पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य
परिचय -
पं. श्री राम शर्मा आचार्य का जन्म बुधवार, 2 सितम्बर, 1911 (सं. 1968, आश्विन, कृष्ण पक्ष, त्रयोदशी) को आगरा (उ0प्र0) से जलेसर रोड 24 कि.मी. पर स्थित आँवलखेड़ा में हुआ था।ं आँवलखेड़ा का यह स्थान वर्तमान में एक युगतीर्थ बन चुका है। यहीं से उनकी सेवा-साधना प्रारम्भ हुई। शिक्षा एवं ग्रामीण स्वालम्बन की कई गतिविधियाँ यहाँ से उन्होंने चलाईं। विरासत में मिली प्रचुर भू-सम्पदा का उपयोग अपने और अपने परिवार के लिए न करके उन्होंने समाजिक गतिविधियों के लिए किया। एक भाग से अपनी माता जी की स्मृति में दान कुँवरि इण्टर कालेज की स्थापना करायी, शेष राशि बाद में गायत्री तपोभूमि हेतू समर्पित कर दी। आप गायत्री के सिद्ध साधक, 3000 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं के लेखक, वेद, पुराण, उपनिषद् के भाष्यकार, वैज्ञानिक आध्यात्मवाद के जनक, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, युग निर्माण योजना के सूत्रधार, विचार क्रान्ति अभियान के प्रणेता और ऋषि परम्परा के उन्नायक के रूप में स्थापित हैं और अखिल विश्व गायत्री परिवार की स्थापना की। आप व्यापक कार्य को स्थापित व संचालित करते हुए 2 जून, 1990 में ब्रह्मलीन हो गये।
समस्त विद्याओं का भण्डार - गायत्री मंत्र का तत्वज्ञान
”ऊँ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियों यो नः प्रचोदयात्“
गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की आदि जननी है। वेदों को समस्त प्रकार की विद्याओं का भण्डार माना जाता है। वे वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं। गायत्री को वेदमाता कहा गया है। चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं। ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या करके चारो वोदों को प्रकट किया। ”ऊँ र्भूभुवः स्वः“ से ऋग्वेदए ”तत्सवितुर्वरेण्यं “ से यर्जुवेद, ”भर्गो देवस्य धीमहि“ से सामवेद और ”धियों यो नः प्रचोदयात्“ से अथर्ववेद की रचना हुई।
इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ। इन्हीं ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु, संगीत, आदि 84 कलाओं का आविष्कार हुआ। इस प्रकार गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की जननी ठहरती है। जिस प्रकार बीज के भीतर वृक्ष तथा वीर्य के एक बूंद के भीतर पूरा मनुष्य सन्निहित होता है उसी प्रकार गायत्री के 24 अक्षरों में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है। यह सब गायत्री का ही अर्थ विस्तार है।
मंत्रो में शक्ति होती है। मंत्रों के अक्षर शक्ति बीज कहलाते हैं। उनका शब्द गुथन ऐसा होता है कि उनके विधिवत् उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य आकाश मण्डल में शक्तिशाली विद्युत तरंगे उत्पन्न होती है और मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं। साधारणतः सभी विशिष्ट मंत्रों में यही बात होती है। उनके शब्दों में शक्ति होती है, परन्तु उन शब्दों का कोई विशेष महत्वपूर्ण अर्थ नहीं होता। लेकिन गायत्री मंत्र में यह बात नहीं है। इसके एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों के रहस्यमय तत्व छिपे हुए हैं- ”तत्सवितुर्वरेण्यं “ आदि के स्थूल अर्थ तो सभी को मालूम हैं एवं पुस्तकों में छपे हुए हैं। यह अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं। परन्तु इनके अतिरिक्त 64 कलाओं, 6 शास्त्रों, 6 दर्शनों एवं 84 विद्याओं के रहस्य प्रकाशित करने वाले अर्थ भी गायत्री के हैं। उन अर्थो का भेद कोई-कोई अधिकारी पुरूष ही जानते हैं। वे न तो छपे हुए हैं और न सबके लिए प्रकट हैं।
इन 24 अक्षरों में आर्युवेद शास्त्र भरा हुआ है। ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप से मौजूद हैं जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से निवृत्त हो सकता है। इन 24 अक्षरों में सोना बनाने की विधा का संकेत है। इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरूणास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि हथियार बनाने के विधान मौजूद हैं। अनेक दिव्य शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं। ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तरों के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव को जानने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्वों को हस्तामलकवत् देखने आदि अनेकों प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं। जिसकी थोड़ी भी जानकारी मनुष्य प्राप्त करले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है। प्राचीन काल में ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे पूर्वजों को मालूम थीं जो आज लुप्तप्राय हो गई हैं। उन विद्याओं के कारण हम एक समय जगद्गुरू, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग-सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे। आज हम उनसे वंचित होकर दीन-हीन बने हुए हैं।
गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं। वह योग भी है और तन्त्र भी। उससे आत्म दर्शन और ब्रह्म प्राप्ति भी होती है तथा संासांरिक उपार्जन-संहार भी। गायत्री योग दक्षिण मार्ग है, उस मार्ग से हमारे आत्म कल्याण का उद्देश्य पूरा होता है।
दक्षिण मार्ग का आधार यह है कि- विश्वव्यापी ईश्वरीय शक्तियों को आध्यात्मिक चुम्बकत्व से खींच कर अपने में धारण किया जाय। सतोगुण को बढ़ाया जाय और अन्तर्जगत में अवस्थित पंचकोश, सप्त प्राण, चेतना चतुष्टय, षटचक्र एवं अनेक उपचक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जागृत करके आनन्ददायिनी-अलौकिक शक्तियों का आविर्भाव किया जाय।
गायत्री तन्त्र वाम मार्ग है। उससे सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं। और किसी का नाश भी किया जा सकता है। वाम मार्ग का का आधार यह है कि- दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को इधर से उधर हस्तान्तरित करके एक जगह विशेष मात्रा में शक्ति संचित कर ली जाय और उस शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाय।
तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिए गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों में ऐसी अनेकों साधनाएँ प्राप्त होती हैं जिनमें धन, सन्तान, स्त्री, यश, आरोग्य, पदप्राप्ति, रोगनिवारण, शत्रु नाश, पाप नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप में उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है। परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिए कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधान है। वह पुस्तकों में नहीं वरन् अनुभवी साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है। जिन्हें सद्गुरू कहते हैंे।
अखिल विश्व गायत्री परिवार, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)
1950 ई0 के दशक में स्थापित अखिल विश्व गायत्री परिवार एक हिन्दुत्व समाज सुधार आन्दोलन है। इसकी कार्य प्रणाली और उद्देश्य स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज से मिलते-जुलते हैं। इस संस्था ने विचार क्रान्ति अभियान, प्रज्ञा अभियान आदि चलायें जिसका उद्देश्य जनमानस में वैचारिक परिवर्तन लाकर समाज का उत्थान करना है। हम बदलेंगें, युग बदलेगा, मनुष्य भटका हुआ देवता है, आदि इसके प्रमुख उद्घोष हैं। इस संगठन का कार्य गायत्री मंत्र की मूल भावना (प्रज्ञा का परिष्कार) के अनुसार है।
पं0 श्री राम शर्मा आचार्य जी का सम्पूर्ण कार्य अखण्ड ज्योति संस्थान, गायत्री तपोभूमि मथुरा, गायत्री तीर्थ शान्ति कुंज हरिद्वार, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान और देव संस्कृति विश्वविद्यालय के माध्यम से संचालित हो रहे हैं।
लक्ष्य एवं उद्देश्य
व्यक्ति एक तन्त्र है जो मान्यताओं व आस्था के ईंधन से गतिशील होता है। पिछले दिनों हमें अनास्था की प्रेरणा मिली, उसे अपनाया गया और दुष्परिणाम देखा। अब मार्ग एक ही है कि विचार पद्धति को बदले, आस्थाओं को पुनः परिष्कृत करें और लोगों को ऐसी गतिविधियाँ अपनाने के लिए समझाएँ, जो वैयक्तिक एवं सामूहिक सुख-शान्ति की स्थिरता में अनादिकाल से सहायक रही हैं और अंत तक रहंेगी। जनमानस की इसी परिवर्तन प्रक्रिया का नाम युग निर्माण योजना है।
युग निर्माण योजना का प्रधान उद्देश्य है- विचार क्रान्ति। मूढ़ता और रूढ़ियों से ग्रस्त अनुपयोगी विचारों का ही आज सर्वत्र प्राधान्य है। आवश्यकता इस बात की है कि सत्य, प्रेम और न्याय पर आधारित विवेक और तर्क से प्रभावित हमारी विचार पद्धति हो। इस संसार में एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक आचार रहे। जाति और लिंग के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेद-भाव न रहे। हर व्यक्ति को योग्यता के अनुसार काम करना पड़ेे। आवश्यकतानुसार गुजारा मिले। धनी और निर्धन के बीच खाई पूरी तरह पट जाए। न केवल मनुष्य मात्र को वरन् प्राणियों तक को भी न्याय का संरक्षण मिले। दूसरे के अधिकारों को तथा अपने कत्र्तव्यों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति हर किसी में उगती रहे। सज्जनता और सहृदयता का वातावरण विकसित होता चला जाए, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में युग निर्माण योजना प्राणपण से प्रयत्नशील है।
युग निर्माण योजना एक दिव्य योजना है। मोटी बुद्धि से इस प्रयास को मानुषी समझा जा सकता है, पर वस्तुतः उसके पीछे अतिमानवी शक्तियाँ ही काम कर रही हैं। सृष्टा निराकार होने के कारण प्रत्यक्षतः कुम्हार के तरह संरचना करते नहीं देखा जाता। महान कार्य महान व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं। जो सृजन, परिपोषण और परिपालन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी हैं, वो समय-समय पर धर्म की हानि और अधर्म की बाढ़ को को रोकने के लिए अपनी ऊर्जा के अनोखे प्रयोग करता है। महत्वपूर्ण कार्य भगवान करते हैं और उसके श्रेय को शरीरधारी मुफ्त में ही प्राप्त कर लेते हैं। चेतना काम करती है और शरीर को श्रेय मिलता है। ईश्वर इच्छा तथा मानवीय पुरूषार्थ का समन्वय ही चमत्कार उत्पन्न करता है। युग निर्माण अभियान में मानवीय पुरूषार्थ को जाग्रत करने, प्रखर बनाने तथा उसे सही दिशा में सही ढंग से प्रयुक्त करने की प्रक्रिया सतत चल रही है। ईश्वरीय मार्गदर्शन, अनुग्रह, अनुकम्पा एवं सहायता की स्पष्ट झलक युग निर्माण योजना द्वारा सम्पन्न हुए अगणित लोकोपयोगी कार्यो, उपलब्धियों मथा वर्तमान हलचलों में मिलती है। इतने बड़े कार्य व्यक्ति विशेष के पुरूषार्थ से नहीं, वरन् दैवी प्रेरणा और अनुकम्पा के आधार पर ही आश्चर्यजनक रूप से ही विकसित, विस्तृत एवं सफल होते रहें हैं।
युगऋषि पं0 श्री राम शर्मा आचार्य, युग निर्माण योजना के प्रवर्तक के शब्दों में- अगले दिनों विश्व का समता एवं एकता की आकर जानना होगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यताओं पर नया विश्व, नया समाज बनेगा। सारी दुनिया का एक राष्ट्र बनेगा, सुविधा की दृष्टि से प्रान्तों जैसे देश बने रहेंगे। मनुष्य की एक जाति होगी। ऊँच-नीच, जाति-पाँति के भेद-भाव समाप्त हो जायेँगे। उपजातियों का वर्गीकरण उपहासास्पद बन जायेगा। सारी दुनिया एक भाषा बोलेगी और सबके लिए एक धर्म, एक आचरण एवं एक कानून होगा। भोजन वस्त्र को सभ्यता माना जाता हो, तो सुविधा और साधनों की दृष्टि से वह अलग भी रह सकता है। परन्तु संस्कृति समस्त मानव जाति की एक होगी। धन व्यक्तिगत न रहेगा, उस पर समाज का स्वामित्व होगा, न कोई धनी रहेगा, न गरीब। सब भरपूर परिश्रम करेंगे और उपलब्ध साधनों का सभी समान रूप से हँसी-खुशी के साथ उपयोग करेंगे। आस्तिकता की व्याख्या में ईश्वर समदर्शी, सर्वव्यापक और न्यायकारी होने की मान्यता को प्रमुखता मिलेगी। भक्त की मनोकामनाएँ पूर्ण करते फिरने वाला बहुदेववाद मर जायेगा। कुकर्मो से रूष्ट और सद्भावना से प्रसन्न होने वाले ईश्वर को सब अपनी भावनाओं के द्वारा सम्पूजित किया करेंगे। उपासना के कर्मकाण्ड संक्षिप्त रह जाएँगे और वे समस्त विश्व के लिए एक जैसे होंगे। देशभक्ति, जातिभक्ति, भाषाभ्क्ति का विश्वभक्ति में विकास हो जाएगा। मानवों की तरह तब पशु-पक्षी भी समाज क्षेत्र में आ जाएँगे और उनका उत्पीड़न भी अपराध बन जायेगा। आशा करनी चाहिए कि ऐसा युग जल्दी आ रहा है। उसी की पूर्व भूमिका युग निर्माण योजना सम्पादित कर रही है। अभी कुछ दिनों तो अनेक स्वार्थ-संघर्ष और तीव्र होंगे तथा संकीर्णता और अनाचार के दुःख परिणामों को भली-भाँति अनुभव करके लोग उनसे विरत होने के लिए स्वयं आतुर होंगे। अगली आचार संहिता उन तथ्यों पर आधारित होगी जिनका हम लोग अभी युग निर्माण सत्संकल्पों के रूप में नित्य पाठ करते हैं। एक दिन इस जीवन पद्धति पर विश्व के सभी धर्म और देश चलने लगेंगे। नवयुग के अभिनव निर्माण के लिए हमें व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयत्नों में तत्काल जुट जाना चाहिए और महाकाल के प्रयोजन में अपना हार्दिक योगदान अर्पित करना चाहिए।
इस सृष्टि का निर्माण, विकास और विलय परमात्मा के संकल्प से ही होता रहा है। परमात्मा की श्रेष्ठ कृति मनुष्य भी अपने समाज एवं संसार को संकल्पों के आधार पर ही बनाता-बदलता रहता है। युग निर्माण के ईश्वरीय संकल्प में हर नैष्ठिक की भागीदारी के लिए इस सत्संकल्प की रचना की है। इसके 18 सूत्र गीता के 18 अध्यायों की तरह सारगर्भित हैं। सूत्रों का गठन इस कुशलता से किया है कि यह क्षेत्र, भौगोलिक भेद और मानवीय वर्ग भेद से परे सभी साधक ईश्वरीय भागीदारी निभाते हुए अनुपम एवं अलौकिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
1. हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
2. शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्म-संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।
3. मन को कुविचारों और दुर्भावानाओं से बचाये रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रखे रहेंगे।
4. इन्द्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम का सतत् अभ्यास करेंगे।
5. अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे।
6. मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कत्र्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।
7. समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।
8. चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे।
9. अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे।
10. मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मो को मानेगें।
11. दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं।
12. नर-नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे।
13. संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभव, ज्ञान, पुरूषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे।
14. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे।
15. सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने ओर नवसृजन की गतिविधियों में पूरी रूचि लेंगे।
16. राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रान्त, समुदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेद-भाव न बरतेंगे।
17. मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे, तो युग अवश्य बदलेगा।
18. हम बदलेंगे-युग बदलेगा, हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा। इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।
महाकाल का कार्यक्षेत्र क्षेत्र विशेष, वर्ग विशेष अथवा सम्प्रदाय विशेष नहीं है बल्कि पूरी दुनिया है। उनकी चेतना एक साथ हर जीवंत, जाग्रत आत्मा पर कार्य कर रही है। भारत की सर्वाधिक जनता देहातों में रहती है। यहाँ अशिक्षितों की संख्या एक तिहाई है। यही है भारत का असला स्वरूप, असली बहुमत। शिक्षा का अभाव, छोटे देहातों में यातायात साधनों से रहित आबादी, पिछड़ेपन का वातावरण। इस स्थिति में राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के आधार पर यदि कुछ कहा समझा जाए, तो जनता इसे हृदयंगम नहीं कर सकेगी। हमें जो कुछ भी इस बहुमत जनता से कहना है, वह उसके बौद्धिक स्तर से तालमेल मिलाते हुए कहना चाहिए। तभी उसे ठीक तरह समझा और हृदयंगम किया जा सकेगा। इस देश का बौद्धिक आधार धार्मिकता से जुड़ा हुआ है। इस स्तर की जनता को उसकी परम्परागत मनोभूमि धर्मरूचि के सहारे ही प्रभावित किया जा सकता है। इस आधार पर कुशल मार्गदर्शक कुछ भी तथ्य इस पिछड़ें वर्ग के मनों पर उतार सकते हैं। रामायण, भगवत, गीता, पुराण आदि का सहारा लेकर इस देश की अधिकांश जनता के मन में महत्वपूर्ण तथ्यों को खूबी के साथ बिठाया जा सकता है। उतना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। यही सब तथ्य हैं जिनके आधार पर व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की गतिविधियों को अग्रगामी बनाने के लिए ऐसे भावनाशील लोग ढँूढ़कर निकाले गये हैं, सम्बद्ध किये गये हैं, जो विश्व मानव की सेवा को ईश्वर की उपासना मानते हैं। लोकमंगल के प्रयास में धर्मनिष्ठा की सार्थकता जोड़ते हैं। यही है युग निर्माण योजना, उसकी कार्य पद्धति और साधन-सामग्री जिसके आधार पर नवयुग के आगमन का, मनुष्य में देवत्व के उदय का, धरती पर स्वर्ग के अवतरण का कार्य चल रहा है। युग निर्माण योजना की कार्य पद्धति को अज्ञान असुर से लड़ने के लिए - प्रचारात्मक मोर्चा, अभाव के दैत्य से जूझने के लिए-रचनात्मक मोर्चा और अनाचार-अनीति से लड़ने के लिए-संघर्षात्मक मोर्चा, के तीन भागों में विभक्त किया गया है।
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