Sunday, March 15, 2020

कलियुग के धर्म - 11. ईसाइ धर्म-ईसा मसीह-सन् 33 ई0

कलियुग के धर्म - 11. ईसाइ धर्म-ईसा मसीह-सन् 33 ई0
                    
परिचय -
ईसा का जन्म यहूदिया के बैतलहम में करीबन दो हजार वर्ष पूर्व मरियम की कोख से हुआ था। जब यूसुुफ ने मरियम से विवाह किया, तब प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में दिखायी देकर कहने लगा, ”वह मरियम पुत्र जनेगी और तू उसका नाम ईसा रखना क्योंकि वह अपने लोगांे का उनके पापों से उद्धार करेगा।“ ईसा के जन्म के तत्काल बाद पूर्व दिशा से कई ज्येतिषि वहाँ आये और उन्हांेने राजा हेरोदेस से पूछा- ”यहूदियो का राजा, जिसका जन्म हुआ है कहाँ है? क्यांेकि हमने पूर्व में उसका तारा देखा है और उसको प्रणाम करने आये है।“ यह सुनकर स्वार्थी और क्रूर हेरोदेस बहुत घबरा गया और उसने सभी बच्चांे को मार डालने का आदेश दिया ताकि उसका शत्रु बड़ा होने के पहले ही समाप्त हो जाये। मारनेवाले से बचानेवाला बड़ा होता है। इस प्रकार ईसा हेरोदेस के क्रोध से बच गये, क्यांेकि उनके पिता उन्हें लेकर मिश्र देश भाग निकले। हेरोदेस की मृत्यु के बाद ईसा गलील देश आये और फिर नासरत में बस गये। उन्हंे यरदन में बपतिस्मा देनेवाले यूहन्ना ने बपतिस्मा प्रदान किया जैसे ही उन्हांेने बपतिस्मा लिया वैसे ही उन्होने परमेश्वर की आत्मा को कबूतर की तरह उतरते और अपने उपर आते हुए देखा और तभी यह आकाशवाणी हुई, ”यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।“ ईसा के साधनाकालीन जीवन पर अब तक कोई प्रकाश नहीं डाला जा सका है, पर यह कहा गया है कि बपतिस्मा लेने के बाद वे चालीस दिनों तक अदृश्य रहे। बाद में उन्हंे इबलीस (शैतान) विभिन्न प्रकार से प्रलोभन दिये पर वे अपने दैवी कार्य के सम्बंध मंे चिर जागरूक और सतर्क थे। इसलिए इबलीस उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सका। उस समय से ईसा ने प्रचार करना और यह कहना आरम्भ किया, ”अनुतप्त होओ क्योंकि स्वर्ग का समय निकट आया है।“ एक के बाद एक करके बारह प्रख्यात शिष्य उनके पास आये और वे ईसा के साथ गाँव-गाँव घूमने लगे, जहाँ ईसा अपने नये सुसमाचार का प्रचार करत,े बीमारों को चंगा करते, उत्पीड़ितांे को दिलासा देत,े यहाँ तक कि मरे हुआंे को जिलाते। सहस्त्र-सहस्त्र लोग उन्हें घेर लेते और अपना स्नेह प्यार उनके प्रति प्रदशर््िात करते तथा उन्हंे ”यहूदियो के राजा“ कहकर पुकारते। इससे कपटी और स्वार्थी लोगांे के मन में ईसा के प्रति ईष्र्या और द्वेष बढ़ने लगा। उन लोगांे ने उनके खिलाफ एक अत्यन्त अन्यायपूर्ण और झूठा मुकदमा चलाया और उन्हे बड़े ही अमानवीय रूप से मृत्युपर्यन्त सूली पर लटका दिया। किन्तु ईसा तो ईश्वरीय आत्मा थे। सलीब पर लटकने के समय भी उनके मन में प्रेम, आत्मीयता और करूणा की भावना भरी थंी। अन्तिम समय में उन्हांेने परमात्मा से यही प्रार्थना की- ”हे पिता इन्हें क्षमा कर क्यांेकि ये जानते नहीं कि ये क्या कर रहे है।“ ईसा मानवता के आदर्श प्रचारक सच्चे बन्धु और मार्गदर्शक थे। वे दुर्लभ गुणांे के कोश थें। उनका अपरिसीम धैर्य और विनम्रतापूर्वक कष्टांे का सहन एक ऐसी अटल अचल शिला है, जिसे हम जीवन के झंझावातो से उखड़ते समय पकड़ सकते हैं। उनकी दरिद्रता ने गरीबांे के घर को पवित्र बना दिया है। गिरे और पददलित लोगों के प्रति उनके प्रेम ने सारे संसार को अनगिनत परोपकार और सहानूभूति के कार्याे से भर दिया है। उनकी मृत्यु और पुनर्जीवन हमें उस भवन की ओर आहूत करते है जहाँ वे हमारी प्रतीक्षा कर रहे है। अकथनीय यातनाओं के मध्य उनका अपरिमित धैर्य हमारे दुःखो के प्याले को मधुर बना देता है। ईसा के उपदेश अत्यंत उदार थे। वे दूसरांे पर कुछ भी उनकी इच्छा के विरूद्ध आरोपित नहीं करते थे। उन्हांेने स्वयं कहा है- ”मंै नष्ट करने नहीं प्रत्युत सम्पूर्ण बनाने के लिए आया हूँ।“ वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि सच्ची आध्यात्मिक प्रगति संकीर्णता मंे नहीं, अपितु विस्तार में निहित होती है तथा वह समन्वयात्मक होती है न कि पृथकवादी। ईसा ने कहा कि जब व्यक्ति का हृदय पवित्र होता है, तब वह ईश्वर को देख सकता है और कोई उसको बाधा नहीं दे सकता। कोई भी चर्च (मतवाद), कोई भी पुरोहित अथवा कोई भी चीज एक पवित्र हृदय का ईश्वर दर्शन से दूर नहीं रख सकती। उनके उपदेश इतने महान उदार और इतने सार्वभौमिक इसलिए है कि वे ईश्वर के अवतार थे। ”ईसा प्रभु मे जीते रहे, प्रभु मंे प्रेम करते रहे, प्रभु मंे उपदेश देते रहे और प्रभु में यातनाएँ सहते रहे जिससे हम भी उनके समान ही जी सके, प्रेम कर सके, यातना सह सकें और शिक्षा दे सकें। हम उनसे प्रार्थना करते हंै कि वे हमें सभी प्रकार के कपट और संकीर्णता से बचाए और पुनः एक बार हमे प्रकाश दिखाए।

प्रभु ईसामसीह की वाणी -
तू अपने प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से और अपने सारे प्राण से और अपनी सारी बुद्धि से और अपनी सारी शक्ति से प्रेम करना। मुख्य आज्ञा तो यही है। स्वर्ग और पृथ्वी नष्ट हो जाएँगे पर मेरे वचन नष्ट नहीं हो सकते। मैं तुम्हंे एक नयी आज्ञा देता हॅू कि एक दूसरे से प्रेम करो, जैसा मंैने तुमसे प्रेम किया है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम करो। जिसके पास मेरी आज्ञा है और वह उन्हंे मानता है, वही मुझसे पे्रम रखता है। और जो मुझसे प्रेम रखता है। उससे मेरा पिता प्रेम रखेगंे। और मंै उससे प्रेम रखूँगां और अपने आपको उसके प्रति प्रकट करूँगा। सावधान रहो चैकस रहो और प्रार्थना करो, क्यांेकि तुम नहीं जानते कि कब समय आ जाएगा। क्यांेकि बोलने वाले तुम नहीं हो, परन्तु तुम्हारे पिता की आत्मा बोलती है। चेला, अपने गुरू से बड़ा नहीं, और न दास अपने स्वामी से। चेले का गुरू के और दास का स्वामी के साथ होना ही बहुत है। जो शरीर को मारते है पर आत्मा को नहीं मार सकते, उनसे मत डरना पर उससे डरो जो आत्मा और शरीर दोनो को नरक मंे नष्ट कर सकता है। जो माता या पिता को मुझसे प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं और जो बेटा को मुझसे अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं। जो तुम्हंे सुनता है, वह मुझे सुनता है, जो तुम्हारा तिरस्कार करता है, वह मेरा तिरस्कार करता है, और जो मेरा तिरस्कार करता है, वह उसका तिरस्कार करता है। जिसने मुझे भेजा है। जो तुम्हंे ग्रहण करता है, वह मुझे ग्रहण करता है, वह मेरे भेजने वाले को ग्रहण करता है। जो मसीहा को मसीहा जानकर ग्रहण करे, वह मसीहे का पुरस्कार पाएगा और जो धार्मिक जानकर धार्मिक व्यक्ति को ग्रहण करे, वह धार्मिक का पुरस्कार पाएगा। ऐ साँप के बच्चो तुम बुरे होकर क्योंकर अच्छी बात कह सकते हो? क्यांेकि जो मन में भरा है वही मॅुह पर आता है। जो मुँह में जाता है वह मनुष्य को अशुद्ध नहीं करता पर जो पर मुँह से निकलता है वही मनुष्य को अशुद्ध बनाता है। यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे और प्राणो की हानि उठाए तो उसे क्या लाभ होगा? ऐसा कुछ ढका नहीं है जो खोला नहीं जाएगा और न कुछ छिपा है जो जाना नहीं जाएगा। इसलिए जो कुछ तुमने अँधरे में कहा है वह उजाले मंे सुना जाएगा और जो तुमने कोठरियो मे कानोकान कहा है उसका कोठांे पर प्रचार किया जाएगा। जो मेरे पीछे हो लेगा वह अंधकार मंे न चलेगा। इसलिए पहले तुम ईश्वर के राज्य और धर्म की खोज करो और ये सब वस्तुएँ तुम्हंे मिला दी जाएँगी। मेरे नाम के कारण सब लोग तुमसे बैर करेगंे पर जो अन्त तक धीरज धरे रहेगा उसी का उद्धार होगा। जब तक मैं संसार मंे हूँ मैं जगत की ज्योति हँू। मंै और मेरे पिता एक हैं। ईसा ने उससे (मार्था से) कहा, पुनरूत्थान और जीवन मैं ही हँू जो कुछ कोई मुझ पर विश्वास करता है, वह यदि मर भी जाए, तब भी जियेगा। ईसा ने उससे कहा ”मार्ग सच्चाई और जीवन मैं ही हँू“। बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुँच सकता। यदि तुमने मुझे जाना होता, तो मेरे पिता को भी जानते। इसलिए अब प्रभु ने कहा कि अपने सारे हृदय से उपवास करते हुए रोते हुए और शोक करते हुए मेरी ओर मन लाओ और अपने कपड़े को नहीं पर अपने हृदय को सुधारो और अपने प्रभु अपने परमात्मा की ओर मोड़ो क्यांेकि वह कृपालु और दयालु है, धैर्यवान और करूणा से भरा है जो उसे ऐसा जानता है तथा पापांे के प्रायश्चित के लिए तैयार है वह सुधरेगा और क्षमा प्राप्त करेगा। यदि कोई आदमी प्यासा है तो उसे मेरे पास आने दो और पीने दो। मैं जगत में ज्योति होकर आया हँू। सकरे फाटक से प्रवेश करो क्योंकि जो फाटक बड़ा है और मार्ग चैड़ा है वह विनाश को ले जाता है। और बहुतेरे ऐसे हैं जो उससे प्रवेश करते हैं। चूँकि वह फाटक छोटा है और वह मार्ग सकरा है, जो जीवन को पहूँचाता है इसलिए थोड़े ही लोग उसे पाते है। यदि कोई राज्य अपने विरूद्ध विभाजित हो, तो वह राज्य बना नहीं रह सकता है और यदि कोई घर अपने विरूद्ध ही बँट जाए, तो वह चल नहीं सकता। यह लिखा हुआ है कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं, परन्तु परमेश्वर के प्रत्येक वचन से जीता है। जब मनुष्य से बुरी आत्मा निकल जाती है। तो वह विश्राम की खोज में सुखे रास्तांे से भटकती है। जब उसे कोई नहीं मिलता है तो वह कहती मैं अपने घर मंे लौट जाऊँगी। जहाँ से मैं आयी हँू। ईसा ने बच्चांे को पास बुलाकर कहा- बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो क्यांेकि परमेश्वर का राज्य ऐसों ही का है। मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जो एक बालक के समान स्वर्ग के राज्य के पास नहीं जाएगा वह किसी भी प्रकार वहाँ प्रवेश नहीं कर सकेगा। अपने ही देश में मसीहा का कोई आदर नहीं होता। मैं पिता से आया और संसार में पहुँचा, फिर संसार को छोड़ता हुँ, और वापस पिता के पास जाता हूँ।

प्रभु ईसामसीह के विषय मे स्वामी विवेकानन्द के उद्गार- अतएव हम पाते है कि प्राच्य के सच्चे पुत्र नासरत के ईसा, सबसे पहले धर्म के क्षेत्र में अत्यन्त व्यावहारिक थे। उन्हंे इस नश्वर जगत तथा उसके क्षणभंगूर ऐश्रर्य में विश्वास नहीं था। इसलिए हम जीवन के इस दिव्य सन्देशवाहक के जीवन का मूलमंत्र यही देखते है कि ”यह जीवन कुछ नहीं है, इससे भी उच्च कुछ और है।“ वे आत्मास्वरूप थे। वे जानते थे कि वे शुद्ध आत्मास्वरूप है। देह में अवस्थित हो मानवजाति के कल्याण के लिए देह का परिचालन मात्र कर रहे है। देह के साथ उनका केवल इतना ही सम्पर्क था। वे वास्तव में विदेह शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मास्वरूप थे। यही नहीं, उन्हांेने अपनी अद्भुत दिव्य दृष्टि से जान लिया था कि सभी नर, नारी चाहे वे यहूदी या किसी अन्य इतर जाति के ही, दरिद्र हों, धनवान, साधु हांे या पापात्मा, उनके ही समान अविनाशी आत्मास्वरूप हैं। उन्हांेने कहा- ”यह कुसंस्कारमय मिथ्या भावना छोड़ दो कि तुम हीन हो या यह कि तुम दरिद्र हो।“ उन्होंने घांेषणा की- ”तू जान कि स्वर्ग का राज्य तेरे भीतर अवस्थित है। ईसामसीह उन सबके साकारस्वरूप है, जो उनकी जाति में श्रेष्ठ और उच्च है और वे केवल अपनी ही जाति के नहीं अपितु असंख्य जातियों के भावी जीवन के शक्ति स्रोत हैं। यदि एक प्राच्यदेशीय के रूप में मंै नासरतवासी ईसा की उपासना करूँ तो मेरे लिए ऐसा करने की केवल एक ही विधि है और वह है ईश्वर के समान उनकी आराधना करना। उनकी अर्चना की और कोई विधि मैं नहीं जानता।

ईसाई धर्म
ईसा मसीह के शिष्यों ने उनके द्वारा बताये गये मार्ग अर्थात ईसाई धर्म का फिलीस्तीन में सर्वप्रथम प्रचार किया जहाँ से वह रोम और फिर सारे यूरोप में फैला। वर्तमान में यह सबसे अधिक अनुयायियों वाला धर्म है। ईसाई धर्म के कुछ विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
1.ईश्वर- ईसाई एक ही ईश्वर को मानते हैं पर उसे त्रिमूर्ति के रूप में समझते हैं- परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह और पवित्र आत्मा। परमपिता इस दुनिया के रचयिता हैं ओर इसके शासक भी। पवित्र आत्मा, तीसरे व्यक्तित्व हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपने अन्दर ईश्वर का एहसास करता है।
2.आस्था सूत्र- ईसाई धर्मावलम्बी प्रार्थनाओं तथा बप्तिस्मा एवं अन्य अनुष्ठानों के अवसर पर इस आस्था सूत्र का स्मरण करते हैं- ”मैं आकाश तथा पृथ्वी एवं सभी गोचर-अगोचर वस्तुओं के सृजक एकमात्र महाशक्तिमान पिता प्रभु तथा उनके पुत्र ईसा मसीह में विश्वास करता हूँ।“
3.पवित्र ग्रन्थ- ईसाई धर्म का पवित्र ग्रन्थ बाइबिल है जिसके दो भाग- ओल्ड टेस्टामेण्ट और न्यू टेस्टामेण्ट हैं। ईसाईयों का विश्वास है कि बाइबिल की रचना विभिन्न व्यक्तियों द्वारा ईसापूर्व 9वीं शताब्दी से लेकर ईस्वी प्रथम शताब्दी के बीच लिखे गये हैं। जिसमें 73 लेख श्रृंखला हैं। जिनमें से 46 ओल्ड टेस्टामेण्ट में और 27 न्यू टेस्टामेण्ट में संकलित हैं। जहाँ ओल्ड टेस्टामेण्ट में यहूदियों के इतिहास और विश्वासों का वर्णन है, वहीं न्यू टेस्टामेण्ट में ईसा मसीह के उपदेशों एवं जीवन का वर्णन है।
4.ईसाई धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय- ईसाईयों के मुख्य सम्प्रदाय है- 1. रोमन कैथोलिक चर्च, इसे ”अपोस्टोलिक चर्च“ कहते हैं। यह सम्प्रदाय यह विश्वास करता है कि वेटिकन स्थित पोप ईसा मसीह के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी हैं, अतः धर्म, आचार एवं संस्कार के विषय में उसका निर्णय अन्तिम माना जाता है। पोप का चुनाव वेटिकन के सिस्टीन गिरजे में इस सम्प्रदाय के श्रेष्ठ पादरियों (कार्डिनलों) द्वारा गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है। 2. प्रोटेस्टैंट, 15वीं-16वीं शताब्दी तक पोप की शक्ति अवर्णनीय रूप से बढ़ गई थी और उसका धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक सभी मामलों में हस्तक्षेप बढ़ गया था। पोप की इसी शक्ति को 14वीं शताब्दी में जाॅन वाइक्लिफ ने ओर फिर मार्टिन लूथर (जर्मनी में) ने चुनौती दी, जिससे एक नवीन सुधारवादी ईसाई सम्प्रदाय प्रोटेस्टैंट का जन्म हुआ जो अधिक उदारवादी दृष्टिकोण रखते हैं। प्रोटेस्टैंट किसी पोप को नहीं मानते और इसके बजाय बाइबिल में पूरी आस्था रखते हैं। 3. आॅथोडाॅक्स, रोम के पोप को नहीं मानते, पर अपने-अपने राष्ट्रीय धर्मसंघ के पैट्रिआर्क को मानते हैं और परम्परावादी होते हैं।
5.धर्मकृत्य- ईसाईयों के विभिन्न सम्प्रदायों में थोड़े बहुत अन्तर के साथ कुछ धर्मकृत्य संस्कार या अनुष्ठान प्रचलित हैं जिनको प्रभु की अदृश्य अगोचर कृपा से दृश्य गोचर प्रतीक माना जाता है। ऐसे निम्न 7 कृत्य मान्य हैं।
1.धन्यवाद ज्ञापन (यूखैरिस्ट)- गिरजाघर की प्रार्थना के समय रोटी और मदिरा का सेवन करना, जिसका उद्देश्य ईसा मसीह के शरीर का अंग बन जाना है। मान्यता यह है कि ईसा मसीह ने यहूदियों द्वारा अपनी गिरफ्तारी के पूर्व रात्रि को दिये गये एक भोज में रोटी तोड़कर एक-एक टुकड़ा और साथ में थोड़ी-थोड़ी मदिरा अपने प्रत्येक शिष्य को यह कहते हुए दिया था कि ये मेरे शरीर और रक्त के हिस्सें हैं और इसके सेवन से सभी शिष्य एक मन, एक प्राण, एक शरीर रूप हो सहधर्मी हो जायेंगे।
2.बैप्टिज्म- व्यक्ति पर जल छिड़ककर या शिशु को पवित्र जल में डुबकी लगवाकर उसे चर्च विशेष के सदस्य के रूप में प्रविष्ट करना।
3.पुष्टिकरण (कनफरमेशन)- ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके व्यक्ति के हाथों में तेल और बाम मलना, जिसका उद्देश्य उसके ईसाइयत को पुनः पुष्ट करना है।
4.प्रायश्चित (कनफेशन)- ईसाई धर्मावलम्बियों में, विशेषकर रोमन कैथोलिकों में प्रचलित इस व्यवस्था के अनुसार चर्च में विशिष्ट रूप से बने एक स्थान पर व्यक्ति को पादरी के समक्ष धर्मग्रहण के समय तथा प्रत्येक वर्ष कम से कम एक बार अपने पापों का ब्यौरा देकर प्रायश्चित करना पड़ता है। ऐसी मान्यता है कि प्रभु पादरी के माध्यम से उसे माफ कर देता है।
5.अभिषेक- मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति की आँखों, कानो, नथुनों, ओठों, हाथों, पावों और पुरूषों की जांघों में पादरी तेल छुवाता या मलता है और प्रभु से उसके पापों को क्षमा करने की प्रार्थना करता है।
6.विवाह- ईसाईयों में विवाह एक पवित्र संस्कार है। जिसका सम्पादन चर्च में पादरी के आशीर्वाद एवं घोषणा से किया जाता है।
7.पुरोहित एवं आर्डिनेशन- रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय में पुरोहितों को ”होली आर्डर्स“ कहते हैं। पादरियों के दो वर्ग होते हैं- ज्येष्ठ और कनिष्ठ। कनिष्ठ वर्ग में शिक्षार्थी पादरी, धर्मग्रन्थ कथावाचक आदि आते हैं। वहीं ज्येष्ठ वर्ग में विशप, पादरी, डीकन, आर्कविशप आदि आते हैं। पोप रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय के सर्वमान्य सर्वोच्च धर्म गुरू हैं। रोमन कैथोलिक में किसी कनिष्ठ पुरोहित को ज्येष्ठ वर्ग में प्रवेश हेतू किया जाने वाला संस्कार आर्डिनेशन कहलाता है।


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