Sunday, March 15, 2020

7. सातवां अवतार: श्री राम अवतार

दूसरायुगः त्रेतायुग
स. सार्वजनिक प्रमाणित पूर्ण प्रत्यक्ष अवतार
7. सातवां अवतार: श्री राम अवतार
(मानक व्यक्ति चरित्र-रामायण)

ईश्वर के अंश अवतार शरीर धारण तिथि-चैत्र शुक्ल पक्ष-नवमी
ब्रह्मा के पूर्ण अवतार
विष्णु के अंश अवतार
महेश के अंश अवतार
              
श्रीराम अवतार (पूर्व कथा)
प्रभुत्व को लेकर ब्राह्मण-क्षत्रियों का आपसी विवाद समाप्त हो चुका थां सब लोग समझ गये थे कि धर्मसाधना तथा भगवत्प्राप्ति ही मानव-जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। समाज की रक्षा के लिए सम्पूर्ण मानव-जाति चार वर्णो में विभक्त हो चुकी थी; सभी वर्ण अपने अपने कार्य को स्वधर्म मानकर श्रद्धापूर्वक सम्पन्न कर रहे थे। समाज में शान्ति विराज रही थी। साधुगण ईश्वर की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या में लगे थे। परन्तु भगवान की कृपा के बिना उनका दर्शन नहीं मिलता; भगवान यदि स्वयं गुरू रूप में धरा पर अवतीर्ण होकर शिक्षा न दें, तो केवल शास्त्र तथा बुद्धि के द्वारा उन्हें पाने का मार्ग नहीं मिल सकता। अतएव मनुष्य व्याकुल होकर भगवान को पुकारने लगे। 
पुलस्त्य-वंशीय विश्वश्रवा के पुत्र रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण ब्राह्मणोचित शास्त्र आदि की शिक्षा प्राप्त करने के बाद कठोर तपस्या में लग गये। रावण तथा कुम्भकर्ण के मन में भगवत्प्राप्ति की इच्छा न होने के कारण तपस्या के फलस्वरूप उन्हें विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त हुई। शक्तिलाभ के पश्चात् वे लंका द्वीप के राजा होकर भोगसुख में दिन बिताने लगे। राक्षसी प्रकृति के सभी लोग उनके पास आ जुटे। धन-जन की दृष्टि से वह सोने की लंका हो गई; परन्तु धर्मरूपी मानव-जीवन की सार-वस्तु वहाँ नहीं रही। रावण अहंकार में उन्मत्त होकर सबको तुच्छ समझता था। उसके अनुचर भारत में जाकर ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करने लगे। दक्षिणी भारत में अत्याचार करते-करते वे लोग विंध्य-गिरि को पार कर उत्तरी भारत के तपस्वी ब्राह्मणों के योग-यज्ञ में भी बाधाएँ उत्पन्न करने लगे। रावण इतना शक्क्तिशाली था कि उसके भय से कोई भी राजा इस अत्याचार का प्रतिकार नहीं कर सका। असहाय, आर्त, उत्पीड़ितों तथा साधुओं की कातर प्रार्थना भगवान तक जा पहुँची। 
सूर्यवंशी महाराज दशरथ भारतवर्ष के सर्वश्रेष्ठ राजा थे। उनकी राजधानी अयोध्या आज की किसी भी नगरी की अपेक्षा सौन्दर्य तथा स्वच्छता में हीन नहीं थी। देव-द्विज के प्रति उनमें अचल भक्ति थी। यथासमय सन्तान न होने पर उन्होंने अनेक योग-यज्ञ किये। इसके फलस्वरूप उनके चार पुत्र जन्मे-कौशल्या के गर्भ से राम, सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण तथा शत्रुधन और कैकेयी के गर्भ से भरत। राम आयु में बड़े तथा सौन्दर्य-बल-बुद्धि आदि सब विषयों में श्रेष्ठ थे। छोटे भाई उन्हें खूब मानते थे। उपयुक्त आयु होने पर राजा ने उनकी शास्त्र तथा अस्त्र-शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। चारों भाई चन्द्रकला की नाईं बढ़ने लगे। 
विश्वामित्र मुनि अपनी तपस्या के प्रभाव से सम्पूर्ण भारत में विख्यात थे, परन्तु राक्षसगण अहंकार में उन्मत्त हो उनके तपोवन में तरह तरह के उत्पात करने लगे; यहाँ तक कि उनके लिए यज्ञ करना भी कठिन हो गया था। विश्वामित्र अपने तपोबल से जान गए कि साधुओं के परित्राण तथा दुष्कर्मियों के विनाश हेतु श्रीहरि दशरथ के घर मानव-शरीर में अवतीर्ण हुए हैं। अतः वे राक्षसों के विनाश हेतु रामचन्द्र को लेने अयोध्या आए। राम तब बालक मात्र थे, परन्तु विश्वामित्र के भय से दशरथ ने अपनी अनिच्छा के बावजूद राम तथा लक्ष्मण को राक्षस-वध के लिए उनके साथ भेजा। राम-लक्ष्मण ने ताड़का, सुबाहु आदि राक्षसों का विनाश कर अद्भुत शक्ति का प्रदर्शन किया। मायावी मारीच को राम ने एक ऐसा बाण मारा कि वह आकाश में घूमता हुआ सागर में जा गिरा। तदुपरान्त विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को गौतम मुनि के आश्रम में ले गये। गौतम ने किसी अपराध के कारण अपनी पत्नी को शाप देकर त्याग दिया था। रामचन्द्र के कृपापूर्वक उनका शापमोचन कर देने पर गौतम ने उन्हें पुनः स्वीकार किया। पतितों का उद्धार ही तो अवतार का कार्य है। 
मिथिला का राज्य भी समीप ही था। मिथिलानरेश जनक की सीता नाम की एक कन्या थी। राजा जनक ने एक विशाल लौह धनुष बनवाकर यह घोषणा की कि जो भी इस धनुष पर डोरी चढ़ा देगा, वही सीता का पति होगा। अनेक राजा-महाराजा उस धनुष पर डोरी चढ़ाने को आकर लज्जित हो लौट गये थे। लंकेश्वर रावण भी आकर उस धनुष को थोड़ा-सा टेढ़ा भर कर सका था। विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को मिथिला ले गये। उस धनुष पर डोर चढ़ाना तो सामान्य बात थी; राम ने धनुष को नचाकर तोड़ डाला। जनक की दो तथा उनके भाई की दो पुत्रियों के साथ राम आदि चारों भाईयों का विवाह हो गया। 
राजा दशरथ अब वृद्ध हो चले थे। अतः राज्यभार उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंपने की इच्छा व्यक्त की। अभिषेक का सारा आयोजन हो गया। सम्पूर्ण राज्य में उत्सव चल रहा था। परन्तु सहसा एक बाधा के कारण सारा आनन्द दारूण शोक में परिणत हो गया। 
एक बार दशरथ युद्ध में अत्यन्त घायल हो गये थे। उस समय रानी कैकेयी के काफी प्रयास से उन्हें आरोग्यलाभ हुआ था। उस समय दशरथ द्वारा दो वर देने की इच्छा व्यक्त करने पर कैकेयी ने कहा था कि जब जरूरत होगी तो माँग लंेगी। अब उन्होंने अपने एक वर के द्वारा राम को चैदह वर्ष के लिए वनवास तथा दूसरे वर से भरत को राजा बनाने की इच्छा प्रकट की। अब सत्य की रक्षा करे या पुत्र की- दशरथ इसका निर्णय करने में असमर्थ होकर बड़े कातर हुए। यह समाचार सुनते ही राम ने संन्यासी का वेश धारण किया और अयोध्या से निकल पड़े। उनके साथ सीता और लक्ष्मण भी गए। पुत्रशोक में दशरथ का देहावसान हो गया। 
भरत उस समय मामा के घर थे। घर लौटकर यह भयानक समाचार पाते ही वे मर्माहत हुए। माता को खूब खरी-खोटी सुनाने के बाद वे राम को वापस लाने चले। राज्य की समस्त प्रजा भी उनके साथ राम को लौटा लाने गई। परन्तु राम किसी भी हालत में पिता का वचन भंग करने को तैयार नहीं हुए। आखिरकार भरत राम की एक जोड़ी खड़ाऊँ लेकर लौटे। उस खड़ाऊँ को सिंहासन पर रखकर वे संन्यासी के वेश में प्रतिनिधि के समान राज्य चलाने लगे। 
राम ने पहले तो जाकर चित्रकूट पर्वत पर निवास किया और उसके बाद दस वर्ष दण्डकारण्य में शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य आदि सैकड़ों मुनियों के साथ धर्मचर्चा में बिताए। मुनिगण उनकी कृपा से ईश्वर का दर्शन पाकर कृतार्थ हुए। तदुपरान्त उन्होंने पंचवटी नामक एक अत्यन्त सुन्दर स्थान में अपने निवास हेतु एक कुटीर का निर्माण किया। 
दण्डकारण्य में उन्होंने विराध आदि केवल दो-चार दुष्टों का ही संहार किया। वहाँ कोई विशेष युद्ध नहीं हुआ। शूपर्णखा नामक रावण की बहन ने पंचवटी में आकर राम तथा लक्ष्मण के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। तेजस्वी लक्ष्मण ने नाराज होकर शूपर्णखा के नाक व कान काट लिए। इसी पर उनका रावण के साथ मनोमालिन्य हुआ। रावण एक दिन छद्म वेश में आकर सीता को उठा ले गया। 
वन में सीता को खोजते-खोजते राम-लक्ष्मण की सुग्रीव तथा हनुमान के साथ भेंट हुई। प्रथम दर्शन के बाद से ही सुग्रीव तथा हनुमान राम के बड़े अनुरागी हो गये। सुग्रीव के भाई बाली किष्किन्धा के राजा थे। किसी कारणवश विवाद हो जाने पर बाली ने सुग्रीव को राज्य से बाहर खदेड़ दिया था। सुग्रीव तभी से हनुमान आदि कुछ मित्रों के साथ वन-वन भटक रहे थे। राम के साथ उनकी मित्रता हो गई। राम ने प्रतिज्ञा की कि वे बाली को मारकर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाएँगे और सुग्रीव ने प्रतिज्ञा की कि वे सीता की खोज कराकर उन्हें राम के पास पहुँचा देंगे। 
राम ने बाली को मारकर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया। सुग्रीव ने भी वानरकुल के सैकड़ों लोगों को सीता की खोज में चारों ओर भेजा। काफी तलाश के बाद हनुमान लंका द्वीप गए, सीता को देखा और लौटकर समाचार दिया। फिर राम, लक्ष्मण तथा सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण कर दिया। वानर दक्षिणापथ की एक पर्वतीय जाति है। वे लोग धनुष के द्वारा युद्ध करना नहीं जानते थे, परन्तु उनके शरीर में प्रचण्ड बल था। वे लोग पत्थर तथा वृक्षों की डाल फेंककर शत्रुओं पर प्रहार करते थे। असंख्य वानरों ने लंका को घेर लिया। विभीषण बड़े धर्मपरायण थे। उन्होंने रावण को राम के साथ सन्धि कर लेने की सलाह दी। रावण इस बात पर बड़ा ही क्रुद्ध हुआ और उसने लात मारकर विभीषण को सभा से बाहर निकाल दिया। अपमानित होकर विभीषण राम की ओर जा मिले। दस महीनों तक युद्ध होने के बाद रावण के पक्ष में कोई भी पुरूष नहीं बचा। सीता का उद्धार हुआ। विभीषण लंका के राजा हुए। 
चैदह वर्ष पूरा हो जाने पर राम अयोध्या लौट आए। अयोध्या में आनन्दोत्सव मनाया जाने लगा। अयोध्या नगरी स्वर्ग में परिणत हुई। अब भी लोग उसे ‘रामराज्य’ कहते है। जब स्वयं भगवान ही राजा हों, तो वह राज्य ही तो वैकुण्ठ होगा। 
परन्तु सुख के साथ दुःख भी लगा ही रहता है। दुष्ट लोग कहने लगे, जो स्त्री एक राक्षस के साथ चली गई थी, राम ने उसे फिर लाकर क्यों पटरानी बना दिया? यह बात राम के भी कानों तक पहुँची। राम ने प्रजा को सन्तुष्ट करने के लिए अपने प्राणों से भी प्रिय सती साध्वी सीता को वाल्मीकि के तपोवन में भेज दिया। उस समय सीता गर्भवती थी; तपोवन में उनके दो जुड़वे पुत्र हुए। वाल्मीकि ने उनका नाम कुश तथा लव रखा। वे बड़े यत्नपूर्वक इनका पालन करते हुए यथाविधि शिक्षा प्रदान करने लगे। वाल्मीकि मुनि ने राम के बारे में एक काव्य लिखा और लव-कुश को उसे सुरसहित गाना सिखा दिया। 
इधर राम ने एक यज्ञ किया और उसी उपलक्ष्य में अयोध्या में एक बड़ा उत्सव हुआ। लव तथा कुश ने राजसभा में रामायण गाकर सबको मुग्ध कर लिया। उन दिनांक संगीतकला की उतनी उन्नति नहीं हुई थी। बालकों के मुख से रामायण गायन सुनकर उस समय के लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। दोनों बालकों को लेकर हलचल मच गई। उनका परिचय अब छिपा न रह सका। राम ने सीता को वाल्मीकि के तपोवन से बुलवाया। राम का दर्शन करने के पश्चात् सीता समाधियोग से देहत्याग कर चली गई। 
एक दिन एक तपस्वी ने आकर राम से कहा कि वे उन्हें एक गोपनीय बात बताना चाहते है; परन्तु किसी की उपस्थिति में वह बात नहीं हो सकती; बातचीत के दौरान यदि कोई आ पड़े, तो राम उसका वध या त्याग करने को राजी हों, तभी तपस्वी अपनी बात कहेंगे। राम इस पर सहमत हुए और लक्ष्मण को पहरे पर नियुक्त कर दिया। परन्तु दुर्भाग्यवश महाक्रोधी दुर्वासा मुनि ने उसी समय आकर राम से मिलने की इच्छा व्यक्त की। बड़ी समस्या थी। लक्ष्मण धर्मसंकट में पड़े- दुर्वासा नाराज हुए, तो सम्भव है कि राज्य भर को शाप दे दें। अतः ‘अपने को जो होना है हो’ - यह सोचकर लक्ष्मण तपस्वी की बात पूरी होने के पूर्व ही राम के सम्मुख जा पहुँचे। अतः राम उनका त्याग करने को बाध्य हुए। लक्ष्मण सरयू नदी में प्रविष्ट होकर समाधियोग से वैकुण्ठ चले गए। 
सीता और लक्ष्मण के शोक में राम, भरत तथा शत्रुधन सभी ने मानव-देह त्याग दिया। अयोध्या के लोगों का राम के साथ इतना लगाव था कि बहुत से लोग राम को छोड़कर नहीं रह सके और उनके चिन्तन में देह त्यागकर बैकुण्ठ चले गए, क्योंकि राम पूर्णब्रह्म भगवान थे। 

सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त अनुसार कथा
अदृश्य काल के सार्वजनिक प्रमाणित काल में सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना से युक्त यज्ञ आधारित त्रेता युग में विष्णु के सातवंे अवतार - श्री राम अवतार तक वेद, सहिंता, ब्राह्मण, अरण्यक, मूल उपनिषद्, वेदांग अर्थात् सूत्र सहित्य: शिक्षा कल्प- व्याकरण- निरूत- छन्द- ज्योतिष, कल्प सूत्र साहित्य: श्रोत शुल्क-गृह्य-धर्म, व्यक्त बहुदेववाद; अव्यक्त ऐकेश्वरवाद तथा अधिकतम पुराण रचना ऋषि-मुनियों, क्षत्रिय राजाओं द्वारा कर्म करते करते उत्पन्न व्यावहारिक ज्ञान और चिन्तन द्वारा ये साहित्य पूर्ण किये जा चुके थे। जिसमें व्यक्ति के पूर्ण जीवन के लिए चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास की भी व्यवस्था थी। समाज के पूर्णता के लिए परशुराम अवतार काल के वर्णाश्रम-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अपने-अपने गुण व कर्म आधारित उपविभाग जातियों अर्थात् कई नेतृत्व मनों या विचारों में बँटना प्रारम्भ हो गया था। परन्तु तब तक ये समाज को अपना प्रभाव नहीं डाले थें। परशुराम परम्परा कुछ राजाओं द्वारा स्थापित किये जा चुके थे। कुछ इसे स्वीकार न करने के लिए दृढ़ हो गये थे। साहित्यों के पूर्ण स्थापित प्रभाव वाले क्षेत्र अयोध्या के राजा दशरथ के यहाॅ राम का जन्म हुआ जो पूर्णतया अविष्कृत ज्ञान साहित्यों द्वारा ब्रह्मचर्य आश्रम में संस्कारित किये गये। राम के कत्र्तव्य पथ का समय होते ही श्रद्धेय श्रेष्ठ जनों माता-कैकेयी और पिता राजा दशरथ द्वारा चैदह वर्ष वनवास (साथ में पत्नी-सीता और भाई-लक्ष्मण स्वेच्छा से) के समय राजा बलि और राजा रावण के वध के उपरान्त लंका तक ‘परशुराम परम्परा’ का प्रसार राम ने किया। साथ ही उन्होेने दो यज्ञ-आयोजनों की परम्परा स्थापित की। प्रथम-नये राजा के पद सम्भालने पर अन्य राजाओं के साथ विचार-विमर्श हेतु राजसूय यज्ञ। दूसरा- अश्वमेध यज्ञ जो अपनी व्यवस्था की सर्वोच्चता की घोषणा का प्रतीक होता था। अश्वमेध यज्ञ में सर्वोच्चता का प्रतीक घोड़ा छोड़ा जाता था जो घोड़ा पकड़कर युद्ध में पराजित कर देता था उसे राजा बना दिया जाता था। राम द्वारा छोड़े गये घोड़े को ‘लव’ और ‘कुश’ नाम के दो शुद्धात्मा बालक ने घोड़े के पकड़कर राम की सेना को लगभग हरा चुके थे। परन्तु बालकों की माता सीता जिन्हे राम द्वारा वर्णाश्रम विभाजित गुण एवम् कर्मो पर आधारित जाति के प्रभाव में आकर वनगमन दिया गया था, की उपस्थिति द्वारा एक-दूसरे के पिता-पुत्र रूप में परिचय के उपरान्त यह युद्ध रूक गया।
ईश्वर के सातवें प्रत्यक्ष अंशावतार तथा ब्रह्मा (एकात्म ज्ञान व वाणी) के पूर्णावतार के रुप में व्यक्त श्रीराम का मुख्य गुण आदर्श पारिवारिक व्यक्ति का चरित्र तथा अवतारी गुण में ”परशुराम परम्परा“ का प्रसार था। ”परशुराम परम्परा“, ईश्वर के छठें प्रत्यक्ष अंशावतार श्री परशुराम द्वारा व्यक्तिवादी (असुर) और समाजवादी (सुर) दोनों के मिश्रित व्यवस्था द्वारा दी गयी वह साकार शरीर आधारित व्यवस्था है। जिसके अनुसार श्रीराम के नाम को बेचने वाले सिर्फ उनके नाम से मन्दिर तथा चरित्र की बात करते हैं उनके मूल कार्य- ”परशुराम परम्परा“ का नाम ही नहीं लेते। श्रीराम की कार्य शैली पूर्णतः प्रकृति और व्यक्ति द्वारा निर्मित परिस्थितियों के अधीन थी।
यहाॅ ध्यान देने योग्य यह है कि राम सार्वजनिक प्रमाणित अदृश्य प्राकृतिक चेतना अर्थात् दृश्य मानव निर्मित परिस्थितियों में प्राथमिकता के साथ वर्तमान में कार्य करना, से युक्त थे। क्योंकि उनका सम्पूर्ण कार्य उस समय पूर्ण हआ जब उन पर उनके श्रद्धेय श्रेष्ठ जन का आज्ञा पालन उनकी विवशता बन गयी थी। चूॅकि राम के पूर्व का युग सतयुग और उनके श्रद्धेय श्रेष्ठजन भी सत्य रूप थे इसलिए उनका आदेश राम के लिए मानना आवश्यक बन गया। परिणामस्वरूप राम का मार्ग ‘आर्दश चरित्र’ और ‘सत्य मार्ग’ ही एक मात्र था। अर्थात् इस काल में श्रेष्ठजनों का प्रभाव पुत्रों या आश्रितों पर पड़ना शुरू हो गया था। मूल रूप से राम काल में रक्त-सम्बन्ध ठीक था सिर्फ राज्य सम्बन्ध ही खराब थे। नारी में अपने पराये का भाव कैकेयी द्वारा जन्म लेकर तथा धोबी के बातों से सीता के वनगमन द्वारा रिश्ता सम्बन्ध और समाज पर जाति के प्रभाव का बीज पड़ चुका था। राम काल में ही प्रेम और समर्पण आधारित भक्ति का बीज दास्य और सख्य प्रेम के रूप में पूर्ण व्यक्त हो चुका था। ‘परशुराम परम्परा’ में भी अपूर्णता थी इसका प्रमाण शुद्धत्मा बालकों ‘लव और कुश’ द्वारा अश्वमेघ यज्ञ में छोड़े गये घोड़े को पकड़ युद्ध करने से व्यक्त होता है। सीता का मन पूर्ण सुखमय गृहस्थ जीवन न पाने के कारण अपूर्ण रह गया था। लक्ष्मण का मन अपने बड़े भाई के कारण इच्छाओं के दमन के कारण अपूर्ण रह गया था। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला का मन पहले पति का साथ के लिए अपूर्ण रहा जो चैदह वर्ष बाद पूर्ण हुआ परन्तु लक्ष्मण की भाॅति राम और सीता की सेवा के लिए अपूर्ण रह गया। ‘लव और कुश’ की शुद्धात्मा मन भी ‘परशुराम-परम्परा’ में सुधार के लिए अपूर्ण रह गया। राम और सीता के सानिध्य, प्रेम-सख्य व दास के लिए अनेकों नर-नारियों के मन भी अव्यक्त रहकर ही अपूर्ण हो गये थें। राम का कार्य मुख्य रूप से गणराज्य व्यवस्था के प्रसार व स्थापना पर आधारित रहा जो उन्होंने अवतारी (सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त से युक्त संयुक्त) कार्य के आगे कार्य किये इसलिए उन्हें अवतार कहा गया। 

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