द्वापरयुग के धर्म - 05. यहूदी धर्म
प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक और सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और अब्राहम को आदि-पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वशंजों के रहने के लिए इजराइल प्रदेश नियत किया है। प्रारम्भ में गोशन के मिस्रियों के साथ हिब्रुओं के सम्बन्ध अच्छे थे परन्तु बाद में दोनों में तनाव उत्पन्न हो गया। अतः मिस्री फराओं के अत्याचारों से परेशान होकर हिब्रू लोग मूसा के नेतृत्व में इजराइल की ओर चल पड़े। इस यात्रा को यहूदी इतिहास में ”निष्क्रमण“ कहा जाता है। इजराइल के मार्ग में सिनाई पर्वत पर मूसा को ईश्वर का सन्देश मिला कि यहोवा ही एकमात्र ईश्वर है। अतः उसकी आज्ञा का पालन करें, उसके प्रति श्रद्धा रखें और 10 धर्मसूत्रों का पालन करें। मूसा ने यह सन्देश हिब्रू कबीले के लोगों को सुनाया। तत्पश्चात् अन्य सभी देवी-देवताओं को हटाकर सिर्फ यहोवा की अराधना की जाने लगी। इस प्रकार यहोवा की अराधना करने वाले ”यहूदी“ और उनका धर्म ”यहूदत“ कहलाया।
यहूदी धर्म, इजराइल का राजधर्म है और बहुत पुराना मजहब है। इसी धर्म से इस्लाम और ईसाई धर्म की शुरूआत हुई। अब्राहम, यहूदी, मुसलमानी और ईसाई, तीनों धर्मो का पितामह माने जाते हैं। तीनों एक ही ईश्वर को मानते है और तीनों का उद्गम एक ही है। हिटलर ने लाखो यहूदियों को बर्बरतापूर्वक मरवा डाला। आज भी अरब देश और सम्पूर्ण इस्लामिक संसार इजराइल का नामोनिशान मिटा देना चाहते हैं। नूह ने ईश्वर के आदेश पर महाप्रलय के समय बहुत बड़ी नाव बनायी थी और उसमें सृष्टि को बचाया जैसा कि हिन्दू मान्यतानुसार राजा मनु ने किया था। यहूदी मृत्यु के बाद की दुनिया में उतना ध्यान नहीं देते। उनके हिसाब से सभी मनुष्यों को यहूदी होना जरूरी नहीं है परन्तु बाकी धर्मावलम्बी भी कयामत के बाद स्वर्ग जायेंगे।
प्रमुख सिद्धान्त
बाइबिल के पूर्वाध में जिस धर्म और दर्शन कर प्रतिपादन किया गया है वह निम्नलिखित मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है-
1. एक ही सर्वशक्तिमान ईश्वर को छोड़कर और कोई देवता नहीं है। ईश्वर इजराइल तथा अन्य देशों पर शासन करता है और वह इतिहास तथा पृथ्वी की घटनाओं का सूत्रधार है। वह पवित्र है और अपने भक्तों से यह माँग करता है कि पाप से बचकर पवित्र जीवन बिताएँ। ईश्वर एक न्यायी एवं निष्पक्ष न्यायकर्ता है जो कुकर्मियों को दण्ड व भले लोगों को इनाम देता है। वह दयालु भी है और पश्चाताप करने पर पापियों को क्षमा प्रदान करता है। इस कारण उसे पिता की संज्ञा भी दी जा सकती है। ईश्वर उस जाति की रक्षा करता है जो उसकी सहायता माँगती है। यहूदियों ने उस एक ईश्वर के अनेक नाम रखें थे जैसे- एलोहीम, याहवे और अदोनाई। बाइबिल के पूर्वाध से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि ईश्वर इस जीवन में ही अथवा परलोक में भी पापियों को दण्ड और अच्छे लोगों को इनाम देता है।
2. इतिहास में ईश्वर ने अपने को अब्राहम तथा उसके महान् वंशजों पर प्रकट किया है। उसने उनको सिखलाया है कि स्वर्ग, पृथ्वी तथा सभी चीजों का सृष्टिकर्ता है। सृष्टि ईश्वर का कोई रूपान्तर नहीं है क्यांेकि ईश्वर की सत्य सृष्टि से सर्वथा भिन्न है। इस लोकोत्तर ईश्वर ने अपनी इच्छाशक्ति द्वारा सभी चीजों की सृष्टि की है। यहूदी लोग सृष्टिकर्ता और सृष्टि इन दोनों को सर्वथा भिन्न समझते हैं।
3. समस्त मानव जाति की मुक्ति हेतू अपना विधान प्रकट करने के लिए ईश्वर ने यहूदी जाति को चुन लिया है। यह जाति अब्राहम से प्रारम्भ हुई थी और मूसा के समय ईश्वर तथा यहूदी जाति के बीच का व्यवस्थान सम्पन्न हुआ था।
4. मसीह का भावी आगमन यहूदी जाति के ऐतिहासिक विकास की पराकाष्ठा होगी। मसीह समस्त पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करेंगे और मसीह के द्वारा ईश्वर यहूदी जाति के प्रति अपनी प्रतिज्ञाएं पूरी करेगा किन्तु बाइबिल के पूर्वाध में इसका कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता कि मसीह कब और कहाँ प्रकट होने वाले हैं।
5. मूसा सहिंता यहूदियों के आचरण तथा उनके कर्मकाण्ड का मापदण्ड था किन्तु उनके इतिहास में ऐसा समय भी आया जब वे मूसा सहिंता के नियमों की उपेक्षा करने लगे। ईश्वर तथा उसके नियमों के प्रति यहूदियों के इस विश्वासघात के कारण उनको बाबिल के निर्वासन का दण्ड भोगना पड़ा। उस समय भी बहुत से यहूदी प्रार्थना, उपवास तथा परोपकार द्वारा अपनी सच्ची ईश्वरभक्ति प्रमाणित करते थे।
6. यहूदी धर्म की उपासना येरूसलेम के महामन्दिर में केन्द्रीभूत थी। उस मन्दिर की सेवा तथा प्रशासन के लिए याजकों का श्रेणीबद्ध संगठन किया गया था। येरूसलेम के मन्दिर में ईश्वर विशेष रूप से विद्यमान हैं। यह देवदूतों का दृढ़ विश्वास था और वे सब के सब उस मन्दिर की तीर्थयात्रा करना चाहते थे ताकि वे ईश्वर के सामने उपस्थित होकर उसके प्रति अपना हृदय प्रकट कर सकें। मन्दिर के धार्मिक अनुष्ठान तथा त्योहारों के अवसर पर उसमें आयोजित समारोह भक्त यहूदियों को आनन्दित किया करते थे। छठी शताब्दी ईसापूर्व के निर्वासन के बाद विभिन्न स्थानीय सभाघरों में भी ईश्वर की उपासना की जाने लगी।
7. प्रारम्भ से ही कुछ यहूदियों और बाद के मुसलमानों ने बाइबिल के पूवार्ध में प्रतिपादित धर्म तथा दर्शन की व्याख्या अपने ढंग से की है। ईसाईयों का विश्वास है कि ईसा ही बाइबिल में प्रतिज्ञात मसीह है किंतु ईसा के समय में बहुत से यहूदियों ने ईसा को अस्वीकार कर दिया। आजकल भी यहूदी धर्मावलम्बी सच्चे मसीह की राह देख रहें हैं।
प्रमुख दर्शन
1.ईश्वर - यहूदी धर्म की मान्यता है कि ईश्वर आपना सन्देश पैगम्बरों के माध्यम से प्रेषित करता है। यहूदी लोग अब्राहम, ईसाक और जेकब को अपना पितामह पैगम्बर, मूसा को मुख्य पैगम्बर तथा एलिजा, आयोस, होसिया, इजिया, हजकिया, इजकील, जरेमिया आदि को अन्य पैगम्बर मानते हैं। यहूदी धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित है। उनका ईश्वर ”यहोवा“, अमूर्त, निर्गुण, सर्वव्यापी, न्यायप्रिय, कृपालु और कठोर अनुशासनप्रिय है। अपनी आज्ञाओं के उलंघन होने पर वह दण्ड भी देता है। इतना ही नहीं, यहूदी लोग यहोवा की आज्ञाओं से सैन्य कृत्यों का भी सन्देश पाते हैं। यहोवा उनको धर्म रक्षा के लिए सैन्य संघर्ष का भी आदेश देता है। मूर्तिपूजा और दूसरे देवताओं की पूजा को पाप समझा जाता है। यहूदी, ईसामसीह को मसीहा या ईश्वर-पुत्र नहीं मानते। संत पाॅल के अनुसार यहूदी जाति किसी समय ईसा को मसीह के रूप में स्वीकार करेगी।
2.धर्म ग्रन्थ - यहूदियों के बीच इब्रानी भाषा में लिखा गया तनख है जो असल में ईसाईयों की बाइबल का पूर्वाध है इसे पुराना नियम (ओल्ड टेस्टामेण्ट) कहते हैं। यहूदियों में अनेक धर्मग्रन्थ प्रचलित हैं जिसमें कुछ प्रमुख हैं-1. तोरा, जो बाइबिल के प्रथम पाँच गंन्थों का सामूहिक नाम है और यहूदी लोग को सीधे ईश्वर द्वारा प्रदान की गई थी। 2. तालमुड, जो यहूदियों के मौखिक आचार व दैनिक व्यवहार सम्बन्धी नियमों, टीकाओं तथा व्याख्याओं का संकलन है। 3. इलाका, जो तालमुड का विधि संग्रह है। 4. अगाडा, जिसमें धर्मकार्य, धर्म कथाएं, किस्से आदि संग्रहीत हैं। 5. तनाका, जो बाइबिल का हिब्रू नाम है, आदि।
3.रबी- यहूदियों के पुरोहित को रबी कहते हैं।
4.सिनगौग- यहूदियों के मन्दिर या पूजास्थल को कहते हैं।
5.धर्मपिटक- यह सिनगौग में रखा कीकट की लकड़ी का स्वर्णजड़ित एक पिटक है, जिसमें 10 धर्मसूत्रों की प्रति रखी होती है। इसे धर्म प्रतिज्ञा की नौका भी कहते हैं।
6.यहूदी त्योहार - योम किपुर, शुक्कोह, हुनक्का, रौशन-शनाह, पासओवर
7.धर्म सूत्र- यहूदी धर्म में 10 धर्माचरणों का विशेष महत्व है, जिसका पालन करने पर यहोवा की अनुपम कृपा प्राप्त होती है। ये 10 धर्मसूत्र हैं-1. मैं स्वामी हूँ तेरा ईश्वर, तुझे मिस्र की दासता से मुक्त कराने वाला। 2. मेरे सिवा तू दूसरे को देवता नहीं मानेगा। 3. तू अपने स्वामी और अपने प्रभु का नाम व्यर्थ ही नहीं लेगा। 4. सबाथ (अवकाश) का दिन सदैव याद रखना और उसे पवित्र रखना। छः दिन तू काम करेगा, अपने सब काम, किन्तु सातवां दिन सबाथ का दिन है। याद रखना कि छः दिन तक तेरे प्रभु ने आकाश, पृथ्वी और सागर तथा उन सब में विद्यमान सभी कुछ की रचना की, फिर सातवें दिन विश्राम किया था। अतः यह प्रभु के विश्राम का दिन है। इस दिन तू कोई भी काम नहीं कर सकता। 5. अपने माता-पिता का सम्मान कर, उन्हें आदर दे ताकि प्रभु प्रदत्त इस भूमि पर तू दीर्घायु हो सके। 6. तू हत्या नहीं करेगा। 7. तू परस्त्री, परपुरूष गमन नहीं करेगा। 8. तू चोरी नहीं करेगा। 9. तू अपने पड़ोसी के खिलाफ झूठी गवाही नहीं देगा। 10. तू अपने पड़ोसी के मकान, पत्नी, नौकर, नौकरानी, बैल, गधें इत्यादि पर बुरी नजर नहीं रखेगा।
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