कलियुग के धर्म - 12. इस्लाम धर्म-मुहम्मद पैगम्बर-सन् 670 ई0
परिचय -
सन् 570 ई0 में मक्का मंे मुहम्मद कें जन्म के समय अरब धार्मिक रूप से आशान्ति की स्थिति मंे था। इसकी खानाबदोश मूलजातियों प्रायः मूर्तिपूजक थी। तथा वे तारों, पत्थरांे और भूत प्रेतों की पूजा किया करती थी। पाँच सौ साल पहले से येरूशलम के विध्वंस के उपरान्त बहुत से यहूदियों ने भी वहाँ अपने उपनिवेश बना लिये थे, जिसमें नेस्टोरियन (पुरोहित), ईरियन (परम्परावादी) और सैबेलियन (ईसाई) कुछ प्रमुख सम्प्रदाय थे। पर धार्मिक उपासनाओं के बहुत से अन्य रूप भी वहा प्रचलित थे। कुछ लोग हनीफ भी थे, जो किसी भी धािर्मक समुदाय से सम्बद्ध नहीं थे। मुहम्मद के आगमन के पहले भी अरब के अनेक स्थानीय व्यक्तियों ने धार्मिक एवं नैतिक सुधार की आवश्यकता का अनुभव किया। वस्तुतः चारो ओर यह अनुभव किया जा रहा था। अब एक मसीहा के प्रकट होने और नये की स्थापना करने का अवसर समीप आ रहा है। एक महान सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन की भूमिका निर्मित हो गयी थी। समय हो चुका था तथा वह मनुष्य प्रकट हुआ। मुहम्मद के पिता की मृत्यु उनके जन्म के पहले ही हो चुकी थी। छह वर्ष की अवस्था मंे बालक मुहम्मद की माता चल बसी। उसका लालन-पालन उसके चाचा अबू तालिब ने किया, जो यद्यपि उसके सन्देशांे पर विश्वास नहीं करते थे, पर वे जीवन भर उसके सर्वोत्कृष्ट मित्र और समर्थक बने रहे। पचीस वर्ष की अवस्था में मुहम्मद को अबू तालिब के प्रयासों से एक धनी विधवा महिला खादीजा की सेवा में ऊँटवान की नौकरी मिली और वे व्यापारिक सामान के काफिले के साथ सीरिया की यात्रा पर भेजे गये। खादीजा उनके काम की सफल व्यवस्था को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुई और यद्यपि वे मुहम्मद से उम्र मे काफी बड़ी थी, फिर भी उन्हांेने अपनी बहिन के हाथों नवयुवक मुहम्मद के पास शादी का पैगाम भेजा सारी बातंे तत्काल तय की गयी और मुहम्मद प्रतिष्ठित व्यक्ति बन गये। विवाह के बाद उन्होंने अपने व्यापार की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया तथा वे अपना अधिकतर समय एकान्त मंे ध्यान करने में बिताया करते। जब मुहम्मद चालीस वर्ष के थे, तब उन्हें मक्का के समीप की पहाड़ी की गुफा में पहली वाह्य ईश्वरानुभूति हुई। इस अनुभूति के पश्चात् उन्हें तथ्य की प्रतीति हुई कि उनके जीवन का एक महान उद्देश्य है और वे अपने लोगों को नैतिक पतन और भ्रष्ट मूर्तिपूजा से उपर उठाने के लिए आये है। इसलिए उन्हांेने घोषणा की कि अल्लाह ने उन्हें मानवजाति के लिए अपना रसूल (दूत) बनाया है। उन्हांेने अपनी वाह्य ईश्वरानुभूति के बारे मंे अपने सगे सम्बन्धियों और एक ईमानदार दोस्त अबू बक्र के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं बताया। वे बहुत समय घनिष्ठ मित्रों और जीवन सहचरी ने उन्हंे हौसला और दिलासा दिया तथा उन्होंने धीरे-धीरे अपना भय दूर किया और यह दृढ़ धारणा बनायी कि उनके जीवन का एक उद्देश्य है तथा उन्हें एक महान कार्य सम्पन्न करना है। जब उन्हांेने अपने देशवासियों की मूर्तिपूजा और अन्धविश्वासपूर्ण क्रियाओं की आलोचना की तब उन्हें मक्कावासियों के तरह-तरह के आरोपांे का सामना करना पड़ा और सभी प्रकार के अपमान सहने पड़े। इन समस्त प्रतिकूलताओं के बावजूद वे अपने दैवी प्रचार कार्य मंे लगे रहे जब उनके चाचा ने उनसे कहा कि वे मक्का निवासियों का मत बदलने का कार्य बन्द कर दे और इस प्रकार हमेशा के जंजाल से बच जाएँ, तब मुहम्मद ने कहा, ”भले ही वे लोग मेरे दाहिने हाथ मंे सूरज और बाएँ हाथ मंे चाद को रख दे ताकि मैं अपना काम छोड़ दूँ फिर भी मंै तब तक नहीं रूकँूगा जब तक अल्लाह इस काम को सफल नहीं बना देता या जब तक मैं ऐसा करते हुए मर नहीं जाता।“ उनके अनुयायियों की संख्या धीरे-धीेरे बढ़ने लगी। चार वर्षाे मंे लगभग चालीस लोगांे ने इस्लाम को ग्रहण किया मक्का के लोगांे के निरन्तर विरोध के कारण उन्हांेने मदीने की यात्रा (हिजरत) की और वहाँ अनेक लोगांे का मत परिर्वतन किया। इसी घटना से मुसलमानी युग या हिजरी सन् का आरम्भ होता है। अब मुहम्मद अपने मित्रो के साथ थे। उनके अनुयायियो की संख्या बढ़ती गयी और एक समय जिस शिक्षा को अपमानित किया गया था, वह एक शहर और शक्तिशाली जाति का शासक हो गया। अरब के सभी भागांे में और समीप के मित्र एवं फारस जैसे देशांे में धर्मप्रचारक भेजे गये तथा एक वर्ष के बाद पैगम्बर ने अपने शत्रुओं की पवित्र नगरी की यात्रा संपन्न की। मक्का पर अन्तिम विजय प्राप्त हुई। खैबर में एक यहूदी स्त्री द्वारा विष दिये जाने के कारण उनका महान कर्ममय जीवन समाप्त हो गया। उनके अन्तिम शब्द थे, ”प्रत्येक मनुष्य को अपनी मुक्ति के लिए साधना करनी होगी।“ इस प्रकार इस्लाम के नबी (प्रचारक) ने अन्तिम सासें ली, किन्तु उनका ईश्वरीय आलोक आज भी उन स्थानों मंे विद्यमान है, जहाँ इस्लाम की प्रभुता है। मुहम्मद अत्यंत आकर्षक व्यक्त्वि के धनी थे। वे सामान्य कद के वृषभस्कन्धयुक्त, सूदृढ़ शरीर और मोहक रूपवाले थे। उनके नेत्र एवं केश अत्यंत श्यामलाल थे उनकी सुदीर्घ दाढ़ी थी। वे अत्यंत मेधवान थे। उनका व्यवहार संयत होते हुए भी विनम्र एवं स्नेहपूर्ण था। उनका चरित्र अलैाकिक शक्तिक्षमता सूक्ष्मदर्शिता एवं विवेक से परिपूर्ण था।
मुहम्मद पैगम्बर की वाणी
एक आदमी ने पूछा ऐ अल्लाह के रसूल, इस्लाम का सर्वाेत्कृष्ट अंग कौन सा है? उन्हांेने कहा यह कि तू भूखांे को खाना खिला और तू जिन्हंे जानता है और जिन्हंे नहीं जानता, उन सबको सलाम कर। एकाधिकार इसलाम मंे गैरकानूनी है। प्रत्येक धर्म का विशिष्ट गुण होता है। तथा इसलाम का विशिष्ट गुण है-विनम्रता। मंैनंे पूछा इस्लाम क्या है? पैगम्बर ने जबाव दिया जुबान पर ”मिठास और मेहमाननवाजी“। इस्लाम ने मुझसे (अन्नास से) कहा बेटा अगर तुम कर सको तो अपने दिल में सुबह से रात तक और रात से सुबह तक किसी के प्रति दुर्भावना न रखो। फिर उन्हांेने कहा ऐ मेरे बेटे मेरी शरीअतांे (विधानांे) में से एक यह है कि जो मेरी शरीअतों से प्रेम करता है। वह वस्तुतः मुझसे प्रेम करता है। अल्लाह के सबसे बड़े दुश्मन वे लोग है जो इस्लाम को कबूल करते है। और भ्रष्टाचार करते है। और जो बिना किसी वजह के आदमियांे का ख्ूान बहाते हंै। मैंनें हजरत से पूछा की सबसे अच्छा ईमान क्या है और उन्हांेने कहा उनसे प्रेम करना जो अल्लाह से प्रेम करते है। और उनसे नफरत करना जो अल्लाह से नफरत करते है और अपनी जुबान से अल्लाह का नाम लेते रहना। इसके अलावा उन्हांेनंे कहा सभी मनुष्यो के साथ वैसी ही व्यवहार करो, जैसा तुम अपने लिए चाहते हो और वह न करो, जैसा तुम नहीं चाहते। भूखे को खाना दो, बीमार की देखभाल करो और अगर कोई अनुचित रूप से बन्दी बनाया गया है तो उसे मुक्त करो। आफत के मारे प्रत्येक व्यक्ति की सहायता करो। भले ही वह मुसलमान हो या गैर मुसलमान हों। सारे मुसलमान एक आदमी के समान हंै। जब किसी आदमी के सिर में दर्द होता है तो उसका सारा शरीर अस्वस्थ हो जाता है और जब उसकी आँख मंे पीड़ा होती है तो सारा शरीर पीड़ित हो जाता है। वह व्यक्ति विवेकी और विचारवान होता है। जो अपनी शारीरिक कामनाआंे को प्रशमित करता है। और नेमत (वरदान) की उम्मीद करता है। तथा वह व्यक्ति अज्ञानी है जो अपनी वासना की भूख के पीछे दौड़ता है तथा साथ ही अल्लाह से क्षमा याचना करता है। जो व्यक्ति एक उत्पीड़नकारी प्रशासन के सामने न्याययुक्त बात करता है। उसका जिहाद (धर्मयुद्ध) सर्वाेत्तम है। जब तुममें से कोई ऐसे व्यक्ति को देखे जो धन और ऐश्वर्य में उससे बड़ा है तो उसे चाहिए कि वह अपने से छोटे व्यक्ति को देखे ऐसा करना अधिक सही है, जिससे तुम अपने प्रति अल्लाह के रहम का तिरस्कार न करो। जो भी संयमित रहेगा अल्लाह उसे संयमित रखेगंे जो भी अपने को स्वतन्त्र रखेगा, अल्लाह उसे स्वतन्त्र रखेगंे, जो भी उसूल का पक्का होगा अल्लाह उसे उसूल का पक्का रखेगंे और इससे बढ़कर दान और कुछ नहीं हो सकता है। अल्लाह ने बुद्धि से अच्छी कोई चीज या बुद्धि से अधिक पूर्ण और अधिक सुन्दर वस्तु नहीं बनायी है। अल्लाह ने जो नीमते दी है, वह इसी के कारण है, इसी के द्वारा समझा जाता है कि और इसी से अल्लाह का गुस्सा जागता हैै। इसी से पुरस्कार और दण्ड होते है और जो अल्लाह से मिलना पसन्द करता है। अल्लाह भी उससे मिलना पसन्द करता है। अल्लाह कहता है-मेरे बन्दांे मेरे बारे में जो सोचता है। मैं उस विचार के साथ होता हूँ और जब वह मेरी याद करता है। तब मंै उसके साथ होता हूँ। और जब अपने मन में मेरी याद करता है तो मैं भी अपने मन में उसको याद करता हँू। और यदि वह लोगांे के बीच मेरी याद करता है। तो मैं भी लोगांे के बीच उनसे अच्छी तरह उसकी याद करता हूँ। अल्लाह कहता है- जिसे मैं अपना बन्दा समझता हूँ, मैं उसकी श्रुति हूँ जिससे वह सुनता है और उसकी दृष्टि हूँ जिससे वह देखता है। उसका हाथ हूँ जिससे वह पकड़ता है। और मंै पँाव हूँ जिससे वह चलता है। अल्लाह एकत्वमय है और वह एकता पसन्द करता है। अल्लाह की नजर में वह व्यक्ति सार्वाधिक प्रिय और कयामत के दिन उसके सिंहासन के सार्वाधिक निकट होगा जो एक न्यायी नेता होगा और अल्लाह की नजर में सभी से तुच्छ तथा आखरत के दिन उसके सिंहासन से सबसे दूर एक अत्याचारी नेता होगा। एक माता की बच्चे के प्रति जो करूणा होती है। दरअसल अल्लाह अपने प्राणियों के प्रति उससे भी अधिक करूणावान है। ईमानवाले (अर्थात मुसलमान) वे हंै जो अपनी अमानतों और प्रतीज्ञा का ध्यान रखते हंै और अपनी नमाजों की रक्षा करते है। इमान सभी प्रकार की हिंसाओ का नियमन करता है। मोमिनों को हिंसा न करने दो। तुममें से कोई तब तक ईमानवाला नहीं होगा जब तक वह मुझे अपने बाप और अपने बेटे और सारी इन्सानियत से अधिक प्रिय नहीं समझता। तुममें से कोई अगर गलती देखे, तो उसे अपने हाथो से दूर करे और यदि वह (दूर) न कर सके तो वह अपनी जुबान से (उसके विरोध मं)े बोले और यदि इतना भी नहीं कर सके तो वह अपने दिल में प्रायश्चित करे और यह इमान का छोटा से छोटा रूप है। जो अपनी जिन्दगी ज्ञानोपार्जन मंे लगा देता है। उसकी मौत नहीं होती। जो ज्ञानी का आदर करता है, वह मेरा आदर करता है। पालने से लेकर कब्र तक ज्ञान की खोज करो। अत्यधिक ज्ञान, अत्यधिक इबादत से बेहतर है, दीन का आधार संयम है जो भी ज्ञान की खोज करता है। और उसे पा जाता है, उसे दो इनाम मिलेंगें। एक इनाम ज्ञान की कामना के लिए, दूसरा इस पाने के लिए इसलिए भले वह न मिले पर उसे एक इनाम तो मिलेगा ही। जो अपने आप को जानता है, वह अल्लाह को जानता है। ज्ञानियों की बातो को सुनना तथा विज्ञान के सीखो को दूसरो को बताना बेहतर धर्माचरण है। जो ज्ञान की खोज मंे घर बार छोड़ देता है, वह अल्लाह के रास्ते पर चलता है। विद्वान की स्याही शहीद के खून से भी अधिक पाक होती है। ज्ञानोपार्जन प्रत्येक मुसलमान स्त्री और पुरूष का एक अनिवार्य कर्तव्य है। ज्ञान प्राप्त करो। वह व्यक्ति को सही गलत में विवेक करने के योग्य बनाता है, वह जन्नत के रास्ते को उजाला करता है। वह रेगिस्तान मंे हमारा दोस्त है। एकाकीपन में हमारा समाज है, मित्रहीन का साथी है। वह हमंे खुशियों का रास्ता दिखाता है। वह मुसीबतों में हमारी रक्षा करता है। दोस्तांे के बीच एक आभूषण है और दुश्मनों के खिलाफ कवच है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति नेकी की ऊँचाइयों तक पहँूचता है और प्रतिष्ठा पाता है। इस संसार मंे बादशाहों से मैत्री करता है। तथा दूसरे (आखिरत या भविष्यत् जीवन) मंे परिपूर्ण आनन्द प्राप्त करता है। सबसे अच्छा आदमी वह है जिससे मानवता की भलाई होती है। क्या तुम अपने सृष्टा से प्रेम करते हो? पहले अपने साथ के प्राणियांे से प्रेम करो। सबसे अच्छा जिहाद (धर्मयुद्ध) वह है जो अपने आप का जीतने के लिए किया जाय। जहन्नम खुशियों मंे और जन्नत परिश्रम और कष्टांे में छिपा रहता है। सारे काम उनके पीछे छिपी नीयत से परखे जाते है। संसार के प्रति आसक्ति ही सारी बुराइयो की जड़ है। धन के बोझ से झुके आदमी के लिए ईश्वरीय आनन्द तक पहुँचाने वाले दुर्गम रास्ते पर चढ़ना कठिन होता है। अल्लाह उस पर मेहरबान नहीं होता है। मानवतावाद के प्रति वैसा नहीं है। दुनिया मंे एक मुसाफिर या अजनबी की तरह रहो और अपने आपको मृतको मंे गिनो जब आदमी मरता है तब केवल तीन के अतिरिक्त उसे सारे काम खत्म हो जाते है। जकात (दान) जो चलता रहता है। ज्ञान जिससे सभी लाभ उठाते हंै और नैतिक कार्य जो उसके लिए दुआ माँगते है। वह जो आदमीयांे का शुक्रगुजार नहीं है, वह अल्लाह का शुक्रगुजार भी नहीं होता। सूद लेने वाला और सूद देने वाला और सूद के कागजात लिखने वाला तथा उसकी गवाही देने वाला, ये सब समान रूप से गुनाहगार हैं। एकाधिकार रखने वाला पापी और अन्यायी है। कोई आदमी सच्चे शब्द के अर्थ मंे तब तक सच्चा नहीं होता जब तक कर्म में वाणी में और विचार में वह सच्चा नहीं होता है। आदमियांे की दिमागी कूवत के मुताबिक उनसे बोलो क्योंकि अगर तुम सभी आदमियों को सारी बातें बताओगे तो कुछ तो तुम्हंे समझ नहीं पाएगंे और इस प्रकार गलतियों मे फँस जाएगंे। अकेला रहना बुरे आदमी के साथ रहने से बेहतर है और एक अच्छा साथी अकेले रहने से बेहतर है और भलाई का हुक्म देना चुप रहने से अच्छा और बुराई का हुक्म देने से चुप रहना अच्छा है। असल में लालच ही गरीबी है और किसी उम्मीद का न रखना ही अमीरी है, जो आदमी किसी की उम्मीद नहीं करता वह आजाद होता है। जब दो पक्ष तेरे पास फैसले के लिए आएँ तो दूसरे पक्ष की बात सुने बिना केवल एक पक्ष की बात सुनकर फैसला मत दे क्यांेकि तेरे लिए वस्तुस्थिति की पूरी तरह से जानना बहुत मुनासिब है। औरतांे को मस्जिद मंे आने से न रोको मगर उनका घर ही उनके लिए बेहतर है। मेरी प्रशंसा करने में हद से बाहर न जाओ। मैं तो अल्लाह का खिदमतगार हूँ इसलिए मुझे अल्लाह का खिदमतगार या उसका नबी (सन्देशवाहक) कहो।
इस्लाम धर्म
इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म के बाद अनुयाइयों के आधार पर दुनिया का दूसरा सब से बड़ा धर्म है। इस्लाम शब्द अरबी भाषा का सल्म से उच्चारण है। इसका अर्थ होता है- शान्त होना तथा दूसरा अर्थ है-समर्पण। इस्लामी विचारों के अनुसार- ईश्वर द्वारा प्रथम मानव (आदम) की रचनाकर इस धरती पर अवतरित किया गया और उन्हीं से उसका जोड़ा बनाया गया जिससे सन्तानोत्पत्ति का क्रम आरम्भ हुआ। और वह निर्बाध जारी है। आदम (उन पर शान्ति हो) को ईश्वर (अल्लाह) ने जीवन व्यतीत करने हेतू विधि-विधान (दीन-धर्म) से सीधे अवगत करा दिया और उन्हें मानवजाति के प्रथम ईवश्वरीय दूत (पैगम्बर) के पद पर भी आसीन किया। आदम की प्रारम्भिक सन्तानें धर्म के मौलिक सिद्धान्तो- एक ईश्वर, मृत्यु पश्चात पुनः जीवन, स्वर्ग का होना, नरक का होना, फरिश्तों (देवताओं), ईशग्रन्थों, ईशदूतों, कर्म के आधार पर दण्ड और पुरस्कार पर सशक्त विश्वास करते थे और इन्हीं सिद्धान्तों को आने वाली पीढ़ी में भी हस्तान्तरित करते थे। कालान्तर में जब मनुष्य जाति का विस्तार होता चला गया और वह अपनी आजीविका की खोज में पृथक-पृथक जनसमूह के साथ सुदूरपूर्व तक चारो ओर तक फैलते रहे। इस प्रकार परिस्थितिवश उनका सम्पर्क लगभग समाप्त होता रहा। उन्होंने अपने मौलिक ज्ञान को विस्मृत करना तथा विशेष सिद्धान्तों का जो अटल थे, अपनी सुविधानुसार और अपने पाश्विक प्रवृत्तियों के कारण अनुमान व अटकल द्वारा परिवर्तित कर प्रचलित कर दिये। इस प्रकार अपनी धारणाओं के अनुसार मानवजाति दो प्रमुख भागो में विभक्त हो गये। एक समूह ईश्वरीय दूतों के बताए हुए सिद्धान्तों (ज्ञान) के द्वारा अपना जीवन समर्पित (मुस्लिम) होकर संचालित किये। दूसरा समूह जो अपने सीमित ज्ञान (अटकल-अनुमान) की प्रवृत्ति ग्रहण करके ईश्वरीय दूतों से विमुख (काफिर) होने की नीति अपनाकर जीवन व्यतीत किये।
इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धान्त अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हजरत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। यही बात उनके ”कलमे“ में दोहराई जाती है- ”ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह“ अर्थात अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरी सत्ता नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर हैं। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले मुसलमान यह कलमा पढ़ते हैं। इस्लाम में अल्लाह को कुछ हद तक साकार माना गया है जो इस दुनिया से काफी दूर सातवें आसमान पर रहता है। वह अभाव (शून्य) में सिर्फ ”कुन“ कहकर ही सृष्टि रचता है। उसकी रचनाओं में आग से बने फरिश्ते और मिट्टी से बने मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हैं। गुमराह फरिश्तांे को ”शैतान“ कहा जाता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य सिर्फ एक बार दुनिया में जन्म लेता है। मृत्यु के पश्चात् पुनः वह ईश्वरीय निर्णय (कयामत) के दिन जी उठता है और मनुष्य के रूप में किये गये अपने कर्मो के अनुसार ही ”जन्नत (स्वर्ग)“ और ”नरक“ पाता है।
इस्लाम एकेश्वरवाद को मानता है। जिसे मुसलमान अल्लाह फारसी में खुदा कहते हैं। एकेश्वरवाद को अरबी में तौहीद कहते हैं, जो शब्द वाहिद से आता है जिसका अर्थ है- एक। इस्लाम में देवताओं और मूर्तियों की पूजा करना मना है। ंइसके अनुयायियों का प्रमुख विश्वास है कि ईश्वर केवल एक है और पूरी सृष्टि में केवल वह ही प्रार्थना (इबादत) के योग्य है, और सृष्टि में हर वस्तु, जीवित और अजीवित, दृश्य और अदृश्य उसकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पित और शान्त है। इस्लाम में ईश्वर को मानव की समझ से ऊपर समझा जाता है। मुसलमानों से ईश्वर की कल्पना करने के बजाय, उसकी प्रार्थना और जय-जयकार करने को कहा गया है। मुसलमानों के अनुसार ईश्वर अद्वितीय है, उसके जैसा और कोई नहीं। इस्लाम में ईश्वर की एक विलक्षण अवधारणा पर बल दिया गया है। साथ में यह भी माना जाता है कि उसकी पूरी कल्पना मनुष्य के बस में नहीं है।
इस्लाम के अनुसार, ईश्वर ने धरती पर मनुष्यों के मार्गदर्शन के लिए समय-समय पर किसी व्यक्ति को अपना दूत बनाया। यह दूत भी मनुष्य जाति में से होते थे और ईश्वर की ओर लोगों को बुलाते थे। ईश्वर इन दूतो से विभिन्न रूपों से सम्पर्क रखते थे। इन को इस्लाम में नबी कहते हैं। जिन नबियों को ईश्वर ने स्वयं, शास्त्र या धर्म पुस्तकें प्रदान कीं उन्हें रसूल कहते हैं। मुहम्मद साहब भी इसी कड़ी के भाग थे। उनको जो धार्मिक पुस्तक प्रदान की गयी उसका नाम कुरआन है। कुरान में ईश्वर के 25 अन्य नबियों का वर्णन है। स्वयं कुरआन के अनुसार, ईश्वर ने इन नबियों के अलावा धरती पर और भी कई नबी भेजें हैं जिनका वर्णन कुरआन में नहीं है। सभी मुसलमान ईश्वर द्वारा भेजे गये सभी नबियों की वैधता स्वीकार करते हैं और मुसलमान, मुहम्मद साहब को ईश्वर का अन्तिम नबी मानते हैं। अहमदिया समुदाय के लोग मुहम्मद साहब को अन्तिम नबी नहीं मानते हैं और स्वयं को इस्लाम का अनुयायी भी कहते हैं। कई अन्य प्रतिष्ठित मुसलमान विद्वान समय-समय पर पहले भी मुहम्मद साहब के अन्तिम नबी होने पर प्रश्न उठा चुके हैं।
मुसलमान देवदूतों, अरबी में मलाइका के अस्तित्व को मानते हैं। उनके अनुसार देवदूत स्वयं कोई इच्छाशक्ति नहीं रखते और केवल ईश्वर की आज्ञा का पालन ही करते हैं। वह केवल रोशनी से बनी हुई अमूर्त और निर्दोष आकृतियाँ हैं जो कि न पुरूष हैं, न स्त्री, बल्कि मनुष्य से हर दृष्टि से अलग हैं। हालांकि अगणनीय देवदूत हैं, पर चार देवदूत कुरान में प्रभाव रखते हैं। 1. जिब्राइल, जो नबीयों और रसमलों को ईश्वर का सन्देश ला कर देता है। 2. इज्राईल, जो ईश्वर के समादेश से मृत्यु का दूत, जो मनुष्य की आत्मा ले जाता है।, 3. मीकाईल, जो ईश्वर के समादेश पर मौसम बदलता है। और 4. इस्राफील, जो ईश्वर के समादेश पर प्रलय के दिन के आरम्भ पर एक आवाज देगा।
मध्य एशिया के अन्य धर्मो के समान इस्लाम में भी प्रलय का दिन माना जाता है। इसके अनुसार ईश्वर एक दिन संसार को समाप्त करेगा। यह दिन कब आयेगा इसकी सही जानकारी केवल ईश्वर को ही हे। इसे मुसलमान प्रलय का दिन कहते हैं। इस्लाम में शारीरिक रूप से सभी मरे हुए लोगों का उस दिन जी उठने पर बहुत बल दिया गया है। उस दिन हर मनुष्य को उसके अच्छे-बुरे कर्मो का फल दिया जायेगा। इस्लाम के अनुसार प्रलय के दिन के बाद दोबारा संसार की रचना नहीं होगी। मुसलमान भाग्य को मानते हैं। भाग्य का अर्थ इनके लिए यह है कि ईश्वर बीते हुए समय, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब जानता है। कोई भी घटना उसकी अनुमति के बिना नहीं हो सकती है। मनुष्य को अपनी इच्छा से जीने की स्वतन्त्रता तो है पर इसकी अनुमति भी ईश्वर ही के द्वारा उसे दी गयी है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य अपने कुकर्मो के लिए स्वयं उत्तरदायी इसलिये है क्योंकि उन्हें करने या न करने का निर्णय ईश्वर मनुष्य को स्वयं ही लेने देता है। उसके कुकर्मो का भी पूर्व ज्ञान ईश्वर को होता है।
इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम कुरआन है जिसका हिन्दी अर्थ है- सस्वर पाठ। इसके अनुयायियों को अरबी में मुस्लिम कहा जाता है जिसका बहुवचन मुसलमान होता है। मुसलमान यह विश्वास रखते हैं कि कुरआन जिब्राईल अलेही सलाम, ईसाईत में गैब्रिएल नामक एक देवदूत के द्वारा, मुहम्मद साहब को 7वीं सदी के अरब में, लगभग 23 वर्ष की आयु में कण्ठस्थ कराया गया था। मुसलमान, इस्लाम को कोई नया धर्म नहीं मानते, उनके अनुसार ईश्वर ने मुहम्मद साहब से पहले भी धरती पर कई दूत (नबी) भेजें है, जिनमें इब्राहीम, मूसा और ईसा सम्मिलित हैं। मुसलमानों के अनुसार मूसा अलेही सलाम और ईसा अलेही सलाम के कई उपदेशों को लागों ने विकृत कर दिया। अधिकतम मुसलमानों के लिए मुहम्मद साहब ईश्वर के अन्तिम दूत थे और कुरआन मनुष्य जाति के लिए अन्तिम सन्देश है। मुसलमानो के लिए ईश्वर द्वारा रसूलों को प्रदान की गई सभी धार्मिक पुस्तकें वैध हैं। मुसलमानों के अनुसार कुरआन ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान की गई अन्तिम धार्मिक पुस्तक है। कुरआन में चार और पुस्तकों की चर्चा है- 1. सहूफ ए इब्राहीमी, जो कि इब्राहीम को प्रदान की गयीं। अब यह लुप्त है। 2. तौरात, जो कि मूसा को प्रदान की गयी। 3. जबूर, जो कि दाउद को प्रदान की गयी और 4. इंजील, जो कि ईसा को प्रदान की गयी। मुसलमान यह समझते हैं कि ईसाइयों और यहूदियों ने अपनी पुस्तकों के सन्देशों में बदलाव कर दिये हैं। वह इन चारों के अलावा अन्य धार्मिक पुस्तकों के होने की सम्भावना से मना नहीं करते हैं।
इस्लाम में दो मुख्य सम्प्रदाय हैं- शिया औ सुन्नी। अली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग का यह मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद साहब के परिवार का ही हो सकता है। उनका मानना था कि यह खलीफा, जिसे वह ईमाम भी कहते थें, स्वयं भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। यह वर्ग शिया वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाकी मुसलमान, जो कि यह नहीं मानते कि मुहम्मद साहब का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी कहलाये। सुन्नी, पहले चारों खलीफाओं को राशिदून खलीफा कहते हैं, जिसका अर्थ है- सही मार्ग पर चलने वाले खलीफा। मुआविया के खलीफा बनने के बाद खिलाफत वंशानुगत हो गयी। इससे उम्मयद वंश का आरम्भ हुआ। मुआविया रजी के बेटे यजीद की वैधता पर जब अली के बेटे हुसैन ने चुनौति दी तो दोनों के बीच 680 ई0 में जंग हुई जिसे जंग-ए-करबला कहते हैं। यह इस्लाम का दूसरा गृहयुद्ध था। इस जंग में हुसैन को शहादत प्राप्त हो गयी। शिया लोग 10 मुहर्रम के दिन इसी का शोक मनाते हैं।
पैगम्बर मुहम्मद की कही हुई बातें और उनकी स्मृतियों का ”हदीस“ नामक ग्रन्थ में संग्रह है। इस्लाम में शरीयत का तात्पर्य धार्मिक विधिशास्त्र से है। वे कानून जो शरीफ तथा हदीस के विवरणों पर आधारित होते हैं तथा इस्लाम के आचार व्यवहार का पालन करते हैं, शरीयत के अन्तर्गत आते हैं। शरीयत के चार प्रमुख स्रोत हैं। 1. कुरान मजीद, 2. हदीस या सुन्नत, 3. इज्माअ तथा 4. किआस। इन चारों को इस्लाम की आधारशीला भी माना जाता हैं। मुसलमानों के लिए इस्लाम जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव रखता है। इस्लामी सिद्धान्त मुसलमानों के घरेलू जीवन, उनके राजनैतिक या आर्थिक जीवन, मुसलमान राज्यों की विदेश नीति इत्यादि पर प्रभाव डालते हैं। शरीयत उस समुच्चय नीति को कहते हैं जो इस्लामी कानूनी परम्पराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है। शरीयत की नीति को नींव बनाकर न्यायशास्त्र के अध्ययन को फिकह कहते है। फिकह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग-अलग व्याख्याओं के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बँट गया और कई अलग-अलग न्यायशास्त्र से सम्बन्धित विचारधाराओं का जन्म हुआ। इन्हें पन्थ कहते हैं। सुन्नी इस्लाम के प्रमुख पन्थ हैं- 1. हनफी पन्थ, इसके अनुयायी दक्षिण और एशिया में हैं।, 2. मालिकी पन्थ, इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ भागों में हैं।, 3. शाफ्यी पन्थ, इसके अनुयायी पूर्वी अफ्रीका, अरब के कुछ भाग और दक्षिण-पूर्व एशिया में हैं। और 4. हंबली पन्थ, इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं। अधिकतर मुसलमानों का मानना है कि चारों पन्थ आधारभूत रूप से सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वह न्यायशास्त्र की बारीक व्याख्याओं को लेकर है।
इस्लाम धर्म में कर्म के पाँच भेद किये जाते हैं- 1. नित्य, वे आधारभूत कर्म हैं जिन्हे हर रोज करना चाहिए। प्रतिदिन पाँच (फजर, जुहर, असर, मगरिब, ईशा) वक्त नमाज पढ़ना। जरूरतमंदो को जकात (दान) देना। रमजान के महीने में सूर्याेदय के पहले से लेकर सूर्यास्त तक रोजा रखना। जीवन में कम से कम एक बार हज अर्थात मक्का स्थित काबा की यात्रा करना। इस्लाम की रक्षा के लिए जिहाद (धर्मयुद्ध) करना। 2. नैमित्तिक कर्म, वे कर्म हैं जिन्हें करने पर पुण्य होता है परन्तु न करने पर पाप नहीं होता। 3. काम्य, वे कर्म हैं जो किसी कामना की पूर्ति के लिए किये जाते हैं। 4. असम्मत, वे कर्म हैं जिनको करने की धर्म सम्मति तो नहीं देता, किन्तु करने पर कर्ता को दण्डनीय भी नहीं ठहराता। 5. निषिद्ध (हराम) कर्म, वे कर्म हैं जिन्हें करने की धर्म मनाही करता है और इसके कर्ता को दण्डनीय ठहराता है।
इस्लाम के दोनों प्रमुख वर्ग शिया और सुन्नी के अपने’अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। सुन्नी मुसलमान के 5 आवश्यक कत्र्तव्य होते हेैं जिन्हें इस्लाम के 5 स्तम्भ भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धान्तों को स्तम्भ कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के 5 स्तम्भ हैं-
1.साक्षी होना (शहादत), इस का शाब्दिक अर्थ है- गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ इस अरबी घोषणा से है-”ईश्वर के सिवा और कोई पूजनीय नहीं और मुहम्मद ईश्वर के रसूल हैं“। इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद साहब के रसमल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है। एक गैर-मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करने के लिए केवल इसे स्वीकार कर लेना पर्याप्त है।
2.प्रार्थना (सलात), इसे हिन्दुस्तानी में नमाज भी कहते हैं। इस्लाम के अनुसार नमाज, ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह मक्का की ओर मुँह करके पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिए दिन में 5 बार नमाज पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बिमारी की हालत में इसे टाला जा सकता है और बाद में छुटी हुई नमाजें पढ़ी जा सकती हैं।
3.दान (जकात), यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धनों को देना अनिवार्य है। अधिकतम मुसलमान अपनी वार्षिक आय का 2.5 प्रतिशत दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कत्र्तव्य इसलिए है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पूंजी वास्तव में ईश्वर की देन है।
4.व्रत (सौम), इसके अनुसार इस्लामी कैलेण्डर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिए सूर्योदय से सूर्यास्त तक व्रत रखना अनिवार्य है। इस व्रत को रोजा कहते हैं। रोजे में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित है। यौन गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। रोजा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह है कि दुनिया की बाकी आर्कषणों से ध्यान हटाकर ईश्वर से निकटता अनुभव किया जाए और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो।
5.तीर्थ यात्रा (हज), उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के 12वें महीने में मक्का में जाकर की जाती है।
शुक्रवार, 16 जुलाई, 622 को हिजरी संवत् का प्रारम्भ हुआ क्योंकि उसी दिन हजरत मुहम्मद मक्का के पुरोहितों एवं सत्ताधारी वर्ग के दबावों के कारण मक्का छोड़कर मदीना की ओर कूच कर गये थे। खलीफा उमर की आज्ञा से प्रारम्भ हिजरी सुवत् में 12 चन्द्रमास होते हैं जिसमें 30 और 29 दिन के मास एक दूसरे के बाद पड़ते हैं। वर्ष में 354 दिन होते हैं फलतः यह सौर संवत् के वर्ष से 11 दिन छोटा हो जाता है। इस अन्तर को पूरा करने के लिए प्रत्येक 30 वर्ष बाद जिलाहिजा महीने में कुछ दिन जोड़ दिये जाते हैं। हिजरी संवत् के महीने हैं-1. मोहर्रम-उल-हराम, 2. सफर, 3. रबी-उल-अव्वल, 4. उबी-उल-सानी, 5. जमादी-उल-अव्वल, 6. जमादी-उस-सानी, 7. रजब, 8. शाबान, 9. रमजान-उल-मुबारिक, 10. शवाल, 11. जीकादा और 12. जिलहिजा।
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