Sunday, March 15, 2020

स्वामी दयानन्द-आर्य समाज

स्वामी दयानन्द-आर्य समाज 
           
परिचय -
वेदामृत की धारा प्रवाहित करने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का आभिवर्भाव सं. 1881 वि. 21 फरवरी, 1824 ई. को प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में हुआ। इनके पिता अम्बाशंकर शिव के अनन्य उपासक थे। जन्म का नाम मूलशंकर था। माँ के आग्रह से इन्होंने शिव-व्रत प्रारम्भ किया परन्तु मूर्ति पर चूहों का उपद्रव देखकर इनका मन मूर्ति-पूजा सं हट गया। बहन की अकाल मृत्यु से नश्वर संसार के प्रति वैराग्य हो गया।
स्वामी पूर्णानन्द जी से योग-दीक्षा एवं सन्यास लेकर दयानन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वामी विरजानन्द से वेदाध्ययन कर अपना गुरू स्वीकारा और उन्हीं के आदेश से वेद-प्रचारार्थ निकल पड़े। उस समय मूर्ति-पूजा, पाखण्ड और मत-मतान्तरों में फँसे हिन्दुओं को जाग्रत किया। 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई (तत्कालिन बम्बई) में ”आर्य समाज“ की स्थापना कर ”सत्यार्थ प्रकाश (1874 ई.) की रचना की। स्वामी जी राजनैतिक स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक थे। कविवर दिनकर जी ने उन्हें हिन्दूधर्म का ”रणारूढ़“ नेता कहा। हिन्दी भाषा, देवनागरी लिपि और गौरक्षा को देश की प्रगति के लिए प्रमुखता दी। स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी गई अन्य महत्वपूर्ण रचनाओं में ”पाखण्ड खण्डन (1866 ई.), वेदभाष्य भूमिका (1876 ई.), ऋगवेद भाष्य (1877 ई.), अद्वैत मत का खण्डन (1873 ई.), पंचमहायज्ञ विधि (1875 ई), वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875 ई.) हैं। जोधपुर नरेश के निमन्त्रण पर स्वामी जी जोधपुर आये। दुर्भाग्य से महराज के रसोइयें ने भोजन में काँच पीसकर दिया और समाजोत्थान का कार्य अधूरा छोड़कर दीपावली (30 अक्टुबर 1883) को अजमेर में यह दिव्य-ज्योति, अनन्त-ज्योति में विलीन हो गई।
स्वामी दयानन्द के योगदान के बारे में अन्य के विचार
”स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे“ - डाॅ0 भगवान दास
”स्वामी दयानन्द पहले भारतीय थे जिन्होंने भारत भारतीयों के लिए है घोषणा की“ - श्रीमती एनी बेसेन्ट
”राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में प्रयत्नशील थेे“-रोमां रोलां, फ्रेंच लेखक
”गाँधी जी, राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्रपितामह हैं।“ - पट्टाभिराम सीतरमैया
”भारत की स्वतन्त्रता की नींव वासतव में स्वामी दयानन्द ने डाली थीे“ - सरदार पटेल
”स्वामी दयानन्द, स्वराज के प्रथम संदेशवाहक थे“ - लोकमान्य तिलक
”स्वामी दयानन्द, आधुनिक भारत के निर्माता थे“ - नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
”ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे“ - सर सैयद अहमद खां

आर्य समाज का परिचय 
आर्य शब्द का अर्थ है- श्रेष्ठ और प्रगतिशील। अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं। दूसरों को उस पर चलने को प्रेरित करते हैं। आर्य समाजियों के आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम राम और योगिराज श्रीकृष्ण हैं। महर्षि दयानन्द ने उसी वेद मत को फिर से स्थापित करने के लिए आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज के सब सिद्धान्त और नियम वेदों पर आधारित हैं। आर्य समाज के मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिषि, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति-पूजा और तीर्थ यात्रा मन गढ़न्त हैं, वेद विरूद्ध हैं। आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नहीं लेता, वह मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है। अगला जन्म देता है। उसका ध्यान घर में, किसी एकान्त में हो सकता है। इसके अनुसार दैनिक यज्ञ करना हर आर्य का कत्र्तव्य है। परमाणुओं को न कोई बना सकता है, न उसके टुकड़े ही हो सकते हैं। यानि वह अनादि काल से है। उसी तरह एक परमात्मा और हम जीवात्माएँ भी अनादि काल से हैं। परमात्मा परमाणुओं को गति देकर सृष्टि रचता है। आत्माओं को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। फिर चार ऋषियों के मन में 20,378 वेद मन्त्रों का अर्थ सहित ज्ञान और अपना परिचय देता है। आर्य समाज का मूल ग्रन्थ ”सत्यार्थ प्रकाश“ एवं अन्य माननीय ग्रन्थ हैं- वेद, उपनिषद्, शड् दर्शन, गीता व वाल्मिकि रामायण वगैरह। 18 घंटे समाधि में रहने वाले योगिराज महर्षि दयानन्द ने लगभग 8 हजार किताबों का मंथन कर अद्भुत और क्रान्तिकारी सत्यार्थ प्रकाश की रचना की। 
आर्य समाज की मान्यताएँ - ईश्वर का सर्वोत्तम और निज नाम ”ओम्“ है। उसमें अनन्त गुण होने के कारण उसके ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, देवी, अग्नि, शनि वगैरह अनन्त नाम हैं। इनकी अलग-अलग नामों से मूर्ति-पूजा ठीक नहीं है। आर्य समाज वर्ण व्यवस्था अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को कर्म से मानता है, जन्म से नहीं। आर्य समाज स्वदेशी, स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वधर्म का पोषक है। आर्य समाज सृष्टि की उत्पत्ति का समय 4 अरब 32 करोड़ वर्ष और इतना ही समय प्रलय काल का मानता है। योग से प्राप्त मुक्ति का समय वेदों के अनुसार 31 नील 10 खरब 40 अरब यानी 1 परांत काल मानता है। आर्य समाज वसुधैव कुटुम्बकम् को मानता है लेकिन भूमण्डलीकरण को देश, समाज और संस्कृति के लिए घातक मानता है। आर्य समाज वैदिक समाज रचना के निर्माण व आर्य चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इस समाज में मांस, अण्डे, बीड़ी, सिगरेट, शराब, चाय, मिर्च-मसाले वगैरह वेद विरूद्ध होते हैं।
आर्य समाज के दस नियम -1. सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है। 2. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वाअन्तर्यामी, अजर, अमर, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है। 3. वेद सब विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना, पढ़ाना और सुनना, सुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। 4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिए। 5. सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए। 6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 7. सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य वर्ताव करना चाहिए। 8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। 9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। 10. सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्व हितकारी नियम पालन में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सबको स्वतन्त्र रहना चाहिए।
आर्य समाज और भारत का नवजागरण - आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इसके अनुयायियों ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। आर्य समाज के प्रभाव से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हुआ था। आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में एक नई चेतना का आरम्भ किया था। स्वतन्त्रता पूर्व काल में हिन्दू समाज के नवजागरण और पुनरूत्थान आन्दोलन के रूप में आर्य समाज सर्वाधिक शक्तिशाली आन्दोलन था। यह पूरे पश्चिम व उत्तर भारत में सक्रिय था तथा सुप्त हिन्दू जाति को जागृत करने में संलग्न था। यहाँ तक की आर्य समाजी प्रचारक फिजी, मारीशस, गयाना, ट्रिनिनाड, दक्षिण अफ्रीका में भी हिन्दूओं को संगठित करने के लिए पहुँच रहे थे। आर्य समाज ने सबसे बड़ा कार्य जाति व्यवस्था को तोड़ने और सभी हिन्दूओं में समानता का भाव जागृत करने में किया।
आर्य समाज की हिन्दी सेवा - आर्य समाज जुडे़ लोग भारत की स्वतन्त्रता के साथ-साथ भारत की संस्कृति, भाषा, धर्म, शिक्षा आदि के क्षेत्र में सक्रिय रूप से जुड़े रहे। स्वामी दयानन्द की मातृ भाषा गुजराती थी और उनका संस्कृत का ज्ञान बहुत अच्छा था, किन्तु केशव चन्द्र सेन के सलाह पर उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिन्दी में की। दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश जैसा क्रान्तिकारी ग्रन्थ हिन्दी में रचकर हिन्दी को एक प्रतिष्ठा दी। आर्य समाज ने हिन्दी को ”आर्य भाषा“ कहा और सभी आर्यसमाजियों के लिए इसका ज्ञान आवश्यक बताया। दयानन्द जी ने वेदों की व्याख्या भी संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में भी की। स्वामी श्रद्धानन्द ने हानि उठाकर भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में किया जबकि उनका प्रकाशन पहले उर्दू में होता था।
आर्य समाज का योगदान - आर्य समाज समाज-सुधार, शिक्षा एवं राष्ट्रीयता का आन्दोलन था। भारत के 85 प्रतिशत स्वतंन्त्रता संग्राम सेनानी, आर्य समाज ने पैदा किये। स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुनः हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आन्दोलन चलाया। सन् 1886 ई. में स्वामा दयानन्द के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानन्द एंग्लो-वैदिक कालेज की स्थापना लाहौर (पाकिस्तान) में की थी। सन् 1901 ई. में स्वामी श्रद्धानन्द ने कांगड़ा (भारत) में गुरूकुल विश्वविद्यालय की स्थापना की।
आर्य समाज का आदर्श वाक्य है- ”कृण्वन्तो विश्वमार्यम्“ जिसका अर्थ है- विश्व को आर्य बनाते चलो। प्रसिद्ध आर्य समाजी गणों में स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, पं0 गुरूदत्त, स्वामी आनन्दबोध सरस्वती, पं0 वन्देमातरम रामचन्द्र राव, स्वामी अग्निवेष, बाबा रामदेव आदि आते हैं।



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