कलियुग के धर्म - 10. जैन धर्म-भगवान महावीर-ईसापूर्व 539-467
परिचय -
चैबीसवंे तथा अन्तिम जैन तीर्थकर वर्धमान महावीर का जन्म ईसा पूर्व सन् 539 में तत्कालीन वैशाली जनपद के कुण्डपुर ग्राम मंे हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ एक निच्छिवी राजा थे, तथा माता का नाम त्रिशाला था। जन्म के पूर्व माता ने चैदह अति शुभ स्वप्न देखे थे। बाल्यकाल से ही वर्धमान अत्यंत तेजस्वी थे। एक बार एक मुनि की तत्वजिज्ञासा का समाधान वर्धमान के दर्शन मात्र से ही हो जाने के कारण इन्हें सन्मति भी कहा जाने लगा। एक अन्य अवसर पर क्रीड़ारत बालकांे पर एक विषधर सर्प ने आक्रमण किया। अन्य बालक भयभीत हो भाग गये, लेकिन बालक वर्धमान ने उसे वश मंे कर लिया। इसी तरह उन्हांेने एक बार एक मदोन्मत्त हाथी को भी काबू मंे किया था। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर का विवाह हुआ था तथा उनकी एक कन्या थी लेकिन दिगम्बर मान्यता के अनुसार महावीर का विवाह नहीं हुआ था। वे अन्र्तमुखी प्रकृति के थे तथा सदा आत्मचिन्तन में निमग्न रहा करते थे। वे अल्पवय में ही गृहत्याग करना चाहते थे, लेकिन माता पिता के अनुरोध पर उनके जीवित रहने तक उन्हांेने ऐसा नहीं किया उसके बाद तीस वर्ष की उम्र मंे अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन की अनुमति से वे गृहत्याग कर परिव्राजक सन्यासी बन गये। महावीर ने बारह वर्ष तक कठोर तपोमय साधना की। प्रगाढ़ आत्मतन्मयता के कारण उन्हंे अपनी देह, वस्त्र, आहार आदि की सुध नहीं रहती थी। ऐसी स्थिति मंे उनका एकमात्र वस्त्र न जाने कब शरीर से खिसक कर गिर गया। इन बारह वर्षाे मंे वे आधे से अधिक काल निराहार रहे तथा प्राकृतिक तथा अज्ञ मानवांे द्वारा गये अनेक कष्टांे को उन्हांेने निर्विकार भाव से सहन किया। वे अनेक अमानवीय प्रतिज्ञाआंे एवं मानसिक संकल्पो के साथ भिक्षा के लिए जाते लेकिन उनकी संकल्पशक्ति एवं सत्यप्रतिष्ठा के कारण अमानवीय परिस्थितियाँ यथार्थ हो उठती। अपनी बारह वर्षीय तपस्या के अन्त में उन्हांेने मुण्डित मस्तका श्रृंखलाबद्ध राजकन्या के हाथांे भोजन ग्रहण करने का मानसिक संकल्प किया। यह संकल्प राजा चेटक की कन्या चन्दना के द्वारा प्रदत्त भिक्षात्र से पूर्ण हुआ जो विचित्र परिस्थितियांे में मस्तक मुण्डित एवं श्रृंखलाबद्ध थी। चन्दना आगे चलकर महावीर के संन्यासिनी संघ की प्रथम साध्वी हुई। पूर्ण ज्ञान अथवा केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर ने धर्मोपदेश प्रारम्भ किया वेद-वेदांग मंे पारंगत गुण-शील-सम्पन्न इन्द्रमूर्ति गौतम नामक ब्राह्मण उनसे शास्त्रार्थ करने आया लेकिन उनके शान्त, सौम्य, ज्ञानोद्वीप मुखमण्डल के दर्शन मात्र से वह उनका शिष्य बन गया। गौतम के माध्यम से अपने ग्यारह गणधरो एवं असंख्य अनुयायियांे को दिये गये भगवान महावीर के उपदेशांे से जैनधर्म के द्वादषांग रूप शास्त्रों की रचना हुई है। भगवान महावीर ने अपने उपदेश तत्कालीन लोकभाषा अर्धमागधी मंे दिये थे। उनकी उपदेश सभा समवसरण कहलाती थी तथा उसमें पशु-पक्षी से लेकर देवताओं तक सभी के लिए स्थान रहता था। महावीर ने साधु, साध्वी, पुरूष गृहस्थ, भक्त (श्रावक) तथा महिला गृहस्थ भक्त (श्राविका) के एक चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना की जो आज भी वि़द्यमान है। 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन नालन्दा के निकट पावापुरी ग्राम मंे उन्होने देहत्याग किया।
भगवान महावीर की वाणी
आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता (भोक्ता) है। सत्यवृत्ति मंे स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। स्वंय पर ही विजय प्राप्ति करनी चाहिए। अपने पर विजय करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक मंे सुखी होता है। एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करना चाहिए। असंयम से निवृत्ति और संयम से प्रवृत्ति। आत्मा ही अहिंसा है और आत्मा ही हिंसा है-यह सिद्धान्त का निश्चय है। जो अप्रमत्त है, वह अहिंसक है और जो प्रमत्त है, वह हिंसक है। मंै (आत्मा) न शरीर हूँ, न मन हँू, न वाणी हूँ और न उनका कारण हँू। मंै न कर्ता हूँ, न करने वाला हँू और न कर्ता का अनुमोदक हूँ। मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ तथा ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण हूँ। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब (परकीय भावों) का क्षय करता हूँ। जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सब (जगत) को जानता है, जो सब को जानता है वह एक को जानता है। परमपद की खोज मंे निरत साधु, सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, भृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गंभीर, मेरू के समान निष्छल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब होते है। साधु की ये चैदह उपमाएँ है। केवल सिर मुँड़ाने से कोई श्रवण नहीं होता, ओम का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता, कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता। प्रत्युत वह समता से श्रवण होता है। ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है। संयम मार्ग मे वेश प्रमाण नहीं है क्यांेकि वह असंयमी जनों में भी पाया जाता है। क्या वेश बदलने वाले व्यक्ति को खाया हुआ विष नहीं मारता? जहाँ न दुःख है न सुख, न पीड़ा न बाधा, न मरण है न जन्म, वही निर्वाण है। जहाँ न इन्द्रियाँ है न उपसर्ग, न मोह न विस्मय, न निद्रा न तृष्णा और न भूख, वही निर्वाण है। जहाँ न कर्म है न अकर्म, न चिन्ता है न आर्तरौद्रा, ध्यान है न धर्मध्यान है और न शुक्लध्यान वही निर्वाण है। वहाँ अर्थात मुक्त जीवो मंे केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख, केवल वीर्य, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व ये गुण होते है। जिसे महर्षि ही प्राप्त करते है, वह स्थान निर्वाण है, अबाध है, सिद्ध है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है।
जैन धर्म
जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। छठी शताब्दी ईसापूर्व के प्रचलित धर्मो में जैन धर्म भी काफी लोकप्रिय हुआ था। जिसका प्रचार प्रसार उसके 24 तीर्थकरों ने किया था। इन तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं- 1. ऋषभ, 2. अजित, 3. संभव, 4. अभिनंद, 5. सुमति, 6. पद्मप्राभ, 7. सुपाश्र्व, 8. चंद्रप्राभ, 9. पुष्पदंत (सुविधि), 10. शीतल, 11. श्रेयंस, 12. वसुपूज्य, 13. विमल, 14. अनन्त, 15. धर्म, 16. शान्ति, 17. कुन्तु, 18. अर, 19. मालि, 20. मुनिसुव्रत, 21. नामी, 22. नेमिनाथ (अरिष्टनेमि), 23. पाश्र्वनाथ तथा 24. वर्द्धमान महावीर। परन्तु इनमें से अन्तिम दो का छोड़कर शेष तीर्थंकरों के विषय में अधिक विवरण नहीं प्राप्त होते। पाश्र्वनाथ का जीवनकाल 800 ईसापूर्व माना जाता है जो वाराणसी के राजा अश्वसेन तथा रानी बामा के पुत्र थे।
जैन धर्म की भगवान महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त हैं उसके वालक निगंठ धम्म (निग्र्रन्थ धर्म), आर्हत् धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं। पाश्र्वनाथ के समय तक ”चातुर्याम धर्म“ था। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की। ”जैन“ कहते है उन्हें जो ”जिन“ के अनुयायी हों। जिन शब्द बना है जि धातु से। जि माने जीतना। जिन माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं जिन। जैन धर्म अर्थात जिन भगवान का धर्म। जैन धर्म का परम पवित्र अनादि मूलमंत्र है- अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यो को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी है।
जैन धर्म में मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं-दिगम्बर, मुनि (श्रमण) वस्त्र नहीं पहनते हैं। श्वेताम्बर, सन्यासी सफेद वस्त्र पहनते हैं। श्वेताम्बर भी तीन भाग में विभक्त हैं। श्वेताम्बर आगम और दिगम्बर आगम जैन धर्म के मुख्य धर्म ग्रन्थ हैं। समस्त आगम ग्रन्थों को चार भागों में बाँटा गया है। 1. प्रथमानुयोग, 2. करनानुयोग, 3 चरर्नानुयोग और 4. द्रव्यानुयोग। अन्य ग्रन्थ इस प्रकार हैं- षट्खण्डागम, धवला टीका, महाधवला टीका, कसायपाहुड, जयधवला टीका, समयसार, योगसार प्रवचन सार, प´चास्तिकायसार, बारसाणुवेक्खा, आप्तमीमांसा, अष्टशती टीका, अष्टसहस्री टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्वार्थसूत्र, तत्वार्थराजवर्तिका टीका, तत्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, भगवती अराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह, अकलंकग्रन्थत्रयी, लघीस्त्रयी, न्यायकुमुदचन्द्र टीका, प्रमाण संग्रह, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चयविवरण, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, पुरूशार्थसिद्धयुपाय भद्रबाहु सहिंता।
जैन धर्म के प्रमुख त्योहार इस प्रकार हैं-पंचकल्याणक, महावीर जयंती, ओली, पज्जुषण, पर्जुषण, ऋषिपंचमी, दीवाली, ज्ञान पंचमी, देव दिवाली।
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1.निवृत्ति मार्ग-जैन धर्म भी बौद्ध धर्म की भाँति निवृत्ति मार्गी था। जैन धर्म मूलतः एक भिक्षु धर्म ही है।
2.ईश्वर- जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। वह ईश्वर को सृष्टिकर्ता भी नहीं मानता। इसका कारण है कि ऐसा मानने से उसे संसार के पापों और कुकर्मो का कर्ता भी मानना पड़ेगा।
3.सृष्टि- जैन धर्म संसार को शाश्वत, नित्य, अनश्वर और वास्तविक अस्तित्व वाला मानता है। पदार्थो का मूलतः नाश नहीं होता बल्कि उसका रूप परिवर्तित होता है।
4.कर्म- जैन धर्म मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य विधाता मानता है। अपने सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए उत्तरदायी है। उसके सारे सुख-दुःख कर्म के कारण ही है। उसके कर्म ही पुनर्जन्म के कारण हैं। मनुष्य 8 प्रकार के कर्म करता है- 1. ज्ञानवरणीय, 2. दर्शनवरणीय, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयुकर्म, 6. नामकर्म, 7. गोत्र कर्म और 8. अन्तराय कर्म। मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मफल का नाश करे और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहीत न करे। यह लक्ष्य ”त्रिरत्न“ के अनुशीलन और अभ्यास से प्राप्त होता है।
5.त्रिरत्न- जैन धर्म के त्रिरत्न हैं-1. सम्यक श्रद्धा, 2. सम्यक ज्ञान और 3. सम्यक आचरण। सत् में विश्वास सम्यक श्रद्धा है। सद्रूप का शंकाविहिन और वास्तविक ज्ञान, सम्यक ज्ञान है तथा बाह्य जगत के विषयों के प्रति सम दुःख-सुख भाव से उदासीनता ही सम्यक आचरण है।
6.ज्ञान- जैन धर्म के अनुसार पाँच प्रकार के ज्ञान हैं-1. मति, जो इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है। 2. श्रुति, जो सुनकर या वर्णन द्वारा प्राप्त होता है। 3. अवधि, जो दिव्य ज्ञान है। 4. मनः पर्याय, जो अन्य व्यक्तियों के मनःमस्तिष्क की बात जान लेने का ज्ञान है तथा 5. कैवल, जो पूर्ण ज्ञान है और निग्रन्थों को प्राप्त होता है।
7.स्याद्वाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगी का सिद्धान्त- जैन धर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण प्रत्येक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न हो सकता है। ज्ञान की यह विभिन्नता 7 प्रकार की हो सकती है 1. है, 2. नहीं हैं, 3. है और नहीं हैं, 4. कहा नहीं जा सकता, 5. है किन्तु कहा नहीं जा सकता, 6. नहीं है और कहा नहीं जा सकता, 7. है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता। इसे ही जैन में स्याद्वाद या अनेकांतवाद कहते हैं।
8.अनेकात्मवाद- जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है। उसके अनुसार भिन्न-भिन्न जीवों में आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।
9.निर्वाण- जैन धर्म का परम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति है। जीव के भौतिक अंश का नाश ही निर्वाण है। यह अंश तभी नष्ट होगा, जब मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जायेगा। अर्थात् सम्पूर्ण कर्मफल निरोध ही निर्वाण प्राप्ति का साधन है।
10.कायाक्लेष- जैन धर्म में जीव के भौतिक तत्व का दमन करने के लिए कायाक्लेष आवश्यक है, जिसके लिए तपस्या, व्रत, आत्महत्या करने का विधान है।
11.नग्नता- 23वें तीर्थंकर पाश्र्व ने अपने अनुयायियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी थी परन्तु महावीर पूर्ण नग्नता के समर्थक थे।
12.पंचमहाव्रत- जैन धर्म में भिक्षु वर्ग के लिए पाँच महाव्रत की व्यवस्था की गई है। 1. अहिंसा महाव्रत, 2. असत्य त्याग महाव्रत, 3. अस्तेय महाव्रत, 4. ब्रह्मचर्य महाव्रत और 5. अपरिग्रह महाव्रत।
13.पंच अणुव्रत- जैन धर्म में गृहस्थों के लिए पाँच अणुव्रत हैं- 1. अहिंसाणुव्रत, 2. सत्याणुव्रत, 3. अस्तेयाणुव्रत, 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत और 5. अपरिग्रहाणुव्रत।
14.पाप- जैन धर्म में 18 पाप हैं- 1. हिंसा, 2. असत्य, 3. चोरी, 4. मैथुन, 5. परिग्रह, 6. क्रोध, 7. मान, 8. माया, 9. लोभ, 10. राग, 11. द्वेष, 12. कलह, 13. दोषारोपण, 14. चुगली, 15. असंयम में रति और संयम में अरति, 16. परनिन्दा, 17. कपटपूर्ण मिथ्या तथा 18. मिथ्यादर्शनरूपी शल्य।
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