धर्मसम्राट करपात्री जी
परिचय -
स्वामी श्री का जन्म संवत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ई.) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में सनातनधर्मी सरयूपाणी ब्राह्मण स्व0 श्री रामनिधि ओझा एवं परमधार्मिक सुसंस्कृता स्व0 श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम हरि नारायण रखा गया। स्वामी श्री 8 वर्ष की आयु से ही सत्य की खोज हेतू घर से पलायन करते रहे। वस्तुतः 9 वर्ष की आयु में सौभाग्यवती कुमारी महादेवी जी के साथ विवाह सम्पन्न होने के पश्चात् 16 वर्ष की अल्पायु में गृहत्याग कर दिया। तब उनकी एक पुत्री भी जन्म ले चुकी थी। उसी वर्ष वे ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ली और हरि नारायण से हरिहर चैतन्य बनें।
17 वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारम्भ कर अखंड साधना, आत्मदर्शन, धर्म सेवा का संकल्प लिया। काशी धाम में शिखासूत्र परित्याग के बाद विद्वत सन्यास प्राप्त किया। एक ढाई गज कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र रखकर भयंकर शीतोष्ण वर्षा को सहन करना इनका 18 वर्ष की आयु में ही स्वभाव बन गया था। त्रिकाल स्नान, ध्यान, भजन, पूजन तो चलता ही था। विद्याध्ययन की गति इतनी तीव्र थी कि सम्पूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम घंटों और दिनों में हृदयंगम कर लेते थे। स्वामी जी की स्मरण शक्ति फोटोग्राफीक थी, यह इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षो बाद भी बता देते थे कि ये अमुक पुस्तक के अमुक पृष्ठ पर अमुक रूप में लिखा हुआ है। गंगातट पर फूंस की झोपड़ी में एकाकी निवास, करों (हथेली) में भिक्षा ग्रहण करना और वह भी 24 घंटे में एक बार, भूमिशयन, निरावरण चरण यात्रा इत्यादि इनकी तपस्या की दिनचर्या थी। गंगातट नखर में प्रत्येक प्रतिपदा को धूप में एक लकड़ी की कील गाड़ कर एक पैर से खड़े होकर तपस्या करते रहते थे। 24 घंटे व्यतीत होने पर जब सूर्य की धुप से कील की छाया उसी स्थान पर पड़ती, जहाँ 24 घंटे पूर्व थी, तब दूसरे पैर का आसन बदलते थे। ऐसी कठोर साधना थी इनकी। करों में भिक्षा माँगने के कारण ”करपात्री“ कहलाये। नैष्ठिक ब्रह्मचारी पं0 श्री जीवन दत्त महाराज जी से संस्कृत अध्ययन, षडदर्शनाचार्य पं0 स्वामी श्री विश्वेश्वरानन्द जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत अध्ययन ग्रहण किया। 24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज से विधिवत् दण्ड ग्रहण कर अभिनवशंकर के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर ”परमहंस परिव्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज“ कहलाये।
सम्पूर्ण देश में पैदल यात्राएँ करते धर्म प्रचार के लिए सन् 1940 में ”अखिल भारतीय धर्म संघ“ की स्थापना वाराणसी में की, जिसका दायरा सकुचित नहीं किन्तु वह आज भी प्राणी मात्र में सुख-शान्ति के लिए प्रयत्नशील है। उसकी दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर-सर्वशक्तिमान भगवान के अंश या रूप हैं। संघ के सिद्धान्त में अधार्मिको का नहीं बल्कि अधर्म का नाश हो, को प्राथमिकता दी गई है। यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी सुखी और शान्त बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य के आदि-अंत में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, ऐसे पवित्र जयकारों का प्रयोग होना चाहिए। यदि सब एक संकल्प से भगवान की प्रार्थना करेंगे तो अवश्य ही सब संकट मिट जाएँगे। इससे सद्भावना, संगठन, सामंजस्य बढ़ेगा और फिर राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय तथा समस्त विश्व का कल्याण होगा।
स्वामी करपात्री भारत के एक महान सन्त, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे। उनका अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता। वे अद्वैत दर्शन के अनुयायी के एवं शिक्षक थे। सन् 1948 में उन्होंने ”अखिल भारतीय राम राज्य परिषद्“ की स्थापना की जो परम्परावादी हिन्दू विचारों का राजनैतिक दल था। धर्मशास्त्र में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें ”धर्मसम्राट“ की उपाधि प्रदान की गई। स्वामी करपात्री जी महाराज महान विचारक, उत्कृष्ट तत्ववेत्ता, विलक्षण दार्शनिक, ओजस्वी वक्ता, उद्भट विद्वान, अद्भुत लेखक, वेद शास्त्रों के मर्मज्ञ, कर्म-ज्ञान-भक्ति के साक्षात् स्वरूप तथा त्याग-वैराग्य के दैदीप्यमान सूर्य थे। वेदादि शास्त्रों के प्रामाण्य स्थापन तथा मान्यता के लिए इन्होंने देश के कोने-कोने में जो प्रवचन और साहित्य सृजन किये वह मानव जाति की अमूल्य निधि है। उनकी लेखनी ने संस्कृत व हिन्दी दोनों भाषाओं में अद्भुत ग्रन्थों की रचना की है। 50 से ऊपर लिखे उनके अनमोल ग्रन्थों में धर्म, संस्कृति, आध्यात्म, आस्तिभाव तथा शास्त्रों के प्रामाण्य का प्रतिपादन बड़े अनूठे ढंग से हुआ है। माक्र्सवाद और रामराज्य, विचार पियूष, रामायण मीमांसा, भक्ति रसार्णव, भक्ति सुधा तथा वेदार्थ परिजात उनके ऐसे प्रतिनिधि महाग्रन्थ हैं जिनमें राजनीति, इतिहास, समाज दर्शन, भक्ति दर्शन तथा वेदशास्त्रानुमोदित विचारधारा की मार्मिक विवेचना हुई है। माघ शुक्ल चतुर्दशी सम्वत् 2038 (7 फरवरी, 1982 ई0) को केदार घाट, वाराणसी में स्वईच्छा से उनके पंचप्राण महाप्राण में विलीन हो गये। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदार घाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधि दी गई।
धर्मसम्राट करपात्री जी के विचार
उन्होंने वेदों की अपौरूषयेता का अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से समर्थन किया है और उसमें सर्वोच्च प्रामाण्य की प्रतिष्ठा की है। उनका कहना है कि वेद अन्तिम प्रमाण हैं। उसके निरूपणार्थ किसी भाषा में छोटे-मोटे जो भी ग्रन्थ लिखे गये हैं, वे सब प्रमाण हैं। स्वामी करपात्री जी अद्वैत मत के आधार पर आत्म सिद्धान्त की विवेचना आत्म रक्षा, बोध, आनन्द, स्वतन्त्रता, स्वाधीनता आदि के आधार पर की है। उनके अनुसार आत्मा धर्म दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। वे अद्वैत मत को मानते हुए ब्रह्म को सत्यज्ञानमत मानते हैं। ईश्वर को वे धार्मिकता का मूलाधार मानते हैं। वेदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यक, उपनिषदों, रामायण, महाभारत एवं भगवद्गीता में ईश्वर विषयक विचारों का स्पष्टीकरण, व्याख्या एवं सम्यक मूल्यांकन करते हुए उनका कहना है कि एक ही परमात्मा मायात्मक ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति आदि के योग से विविध नाम रूप का आधार बनता है। वही शिव, विष्णु आदि भी होता है तथा अपनी अनिर्वचनीय शक्ति के द्वारा राम, कृष्ण आदि के रूप में प्रकट होता है। भक्त गण अपनी-अपनी भावना के अनुसार उनकी उपासना करते हैं। जिस-जिस भाव में उनकी उपासना की जाति है, वही-वही होकर वह अनुभव का विषय होने लगता है। नाम-रूप-क्रिया की अनेकता होने पर भी परमात्मा में अनेकता का गन्ध भी नहीं है। वह एक है, आद्वितीय है, निर्गुण है। अनिर्वचनीय माया सब भेदों का निर्वाह कर लेती है। परमार्थ तत्व ज्यों का त्यों निर्गुण, निर्विकार, निर्विशेष तथा निधर्मक ही रहता है। अद्वैत वेदान्ती होते हुए भी स्वामी करपात्री जी ने शंकराचार्य की तरह देवी-देवताओं की भक्तिपरक रचनाएँ की हैं। वितराग सन्यासी होते हुए भी देवी-देवताओं की उपासना पद्धति को स्वयं अपनाकर उन्होंने आदर्श उपस्थित किया।
स्वामी जी स्वातन्त्रयोत्तर भारत के केवल धार्मिक और आध्यात्मिक चिन्तक मात्र नहीं थे, अपितु वे एक सामाजिक एवं राजनीतिक चिन्तक भी हैं। उन्होंने विशुद्ध भारतीय संस्कृति के आधार पर राष्ट्र के नवजागरण का प्रयास किया है। उनके अनुसार वेद शास्त्र परीक्षित तदनुसारी रहन-सहन, आचार-विचार ही वैदिक संस्कृति है। अनादि वेद शास्त्र एवं तदनुसारी धारणा-ध्यान-सामधि सम्पन्न महर्षियों के सिद्धान्त पर ही सर्वोपकारक संस्कृति निर्भर है जो इतनी व्यापक है कि उसमें सब प्रकार की सभी हलचलों पर नियंत्रण किया गया है। अतएव यहाँ सामाजिक, वैयक्तिक, नैतिक और धार्मिक आधारों के क्षेत्र अत्यन्त भिन्न नहीं हैं बल्कि सबका ही सबके साथ सम्बन्ध है इसलिए वैदिक संस्कृति समस्त मानव जाति के लिए कल्याणकारी है। सनातन धर्म की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं कि सनातन परमात्मा ने सनातन जीवों के कल्याण के लिए ही सनातन वेदों के द्वारा जो सनातन विधान बनाया है वही सनातन धर्म है। विद्वतजनों की धारणा है कि धर्म और नीति अलग है, धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु स्वामी जी के अनुसार राजनीति के बिना धर्म विधुर होता है तो धर्म के बिना राजनीति विधवा होती है। वैशेषिक सूत्र में कणाद ने धर्म की परिभाषा देते हुए लिखा है कि जिसमें अभ्युदय (इहलोकिक-परलौकिक) एवं निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है वही धर्म है। स्वामी जी के अनुसार बिना धार्मिक भावनाओं का प्रतिष्ठान हुए राष्ट्र का सुसंगठन हो ही नहीं सकता क्योंकि धर्मविहिन राष्ट्र अराजकता को प्राप्त होता है। विभिन्न मतावलम्बियों एवं धर्मानुयायीयों का देश होने के कारण भारतवर्ष में धर्म सापेक्ष व्यवस्था को सफलीभूत बनाने के लिए उन्होंने पक्षपातविहिन शब्द प्रयुक्त किया। कोई भी धर्म या सम्प्रदाय शासन से दूर या उपेक्षित न रहे इसके लिए वे एक धर्म विभाग की स्थापना पर जोर देते हैं जिसमें धर्मो के आचार्य प्रतिनिधि के रूप में रहें और जिस धर्म की व्यवस्था का प्रश्न हो, उस धर्म पर उसका प्रतिनिधि अपना निर्णय दे। इस प्रकार शासन धर्म नियंत्रित भी होगा और किसी के साथ पक्षपात भी नहीं हो सकेगा। स्वामी जी के रामराज्य की व्याख्या वैदिक संहिताओं, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, शुक्र नीति एवं महाकाव्यों के आधार पर की गयी है।
धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी रचित पुस्तकें-
1.वेदार्थ परिजात, 2. गोपी गीत, 3. भ्रमर गीत, 4. पूँजीवाद, 5. विचार-पियूष, 6. रामायण मीमासा, 7. श्री राधा सुधा, 8. भक्ति-सुधा, 9. शंका-सुधा, 10. बदलती दुनिया, 11. तिथ्यादी-निर्णय, 12. कुम्भ निर्णय, 13. वेदान्त-प्रश्नोत्तरी, 14. प्रवचन-पीयूष, 15. दश-नामापराध, 16. भक्ति रसावर्ण, 17. माक्र्सवाद और रामराज्य, 18. राहुलजी की भ्रान्ति, 19. माक्र्स और ईश्वर, 20. रास और प्रयोजन, 21. अभिनव करपात्री, 22. श्री करपात्री संस्मरण, 23. करपात्री एक अध्ययन, 24. श्री विद्या रत्नाकर, 25. श्री विद्या वरिवस्या, 26. वेदस्वरूप विमर्श, 27. वेद प्रमाण्य मीमांसा, 28. सर्व सिद्धान्त समन्वय, 29. नास्ति-अस्तिवाद, 30. प्रवचन संग्रह, 31. गीता के हुकुमनामा, 32. आदर्श विचार, 33. वेद का स्वरूप और प्रमाण्य, 34. अहमर्थ और परमार्थ सागर, 35. संकीर्तन मीमांसा और वर्णाश्रम, 36. धर्म-संघर्ष और शान्ति, 37. समाजवाद और रामराज्य, 38. क्या संभोग से समाधि?, 39. अभिनव शंकर स्वामी करपात्री, 40. विश्व राष्ट्र और संस्कृति, 41. विदेश यात्रा और शास्त्रीय पक्ष, 42. रामायण-महाभारत काल मीमांसा, 43. गीता जयंती और मीज्मो-क्रान्ति, 44. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू धर्म, 45. वेदान्त रस सागर और विभीषण शरणागति, 46. सनातन सिद्धान्त एवं राजनीति में अधिकार, 47. शुक्ल यजुर्वेद संस्कृति हिन्दी टीका, 48. करपात्र चिन्तन
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