Sunday, March 15, 2020

कलियुग के धर्म - 13. सिक्ख धर्म-गुरु नानक-सन् 1510 ई0

कलियुग के धर्म - 13. सिक्ख धर्म-गुरु नानक-सन् 1510 ई0

           
परिचय -
सिख धर्म के संस्थापक गुरू नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 को एक छोटी सी कुटिया मंे वर्तमान पाकिस्तान के लाहौर जिले के तलवंडी ग्राम में हुआ था। उन दिनांे भारत मंे पठानांे का राज था। लोगांे की दशा विशेषतः धार्मिक मामलो मंे बहुत ही असंतोषजनक थी। उस धार्मिक विधियांे को अनावश्यक महत्व दिया जाता था। असली तत्व एवं आध्यात्मिक जीवन को बहुत कम लोग समझते थे। विचित्र और कष्टप्रद परिस्थिति में गुरू नानक का जन्म हुआ। बचपन से ही गुरू नानक अत्यन्त धर्मपरायण थे। उनके अध्यापकगण और बालसखा उनकी भक्ति निष्ठा एवं उनका स्वाभाविक अध्यात्मज्ञान देख आश्चर्यचकित हो जाते थे। शिक्षा समाप्त होने पर उनके पिता ने उन्हें गायो को चराने का कार्य सौपा जब वे पशु चराते रहते, उस समय वे अक्सर किसी पेड़ के नीचे बैठकर गूढ़ चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। सौपे गये कार्य की ओर दुर्लक्ष करने के आरोप में उन्हंे कठोर दण्ड दिये जाते थें। किन्तु प्रत्येक समय किसी दैवी शक्ति के अदृश्य माध्यम से उनकी सदैव रक्षा होती रही एक बार उसके पिताजी ने उन्हंे बीस रूपये देकर कहा ”यह पैसे ले और कोई लाभदायक और सत्ययुक्त काम कर“ नानक ने सारे रूपये साधुओ को भोजन कराने में खर्च कर दिये और उन्हांेने हृदय में परम प्रसन्नता की अनुभूति की कि अपने पिता की आज्ञा का सही अर्थाे में उन्हांेने पालन किया है। बाल्यकाल से ही उनकी अनासक्ति और वैराग्य देखकर लोगांे ने सोचा कि इस बालक का जन्म किसी महान कार्य को पूर्ण करने के उद्देश्य से ही हुआ है। कुछ वर्षाे बाद ही उन्हांेने दिव्य प्रेम के नये सन्देश का प्रचार आरम्भ कर दिया। कई बादशाहों, पण्डितों और मुल्लाआंे ने उनका विरोध किया किन्तु उनकी आध्यात्मिक शक्ति और शुद्धमति ने विरोधियांे की आवाज बन्द कर दी उनके आलोचकों को भी उनकी शुद्धमती दृढ़ निश्चय का भरोसा हो गया। इतना ही नहीं कई लोग उनके अनुयायी भी बन गये। नानक ने सम्पूर्ण भारत की इस छोर से उस छोर तक यात्रा की वे मक्का, मदीना, ईरान, काबुल भी गये वे जहाँ जहाँ गये वहाँ वहाँ उन्हांेने अपनी सत्यनिष्ठा और विश्ववाणी सन्देश का प्रचार किया। हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उनके सन्देश को बड़ी श्रद्धा के साथ ग्रहण किया। उनके सन्देश का मुख्य तत्व इस प्रकार था। ईश्वर एक है। ईश्वर ही प्रेम है। ईश्वर संगठनस्वरूप है। वह मन्दिर मंे है। मस्जिद में है। और चारदिवारी के बाहर भी वह विद्यमान है। ईश्वर की दृष्टि मंे सारे मनुष्य समान है। वे सब एक ही प्रकार जन्म लेते है। और एक ही प्रकार अन्तकाल को भी प्राप्त होते है। नीच उच्च को वहाँ स्थान नहीं। ईश्वर भक्ति प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। उसमें जाति-पन्थ-रंगभेद की कोई भावना नहीं है। उम्र के चालीसवंे वर्ष मंे ही उन्हंे सत्-गुरू के रूप में मान्यता मिल गयी। उनके अनुयायी सिख कहलाए। वे पद्य के द्वारा अपना उपदेश प्रदान करते थे। ये सीधे स्वर्ग से दैवी प्रेरणा से स्वयंस्फूर्त उत्पन्न होते थे। उनके उपदेशों के संकलन को ”जपुजी साहब“ कहा जाता है। प्रसिद्ध ”गुरू ग्रन्थ साहब“ में भी उनके उपदेश-सन्देश हैं। सभी सिख इन्हंे पूज्य मानते हंै और भक्ति से इनकी पूजा करते है। गुरू नानक को हिन्दू और मुसलमान दोनो मानते थे। वे दोनो के प्रिय थे। दोनों सम्प्रदायांे मंे उनका स्थान इतना परमोच्च था कि 1539 मंे जब वे परलोक सिधारे तब हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उनके पार्थिव शरीर पर अपना अधिकार जताया और अपनी अपनी परम्परा के अनुरूप उनका अन्तसंस्कार करना चाहा। इस विवाद के कारण उनकी मृतदेह चादर से ढांककर रख दी गयी दूसरे दिन प्रातः दोनों सम्प्रदायों के लोग एकत्रित हुए और चादर हटाई तो वे आश्चर्यचकित हो गये क्योकि वहाँ उनके पार्थिव शरीर के स्थान पर केवल सुन्दर फूलो को ढेर था। कवि ननिहाल सिंह लायल ने अपनी कविता में गुरू नानक का सुंदर ढंग से वर्णन किया है। वे पवित्रता की मूर्ति थे उन्हांेने पवित्रता की शिक्षा दी। वे प्रेम की मूर्ति थे, उन्हांेने प्रेम की शिक्षा दी। वे नम्रता की मूर्ति थे उन्हांेने नम्रता की शिक्षा दी। वे दिव्यस्वरूप थे इसीलिए उन्होंने दिव्यता की शिक्षा दी। वे शान्ति और न्याय के दूत थें। समानता और शुद्धता के अवतार थे। प्रेम और भक्ति का उन्हांेने उपदेश दिया। नानक ने सन्देश दिया वही सर्वश्रेष्ठ ईश्वर सब का परमेश्वर है। सिख धर्म में हिन्दू धर्म के कुछ बुनियादी सिद्धांत पाये जाते है। जिन्हंे व्यापक और अर्थ दिया गया है सिख धर्म अद्वैतवाद में अटल विश्वास रखता है और एक परम परमेश्वर को मानता है। उसकी दृष्टि में परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ, सर्वव्यापी, अनन्त, सृष्टि का जनक सभी कारणों का कारण निर्वैर निर्मत्सर, सर्वान्तयामी और सर्वातीत है। सिख धर्म के दो मूल सिद्धांत है। पहला यह कि जीवन का उद्गम मूलतः पापमय नहीं है अपितु जीवन शुद्धता से उत्पन्न होता है और इसलिए वह मूलतः शुद्ध ही रहता है। दूसरा यह कि इस पृथ्वी पर कोई भी जाति उँची-नीची नहीं है। सभी जातियाँ समान है। कोई भी व्यक्ति न तो निन्दनीय पापी है और न कोई अपने आप पावन प्राणी है।

गुरु नानक की वाणी
भगवान एक है परन्तु उनके रूप अनेक है। ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है और वे स्वयं मानव अवतार लेते है। जो अंक ”एक“ का रहस्य जान लेता है वह ईश्वर से एकरूप हो जाता है। स्वयं की कोई इच्छा न रखते हुये ईश्वर की इच्छा के अनुरूप आचरण करना ही ईश्वर को प्राप्त कर लेने का एकमात्र साधन है। वह सर्वव्यापी ईश्वर निःसंदेह निराकार और अनाम है। जब वे प्रकट हुए, तब उन्हंे ”शब्द या नाम“ से सम्बोधित किया गया। वही समस्त सृष्टि की उत्पत्ति है। शब्द मंे से ही सृष्टि का उद्गम है और उसी मंे सृष्टि का विनाश और पुनः शब्द मंे से ही सृष्टि की नई रचना होती है। वे सर्वाधिपति शाश्वत गान अथवा दिव्य शब्द के अवतार हंै। वे ही वेद हैं और वे ही शास्त्र हंै। वे दिव्यत्व से परिपूर्ण हंै। वे ही शिव हैं, वे ही विष्णु हंै और वे ही ब्रह्मा हंै और साथ ही उनकी लीला सहचरी पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती। हमारा यह जन्म हमारे गत कर्मो का फल है परन्तु निर्वाण केवल भगवान की कृपा से ही हो सकता है। नानक, तुम यह जान लो कि वह परम सत्य सबके अन्तःकरण मंे व्याप्त है। शब्द द्वारा भगवान से संवाद करने पर मनुष्य सिद्ध, पीर, सूर और नाथ जोगी बन जाता है। शब्द के संवाद द्वारा मनुष्य संसार का रहस्य समझ जाता है। पृथ्वी, आकाश और पाताल का भेद उसके आगे खुल जाता है। शब्द के संवाद द्वारा मनुष्य मृत्यु के द्वार से भी बिना आँच लगे निकल जाता है। शब्द के संवाद से शिव, ब्रह्मा और इन्द्र की शक्ति प्राप्ति हो सकती है। व्यक्ति उसका पिछला जीवन चाहे जो भी हो, शब्द संवाद द्वारा प्राप्त कर सकता है। शब्द के संवाद से योगदृष्टि प्राप्त होती है। जीवन और आत्मा का सारा रहस्य खुल जाता है और शास्त्र, स्मृति तथा वेदांे के ठीक ज्ञान की उपलब्धि होती है। शब्द के संवाद से मनुष्य सारे सद्गुणों की खान बन जाता है, शेख बन जाता है और आध्यात्मिक ज्ञान का राजा बन जाता है। शब्द के चर्चा से व्यक्ति मे विश्वचैतन्य जागृत हो जाता है। दृष्टि लाभ होता है और अन्तर्यामी दूरदृष्टि उत्पन्न होती है। शब्द की शक्ति बहुत है परन्तु बहुत कम लोग इसे जान पाते है। शब्द की चर्चा से व्यक्ति अपने आत्मीयो को मुक्ति की ओर ले जाता है और स्वयं को उबारता है। वरन् निपुण पथप्रदर्शक होकर अनेको को उबारता है। धर्म अथवा शब्द वह परम्परागत साज है जो ताल मिलाकर सृष्टि को सहारा देता है जो इस सत्य का सम्पादन कर लेता है। वह सत्य को पा लेता है। यह केवल शब्द ही है जो सृष्टि का भारी बोझ सभाँले हुए है। किताब बोझ है और कौन सी दूसरी शक्ति इसे सभाँल सकती है। कोई नहीं केवल शब्द। भगवान के केवल एक ही शब्द से सृष्टि खिल उठी और जीवन के हजारो स्रोत जाग उठे। उस महान प्रकृति को समझने की मुझमें क्षमता कहाँ है? सृष्टि और प्रलय इसी शब्द के द्वारा होते है। और शब्द द्वारा ही इसकी पुर्नरचना होती है। सुख और दुःख में संसार फँसा हुआ है। अंह के निर्देशन मंे ही सारे कार्य होते है। शब्द के बिना अंधविश्वास समाप्त नहीं होता है और न ही अंह ही नष्ट होता है। जो अपने शरीर मंे देवता का निवास करा देता है वही गुरू है। वही पंचमुखी शब्द उच्चारित करता है। गुरू में भगवान के बराबर शक्ति होती है जिससे वह सृजन, रक्षा और संहार कर सकता है। गुरू दुष्टों को दण्ड देने की और सद्गुणो एवं गरीबो की रक्षा करने की क्षमता रखता है। जो कुछ हम पाते है ईश्वर की ही आज्ञा से पाते है। ईश्वर ने ही सृष्टि की रचना की और वे ही उस पर दृष्टि रखते है। वे ही गुरू, वे ही प्रभु और वे ही ईश्वर तीनो मिलकर एक है। श्रद्धावान के लिए मोक्ष का दरवाजा खुल जाता है। और वह अपने सगे सम्बंधियो के लिए कल्याण का साधन बन जाता है। वह स्वयं भी तर जाता है और उसे भीख माँगते हुए भटकना नहीं पड़ता। वह तो सीधे ईश्वर के द्वार पर जा पहुँचता है।

गुरू नानक के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के उद्गार - 
”इसी स्थान पर कुछ समय पश्चात् दयावान नानक ने संसार के लिए अद्भुत प्रेम का प्रचार किया था। इसी स्थान पर उनके विशाल हृदय के पट खुले थे, और उनकी बाहें फैली थी। जिन्होंने अपने आलिंगन में सारे संसार को न केवल हिन्दू बल्कि मुसलमान को भी ले लिया था। (सन 1897 में लाहौर में दिया गया भाषण)“

सिक्ख धर्म 
सिक्ख धर्म की स्थापना 15वीं शताब्दी में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग के पंजाब में गुरू नानक देव द्वारा की गई। ”सिक्ख“ शब्द शिष्य से उत्पन्न हुआ है जिसका तात्पर्य है गुरू नानक के शिष्य अर्थात उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले। गुरू नानक देव ने आम बोल चाल की भाषा में रचे पदों तथा भजनों के माध्यम से अपने उपदेश दिये। उन्होंने कहा कि सबका निर्माता, कर्ता, पालनहारा ”एक ओंकार“ अर्थात एक ईश्वर है जो ”सतनाम“ अर्थात उसी का नाम सत्य है, ”करता पुरूख“ अर्थात रचयिता, ”अकामूरत“ अर्थात अक्षय और निराकार, ”निर्भउ“ अर्थात निर्भय, ”निरवैर“ अर्थात द्वेश रहित और ”आजुनी संभग“ अर्थात जन्म-मरण से मुक्त सर्वज्ञाता है। उसे सिर्फ ”गुरू प्रसाद“ अर्थात गुरू कृपा से ही जाना जा सकता है। उसके सामने सभी बराबर हैं, अतः छुआछूत, रूढ़िवादिता, ऊँचनीच सब झूठ और आडम्बर हैं।
सिक्ख धर्म बराबरी, सहनशीलता, बलिदान, निडरता के नियमों पर चलते हुए एक निराले व्यक्तित्व के साथ जीते हुए उस ईश्वर में लीन हो जाने के जीवन के उद्देश्य वाला धर्म है। इनका धर्मग्रन्थ गुरू ग्रन्थ साहिब है। सिक्ख एक ही ईश्वर को मानते हैं जिसे वे एक ओंकार कहते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अकाल और निरंकार है। परन्तु उसके पास जाने के लिए 10 गुरूओं की सहायता महत्वपूर्ण है। सिक्खों के 10 गुरू हैं- 1. गुरू नानक देव (1469-1539), 2. गुरू अंगद (1539-1552), 3. गुरू अमरदास (1552-1574), 4. गुरू रामदास (1574-1581), 5. गुरू अर्जुनदास (1581-1606), 6. गुरू हरगोविन्द (1606-1644), 7. गुरू हरराय (1644-1661), 8. गुरू हरकृष्ण (1661-1664), 9. गुरू तेगबहादुर (1664-1675) और 10. गुरू गोविन्द सिंह (1675-1708)।
तीसरे गुरू अमरदास ने जाति प्रथा और छुआछूत को समाप्त करने के उद्देश्य से लंगर परम्परा की नींव डाली। चैथे गुरू रामदास ने ”अमृत सरोवर (अब अमृतसर)“ नामक एक नये नगर की नींव रखी। अमृतसर में हीं पाँचवें गुरू अर्जुनदास ने ”हरमन्दिर साहब (स्वर्ण मन्दिर)“ की स्थापना की। उन्होंने ही अपने पिछले गुरूओं तथा उनके समकालीन हिन्दू-मुस्लिम संतो ंके पदो एवं भजनों का संग्रह कर ”आदि ग्रन्थ“ बनाकर एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक व शाश्वत कार्य किया। गुरू अर्जुनदास को मुस्लिम शासकों ने नदी में डुबोकर हत्या करवा दी। आदि ग्रन्थ में पाँच सिक्ख गुरूओं- गुरू नानक, गुरू अंगददेव, गुरू अमरदास, गुरू रामदास और गुरू अर्जुनदास के साथ 15 संतों- शेख फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानन्द, कबीर, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास एवं 14 रचनाकारों- हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार और जालप की रचनाओं को भी ससम्मान शामिल करके अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि का परिचय दिया। यह अद्भुत कार्य करते समय गुरू अर्जुनदास के सामने धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की किसी सीमा ने अवरोध पैदा नहीं किया क्योंकि इन सभी गुरूओं, संतों एवे कवियों का सांस्कृतिक, वैचारिक एवं चिन्तनपरक आधार एक ही है। गुरू अर्जुनदास ने जब आदिग्रन्थ का सम्पादन कार्य 1604 ई0 में पूर्ण किया तब उसमें पहले पाँच गुरूओं की वाणियाँ थी। दसवें गुरू गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरू तेग बहादुर की वाणी शामिल करके आदिग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। इस ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। जिनमें 541 कबीर के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं। अन्य संतो के 1 से 4 पद को ग्रन्थ में स्थान दिया गया है। ग्रन्थ में ये रचनाएँ पिछले 400 वर्षो से अधिक समय से बिना किसी परिवर्तन के पूरी तरह सुरक्षित हैं। छठें गुरू हरगोविन्द के काल में मुगल बादशाहों के गैरमुसलमानों पर अत्याचार बढ़ते जा रहे थे जिनका उन्होंने बहादुरी के साथ मुकाबला किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को हिन्दुत्व की रक्षा हेतू सिपाहियों की तरह लैस रहने और अच्छे घुड़सवार बनने का उपदेश दिया। नौवें गुरू तेग बहादुर द्वारा भी इस्लाम धर्म अस्वीकार कर देने पर औरंगजेब ने उनके दोनो बेटों को दीवार में चिनवा दिया। दसवें गुरू गोविन्द सिंह ने सिक्ख पंथ को नया स्वरूप, नयी शक्ति और नयी ओजस्विता प्रदान की। उन्होंने ”खालसा अर्थात शुद्ध परम्परा“ की स्थापना की। खालसाओं के अनिवार्य पाँच लक्षण निर्धारित किये जिन्हें पाँच ”कक्के“ कहते हैं क्योंकि ये लक्षण- केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण ”क“ से शुरू होते हैं। सिक्ख धर्म में कृपाण धारण करने का आदेश आत्मरक्षा के लिए है। गुरू गोविन्द सिंह चाहते थे कि सिक्खों में संतो वाले लक्षण भी हों और सिपाहीयों वाली भावना भी। गुरू गोविन्द ने पुरूष खालसाओं को ”सिंह“ की तथा महिलाओं को ”कौर“ की उपाधि दी। अपने शिष्यों में धर्मरक्षा के लिए मर मिटने वाले पाँच शिष्यों को चुनकर उन्हें ”पंच प्यारे“ की संज्ञा दी। अपने देहावसान के पूर्व गुरू गोविन्द सिंह ने कहा कि उनके बाद कोई अन्य गुरू नहीं होगा बल्कि ”आदि ग्रन्थ“ को ही गुरू माना जाय। तब से आदि ग्रन्थ को ”गुरू ग्रन्थ साहिब“ कहा जाने लगा। अतः सिक्ख इस पवित्र ग्रन्थ को ही सजीव गुरू जैसा ही सम्मान देते हैं। उसे सदैव ”रूमाला“ से लपेटकर रखते हैं और मखमली चांदनी के नीचे रखते हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने हेतू हमेशा सिर पर रखकर ले जाते हैं। इस पर हमेशा चंवर डुलाया जाता है। गुरूद्वारे में इसका पाठ करने वाले विशेष व्यक्ति को ”ग्रन्थी“ और विशिष्ट रूप से गायन में प्रवीण व्यक्ति को ”रागी“ कहते हैं।
सिक्ख धर्म के पाँच प्रमुख धर्म केन्द्र (तख्त) हैं- अकाल तख्त, हरमन्दिर साहिब, पटना साहिब, आनन्दपुर साहिब और हुजूर साहिब। धर्म सम्बन्धी किसी भी विवाद पर इन तख्तों के पीठासीन अधिकारियों का निर्णय अन्तिम माना जाता है। ”वाहे गुरू“, ”सत श्री अकाल, बोले सो निहाल“, ”वाहे गुरू द खालसा, वाहे गुरू दी फतह“ पवित्र वाणी है।
सिक्ख धर्म को कालजयी बनाने के लिए गुरू गोविन्द सिंह ने सभी धर्मो और जातियों के लोगों को गुरू-शिष्य परम्परा में दीक्षित किया। उन्होंने आने वाली शताब्दियों के लिए इस नये मनुष्य का सृजन किया। वह नया मनुष्य जातियों एवं धर्मो में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए सदैव कटिबद्ध रहने वाला है। सबको साथ लेकर चलने की यह संरचना निःसन्देह सिक्ख मानस की थाती है। सिक्ख गुरूओं का सहज, सरल, सादा और स्वाभाविक जीवन जिन मूल्यों पर आधारित था निश्चय ही उन मूल्यों को उन्होंने परम्परागत भारतीय चेतना से ग्रहण किया था। देश, काल और परिस्थिति की माँग के अनुसार उन्होंने अपने व्यक्तित्व को ढालकर तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरे में प्रभावित किया था। सिक्ख गुरूओं ने अपने समय के धर्म और समाज व्यवस्था को एक नई दिशा दी। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, आध्यात्म एवं दर्शन को एक संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज के उस तबके तक पहुँचा दिया जो इससे पूर्णतः वंचित थे। सिक्ख धर्म की एक अन्य विशिष्टता यह है कि सिक्ख गुरूओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुये जीवन जीने, कमाते हुये सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुये प्रभु की प्राप्ति करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करने वाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरू नानक ने तो यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है वही सही मार्ग को पहचानता है। प्रत्येक सिक्ख की अपनी स्वतन्त्र चेतना है जो जीवन सम्बन्धी समस्याओं को अपने ही प्रकाश में सुलझाने के उद्देश्य से गम्भीर रूप से विचार करती आई है। सिक्ख गुरूओं ने साम्राज्यवादी अवधारणा कभी नहीं बनाई, उल्टे सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक सामंजस्य के माध्यम से मानवतावादी संसार की दृष्टि ही करते रहे। 



No comments:

Post a Comment