ति होगी। रोगों से उनकी इन्द्रियों का क्षय होगा और आयु क्षय के क्रोध से परम विशाद को प्राप्त होगें। उन्हें साधुओं के पहल और दर्शन की इच्छा होगी और साधुओं से उपदेश ग्रहण करेंगे। रोगी रहने के कारण और सभी प्रकार के व्यवहार बन्द हो जाने के कारण सत्य वचन को बोलने लगेंगे। काम के न होने से धर्मशील हो जायेंगे। आयु क्षय और रोग होने के डर से दुराचार के करने में संकोच करेंगे और दान करने लगेंगे। प्रिय व सत्य बोलने के कारण जब वे सेवाभाव को अपनायेंगे तथा धर्म चारों ओर से आ पहुँचेगा। तब उनके मन में यह बात पैदा होगी कि अधर्म करना बुरा है और धर्म करना बहुत अच्छा है। तब सभी धर्म का उपदेश करेंगे और स्वयं धर्म पर चलेंगे। जिस क्रम से क्रमशः धर्म की जितनी हानि है, वैसे ही क्रम से धर्म की वृद्धि होगी। जब सतयुग और धर्म दोनों आ पहुँचेंगे तो सुख-सम्पत्ति आप ही आ जायेंगी। लोग मूर्ख, स्वार्थपरायण, लोभी, तुच्छ, नीच, कामना वाले, दुव्र्यवहार करने वाले, शाश्वत धर्म से पतित, पराये धर्म को चुराने वाले, पराई स्त्रियों में रत, कामी, दुरात्मा, ठग, भयंकर कर्म करने वाले हो जायेंगे। दुष्ट, राक्षस लोग ब्राह्मण रूप बनाकर फिरेंगे। राजा कानों पर विश्वास करने वाले होगें। ब्राह्मण लोग स्वाध्याय और धर्म-कर्म को छोड़कर अनीति एवं अभिमान का आश्रय लेंगे। चील कौओं की तरह अभक्ष भोजन करेंगे और मिथ्या व्रत करेंगे। जब युग का अन्त होने को होगा तो ऐसी बातें होने लगेंगे। महायुद्ध होगें, तोप, बम जैसे आग्नेय अस्त्रों की भयंकर गड़गड़ाहट होगी। अतिवृष्टि या अनावृष्टि होगी। साम्प्रदायिक दंगे, लूटमार, अग्निकाण्ड आदि के द्वारा बड़े भय उत्पन्न होगें। इस प्रकार के दृश्य युगान्त के समय होगें।

3. अन्य के अनुसार 
दिनांक 24 अक्टूबर 1995 से 16 जुलाई 2000 तक का समय सर्वाधिक खगोलीय घटनाओं वाला समय रहा है। जिसमें 24 अक्टूबर 1995 अमावस्या दीपावली के दिन पूर्ण सूर्यग्रहण, 18 से 22 नवम्बर 1997 (पाँच दिन) तक आठ ग्रहों का 130 डिग्री के बीच आना फरवरी व मार्च 1999 में एक ही महीनें में दो पूर्ण चाँद, 11 अगस्त 1999 को पूर्ण सूर्य ग्रहण, 18 नवम्बर 1999 को उल्काओं की आतिशबाजी का नजारा, 22 दिसम्बर 1999 को 133 वर्ष बाद सबसे बड़ा चाँद, 5 मई 2000 को 26 डिग्री के बीच सूर्य-चाँद सहित पाँच ग्रहों का आना और 16 जुलाई 2000 गुरुपूर्णिमा के दिन ही पूर्ण चन्द्रग्रहण है। इसके अलावा सन् 1995 के अन्त में गणेश जी का दूध पीना तथा उत्तर भारत के शिव मन्दिरों में स्थित शिवलिंगों का रंग बदलना जिससे तीसरे नेत्र के खुलने का अनुमान अलग घटना है। (देखें- ”अमर उजाला“ इलाहाबाद संस्करण 25-6-1999) उपरोक्त अवधि के 1999 में ही सावन मास का मलमास या पुरुषोत्तम मास या अधिक मास या अधिमास के रुप में शिवभक्ति के लिए अतिरिक्त माह हुआ है। भारत के लिए उपरोक्त समय में ही स्वतन्त्रता और संविधान के 50 वर्ष भी पूरे हुए हैं। 14-15 अगस्त 1947 की रात जब भारत स्वतन्त्र हुआ था तब आठों ग्रह सहित सूरज चाँद अर्थात् पूरा सौरमण्डल भारत के आकाश में अनुपस्थित था जबकि उपरोक्त समय के स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त 1999 को मंगल और चाँद को छोड़ सभी ग्रह और तारे पहली बार लाल किले पर झण्डा फहराने के समय उपस्थित थे। (देखें- ”दैनिक जागरण“ वाराणसी संस्करण, दिनांक 15-08-1999) इतना ही नहीं उपरोक्त समय में ही ईसाई, ईस्लाम और हिन्दू का महत्वपूर्ण दिन क्रमशः नया वर्ष 1 जनवरी 1998, रमजान का प्रारम्भ और वृहस्पतिवार (विष्णु का दिन) प्रथम बार एक ही दिन संयोग हुआ। उपरोक्त समय में ही ऐतिहासिक शिकागो वकृतता के बाद स्वामी विवेकानन्द के भारत लौटने का 100 वर्ष भी पूर्ण हुआ। उपरोक्त समय में ही शिकागो वकृतता के समय स्वामी विवेकानन्द के उम्र 30 वर्ष 7 माह 29 दिन के बराबर उम्र लव कुश सिंह ”विश्वमानव“ ने 15 जून 1998 को पूर्ण किया है। 26 अक्टुबर 2000 को दिपावली तथा मुसलमानो का ज्योति पर्व ”मेराजुन्नबी“ की एकता। 17 नवम्बर 2000 को लियो (सिंह) राशि की ओर से उल्कापात, 13 दिसम्बर को जेमिनी (मिथुन) राशि की ओर से उल्कापात भी अलग घटना है।
खगोल व ज्योतिष विज्ञान के अनुसार उपरोक्त घटनायें युग की समाप्ति और भगवान के अवतरण के समय का सूचक होती हैं। वर्तमान कलियुग की आयु 4,32,000 वर्ष मानी गयी है। जिसका प्रारम्भ 18 फरवरी 3102 ई0 पू0 माना जाता है। सर्वज्ञपीठम् कालीमठ, वाराणसी के स्वामी ब्रह्मानन्द नाथ सरस्वती के अनुसार ग्रहण से उत्पादित पुण्य से कलियुग  का 10,000 वर्ष आयु कम हो जाता है। (देखें- ”अमर उजाला“ इलाहाबाद संस्करण, दिनांक- 11-08-1999 पूर्ण सूर्यग्रहण के अवसर पर प्रकाशित) और 821 वर्ष कलियुग का शेष रहने पर कल्कि अवतार का अवतरण माना गया है। इस प्रकार कलियुग का व्यतीत कुल वर्ष 5102 वर्ष हुआ और यदि कल्कि अवतार अभी होता है तो कलियुग के कुल आयु 4,32,000 में से 5102$821 वर्ष घटकर 4,26,071 वर्ष ग्रहण द्वारा उत्पादित पुण्य से समाप्त हो जाने चाहिए। जिसके लिए 43 ग्रहण की आवश्यकता है। खगोल वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि वर्ष में सूर्यग्रहण की स्थिति 2 से 5 बार तक आती है। कलियुग के व्यतीत वर्ष 5102 वर्षों में क्या 43 ग्रहण नहीं आये होंगे? जबकि 20 मार्च 2015 तक 14 सूर्यग्रहण अभी होंगे। यदि यह माना जाय तो ग्रहण से उत्पन्न पुण्य सिर्फ भारत में ही होता है तो क्या 5102 वर्षों के दौरान भारत में 43 ग्रहण नहीं हुये होंगे ? जबकि चन्द्रग्रहण से उत्पादित पुण्य से कलियुग की आयु कम होना अलग है। इस प्रकार देखने पर कलियुग की आयु लगभग समाप्त हो चुकी है। 

ब. बौद्ध धर्म के अनुसार
बौद्ध धर्म में बुद्ध को विभिन्न रूप में व्यक्त कर विभिन्न शक्तियों के प्रतीक के रूप में माना जाता है। जैसे- विद्वता के बुद्ध - बुद्धा आॅफ विसडम या अवलोकितेश्वर (तिब्बती में चेनरेजिंग), सहिष्णुता के बुद्ध या मंजुश्री (तिब्बती में जामपाल यांग), महाकाल के बुद्ध इत्यादि। बुद्ध के साथ डुमा यी ग्रीन तारा, चकदुर, छनदुज्जी, चंडीज, जांबिया या पीली तारा, डुन्कर या बेट तारा आदि शक्तियों की पूजा होती है। तारा मुक्ति की देवी हैं। तारा के बहुत सारे रूप हैं। ग्रीन तारा दुःख से मुक्ति व रक्षा देती है। सफेद तारा दीर्घायु देती है। बुद्ध के महाकाल रूप में बुद्ध नरमुण्डो की माला पहने हैं। एक हाथ में पाश, दुसरे में मुगदर, तीसरे में डमरू और चैथे में सर्प। यह परम शांत, ध्यानस्थ बुद्ध का रौद्र रूप महाकाल है। शक्ति व भक्तों के लिए अभय का प्रतीक। यह बुद्ध पद्मासन में नहीं बैठे हैं बल्कि भीषण अग्नि के बीच तांडव कर रहें हैं। यह तिब्बत की तांत्रिक परम्परा के बुद्ध हैं।

स. यहूदी शास्त्र के अनुसार
यहूदी शास्त्र में बिना कोई समय निर्धारित किये स्पष्ट किया गया है कि एक समय ऐसा जरूर आयेगा जब पूरा विश्व एक ही ईश्वर, इजराइल का ईश्वर का पूजक हो जायेगा। वह ईश्वर किंग सोलोमन के जरिए प्रकट हुए किंग डेविड का वंशज होगा। मोशियाक इस विश्व का मानव होगा, यहूदी धर्म मानने वाला और धर्म-भीरू या ईश्वर भीरू होगा। उसके नेतृत्व के सम्मुख बुराई और निरंकुशता ठहर नहीं सकेगी। ईश्वर के प्रति ज्ञान विश्व में व्याप्त रहेगा। उसके अनुयायियों में सारी संस्कृतियों और देशों के लोग होगें। सारे इजराइली अपनी भूमि को वापस प्राप्त कर लेगें। मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो जायेगी। सारे मृतक भी जी उठेगें। यहूदियों को शाश्वत् आहलाद एवं प्रसन्नता प्राप्ति होगी। सारे राष्ट्र कहेगें कि इजराइल के साथ गलत व्यवहार हुआ था। समस्त विश्व के लोग यहूदियों की ओर आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए उन्मुख होगें। सारे युद्ध के हथियार नष्ट कर दिये जायेगें। वह इस विश्व को इस प्रकार सम्पूर्ण कर देगा कि सब मिलकर एक ही ईश्वर की एक साथ अराधना करेंगें।
मसीह का भावी आगमन यहूदी जाति के ऐतिहासिक विकास की पराकाष्ठा होगी। मसीह समस्त पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करेंगे और मसीह के द्वारा ईश्वर यहूदी जाति के प्रति अपनी प्रतिज्ञाएं पूरी करेगा किन्तु बाइबिल के पूर्वाध में इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि मसीह कब और कहाँ प्रकट होने वाले हैं। प्रारम्भ से ही कुछ यहूदियों और बाद के मुसलमानों ने बाइबिल के पूवार्ध में प्रतिपादित धर्म तथा दर्शन की व्याख्या अपने ढंग से की है। ईसाईयों का विश्वास है कि ईसा ही बाइबिल में प्रतिज्ञात मसीह है किंतु ईसा के समय में बहुत से यहूदियों ने ईसा को अस्वीकार कर दिया। आजकल भी यहूदी धर्मावलम्बी सच्चे मसीह की राह देख रहें हैं। 

द. ईसाई शास्त्र के अनुसार
ईसाई और यहूदी धर्मशास्त्र में भी अनेक पैगम्बरों का विवरण मिलता है। जैसे- जोशुआ, जाजस, सैम्युअल, किंग्स, ईसा, जेरेमियाह, एजिकिल और उप पैगम्बर होसिया, जोएल, एमाॅस, ओबेदिया, मिकाह, नाहुम, हबाक्कुक, जेफनिया, हगाई, जेयरिसाइ एवं मलाची।
”बुक आॅफ एजीकील“ और ”बुक आॅफ रिवीलेशन“ में  शेर, बैल, मनुष्य तथा बिच्छु के चार मुख वाले एक जीव फरिश्ते का विवरण प्राप्त होता है। जिसके चार पंख भी हैं। यह जीव बिजली की गति से चारो दिशाओं में चल सकता है। हर एक जीव के पास एक चक्र है जो चक्र में चक्र के रूप में निर्मित है और परिधि पर चारो ओर आँखे बनी हुयी है। ऐसे चार जीव खींचे जाने वाले रथ पर सवार हो योद्धा के रूप में ईश्वर युद्ध रथ में सवार होकर एजीकील के पास आता है।
ईसाई धर्म ग्रन्थ इस बात की भविष्यवाणी करती है कि मृत्यु से फिर उत्थान होगा तथा जीवन हर्ष और उल्लास से भर जायेगा। वे सभी ईसाई अभी जो उत्तरदायित्व की अपनी उम्र तक नहीं पहुँचे हैं। क्राइस्ट के चारो ओर एकत्र होकर ईश्वर राज्य के शुरूआत होने का स्वागत करेंगें।
उपरोक्त दोनो ग्रन्थों में चतुर्थांशों के विषय में भी चेतावनी व संदेश है कि जब चार राशियों में जब किसी में प्रवेश होता है तब एक बड़ा परिवर्तन घटित होता है और इस समय जब हम कुंभ राशि में प्रवेश कर रहें है, तब एक परिवर्तन घटित होगा जो प्रलय कारक निश्चित रूप से हो सकता है।
युग परिवर्तन की भविष्यवाणी बाइबिल भी स्पष्ट शब्दों में कहती है। पवित्र आत्मा यीशु ने सैंट जोहन की 15ः26 एवं 16ः7 से 15 में एक सहायक भेजने की भविष्यवाणी की है। बाईबिल की भविष्यवाणी के अनुसार अगर यह सहायक 20वीं सदी के अन्त से पहले-पहले उत्पन्न नहीं हुआ तो बाईबिल की भविष्यवाणी स्वयं ही असत्य प्रमाणित हो जायेगी। परन्तु ऐसा असम्भव है। क्योंकि उस महान आत्मा यीशु ने उस सहायक को भेजने के लिए ही अपने प्राणों की आहूति दी थी। यह तथ्य सैंट जोहन के 16ः7 से स्पष्ट प्रमाणित होता है- ”तो भी तुमसे सच कहता हूँ कि मेरा जाना तुम्हारे लिए अच्छा है क्योंकि यदि मैं न जाऊँ तो सहायक तुम्हारे पास न आयेगा। परन्तु यदि मैं जाऊँगा तो उसे तुम्हारे पास भेज दूँगा और अपने कहे के अनुसार उस पवित्र आत्मा ने अपने जीवन को स्वेच्छा से बली चढ़ा दिया“

य. इस्लाम शास्त्र के अनुसार
इस्लाम, ”अल-कियामह“ (हश्र का दिन या कयामत का दिन) के विषय में बताता है जिसके निश्चित समय के विषय में अल्लाह के अलावा किसी को नहीं पता परन्तु कयामत और पुर्नरूत्थान का दिन जरूर आएगा। जिसके अनुसार हर इंसान चाहे वह मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम अपने कर्म के लिए उत्तरदायी और उसका फैसला होगा। परन्तु वह कब होगा यह किसी को मालूम नहीं। 
कयामत आने के लक्षण के विषय में कहा गया है कि- नमाज उपेक्षित होगी, दैहिक रोग बढ़गें, पापी नेता होगें, वफादार व झूठों में फर्क करना मुश्किल होगा, लोग जानबूझकर झूठ बोलेगें, जकात (दान) देना बोझ माना जायेगा, अल्लाह को मानने वालों का अपमान होगा, वह अपने आसपास की बुराइयों को देख द्रवित होगें, उनका दिल ऐसे घुलेगा जैसे संमदर के पानी में नमक घुलता है पर वह कुछ भ्ीी कर नहीं पायेगें। बरसात अच्छी नहीं होगी, यह बेमौसमी होगी। पुरूष-पुरूषों के साथ और महिलाएं-महिलाओं के साथ व्यभिचार करेंगी। औरतों का ही राज होगा। बच्चे माँ-बाप को अनसुना करेगें, दोस्त दोस्तों के साथ बुरा व्यवहार करेगें, पापों को गम्भीरता से नहीं लिया जायेगा। मस्जिदें बाहर से सुन्दर होंगी और वहाँ इबादत भी होंगी लेकिन दिलों में बैर और नफरत होगी। फिर पश्चिम से एक इंसान आयेगा, जो मेरे कमजोर लोगों पर हुकूमत करेगा। लोग सोने के अक्षरों में कुरान तैयार करवायेगें पर उस पर अमल नहीं करेगें। कुरान को गाकर पढ़ा जायेगा। सूदखोरी बढ़ेगी। गाने वाली औरतों की संख्या बढ़ जायेगी। अमीर समय बिताने के लिए, मध्यम दर्जें के लोग व्यापार के लिए और गरीब दान पाने के लिए हज करेगें।

र. सिक्ख धर्म के अनुसार
सिक्खों के पवित्र ग्रन्थ-”दशम ग्रन्थ“ में भी कल्कि अवतार का वर्णन है। अधिकतर हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार हम जिस युग में जी रहें है, यह अंधकार का युग - कलियुग है जो चार युगो का अन्तिम युग है।

ल. मायां कैलण्डर के अनुसार
मायां, उस क्षेत्र के निवासी थे, जिसे हम मीजोमेरिका कहते हैं- दक्षिण पूर्वी मैक्सिको, व यूकाटन पेनिनसुला, गुआटेमला, बिलाइज, उत्तर-पश्चिम होनडूरल व उत्तर-पश्चिमी एस सल्वाडोर। मायां ने अपने क्लासिक युग (250-900 सी.ई.) के दौरान अपने जटिल कैलेण्डर को विकसित किये। यही कैलेण्डर लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। क्योंकि वह 21 दिसम्बर, 2012 को जल प्रलय पर केन्द्रित है। केवल एक ज्ञात माया शिलालेख है, जो कि नष्ट तथा टूटी-फूटी है। पुरालेखशास्त्री डेविड स्टुआर्ट ने इसका अनुवाद किया है जिसमें तीन कैलेण्डर एक तारीख का सन्दर्भ है।
”तेरह बकतुन चार अहाऊ में खत्म होगें, तीसरा कनकिन, यह ... होगा नौ सहायक देवों का अवतरक.....“
नौ देवता शून्य दिन को लौटेगें, जो कि मकर संक्रान्ति होगी। ये नौ देवता, एक व्यक्ति के रूप में देखे जाते हैं तथा नौ देवताओं के आगमन की भविष्यवाणी ”द चीलम वालम आॅफ तिजीमिन“ में भी मिलती है।
मायां कलैण्डर में 20 दिन बराबर 1 युईनल, 18 युईनल बराबर 1 तुन, 20 तुन बराबर 1 कातुन, 20 कातुन (400 वषों से कम) बराबर 1 बकतुन, 13 बकतुन बराबर 1 युग के होता था। और इसका 1 चक्र बनता है। जो 1,87,200 दिन या लगभग 5,125 वर्ष का होता है। और यह हमारे इस वर्तमान युग को परिभाषित करता है।
मैकमसन के अनुसार- वर्तमान समय में 13 बकतुन व 4 अहाऊ का दिन 21 दिसम्बर, 2012 है और देवताओं की वापसी की भविष्यवाणी मिलती है और वे नौ दुःख में उठेगें, अफसोस... और जब अँधरे सागर में आग के यज्ञपात्र में उठेगा, तो उस पीढ़ी के लिए मुरझायें फल का दिन होगा। वर्षा नहीं होगी। सूरज का चेहरा अलग तरह से चमकेगा। गहनों के अम्बार लग जायेगें। महान आत्माएं जहाँ भी होगीं, सभी के लिए अच्छे तोहफे मिलेगें। अभी बकतुन 13 आ रहा है, आपके पुरखों के वे आभूषण ला रहा है, जो मैंनें आपको बताए। फिर प्रभु अपने नन्हों से मिलने आएगा सभंवतः ”मृत्यु के बाद“ ही उसके प्रवचन का विषय होगा। वर्तमान में बकतुन नाव में आ रहा है। यहाँ भी 2012 का ही जिक्र है। यह 21 दिसम्बर, 2012 को पूरा होगा, जब लांग काउंट तिथि 13.0.0.0.0 तक पहुँचेगा। मायांवासीयों में इस बात पर असहमति है कि अगला दिन 0.0.0.0.1 होगा या 13.0.0.0.1। कुछ सोचते हैं कि पूरा बकतुन 13 अंक का ही होगा और 1.0.0.0.0 को पहला बकतुन शुरू होगा जो 400 तुन (अगले बकतुन) तक जायेगा। हमें यहाँ से नौ देवताओं की वापसी, मौसम का असर, सरकार से मोह भंग, यु.एफ.ओ जैसी वाली कोई वस्तु व जनसंहार की भविष्यवाणी मिलती है।
मायां कैलेण्डर व भविष्यवाणियाँ सन् 2012 को एक नये सृजन के रूप में लेता है, जब देवता लौटेगें, एक पुनर्जन्म प्रकार का अनुभव, निरंतर जन उद्भव, चेतना का उदय, मृत्यु के बहुत पास तक जाने का अनुभव, पूरी दुनिया में आध्यात्मिक जागरण, पैरानाॅरमल योग्यताओं में वृद्धि, मानवता की अगली उपजातियों का प्रकटीकरण, धरती की अन्तिम उम्मीद है। इसकी मानवता अपने पुराने खोल से निकलकर सहयोगी, टैलीपैथिक व करूणामयी धरती-प्रेमी के रूप में सामने आएगी।




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