Sunday, March 15, 2020

राजाराम मोहन राय - ब्रह्म समाज

राजाराम मोहन राय - ब्रह्म समाज  
          
परिचय -
राम मोहन राय का जन्म पश्चिम बंगाल के राधानगर ग्राम में 22 मई, 1772 ई. को हुआ था। उनके पिता रमाकान्त राय सभ्रान्त ब्राह्मण थे। इस्लामी व हिन्दू धर्म के मूल रूप में अध्ययन के फलस्वरूप मोहन राय ने मूर्तिपूजा का परित्याग कर एकेश्वरवाद को स्वीकार किया। जन्मजात सत्यान्वेषक होने के नाते उन्होंने लगभग 3 वर्ष सुदूर तिब्बत में बौद्धधर्म के परिज्ञानार्थ व्यतीत किये। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में रहकर राम मोहन राय ने ईसाई धर्म का अध्ययन किया तथा आंग्ल मनीषीयों से उनका सम्पर्क हुआ। राममोहन राय की प्रथम पुस्तक ”तुहफतुल मुहाविद्दीन (एकेश्वरवादीयों के लिए एक उपहार)“ ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि एक ईश्वर में विश्वास सभी धर्म का सार है। उन्होंने हिन्दू एवं ईसाई दोनों के रूढ़िवादिता के विरूद्ध सफल संघर्ष किया। राममोहन राय का स्वर्गवास 27 सितम्बर, 1833 ई0 को ब्रिस्टल, इग्लैण्ड में हुआ जहाँ वे सामाजिक व रानैतिक उद्देश्य से गये थे।

ब्रह्म समाज का परिचय 
18 वीं शती के अंत में भारत पाश्चात्य प्रभावों एवं राष्ट्रीय रूढ़ीवादिता के चतुष्पथ पर खड़ा था। शक्तियों के इस संघर्ष के फलस्वरूप एक नवीन गतिशीलता का उदय हुआ जो सुधार के उस युग का प्रतीक थी। जिसका शुभारम्भ पथान्वेषक एवं भारतीय नवजागृति के प्रथम अग्रदूत राजा राममोहन राय के आगमन के साथ हुआ। 23 जनवरी, (माघ, 11), 1830 ई. को ब्रह्म समाज की स्थापना, सगुण ब्रह्म की उपासना का प्रथम सर्वोपरि मन्दिर से नवीन धार्मिक आन्दोलन का जन्म हुआ। राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित एकमेवाद्वितीय ब्रह्म की जाति, धर्म तथा निरपेक्ष उपासना ने प्रिंस द्वारिकानाथ के आत्मज महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर (1917-1905) पर अति गम्भीर प्रभाव डाला। देवेन्द्रनाथ ने ही ब्रह्म समाज को प्रथम सिद्धान्त प्रदान किये तथा ध्यानगम्य उपनिषदीय पवित्रता के अभ्यास का सूत्रपात किया। प्रथमाचार्य देवेन्द्रनाथ की उपासनाविधि इस प्रकार प्रधानतः उपनिषदीय थी। प्रेममय ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त अनुभूतिगम्य आत्मसाक्षात्कार उनका महत्वपूर्ण योग था। उन्होंने आध्यत्कि साधना हेतू एक संस्था ”तत्वबोधिनी सभा“ का आरम्भ किया। तत्वबोधिनी पत्रिका, सभा की प्रमुख पत्रिका के रूप में बहुतों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी। देवेन्द्रनाथ के नेतृत्व में एक अपूर्व निर्णय लिया गया कि वेद अच्युत नहीं हैं तथा तर्क एवं अन्तःकरण को सर्वोपरि प्रमाण मानना है। ब्रह्म समाज ने तथा समाज सुधार का कार्य अपने हाथ में लिया। ब्रह्म समाज के अन्तर्गत केशव चन्द्र सेन के आगमन के साथ ब्रह्म समाज को गति मिली। महर्षि देवेन्द्रनाथ ने उन्हें ब्रह्मानन्द की संज्ञा देकर समाज का आचार्य बनाया। केशव चन्द्र के आकर्षक व्यक्तित्व ने ब्रह्म समाज के आन्दोलन को स्फूर्ति प्रदान की। उन्होंने भारत के शैक्षिक, समाजिक तथा आध्यात्मिक पुनर्जनन में चिरस्थायी योग दिया। केशव चन्द्र के सतत अग्रगामी दृष्टिकोण एवं क्रियाकलाप के साथ-साथ चलना देवेन्द्रनाथ के लिए कठिन था, यद्यपि दोनों महानुभावों की भावना में सदैव मतैक्य था। सन् 1886 ई. में केशव चन्द्र ने ”भारतीय ब्रह्म समाज“ की स्थापना की। इस पर देवेन्द्र नाथ ने अपने समाज का नाम ”आदि ब्रह्म समाज“ रख दिया। केशव चन्द्र के प्रेरक नेतृत्व में भारतीय ब्रह्म समाज देश की एक महती शक्ति बन गया। इसकी विस्तृताधारीय सर्वव्याप्ति की अभिव्यक्ति ”श्लोक संग्रह“ में हुई जो एक अपूर्व संग्रह है तथा सभी राष्ट्रों एवं सभी युगों के धर्म ग्रन्थों में अपने प्रकार की प्रथम कृति है। सन् 1878 ई. में केशव चन्द्र द्वारा अपनी 13 वर्षीय अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा के साथ करने पर इस समाज में एक और विभाजन हुआ और अधिकतम समर्थकों ने अलग होकर एक अलग संस्था ”साधारण ब्रह्म समाज“ की स्थापना कर ली। जबकि ब्रह्म समाज का उद्देश्य था- ”समाज में व्याप्त बुराईयों जैसे सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना“



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